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फ़िरदौस

1. घास उगती है. गौरैयाँ कुछ देर ज़मीन पर फुदकती हैं, फिर उड़ान भर लेती हैं. समुद्र की लहरें भी उठती हैं और किनारे पर सिर फोड़ कर मिट जाती हैं. मेरे पास मेरे स्पंज हैं. मैं उन्हीं को बढ़ते हुए फिर मरते हुए देखता हूँ. उनकी औलाद को भी बढ़ते हुए और मरते हुए देखूँगा. मैं भी एक दिन नहीं रहूँगा. समय की ईमानदार गति चुपचाप और सस्नेह देखना मुझे मंज़ूर है. मगर वो जो ग़लत था, उसे मैं अनदेखा कर दूँ, ध्यान ही न दूँ, चुप रहूँ, ऐसा हर्गिज़ नहीं होने दूँगा.

2. पानी में दो सौ फ़ीट नीचे, मालिबू के तट पर, मेरी लैब की टीम नीले और पीले स्पंजों की प्रगति रिक़ॉर्ड करने आई है. तस्वीरें और अन्य परीक्षणों के लिये सैम्पल मेरे छात्र ले रहे हैं. मैं सिर्फ़ स्पंज देखने आया हूँ, उनसे मिलने आया हूँ. आज हमने एक लघु-सफ़लता हासिल की है. दो सालों से मैं और मेरे छात्र अचम्भित थे, विचार-मग्न थे, विभिन्न योजनाओं को कार्यान्वित करने में व्यस्त थे. हमने नीले स्पन्जों की कॉलोनी में एक इकलौता पीला स्पन्ज छोड़ दिया था. नीला स्पन्ज, जिन्हें हम वैज्ञानिक ए.सी.जी. के नाम से बुलाते हैं, ऐसा पदार्थ बनाता है जो सुअरों में पाचक-ग्रन्थि के कैन्सर-युक्त सैल मार सकता है, लेकिन मनुष्य में पूर्णतः अशक्त है. हमारी कोशिशें पीले और नीले स्पन्ज के संकरण में लगी थीं. उम्मीद ये थी कि ऐसा संकर इन्सानों के कैन्सर के इलाज में प्रभावशाली होगा. लेकिन आरम्भ से ही इन स्पन्जों ने एक दूसरों को स्वीकार नहीं किया. नीले स्पन्ज आपस में खुश थे, पीले स्पन्ज पर ध्यान ही नहीं देते थे. या तो पीला स्पन्ज समय के साथ मर जाता था या फिर उसमें किल्ले फूटने लगते थे, मतलब वो अपनी ही प्रतिलिपियाँ बनाने लगता था. आज सवेरे ब्रायन, मेरे छात्र, ने उस ब्रेकथ्रू की सूचना दी जिसका हम दो सालों से इंतज़ार कर रहे थे. नीले स्पन्जों में से एक स्पन्ज ने ऐसा औलाद पैदा किया जो नीला नहीं था.

जलमग्न, मैं रेतीले तल के निकट तैर रहा था. फ़िल्म की तरह मेरे सामने विभिन्न प्रकार के तारामीन, पैन्सिल सी-अर्चिन, तल-स्पर्शी मछलियों के झुंड के झुंड प्रकट हो रहे थे. फिर सामने आ गया एक स्पन्ज, छोटा-सा, सिर पर तीन सीपों वाली टोपी धरे, नीला, मशरूम की आकार का. मैं तेज़ी से पैर खेने लगा. वो टीला जो हवा और पानी जिस सतह पर मिलते हैं उसे चीरते हुए ऊपर आसमान को छूने दौड़ते हुए दीख रहा था, उस टीले की ओर. टीले के पीछे बहुत बड़ा नीले स्पंजों का मैदान है. इंडिगोलैंड नाम रखा है मेरे छात्रों ने इसका. जल्द ही वो इकलौता पीला स्पंज भी नज़र आने लगा. मैं स्पंजों के मैदान के काफ़ी समीप आ गया. देर तक वहीं तैरता रहा. जानता हूँ उन्हें अच्छी तरह. एक जीव-वैज्ञानिक को अपने जीवित सैम्पल को समझना और उनसे एक न्यूनतम सम्बन्ध बनाए रख पाना आता है. मेरे लिये ये बात एकदम स्पष्ट है कि सभी जीवों को एक ही परमात्म तत्व ने पिरोया है, बस भाषा अनजानी है. हमारे बीच कोई फ़िरोमोन कनैक्शन है जिस से हम एक दूसरे को समझ पाते हैं. मैंने स्पंजों पर उँगलियाँ फिराईं और वापस जाने को मुड़ गया. धीमे-धीमे मँडराती हुई, चुस्त, तनी, सजी-सँवरी कैल्प-घास के वन में ख़रामा-ख़रामा बुनते-तैरते हुए कई रंगीन मछलियों का झुंड सामने से निकले जा रहा था. दंग-सी थीं वे मछलियाँ. जैसे किसी और काल में फँसी हुई हों. इतनी सारी कि सम्पूर्ण दृश्य काल्पनिक लग रहा था. अन्तर्जलीय जीवन की शोभा-यात्रा मेरे सामने से निकल रही थी जैसे कोई विशाल कैनवस खिसकता हुआ जा रहा हो. इतनी नाज़ुक, और ख़ूबसूरत, फिर भी कमज़ोर नहीं थी ये दुनिया. हमलेवार के एक वार में ये अन्तर्जलीय दृश्य पल में बिगड़ कर फिर पूरी तरह जुट सकने का सामर्थ्य रखता था. हानि और पीड़ा जिस रफ़्तार से गायब होतीं, आँखों को यही लगता कि कुछ भी तो नहीं बिगड़ा है यहाँ.

बाहर, फिर मालिबू में-

समुद्रतट पर बैठै मैं देख रहा हूँ सूर्यास्त को, प्रशांत सागर को और दहकते पानी को. आज के दिन के बारे में सोच रहा हूँ. संतुष्ट हूँ. लगता है हमारे यत्न सफल होंगे. ऐसा भी हो सकता है कि ये संकर वो न निकले जिसकी हमें तलाश है, लेकिन मुझे खुशी इस बात की है कि कम से कम हम प्रकृति से कुछ तो रिआयत ले पाए. कभी-कभी प्रकृति अपना नर्म रूप दिखा ही देती है.

सामने एक हवासील सीधे नीचे गिरा और पानी को चीरते हुए अंदर घुस गया. चीर के चारों तरफ़ कई सारी धधकती तरंगें पैदा हो गई हैं. मैं तरंगों का छली खेल देख रहा हूँ और सोच रहा हूँ कि आज की ख़बर में कुछ दिल छूने वाली बात तो थी. क्या थी? एक साथ फिरदौस का ख़्याल उठ आया. मन किया कि उसे बता पाऊँ कि पानी के नीचे दुनिया कितनी अद्भुत है. मैं तरंगों को तब तक देखता रहा जब तक वे पूरी तरह मिट नहीं गईं. मन में उदासी उग आई. पानी के नीचे दुनिया के बारे में बताऊँगा तो वो पानी के बाहर दुनिया के बारे में ज़रूर पूछेगा. कैसे बताऊँगा उसे कि आदमियों की दुनिया में कुछ नहीं बदला है?

3. फ़िरदौस से मिले मुझे एक उम्र बीत गई है. मैं तब अट्ठारह साल का था, स्टैनफ़र्ड जाने वाला था. मस्त बंदा था वो फ़िरदौस! पैदाईशी जिज्ञासू था. हमेशा कुछ करने के लिये छटपटाता रहता था. मेहरबान, मानवता के मंदिर में मानव की मूर्ति था वो. मुझसे दो-एक साल बड़ा था. अब तियालिस का होता, शायद चवालिस का. सालों पहले मर गया बेचारा.

अपने हाई-स्कूल ख़त्म होने के एकदम बाद मैंने तय किया कि चूँकि मेरे माँ-बाप हमेशा अपने को दिल्ली-वाला बतलाते थे, तो क्यों न दिल्ली जाऊँ, देखूँ, घूम आऊँ. वैसे मेरे भाई की और मेरी पैदाईश दिल्ली की ही है. सिर्फ़ मेरी छोटी बहन लॉस-ऐनजिलिस में हुई थी. मैं आठ साल का था जब हम अमेरिका आए. एक दशक बाद जब मैं भारत वापस आया तो शुरू-शुरू में मुझे ऐसा बिल्कुल नहीं लगा कि मेरा इस जगह से किसी भी तरह का नाता हो सकता है. जहाज़ से उतरा ही था और उलटे पैरों वापस लौटने की सोच रहा था. मेरे चचेरे भाई शरद ने, जो अहमदाबाद में आर्किटैक्चर का स्टूडैन्ट था, मुझे आने का न्यौता दिया था.

“अरे, तुम एक बार आओ तो. मैं तुम्हे अपना शहर दिखाऊँगा. अहमदाबाद से मेरे दोस्त भी आ रहे हैं. फ़ील्ड-ट्रिप के लिये, मध्यकालीन स्मारकों की अध्ययन यात्रा करने! डरा दिया न? हा-हा! नॉर्मल हैं हम. वो शेर हैं जो मज़े करते हैं, मज़े. क्या बोलते हो तुम अमेरिकन लोग … ड्यूड्स हैं. सिर्फ़ मेरा दोस्त, फ़िरदौस, अध्ययन करेगा. उसे तो आख़िर दिल्ली बदलनी है, हा-हा, पागल है साला, मगर मस्त है … ऐन्टरटेनर टाइप है, हँसाता रहता है.”

14 अगस्त, 1981. जिस टैक्सी में मैं बैठा था वो टैक्सी नहीं, भट्टी थी. फिर भी लग रहा था बाहर निकलूँगा तो भस्म हो जाऊँगा. आसमान से आग बरस रही थी, सूरज की रौशनी से आँखें चुँधिया रही थीं. लेकिन जब टैक्सी रुकी और मुझे शरद दिखाई दिया, हम मिले और दौड़ के उसने मुझे अपने साथियों से मिलाया, उस वक्त से मेरी सब आशंकाएँ उड़न-छू हो गईं. नौ या दस खुशदिल लड़के, मिलते ही हम दोस्त बन गए. फ़िरदौस भी था, उस पर ध्यान न जाना असम्भव था. उसका बीस वर्षीय चेहरा महज़ चेहरा नहीं एक ग्रन्थ था. दोस्तों पर चालें चल-चल कर, उनकी खिंचाई कर-कर के, जितनी बार दिन भर में वो ठठ्ठे मारकर हँसा होगा, उसके चेहरे पर खिंचीं लकीरें उस सब का हिसाब रखे हुई थीं. दो छप्पर जैसी भौंएँ मन में ये भ्रम डाल सकती थीं कि बंदा तो ये ‘सिनिक’ ही होगा. लेकिन वो दो छप्पर और उसकी ‘मूँछ’ जो उसने सिर्फ़ ठुड्डी पर ही उगने दी थी बात-बात में ऊपर-नीचे ऊपर-नीचे होते थें और केवल उनके हिलने का अध्ययन करके आदमी समझ सकता था कि किस हद तक ये इंसान अपने चारों तरफ़ होने वाली घटनाओं में शामिल है. कभी आँखों में दो दीप जल जाते, कभी मुस्कान उभरती, कभी उड़ जाती और मुँह बन जाता. जीवन को ये आदमी सिर्फ़ जी नहीं रहा था, ये उसे पूज रहा था.

सुबह से सभी ‘साईट-सीइन्ग’ में लगे थे, थक गए थे, भूखे थे, बस मेरा इंतज़ार कर रहे थे. हम ढाबे की तरफ़ बढ़ रहे थे, और मेरी ख़ातिर सब अंग्रेज़ी में बातें कर रहे थे. बस फ़िरदौस मुझे हिन्दी में सम्बोधित कर रहा था. “तो आपको हमारी दिल्ली कैसी लग रही है?”

उन दिनों मेरी ऐक्सन्ट तकलीफ़देह तो थी ही, भाषा भी कुल बीस शब्दों में सिकुड़ कर रह गई थी. सब भूल गया था. “अभी आई हूँ … मालुम नहीं …” कहकर कंधा उचका दिया था. लेकिन उसे मेरे जवाब में कहाँ दिलचस्पी थी. उसे तो बस मेरा उच्चारण सुनना था. आँखें सिकोड़ीं और हँस दिया. एक नज़र दोस्तों पर फेरी, फिर मेरा चेहरा हाथों के बीच लेकर एक हल्का सा थप्पड़ जड़ दिया.

“सुनो तो, हए. कितनी प्यारी लगती है हमारी हिन्दी इसके मुँह से.”

इसी बात पर देर तक हँसता रहा. ढाबे में शरद को हटा कर मेरी बगल की कुर्सी में बैठ गया. मुझे पास खींच कर मिमियाती आवाज़ में बोला, “ये कहाँ आ गई हूँ मैं?यही सोच रहा है न तू?”

फिर हँसने लगा. अब साथ में और भी हँस रहे थे. इतनी सादगी से हँस रहा था, मुझे उसका हँसना खल नहीं रहा था.

फिर खुद ही आगे बोला. “ऐसा बस तू ही नहीं सोचता है. हम ख़ुद – यहीं जने, पले – कितनी बार यही सोच-सोच कर तरसते रहते हैं कि हम जैसे लोगों को तो अमेरिका में होना चाहिये था. लेकिन यार, शहर है ये हमारा.”

उसकी आवाज़ गम्भीर हो गई.

“यू नो, लाइक ए मदर. यूँ ही कैसे छोड़ सकते हैं. चल बताता हूँ तुझे कैसे देखता हूँ मैं इस शहर को. क्यों इतनी हसीन लगती है मुझे अपनी ये दिल्ली. ये जो गड़बड़-झाला देख रहा है न, चारों तरफ़ की गपड़चौथ, ध्यान मत दे इस सब पर. बस उन खन्डहरों को देख जो बार-बार यहाँ-वहाँ से निकल कर उठते-गिरते रहते हैं, जैसे की बेताब हो कर कहना चाह रहे हों, हम भी थे, हम अब भी हैं, तुम हमें क्यों नही निहारते. मैं ऐसा करता हूँ और किसी और ज़माने में पहुँच जाता हूँ. कहीं से कोई टूटी-फूटी दीवार निकल आती है, मैं उस पर मेहराब सजाने लगता हूँ, मकान-सा दिखा, तो गुम्बद चढ़ा देता हूँ, फ़िरोज़ी, हरी, गुलाबी गुम्बदें. मुझे तो पूरी की पूरी हवेली दिखने लगती है. कितनी जानों ने अपने खेले यहाँ खेले होंगे, मेरी आँखों के सामने उनके ख़ाके आने लगते हैं … हमसे भी बद्तर, बेहतर … लेकिन अपनी ख़ुदी में उतने ही रमें हुए. देव, मैं किताबों में कहानियाँ क्यों पढ़ूँ जब ये कुएँ, ये हमाम, खम्बे, टूटी मेहराबें सिरहती आवाज़ों में मुझे अपनी कहानियाँ सुनने को पुकार रही हैं. वो मुझसे कहती हैं, फ़िरदौस, तू अपने को बड़ा समझता है … क्या?” सब खाना खा रहे थे मगर चुपचाप सुन भी रहे थे. अपने दोस्तों पर नज़र फेरते हुए बोला, “तू अपने को बड़ा समझता है, यूनीक और स्पैशल,” वे हँस दिये, पीठ थपथपाने लगे उसकी और वो बोलता गया, “मगर इतना जान ले कि जो कुछ भी तू सोचता है, ऐहसास करता है, वो सब हम सोच चुके हैं, उतना ही ऐहसास कर चुके हैं. बड़ी तसल्ली मिलती है यार ये जान कर, कि मेरे जैसे पहले भी थे.”

उस रात को इस जगह से मेरे सोए हुए नाते ख़ुद-ब-ख़ुद जग गए. मैं शरद की बगल वाली खाट पर सो रहा था. लग रहा था कि पुराने दोस्तों के बीच सो रहा हूँ. सपनों में गुम था या मेरा बेसुध अंतरमन दिन भर की बातों से अपने को सचेत कर रहा था. दिमाग में फ़िल्म जैसी घूम रही थी. एकसुरी आवाज़ में कोई कुछ कह रहा था. अंधेरे में उसका चेहरा दिख नहीं रहा था, मगर उसकी आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही थी, वो खोया हुआ शहर यहाँ जंगली जानवर की तरह जी रहा है. मुझे न जाने कैसे पता चल रहा था कि वो उंगली से अपनी कनपटी की तरफ़ संकेत कर रहा था. मैं सब दीवारों को मिला दूँगा, गुमें हुए मकानों को फिर खड़ा कर दूँगा. भिनभिनाती सी आवाज़ में वो बोले चला जा रहा था. मैं उस पुराने शहर को फिर बनाऊँगा, नए शहर के साथ मिला दूँगा. दिल्ली के पुराने रंग वापस लाऊँगा. मेज़ पर और लोग भी बैठे थे. अपनी बातों में मग्न थे. हँस रहे थे. लेकिन मैं सिर्फ़ इस आदमी की बातें सुन रहा था. वो अब अपनी कमीज़ की आस्तीन चढ़ा रहा था, तुरंत काम चालू करने जा रहा था. पता नहीं मैं कब जा कर सो पाया.

हमारे चारों तरफ़ भौंपुओ और हॉर्नों की चिल्ल-पौं मची थी. सड़ी गर्मी. बारिश के आज भी आसार नहीं नज़र आ रहे थे. सड़क पर अलग बवाल था. धीमे सरकते ट्रैफ़िक में चालक को आसपास जहाँ कोई छेद दिखता, तुरंत घुस जाता. और कोई तरीका भी कहाँ था. यहाँ लेनों की कोई धारणा नहीं थी. सड़कें खचाखच भरी थीं, और गाड़ियाँ एक के पीछे एक सटी हुई थीं. शरद के आलावा मेरे साथ थ्री-व्हीलर में फ़िरदौस बैठा था. रास्ते भर उजड़ी इमारतों पर ध्यान दिलाता जा रहा था और उनके पीछे छिपी कहानियों से उन्हें रंगता जा रहा था.

“सामने उस दालान में पत्थरों के पड़ाव के बीच वो अभागा सा जो मकबरा है, वो असल में एक मध्यकालीन शहज़ादे का ख़्वाबगाह है. सालों तक सुल्तान ख़ुद रोज़ाना अपने बेटे से मिलने आता था, पर बेटा था जो चिर-निद्रा में ऐसा रम गया था, पिता के लिये समय ही नहीं निकाल पाता था. सुनाऊँगा तुझे एक दिन उस बेचारे बाप की कहानी.”

आगे सड़क परिवहन और भी बिगड़ा हुआ था. थ्री-व्हीलर का चालक चालबाज़ी से चला रहा था, कभी वाहन को किनारे पर चढ़ाए दे रहा था, कभी सड़क के गड्ढों में गिरा रहा था. अँतड़ियाँ जम कर हिल रहीं थीं, तिस पर भी फ़िरदौस किसी और ज़माने में खोया हुआ था. “इसी राह पर तो रज़िया बेग़म अपने जवाँ-मर्द उमराव याकूत के साथ घोड़े पर दौड़ लगाती थी.”

रास्ता और बिगड़ गया था. अब तो पैदल यात्री भी वाहनों के साथ-साथ सड़क की पगडंडी बनाए चल रहे थे और अब भी फ़िरदौस स्वप्नमय था.

“वो देख रहा है उस टीले पर अकेली खड़ी चार दीवारें और गुंबद. टूटी-फूटी सी हैं, पर हैं देखो कैसी शानदार. ऐसी बीस इमारतें और खड़ी कर दे, हरेक पर हल्की-बैंगनी गुंबद डाल दे, फिर उन सब को पक्की दीवारों से मिला दे, सामने आ जाएगी सुल्तान बलबन की आलीशान हवेली.”

ट्रैफ़िक-लाइट के आने पर हमारी आधुनिक मियाना टर्राते हुए रुक गई. चालक ने इंजन बंद कर दिया और आसपास एक दिलचस्प चुप्पी समा गई. शायद वो एक लम्बी लाइट थी. हमारे चारों तरफ़ अनेकों थ्री-व्हीलरों का जमाव था. अपनी-अपनी बारी से सब धीरे-धीरे जाम हो गए. हमारे बगल वाले थ्री-व्हीलर में एक स्मार्ट-सी डैली-गर्ल पूरी सीट अकेले घेरे हुई थी. एक रानी अपने सिंहासन पर बैठी थी. रज़िया सुल्ताना! बड़े ध्यान से फ़िरदौस उसका अध्ययन कर रहा था. आँखें चार होते ही एक फ़्लाइंग-किस उसकी तरफ़ उड़ा दी. आँखों से भी एक संदेश भेज दिया. उसकी हरकत से खिसियाकर मैं इधर-उधर देखने लगा.

“ड्राइवर, कितने ऑटो-रिक्शे होंगे इस शहर में?” लड़की ने शायद बेरुखी दिखाने के लिये यूँ ही सवाल पूछ लिया.

“कितने ऑटो-रिक्शे … मैडम?” चालक हकलाने लगा.

लेकिन फ़िरदौस का दिमाग कब का दौड़ने लगा था. हमसे कहने लगा, “इस शहर के लोग अपने काम पर जाने के लिये ऑटो-रिक्शे ही पसन्द करते हैं. अब हमारे चारों तरफ़ ही देख लो. कम से कम हज़ार होंगे हमारे आगे, पीछे, बाएँ और … दाएँ. शहर भी इतना बड़ा है, मैं तो ये कहूँगा कि इस वक्त पूरे शहर में आराम से पचास हज़ार ऐसे मेंढक टर्रा रहे हैं. क्यों, क्या ख़्याल है?”

शरद ने भी हँस कर हामी भर दी. उधर रज़िया सुल्ताना के कहार ने भी बोल डाला, “मैडम, पचास हज़ार तो आराम से होंगे.” लेकिन लड़की कब की उदासीन हो कर उल्टी तरफ़ देख रही थी, चालक के जवाब में उसने कोई रुचि नहीं दिखाई. बत्ती भी शायद हरी होने को हो गई थी, क्योंकि फिर चारों तरफ़ इंजनों के चालू होने की आवाज़ गूँजने लगी थी. दोनों की नज़रें फिर अकस्मात मिल गईं, फिर फ़िरदौस ने एक फ़्लाइंग-किस उसकी ओर उड़ा दी. लड़की ने नज़र झटक कर कहीं और देखना शुरू कर दिया और ज़ोर-ज़ोर से फ़िरदौस हँसने लगा. अगले पल हम आगे बढ़ चुके थे.

4. क्यों इतने वर्ष बीतने के बाद मैं फ़िरदौस को याद कर रहा हूँ? फ़िरदौस को मैं भूला तो नहीं था. उस जैसे को कोई भूल ही नहीं सकता. मेरे सरल जीवन में उसकी याद सवाल बन कर तब वापस आई जब पिछले महीने मैं केरल में फ़ैमिली-रीयूनियन से लौटा. तब से ये ‘फ़िरदौस का सवाल’ मुझे लगातार सताए जा रहा है. जैसे भी हो, इसका हल तो मुझे ढूँढना ही पड़ेगा. कोट्टयम बैकवॉटर्स रीसॉर्ट में अपने माँ-बाप, भाई, भाभी और भतीजी से कई महीनों बाद मिला. हम सब अलकनन्दा, मेरी छोटी बहन, का इंतज़ार कर रहे थे. उसके तीस साल हाल में ही पूरे हुए हैं, बॉस्टन में आर्किटैक्ट है, अपने फ़र्म के लीड-आर्किटैक्ट के साथ शादी करने जा रही है. लड़का इंडियन है, माँ को बस उम्र का फ़र्क खल रहा था, लड़का मेरी बहन से तकरीबन 14 साल बड़ा था. लेकिन ये उसकी पहली शादी थी. ये बात स्पष्ट थी कि अलकनन्दा अपने मंगेतर को साथ ला रही थी केवल उसे हम सब से परिचित कराने, हमारी स्वीकृति पाने नहीं. बड़े उत्साह के साथ हम सब दोनों का इंतज़ार कर रहे थे. बहुत हैरानी हुई मुझे जब उस के मंगेतर से मिला. मैं उस से पहले मिल चुका था, तभी जब मैं फ़िरदौस से पहली बार मिला था. ये भी शरद के दोस्तों में से एक था, ग्रुप में सबसे चुप यही रहता था. फ़िरदौस का जिगरी दोस्त था. बातें फ़िरदौस औरों से करता, मगर हाथ उसका अक्सर इसके कंधे पर टिका होता था. अशोक नाम था. तब से अशोक काफ़ी बदल चुका है. बोलने लगा है अब, लीडर टाइप बन गया है. देखने में वैसा ही है. मैं भी ज़्यादा नहीं बदला हूँ. लेकिन शुरू में उसने मुझे नहीं पहचाना. बातों का सिलसिला शुरू होने के बाद मैंने उसे अपनी पिछली मुलाकात के बारे में याद दिलाया. वो कुछ चौंका, फिर जल्द ही किसी और विषय के बारे में बात करने लगा. मुझे उसके बर्ताव से कोई निराशा नहीं हुई. बस मन में ये सवाल उठ कर रह गया है कि मैं अपनी छोटी बहन से ये कैसे कहूँ कि यदि उसे मुझसे किसी तरह का वास्ता रखना है तो इस आदमी से शादी करने का ख़्याल छोड़ना पड़ेगा.

5. क्या मुझे फ़िरदौस के साथ बिताया बीस-बाईस साल पहले का वो आख़िरी दिन ठीक से याद भी है?

हफ़्ता गुज़र गया था शरद के और उसके दोस्तों के साथ. ये सब अब मेरे दोस्त भी बन गए थे. उस दिन हम लोग कुतुब मीनार कॉमप्लैक्स घूमने गए थे. तेज़ धूप में हम मीनार के पास धीरे-धीरे टहल रहे थे, फ़्रिसबी खेल रहे थे. सिगरेट का ब्रेक लेते हुए फ़िरदौस फिर चालू हो गया. फिर उठाने लगा वो सब इतिहास की बातें.

“मेरे लिये तो बस इतिहास ही सच है. इतिहास और,” उसने सिगरेट से कश खींचा और धुँए की एक बदली उड़ाते हुए अपनी सिर की ओर संकेत किया, “मेरे सपने. और सब कुछ ढुलमुल हैं, बेईमान हैं.”

उस दिन वो इतिहासकार बन गया. कुतुब मीनार के आसपास के खंडहरों की तरफ़ इशारा करते हुए वो ताकतवर आदमियों की भावी पीढ़ियों पर अपनी छाप छोड़ने की तड़प के बारे में बताने लगा.

“अब इस मीनार को ही देखो. क्या अफ़गानों ने ये सिर्फ़ हिन्दुस्तानियों को उनकी हार याद दिलाने के लिये ही खड़ी की थी? या फिर ये एक पुरानी इमारत है जो किसी हिन्दु राजा ने अपनी लाड़ली बेटी के लिये बनवाई, वो प्रेम का मंदिर जिसकी राजकुमारी बेला रोज़ाना सीढ़ियाँ चढ़ती थी और ऊपर पहुँच कर जमुना मैया की झलक पा कर अपनी पूजा पूरी करती थी.”

मीनार की एक तरफ़ एक और अध-बनी मीनार थी, अब सिर्फ़ पत्थरों का ढेर बन कर रह गई थी. अलाऊदीन खिलजी जो राज्य को तलवार की नोंक पर चलाता था, अपनी मीनार भी पूरी नहीं कर सका.

उसने वो स्थान दिखाए जहाँ सुल्तान, शहज़ादे और शहज़ादियाँ अपने आख़िरी आराम फ़रमा रहे थे, वो अद्भुत विहार और सुडौल खम्बे जहाँ वे इबादत करते थे. एक के बाद एक उसने कई स्मारक दिखाए. मकबरे, मीनार, खम्बे और मेहराब – कई शताब्दियों के अंतराल में की गईं सिर तोड़ कोशिशें या फिर किसी और काल में एक आदमी की सबों पर जीत की खुशी मनाने का समारोह – जो कुछ भी इन्हें कहें, हैं तो ये सब अब नष्ट. हुकूमत तो सिर्फ़ समय करता है, कहकर वो हँस दिया. ये ज़रूरी बात वे कैसे भूल गए. हुकूमत प्रेमपूर्वक भी हो सकती है, ये बात कभी उनके ज़हन में क्यों नहीं आई. क्या उन्हे इतना भी नहीं मालुम था कि उनके स्मारक की आखिरी ईंट के गिरने पर उनका नाम भी हमेशा के लिये मिट जाएगा, क्योंकि ऐसों को कौन याद रखता है जिनने कभी परवाह ही नहीं की.

वो कुतुब मीनार का समूह, जो एक राष्ट्रीय स्मारक था, हमेशा संरक्षित रहता, इतना संरक्षित कि प्रकृति भी इसे छूने का दम नहीं रखती थी, न कोई पेड़-पौधे यहाँ उगने पाते, न किसी जानवर का यहाँ आना होता, पंछी तक यहाँ उतरने से पहले सोचते, उस मानव अहंकार के संग्रहालय में कुछ स्वतंत्र भाव तो डोल रहे होंगे क्योंकि फ़िरदौस के इतिहास का व्याख़्यान कानों में आदमी की ज़िन्दगी की शायरी के बयान की तरह पड़ रहा था.

कुछ घंटो बाद उसी की ज़िन्दगी की शायरी ख़त्म हो गई.

हम मीनार चढ़ चुके थे, खाना खा चुके थे और पार्क में एक पेड़ की छाँव के नीचे लेट कर ये तय करने की कोशिश कर रहे थे कि वापस चलें या थोड़ी देर और वहीं अलसाएँ. आख़िर वो हमारा एकसाथ आख़िरी दिन था. जैसे ही शरद पेट के बल घूम कर कहने को हुआ, कि चलो चलते हैं, अशोक चिल्ला उठा कि वो अपनी दादी के लिये कुतुब की ऊँचाई से एक ख़ास ऐन्गल से फ़ोटो लेना तो भूल ही गया. फ़ौरन उठकर मीनार की ओर भागने लगा.

“रुकना, देर नहीं करूँगा,” कहते हुए वो कब का दूर पहुँच गया. तब तक मैं तक समझ गया था कि फ़िरदौस भी उठ कर उसके साथ लग लेगा. जैसे ज़मीन पर फिके पानी की तड़प फैलने की होती है, वैसे ही जहाँ कोई गतिविधि होती, वहाँ फ़िरदौस का होना ज़रूरी होता. गतिविधियों के बीचोबीच में होना उसकी ज़रूरत थी. वो तेज़ कदम से अशोक के पीछे भाग रहा था. काश किसी ने उसे रोका होता.

बड़े सारे आगंतुक सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे. मीनार के निचले भाग में, सीढ़ियाँ इतनी चौड़ी थीं कि मिया-बीबी का जोड़ा आराम से साथ-साथ चल सकता था और तीन चार और बीच में घुसाए जा सकते थे. लेकिन उस दिन चूँकि शुक्रवार था, प्रवेश मुफ़्त था. पीछे, आगे, दोनों तरफ़, दाएँ, बाएँ, खचाखच लोग ही लोग थे. रौशनी भी दीवार की खाँचेदार खिड़कियों से छन कर आ रही थी. कम थी.

“हाँ-आँ, यूँ ही, धीरे-धीरे कुतुब मीनार भी चढ़ ली जाएगी,” पास से किसी की थकी-सी आवाज़ सुनाई दी.

कोई जवाब न मिलने पर वही आवाज़ चिढ़ कर बोली, “बाज़ को पिंजड़े के अंदर बंद कर के रख दिया है.”

तब जा कर एक औरत के खिलखिलाने की आवाज़ आई. सब मीनार में घूमते हुए ऊपर चढ़ रहे थे. पास के खाँचे से रौशनी अंदर पड़ी. सामने एक अधेड़ उम्र का आदमी था. ठुड्डी पर लक़दक़, फक्क-सफ़ेद दाड़ी लटकी हुई थी. उसके साथ एक जवान औरत चमकीले कपड़े पहने ऊपर चढ़ रही थी.

“बड़ी हँसी आ रही है. आपको ये सब अच्छा लग रहा है?”

“कुछ नहीं. बाज़ के नाम से सामने ख़ाका खिंच गया बाज़ का. बस.”

“क्यों? हम में बाज़ नहीं दिख पाता आपको.”

“ना, ना, जानू. मैं ऐसा क्यों सोचूँगी. एकदम नई केतली हो तुम.”

फिर अंधेरा सा छा गया. सभी सम्हल-सम्हल के चल रहे थे. थोड़ा बहुत जो चलना था, वो भी बंद हो गया, ऊपर से पीछे लोगों का बड़बड़ाना शुरू हो गया. मैं गाँव से आए एक बड़े झुंड के बीच में फँसा हुआ था.

फिर से कुतुब मीनार में मैं क्या कर रहा था? फ़िरदौस और अशोक के जाते ही मैं शरद से शाम को जयपुर जाने के प्रोग्राम के बारे में बात करने के लिये उठ बैठा. राजस्थान में हफ़्ता गुज़ारने का इरादा था हम दोनों का. जैसे ही उठा, गर्दन में अशोक का कैमरा लटका पाया. रेस्टोरैन्ट में शौचालय जाने से पहले उसी ने मुझे अपना कैमरा पकड़ाया था. वो लेना भूल गया, मेरा भी ध्यान नहीं गया. शरद की पहली प्रतिक्रिया यही थी कि हम कुछ न करें, खुद जब देखेगा कि कैमरा नीचे रह गया है तो अपने आप ही आ जाएगा लेने. फिर ये सोच कर कि इस से तो और भी देरी हो जाएगी, सभी इस मत के थे कि बेहतर होगा कि हम में से कोई इनके पीछे लग कर कैमरा पकड़ा दे. लेकिन अब फिर से ऊपर चढ़ने को कोई तैयार नहीं था. गर्मी तो थी ही, ऊपर से मीनार के अंदर की भीड़ कोई फिर से नहीं झेलना चाह रहा था. मेरी गाईड बुक में लिखा था कि तीन सौ उन्नासी सीढ़ियाँ मीनार के ऊपर तक पहुँचाती हैं, मगर चढ़ हम सिर्फ़ पहली दो मंज़िल ही सकते थे. मैंने सोचा, मैं ही जाता हूँ. इस बहाने गिन लूँगा कितनी सीढ़ियाँ चढ़ कर पहली दो मंज़िलों तक पहुँचते हैं. तो चल दिया उन दोनों के पीछे.

“बेहतर कि आँख कानी हो, न कि रस्ता काना. मगर आप तो खुश हैं न?” फिर चलना रुक गया था. “जम के लुत्फ़ उठाइये. बड़ा कह रहीं थीं, कुतुब मीनार जाना है, कुतुब मीनार ले चलिये. लीजिये, ले आए.”

औरत ने भी चुहचुहाती आवाज़ में कहा, “हाँ, लुत्फ़ तो ख़ूब उठा रहे हैं हम. बाहर से मीनार सुंदर थी. एक बार ऊपर पहुँच जाएँ, तो नज़ारा भी सुंदर नज़र आएगा. मगर तुम कैसे समझोगे ये सब? मक्खी क्या समझे है परवाने की गत?” अब सब चुपचाप इन दोनों की ही बातें सुन रहे थे.

“लो, शुरू हो गईं ये.”

औरत तैश में आ गई थी. बोलती गई. “मक्खी को तो रस से मतलब. मर जाएगी लेकिन चूसना बंद नहीं करेगी.”

आदमी खिसिया कर दबी हँसी हँस दिया. “तो बाज़ से आपने हमें मक्खी बना दिया. चलो, कोई बात नहीं. अरे भाई, आप लोग आगे क्यों नहीं बढ़ रहे हैं. रुके हैं सब के सब.”

“देर करी, तो जल्द आएगा, जल्द करी, तो देर से आएगा. सुना है अंकल आपने?”

मैं खुश. बोलने वाला फ़िरदौस था. मुझसे कुछ ही कदम आगे. मैं उसे पुकारने को था, तभी आगे आदमी बोल पड़ा, “ये खूब है. जान न पहचान, अंकल जी सलाम. बड़े अजीब लोग हैं यहाँ. अब तो आप भी अपना हनीमून मना कर खुश हो रही होंगी, जानेमन. एक मैं ही फँस गया हूँ.”

अंधेरा तो पहले ही था, बस शोर कम था, वो कमी भी सामने वाले जनाब की जवान बीबी ने पूरी कर दी. हमारे चारों तरफ़ की हवा उसकी चींख से गूँज उठी. “एक साल होने को आ गया है शादी को, अब अचानक हनीमून याद आया है तुम्हे? यहाँ? कुतुब मीनार में? ये है तुम्हारा हनीमून मनाने का तरीका? वो भी जुमा के रोज़? अरे घटिया मर्द, दूर रहो मुझसे!”

इतना कह कर उसने वहीं रोना शुरू कर दिया. आसपास सभी घबराने लगे. वो आदमी भी शायद चकरा गया, बड़बड़ाने लगा, “ये क्या आफ़त है. अभी तो बाँध ही टूटा है, देखना अब शिकायतों की बाढ़ आएगी, फिर ज़लज़ले पैदा होंगे … शादी करने में इतनी मुसीबत होगी, किसी ने बताया नहीं था. पहले अच्छी दुल्हन नहीं मिलती, फिर उसे खुश रखना ही काम बन जाता है.”

लोग फिर आगे बढ़ने लगे थे. तभी बीबी अड़ गई. “मुझे घर जाना है. चलो नीचे चलो. मुझे नहीं चढ़नी है कोई मीनार-शिनार.” लोगों ने उससे मिन्नत करना शुरू कर दिया. झगड़े किस शादी में नहीं होते, उससे कहने लगे. उधर आदमी का बड़बड़ाना चिल्लाने में बदल गया. “शाह जहान आएँगे. ऊपर से एक रस्सा डलवाएँगे कि बेचारी दुल्हन को नीचे लाना है. अरे नालायक औरत. तुम्हे नीचे नहीं ले जा सकता मैं. क्या तुम्हें दिखाई नहीं देता या अक्ल में ही गाँठ पड़ गई है.” औरत रोने लगी, तब जा कर शान्ति हुई.

तब फिर फ़िरदौस बोला, “अरे अंकल, आप दोनों क्यों अपने हनीमून का मज़ा नहीं लेते? झगड़ क्यों रहे हैं?”

“ये आप बार-बार औरों के मामलों में दख़ल क्यों देते हैं? क्या आप उन लोगों में से हैं जो किसी की दाढ़ी जले और ख़ुद उसकी आग में अपने हाथ सेकें?” आसपास के लोग हँस रहे थे. मैंने भी मौका निकाल कर, मिन्नतें कर के कि देखिये मेरा दोस्त वो आगे जा रहा है, आगे बढ़ना शुरू कर दिया. उस मिया-बीबी के एकदम पीछे खड़ा था, फ़िरदौस भी दिख रहा था. उसे आवाज़ देने जा रहा था, दे नहीं पाया. अशोक के चेहरे के भाव ने मुझे रोक लिया.

“मैं चाहता हूँ कि तू चला जा.” अंग्रेज़ी में बोल रहा था वो. शायद वो ये नहीं चाहता था कि आसपास के लोग सुने. आवाज़ भी संगीन-सी थी.

फ़िरदौस ने भी अपने मज़े के अंदाज़ में जवाब दिया, “क्या?अब आपके लिये शाह जहान को बुलवाना पड़ेगा? वो आएगा लम्बा-सा रस्सा लेकर …”

“ज़्यादा बन मत, तुझे मालुम है मैं क्या कहना चाहता हूँ.”

हांलाकि मीनार की पेचदार सोपान चढ़ते-चढ़ते सब के मिजाज़ काफ़ी गर्म हो गए थे, पहली मंज़िल आने पर कोई नहीं रुका. वापसी में रुकेंगे, सब के सब यही सोच कर चढ़ते चले गए. अशोक के शब्दों ने फ़िरदौस को भौंचक्का कर दिया था. चौखट पर पहुँचते ही खींच कर अशोक को बाहर गलियारे में ले गया.

“अब बता क्या हुआ तेरे को,” फ़िरदौस की आवाज़ मुझे सुनाई दी.

पता नहीं मुझे किस बात का डर था, मैं बाहर नहीं गया, ऊपर चलते लोगों की धार के साथ धीरे-धीरे चलने लगा. कुछ एक सीढ़ी चढ़ने के बाद बैठ गया और सोचने लगा कि मुझे क्या करना चाहिये. मेरा वहाँ बैठना लोगों को ज़्यादा असुविधाजनक नहीं लग रहा था. बच के सम्हल कर निकल रहे थे. कुछ तो रुक कर मुझ से मेरा हाल भी पूछ रहे थे. मैं दीवार पर सिर टिका कर बैठा था. तभी मेरा ध्यान गया कि मुझे खाँचे से वे दोनों दिख रहे है. मुश्किल से दो गज़ दूर भी नहीं था मुझसे फ़िरदौस, नीचे की तरफ़, गलियारे में. वहाँ बाहर, अशोक बहुत उत्तेजित दिख रहा था. सीढ़ियों से ऊपर आते लोगों से तो मेरा ध्यान ही हट गया. मुझे बस उन दोनों की बातें सुनाई दे रही थीं, और कुछ नहीं. मुझे समझ आ गया कि दादी के लिये फ़ोटो खींचना बस एक बहाना था. वो तो बस फ़िरदौस को कुछ देर के लिये अपने साथ अकेले चाहता था. उसका चेहरा लाल हो गया था. मुझे लगा वो रो रहा था.

“क्या हुआ, बता तो.”

सिसकियाँ भरते-भरते वो बोला, “पापा आ रहे हैं दोपहर को. वो तो मेरी धुनाई कर देंगे, फ़िरदौस. मुझे लगता है उन्हे शक हो गया है.”

“शक? किस बात का शक?”

“तुम को मालुम है मैं किस बात की बात कर रहा हूँ. फ़िरदौस, वैसे ही हमारे घर में झगड़े होते रहते हैं. मैं उनकी एक और नाखुशी की वजह नहीं बनना चाहता.”

फ़िरदौस ने कंधे उचकाए और कहा, “तेरा कैमरा कहाँ है. मुझे दे, मैं जल्दी से फ़ोटो खींचता हूँ. हमको जाना चाहिये. सब इंतज़ार कर रहे होंगे. याद है, शरद को और उसके अमरीकी भाई को ट्रेन पकड़नी है.”

“फ़िरदौस, मेरे पापा मम्मी सुखी नहीं हैं. मुझे लगता है … पापा को शायद शादी ही नही करनी चाहिये थी. तुम समझ रहे हो न मैं क्या कहना चाह रहा हूँ.”

फ़िरदौस एक व्यंग्यपूर्ण हँसी हँस रहा था.

“इस लिये अब उन्हें मुझ पर शक हो रहा है. उन्हें लगता है कि मैं भी उन की तरह हूँ. शायद उन्होंने हमारे बारे में कुछ उड़ती सी ख़बर सुनी होगी.”

“बनाने वाले ने जब बाबा आदम की एक पसली निकाल कर औरत बनाई, तो आदमी के दिमाग से वो हिस्सा निकाल दियाजो उसे संवेदनशील बनाता है. तू कह रहा है कि पसली के हटाने से तेरे पापा शक्की भी हो गए हैं. वाह. चल, देर हो रही है. बाद में बात करेंगे.”

“ना.” कुछ पल पहले जो इतना डरा हुआ था, अब एक साथ ज़िद्दी कैसे हो गया. हैरानी हो रही थी. “अभी बात करते हैं.”

“क्या बात करनी है? मैं चला जाऊँ, यही न? चला जाऊँगा. बस.”

“तो मैं तुम्हारा भरोसा कर सकता हूँ?”

“तेरा दोस्त हूँ, यार. कह रहा है गायब हो जाऊँ, हो जाऊँगा.” वो वापस जाने लगा. मीनार में अंदर घुसने को था कि अशोक ने उसका हाथ पकड़ कर उसे रोक लिया. “तो ये था तेरा प्यार? इतने आराम से तू छोड़ कर जा सकता है.”

“बकवास बन्द कर.” फ़िरदौस के चेहरे पर खींझ साफ़ झलक रही थी. “पहले थोड़ा समय निकाल कर ये जो तेरे दिमाग में अफ़रा-तफ़री चल रही है न, इसे निकाल. अभी तूने कहा तू एकदम अपने बाप जैसा है, कहा था न. मतलब तू गे है, यही सच है. अब तू सच से लड़ना चाह रहा है. सच को किसी तरह से हराना चाह रहा है, उसको ग़लत साबित करना चाह रहा है. सुना तूने. तू सच ही को ग़लत साबित करना चाह रहा है. इसीलिये तू कन्फ़्यूज़्ड है. चल, बहुत समय बर्बाद कर दिया इस बेतुकी बहस में.”

“फ़िरदौस, मैं डरा हुआ हूँ. क्या तुम्हे नहीं दिख रहा है?”

“तू डरा है, क्योंकि तू डरा रहना चाहता है. अब तू स्कूल में नहीं है. मर्द है. मर्द बन कर रह.”

फ़िरदौस ने हाथ खींच कर छुड़ा लिया और आगे बढ़ने लगा. अशोक फिर कूद कर उसके रास्ते में आ गया. “मतलब तूने मुझे कभी चाहा ही नहीं.”

“मेरा दिमाग न चाट. मुझे छोड़, अपने बारे में सोच.”

“ओहो, बड़े सुलझे विचारों वाले आदमी हो. तुम्हें क्यों कोई डाऊट्स होंगे?”

“डाऊट्स हैं, मगर तेरी तरह अपनी आईडैन्टिटी को लेकर नहीं हैं. सुन अशोक. मेरे लिये ये ज़रूरी है कि जो मैं हूँ वो दिखूँ भी. मुझे छिपना न पड़े. मेरी माँ जानती है मैं कौन हूँ, क्या हूँ. मेरे परिवार में सब मुझे समझते हैं. आसान नहीं था उनके लिये. मगर उनके लिये मैं और बहुत कुछ भी हूँ. मुझे नहीं मालुम तुम्हारे घरवाले कैसे हैं. ये सही है कि अपने विश्वासों से समझौता करना बड़ा मुश्किल होता है, लेकिन अगर वो वाक़ई में तुझे चाहते हैं, तो तुझे समझने की कोशिश ज़रूर करेंगे. लेकिन पहला कदम तो तुझ ही को उठाना होगा, उन्हें अपने बारे में समझाने का. वो तू कैसे करेगा. तुझे तो धुनाई से डर लगता है. बेटा, आगे चल कर ज़िन्दगी तुझे कई बार धुनाई देने की धमकी देगी. क्या करेगा तब. हर बार भागेगा या छिप जाएगा. मेरे लिये लोगों का अपनी बेवकूफ़ियों से मैनिप्यूलेट होना ग़लत है.”

फ़िरदौस औरों से अलग क्यों है, अब स्पष्ट होने लगा था मुझे. मगर ऐसा भी महसूस हो रहा था कि अशोक इस तरह की बहस करने-सुनने ही ऊपर तक चढ़ कर नहीं आया था.

“तुम ये क्यों नहीं कह पा रहे हो कि तुम मुझसे प्रेम करते हो?” बोला.

“क्या चाहता है मैं करूँ? इस रेलिंग पर चढ़ कर ऐलान करूँ?”

मुझे लगा वो फ़िरदौस की इस बात पर थोड़ा रुका. कुछ सोच के बोला, “हाँ, कर सकता है तो कर के दिखा. फिर वापस चलेंगे. प्रौमिस.”

फ़िरदौस उसे गुस्से में देख रहा था. मुझे लगा थोड़ी घृणा के साथ. फिर मैं भौंचक्का-सा देखता रहा और वो तेज़ी से दो कदमों में रेलिंग तक पहुच गया और एक झटके में चढ़ भी गया. मैं खड़ा हो गया, मुझे मालुम था मुझे दौड़कर उसे सम्हाल के नीचे उतारना चाहिये. इस पागलपन को खत्म करने की कोशिश करनी चाहिये. हवा के असंयमित बहाव ने उसके बालों को चारों तरफ़ उड़ाना शुरू कर दिया था और एक साथ उसे देख कर ऐसा लग रहा था कि वो किसी अन्य स्थान में पहुँच गया था. खतरनाक दशा में ऊँचाई में टिका हुआ था, मगर चेहरा उल्लसित, भाव-विभोर हो गया था. दोनों हाथों से खम्बा पकड़कर, हवा में सिर फेंक कर खड़ा हुआ था. अशोक तो उसके ध्यान में ही नहीं था. ऊपर की मंज़िल से लोगों ने चिल्लाना शुरू कर दिया था. उस वक्त अशोक ने उसकी एक हाथ की पकड़ छुड़ाकर अपने हाथ में ले ली. मैं अभागा बस वहीं खड़े ये सब देख रहा था और सुन रहा था. “फ़िरदौस, तुम्हें मालुम है न कि मैं तुमसे कितना प्यार करता हूँ.”

फ़िरदौस का नीचे अशोक को देखना और उसके चेहरे पर पैदा होते हुए वो आतंक का भाव ही मेरे पैरों को ज़मीन से उखाड़ सका और मैं भागते हुए सीढ़ियाँ उतरने लगा. जब तक गलियारे की दहलीज़ में पहुँचा, वहाँ भीड़ जमा हो चुकी थी. कुछ हो गया था.

अशोक ने तो सबको अपनी कहानी में ही लपेट लिया.

मीनार से निकलने में हमें घंटा लग गया था. अंदर प्रवेश मना हो गया था. जब तक मैं नीचे आया, फ़िरदौस की लाश हटा कर अस्पताल भिजवा दी गई थी. ज़मीन पर पड़ा अशोक काँप रहा था, बिलख रहा था, बेहाल हो रहा था. उसके बाल पसीने में सिक्त थे, चेहरा लाल था और आँखें कोटर से बाहर निकलने को हो रही थीं.

ऊपर पहुँच कर फ़िरदौस ने उसे एक मिनट रेलिंग पर खड़े होने की चुनौती दी, जब उसने चुनौती लेने से इनकार कर दिया, तो खुद चढ़ गया. बेहयाई से वो गवाही दे रहा था. कुछेक गवाह और आगे बढ़ गए. उसकी कहानी को बल मिल गया. बाक़ी सब अशोक के पिता ने आ कर सम्हाल लिया. मेरी सच बताने की कोशिश शरद से शुरू हो कर उसके पिता – मेरे चाचा – को सौंप दी गई. उन्होंने अमेरिका में मेरे माता-पिता से परामर्श करके उसी दिन मुझे हवाई जहाज़ में बिठा कर वापस भेज दिया. अठारह वर्ष का था, हिला हुआ था. कुछ कर नहीं पाया.

और अब, तेईस साल बाद, जब अशोक और अलकनन्दा को एक साथ देख खुशी से अपने आपे में न रह पा रहे अपने माँ-बाप से मैं कुछ कहता हूँ, तो उन्हें या तो मेरी याददाश्त पर शक होता है, या ‘उस’ फ़िरदौस में ही खोट दिखता है. बात ख़त्म करने के लिये वो मुझे जीवन की ये सीख बताने लगते हैं कि नदी स्रोत के निकट चंचल ज़रूर होती है, मगर बहते-बहते सम्हल ही नहीं जाती, अक्सर महान बन जाती है. मैं उनसे फिर बहस नहीं करता. क्योंकि मैंने भी जीवन से ये सीखा है – कई, कई बार और कई तरीके से देखा है – कि यदि कील ही टेढ़ी हो, तो किसी हाल में, न अब, न बाद में कभी, छेद के अंदर सीधे तरह से नहीं घुस सकती.

6. मुझे दुनिया से कोई शिकायत नहीं है. मैंने अपनी दुनिया जो बदल ली है. अपना ज़्यादातर समय अब मैं पानी में बिताता हूँ, स्पंजों से बाते करता हूँ, उनकी सच्चाई समझना ही मेरे जीवन का लक्ष्य है. इतना व्यस्त हूँ कि अपनी बहन के विवाह के लिये समय नहीं निकाल पाया. सुनने में आया है कि वे खुश हैं.

मेरी टीम के सदस्य कैटालीना आईलैंड के पास डॉल्फ़िन रॉक पर पीले स्पंजों के और सैम्पल लेने आए थे. पानी में नीचे मैं देर से चक्कर लगा रहा था. धीरे-धीरे तट के उस भाग में वापस तैर कर आ रहा था जहाँ डोंगी बंधी थी जब पास से एक हाँक आई. मुड़ के देखा तो मुझसे थोड़ा नीचे एक भूरी जल-सिंहनी सहज से आगे निकली जा रही थी. पेट के बल घूम कर मुझे अपनी भावपूर्ण आँखों से समझने की कोशिश कर रही थी. फिर जैसे जितना समझना था उतना समझ चुकी हो, पलट गई और आगे बढ़ने लगी. उसके पीछे उसका सिलेटी रंग का बच्चा था. माँ और बच्चा देर तक गश्त लगाते रहे. मैं उनके पीछे तैरने लगा. जो लय माँ पकड़ रही थी, वही लय बच्चा भी ले रहा था. मैं भी उनकी नक़ल कर रहा था. काफ़ी देर तक मैंने भी समुद्र का गश्त लगाया, माँ-बच्चे के समान दो बार पलटें खाईं, घूमा, उनके पीछे लगा रहा, फिर घूमा, ज़्यादा देर नहीं हुई थी, और मैं कही और खो गया था, आलौकिक धुन पर लास्य करने लगा था, मोहित हो गया था, धरती की सबसे निर्मल जगह पहुँच गया था, जहाँ शाँत था, एकदम शाँत. मरने के बाद तुम ऐसी ही शाँत जगह पहुँचे होगे, मेरी बस यही कामना है, फ़िरदौस.

 

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