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  • मुक्ता सिंह-ज़ौक्की

"षष्ट-धर्म युक्त" कुलधर्म आधुनिक पत्नी

ई-कल्पना की शुरुआत से हम हर अंक में मोहन राकेश की एक नारी-केंद्रित कहानी - क्लासिक कहानी - प्रस्तुत कर रहे हैं. आगे कुछ अंक तक करते रहेंगे. इन कहानियों में औरत चाहे किसी भी तबके की हो, लेखक उसके अंदर की छटपटाहट प्रकट करने में सम्पूर्ण रूप से सफल रहे हैं, कभी उसकी आवाज़ बन कर, कभी उसके नज़रिये की झलक दिखा कर.

आर्द्रा में अनपढ़ माँ प्रेम-सिक्त है, असहाय भी है. माँ का अस्तित्व उन कुछ लोगों में सिमटा है जिनकी दुनिया शायद उसके बिना भी सम्पूर्ण है. मन में शून्य लिये लंबा जीवन काट रही है माँ.

सीमाएँ में ... उमा को लगता था वो देखने में सुंदर नहीं है. वह जब भी शीशे के सामने खड़ी होती तो उसके मन में झुंझलाहट भर आती. उसे लगता उसके प्राण एक ग़लत शरीर में फंस गए हैं और वह खींझ कर शीशे के सामने से हट जाती. औरत का विशिष्ट सुगुण – सौंदर्य – उमा में नहीं था, इसलिये उम्र भर वह हीन भावना मे डूबी रही, शिक्षा-दीक्षा में तो शिक्षाहीन थी ही, दुनिया के मामलों में भी अनभ्यस्त रही.

निर्भर औरत का सूनापन क्या होता है, ये मोहन राकेश ने समझा.

परिस्थितियों से सीमित औरत का सूनापन क्या होता है, ये मोहन राकेश ने समझा.

पुरुष-प्रधान समाज में अपनी स्वतंत्रता ढूँढती औरत का सूनापन क्या होता है, ये मोहन राकेश ने समझा.

आधुनिक युग में पारंपरिक रोल निभाने में फंसी भारतीय औरत की छटपटाहट के पीछे छिपा निहित सत्य समझ कर, फिर अपनी कहानियों में पाठकों को समझाया मोहन राकेश ने.

प्राकृतिक नियम है, जहाँ नर होगा वहाँ मादा भी होगी. संविधान ने भी नारी और पुरुष को समान अधिकार दिये हैं. भारतीय नारी उच्च शीक्षा से वंचित नहीं है. फिर भी, पूरी तरह से समानता पाने में जो बात औरत के आड़े आती है वो है शायद उस की लगातार सामाजिक स्वीकृति की ज़रूरत. और समाज ने पहले से ही स्त्री और पुरुष के अधिकार और रोल असमान बनाए हैं.

आधुनिक युग में अधिकांश नारी जो पुरुष के कंधे से कंधा मिलाने को निकलती हैं, षष्ट-धर्म युक्त कुलधर्म-पत्नी होने की कोशिश में कदम-कदम पर समझौता करने को तैयार रहती हैं, आखिरकार अक्सर दुनिया की दौड़ में लड़खड़ा जाती हैं.

जब तक औरत परंपराओं और अपनी 'कॉलिंग' के बीच पिसती रहेगी, नारी-केंद्रित कहानियाँ बनती रहेंगी.

सच बात तो ये है कि आज की औरत अपने जीवन से उसी तरह की आकांक्षाएँ रखती है जिस तरह की पुरुष रखते हैं. हमने तो बेवजह समाज को औरत और पुरुष वर्ग की बेड़ियों से बाँध रखा है. असल में हम 60 करोड़ पुरुष और 60 करोड़ औरतें नहीं, बल्कि 1.2 अरब व्यक्ति हैं. जिस दिन सही अर्थ में ये बात समझ जाएँगे, उस दिन हमारा समाज भी बेधड़क उन्नत हो पाएगा.

'व्यक्ति' को अपनी योग्यता और श्रम के अनुरूप प्रतिफल मिलेगा.

और हमें महिला दिवस के रूप में साल का एक दिन महिलाओं को समर्पित करना नहीं पड़ेगा.

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