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दीप हूँ जलता रहूँगा ​​

  • कुसुम वीर
  • 18 अक्तू॰ 2017
  • 1 मिनट पठन

नव कोंपलों का ​सृजन लख, बन पाँखुरी झरता रहा विकीर्ण कर सुरभित मलय, प्रयाण को तत्पर हुआ सज सुगन्धित माल प्रिय हिय में सदा शोभित रहूँगा स्नेह को उर में संजोए ​​दीप हूँ जलता रहूँगा

सृष्टि के कण-कण में प्रतिपल ॐ स्वर है गूँजता अक्षरित नभ शब्द बन कर नाद अनुपम उभरता पुष्प में मकरंद, नाभि मृग में कस्तूरी बसे बूँद बन बरसात की अंकुर धरा तल पल रहूँगा आभ पा रश्मि रवि की जग उजाला छा गया पलटते पन्ने समय के कोई कहानी कह गया स्वप्न सुधियों में जगे थे, आस अलसायी उठी इतिहास के कुछ नए कथानक मैं सदा लिखता रहूँगा मन की तृष्णाओं की गठरी बोझ को ढोता रहा अहम् की चादर को ओढ़े वितृष्णाओं के पथ पग धरा कौन अब आकर सँवारे ज़िंदगी की शाम को बुलबुले सी देह यह, मिट-मिट के फिर बनता रहूँगा

 

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