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  • नीलम कुलश्रेष्ठ

“महिला सामाख्या की ट्रेनिंग ने हमें सिखाया है कि मासिक धर्म के समय हम अछूत थोड़े ही हो जातें हैं. ये

'पैडमेन फ़िल्म के बहाने' ...

नीलम कुलश्रेष्ठ

मुझे लगता है फ़िल्म पैडमेन ने एक सामाजिक क्रांति कर दी है. लोग आज खुलकर स्त्रियों द्वारा मासिक धर्म या माहवारी या ऋतुचक्र या मेंस्ट्रुअल सायकल या संक्षिप्त में जैसा कि शहरों में कहा जाता है `एम.सी.’ या ‘महीने से`के समय उपयोग में लाये जाने वाले सेनेटरी नेपकिन्स या पेड्स की बात करने लगे हैं. इसका प्रथम श्रेय तो तमिलनाडु के सन १९६२ में पैदा होने वाले अरुणाचलम मुरुनगनंथम को जाता ही है लेकिन `टॉयलेट एक प्रेमकथा` जैसी समाज के गंभीर मुद्दे का हल खोजती फ़िल्म के बाद `पैडमेन` जैसी सोद्देश्य फ़िल्म बनाने के लिए ट्विंकल खन्ना व अक्षय कुमार को भी इस सामाजिक क्रांति लाने के लिए श्रेय देना ही होगा.

स्त्रियां पैड्स या माहवारी की बात हमेशा गुपचुप करती रहीं हैं. अपनी पेन्टीज़ या ख़ून से थोड़ा सन गए कपड़े छिपाकर सुखाती रहीं हैं. ऐसे देश में पेड्स की बात करना या टीवी पर इसके विज्ञापन देखना या शहरों में इस फ़िल्म की बोर्डिंग देखना एक अचरज भरा अनुभव हो गया है. स्त्रियां अपने एम.सी. के आने से पहले २-३ दिन पहले कुछ अनमनी सी होने लगतीं हैं, शरीर भी संकेत देने लगता है की एम.सी. आने वाली है. कुछ स्त्रियों को इस समय कसकर अलग तरह का पेट का दर्द होता है, किसी को बहुत रक्त स्त्राव होता है. इस मासिक धर्म से जुड़ी बहुत सी बातों की चर्चा ज़रूरी हो गई है.

तामिलनाडु के कोयम्बटूर के अरुणाचलम जी के शोध के अनुसार सिर्फ़ भारत में ही नहीं पूरी दुनियाँ में एम.सी. या पेड्स की बात करना तक एक टेबू है. दूकान पर जब कोई स्त्री पेड्स ख़रीदने जाती है तो नज़रें चुराकर दुकानदार से ये माँगती है. वह भी इधर उधर देखकर जल्दी से अखबार में छुपाकर उन्हें देता है जैसे कि वह कंडोम बेच रहा है. टीवी विज्ञापनों में भी पेड्स पर रक्त नहीं स्याही बहती दिखाते हैं. कब तक इस प्राकृतिक सच से हम मुंह मोड़ते रहेंगे? वह भी इतना बड़ा सच कि जिस पर सारी सृष्टि टिकी हुई है. दूर दराज़ गाँव की स्त्रियां इन दिनों सूखी पट्टियां, राख या अखबार का कागज़ या पुराने गंदे कपड़े उपयोग मे लातीं हैं इसलिए भारत विश्व में दूसरे स्थान पर है जहां की स्त्रियोंको सबसे अधिक सर्वाइकल कैंसर होता है. पंद्रह वर्ष पूर्व तक तो सिर्फ पांच प्रतिशत स्त्रियां सेनेटरी नेपकिन्स उपयोग करतीं थीं. अरुणाचलम जी ने जब अपनी पत्नी को पुराना कपड़ा उपयोग में लाते देखा, तब ध्यान गया कि परिवार में सभी स्त्रियां कपड़ा उपयोग मिलतीं हैं. उन्होंने कहा भी कि वह बाज़ार में मिलने वाले पैड्स क्यों नहीं खरीदतीं तो वह बहुत गुस्सा हुईं कि क्या उन्हें पता नहीं है कि बाज़ार में पेड्स मिलते हैं लेकिन यदि वह उन्हें खरीदेंगी तो घर का किसी चीज़ के लिए कुछ और बजट काम करना पड़ेगा. इनके पिता एक हथकरघा गृह में काम करते थे, शायद इसी बात से उनके मन में विचार आया कि क्यों नहीं लो बजट पेड्स बनाये जाएँ जिससे देश की गरीब औरत भी साफ़ सुथरे ढंग से अपने ये दिन बिताकर अनेक बीमारियों से बच सके.

एक साधरण घर के युवा का दिवास्वप्न व उत्कट जीजीविषा थी कि आज उनकी सस्ती नेपकिन्स बनाने वाली फैक्टरी में २१,००० स्त्रियां काम करतीं हैं. इसके कारण का तो अक्षय कुमार के वाइरल हुए वीडिओ से पता लग गया होगा कि अरुणाचलम जानबूझ कर अक्षय कुमार का फ़ोन नहीं उठाते थे. जब ट्विंकल ने फ़ोन पर उनसे लन्दन में संपर्क किया तो बोले कि तुम्हारे पति का भी फ़ोन आया था लेकिन मैं उससे बात नहीं करना चाहता था क्योंकि मेल्स स्लो होते हैं स्त्रियां बहुत जल्दी बात समझती हैं व तेज़ी से काम करतीं हैं. उनका ये निजी तर्क होने के पीछे क्या कारण है ये वही जानें. उन्होंने संकल्प किया था कि वह आजीवन मासिक धर्म के हाइजीन पर काम करेंगे. अक्षय कुमार व ट्विंकल खन्ना जैसे लोग एक सोद्देश्य फ़िल्म बनाने के लिए आगे आये और इस तरह सन २०१८ सस्ते पेड्स उपयोग करने की क्रान्ति का वर्ष बन गया.

पेड्स से जुड़ीं बहुत ही अंधविश्वासी मान्यताएं हैं. अरुणाचलम जी कुछ को रेखांकित करतें हैं - यदि कोई नववधु सेनेटरी नेपकिन्स उपयोग में लाती है और उस पर किसी का पैर पड़ जाये तो निश्चित है कि उसकी सास मर जाएगी या फिर किसी लड़की के पेड को कुत्ता सूँघ ले तो उस लड़की की शादी नहीं होती. तो बताइये ऐसे समाज में स्त्रियों को कौन पैड्स उपयोग करने देगा?

चलिए एम.सी. से जुड़ी भ्रांन्तियों पर भी बात हो जाए. मैं अपने ही अनुभवों से करतीं हूँ. किशोर होते ही नानी के घर मटके में से पानी लेना वर्जित था. अब जिस किसी से कहो कि ज़रा मटके में से पानी पिला दीजिये तो वह व्यंग करती या रहस्य से मुस्कराती दृष्टि से डंके से गिलास में पानी देकर उपकृत करता था. ज़ाहिर है कुछ कमतर अछूत हो गए प्राणी होने की भावना तो मन में भर ही जाती थी. नानी रसोई घर में खाना बनाने से पहले आटे से एक लक्षमण रेखा बना देतीं थी जिसके अंदर बिना नहाये जाना वर्जित था तो ज़ाहिर है घर की माहवारी वाली लड़कियां या स्त्रियों तो दूर ही रहतीं थीं. हाँ, माँ के घर ये अवरोध खत्म हो गए थे लेकिन फिर भी अचार छूना मना था क्योंकि धारणा थी की वह खराब हो जाएगा. आज ये बात भी प्रमाणित हो गई है इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है.

स्त्री देह का ऋतु चक्र वैसे ही सामाजिक दृष्टिकोण के कुचक्र से घिरा है. उस पर किसी-किसी महिला को एक-दो दिन इतना भयंकर दर्द होता है कि वह पीड़ा सिर्फ़ वही समझ सकती है. मीनोपॉज़ के समय अधिकाँश महिलायें हार्मोन्स असन्तुलन के प्रभाव में होती हैं. कभी-कभी भयंकर ब्लीडिंग भी हो जाती है. तो उस महिला के बारे में सोचा जाना चाहिए जिसका शरीर भी तकलीफ़ झेलता है व भावनाये भी.

सन ११९९ मे मैं डभोई तालुका [ ज़िला वडोदरा, गुजरात ] की महिला सामाख्या की नारी अदालत से चमत्कृत होकर लौटी थी. ऐसी अदालत देखना अपने आप मे एक अजूबा था. इस अदालत मे वादी प्रतिवादी अपने पक्ष रख रहे थे व जिरह कर रहे थे उनके साथ मे आये हुए लोग. कोर्ट की भागदौड़ से बचने के लिए सुलह कर लेते थे. इस तरह उन्हें बिना पैसे खर्च किये न्याय मिला जाता था. सर्वप्रथम गुजरात, कर्नाटक व उत्तर प्रदेश को महिला सामाख्या पायलट प्रोजेक्ट के लिए चुना. सन १९८८ मे इसकी रुपरेखा बनायी. इस योजना का आरम्भ ग्रामीण स्त्री उत्थान के लिए मानव संसाधन मंत्रालय के शिक्षा विभाग द्वारा नीदरलेंड के आर्थिक सहयोग से पांच वर्ष के लिए सन १९८९ मे किया गया. इस योजना ने जब आश्चर्यजनक परिणाम देने आरम्भ किये तो नीदरलेंड ने सन २००२ तक आर्थिक सहयोग देने का अनुबंध कर लिया. आज ये योजना ग्यारह ज़िलों में काम कर रही है.

तो सन १९९९ में स्त्री मासिक धर्म को लेकर मुझे बहुत बड़ा झटका लगा था क्योंकि इस अदालत में बैठी अनपढ़ ग्रामीण स्त्रियाँ जैसे घोषणा कर रहीं थीं, “महिला सामाख्या की ट्रेनिंग ने हमें सिखाया है कि मासिक धर्म के समय हम अछूत थोड़े ही हो जातें हैं. ये एक प्राकृतिक क्रिया है तो क्यों हम पूजा छोड़ें? हम सभी मंदिर जाते हैं, पूजा करते हैं. मूर्तियों पर टीका भी लगाते हैं.”

विज्ञान पढ़ी मैं नख से शिख तक शर्मसार थी क्योंकि इन दिनों न मैं पूजा करती थी व मूर्तियों को छूना तो दूर की बात थी. इस बात का उल्लेख इसलिए भी कर रहीं हूँ कि बीस वर्षों से [या पहले से भी] सरकारी स्तर पर मासिक धर्म को लेकर रूट लेवल से अन्धविश्वासों के उन्मूलन की बात आरम्भ हो चुकी थी.

अहमदाबाद के मार्च सन २०१७ के लाड़ली मीडिया पुरस्कार वितरण समारोह में ऑनलाइन पब्लिकेशंस अवॉर्ड केटेगरी के अंतर्गत जब तेईस चौबीस वर्ष की पत्रकार पुरस्कार लेने आई तो मन उसके लिए आसीस से भर गया क्योंकि उसने ग्रामीण क्षेत्रों में सैनिटरी नेपकिन्स की हाइजीन पर सर्वे किया था.

उसके बाद इसकी हाइजीन को लेकर देशव्यापी हल्ला तो जब मचा जब तमिलनाडु के अरुणाचलम मुरुनगनांथम की ‘कौन बनेगा करोड़पति?’ टीवी शो में एंट्री हुई. हालांकि इन्हें सस्ते सेनेटरी नेपकिंस बनाने के लिए पद्मश्री तो मिल चुकी थी. निम्न वर्ग से ले कर इलीट वर्ग की महिलायें विचलित हो गईं बकौल अस्मिता, अहमदाबाद की सदस्य नीरजा भटनागर ने विचलित होकर अपनी फ़ेसबुक वॉल पर लिखा, ‘अपने पर बहुत शर्म आ रही है. कितनी ही गरीब स्त्रियों को राह में फटे कपड़ों में भीख माँगते देखा है तो मैं स्त्री होकर भी कभी क्यों नहीं सोच पाई की जिस औरत के पास पहनने को कपड़े नहीं हैं, वह मासिक धर्म के दिनों में कहाँ से कपड़ा जुटाती होगी?’

पैडमेन फ़िल्म की बात करने से पहले आइये साहित्य पर भी नज़र डाल लें. मैंने भी एक सर्वे के दौरान २५-३० वर्ष पूर्व की मध्यम श्रेणी की स्त्री की वेदना समझी थी जो घर से बाहर निकलने में हर समय घबराई रहती थी कि कहीं साड़ी या चादरा को फाड़कर बनाया गया पैड पेंटी से बहार ना खिसक जाए क्योंकि कपड़ा फाड़ते समय उसके साइज़ का अनुमान लगाना आसान नहीं होता था. उसकी चिंता ये हो जाती थी की कहीं रक्त कपड़ों पर ना दिखाई दे. यदि पुरानी पेंटी की एलास्टिक ढीली हो गई है तो उसे बार-बार बाज़ार मे उसे चुपके से हाथ से खिसकाकर सही जगह लाना होता था.

चित्रा मुद्‍गल जी ने बरसों पूर्व अपनी कहानी ‘दरमियान’ में कामकाजी स्त्री को मासिक धर्म से होने वाली असहजताओ की बात चित्रित करने का दुस्साहस किया था. रमणिका गुप्ता जी ने बीड़ा उठाया है कि चालीस भाषाओं की लेखिकाये जो दहकते कारणों को कलम से रेखांकित कर रहीं है उनका हिंदी भाषा में अनुवाद हो. सिर्फ़ तेलुगु भाषा से अनुवादित अंक में अब तक किये गए अलग भाषाओं के अनुवाद में मुझे मासिक धर्म से जुड़ी कुछ कहानियां ऐसी मिलीं कि इस फ़िल्म के संदर्भ में उनका उल्लेख आवश्यक है. एक बहुत दर्दनाक उदाहरण है--तेलुगु की ‘जंगुबाई’ कहान में गोपी भाग्यलक्ष्मी हमे गोंड आदिवासियों की उन परम्पराओ तक ले जाती है जहाँ एक मासूम सी लड़की को जंगल में बने घर में माहवारी के समय 3-4 दिन घर के बाहर रहना पड़ता है. इस जगह पर जब बकरी बँधी जाती है तो शेर बाहर बंधी बकरी को कभी-कभी खा जाता है यानि कि लड़की की हैसियत बकरी जैसी ही है. चाहे तो उसे कोई शेर खा जाए लेकिन घर वालों को कोई फ़र्क नहीं पड़ता.

एक और कहानी ऐसी मिली चर्चित करना बेहद ज़रूरी हो गया है जैसे कि चंद्र्लता अपनी कहानी ‘बैलेंस शीट’ में स्त्री पुरुष के बीच की ‘बैलेंस शीट’ [संबंधों के संतुलन ] को आज तक ढूंढ़ रही है या हम कह सकते हैं कि हाशिये इसीलिये उलांघे जा रहे है कि समाज को ये ‘बैलेंस शीट’ मिलें.

इस कहानी में एक ऑफ़िस में एक महिला बॉस के सामने एक महिला कर्मचारी दो ढाई घंटे तक बैठी रहती है, उठ नहीं रही. बॉस को अचरज होता है. जब बाद में बॉस को कारण पता लगता है कि उसे एम.सी.आरम्भ हो गई है और कोई इंतज़ाम न होने के कारण वह वहां से उठ नहीं रही. जब बॉस को कारण पता लगता है तो उसे अपने औरत होने पर शर्म आती है कि वह औरत होते हुए भी क्यों नहीं उसकी शर्म को पहचान पाई जैसे कि नीरजा भटनागर सहित बहुत सी स्त्रियों को आ रही थी. स्त्री इस प्राकृतिक क्रिया की शर्म से उभरें इसके लिए ये कहानी उससे भी आगे की बात करती है. इस कहानी में दिमाग को सोचने के लिये मजबूर करने वाला व शिक्षित करने वाला संदेश है कि हम समाज का ऐसा वातावरण बनाए जिसमे कोई लड़की रजस्वला होने पर ऑफ़िस या कही भी शर्म से गड़ी एक जगह ना बैठीं रहे बल्कि उसके सहयोगी यहाँ तक कि पुरुष भी उसकी सहायता करे ना कि उसका मज़ाक उड़ाये. ये पंक्तियां समाज को बहुत बड़ा संदेश देती है – ‘अपने बच्चों, स्त्रियों, अपने पुरिषों को सिखाना है, शरीर का यह एक सहज धर्म है. इसमें न अपमान है न वितृष्णा. न लज्जित होने की कोई बात. ऋतुचक्र का स्त्रियों पर शासन हर क्षण चलता रहता है.’ सच कहूँ तो अपने कथ्य के कारण मुझे ये रचना अविस्मरणीय लगी है.

एक दो प्रदेश ने इन विशेष दिनों में महिला कर्मचारियों को छुट्टी देने का प्रावधान रक्खा है जिसके बारे में अरुणाचलम जी का कहना है, 'ये एक नैसर्गिक प्रक्रिया है जिसमें अलग से आराम की कोई ज़रुरत नहीं होती. हाँ ,अगर किसी के शरीर को कुछ तकलीफ़ हो रही हो तो वह स्त्री अपनी निजी छुट्टी का उपयोग कर सकती है.’

पेड्स व एम.सी. जुड़ें हैं स्त्री के विशेष अंग से. मासिक धर्म का आरम्भ एक ईश्वरीय सन्देश होता है कि यह स्त्री शरीर माँ बनाने लायक हो गया है. जब आंध्र प्रदे की बेटी नौ बरस की होती है तो एक समारोह किया जाता है जिसमे मामा उसे आधी साड़ी या ‘वनि’ देता है, जो प्रतीक है कि तुम्हारे स्कर्ट फ्रॉक पहनने के दिन गए तुम्हारा यौवन आने वाला है और जब वह रजस्वला हो जाती है तो एक दिन सारा घर बिजली क झालरो से चमचमा जाता है रिश्तेदारों व परिचितों को आमंत्रण दिया जाता है, ‘हमारी बेटी पुष्पावती हो गई है ,आप आइए.’

बरसों पहले हम लोग हैदराबाद ही थे जब हमारे रिश्तेदार के यहाँ पड़ोस से ये बुलावा आया था और मेरे सारी शरीर में. झुरझुरी हो उठी थी कि कैसे माँ बाप है जो बेटी के युवा होने का ढिंढोरा पीट रहे है. मेरे विचार से ये प्रथा बहुत बड़ा कारण है कि भारत की सभी भाषाओँ में सिर्फ़ तेलुगु में एम.सी. या योनि को लेकर ऐसी कहानियां लिखी जा सकीं जिसमें बालिका अपहरण पर ओल्गा की कहानी ‘अयोनि’ भी शामिल है. लेखिका ओल्गा जी से मैंने प्रश्न किया कि नारी संस्थाये इस समारोह के लिये विद्रोह नही कर रही? उन्होंने फ़ोन पर बताया, ‘सन् 1950 से 1985 तक ये प्रथा कम होने लगी लेकिन आज के धन प्रदर्शन के दौड़ में ये और भी धूमधाम से हो रही है.’

अब हंसी भी आती है, इस प्रथा पर मैं शर्मसार हो रही थी. आज उसी विषय पर ‘पैडमेन’ बन चुकी है. एक और घटना की मैं गवाह हूँ - जब एक महिला अस्पताल में दाखिल थी तो उसका देवर उसके लिये नर्स से सेनेटरी नेपकिन्स लाकर देता था जिससे आसपास के लोगों को ये विश्वास हो गया था कि ज़रूर उसका अपनी भाभी से अनैतिक सम्बन्ध होगा जिससे देवर इतनी गोपनीय वस्तु लाकर उसे दे रहा था.

ये स्क्रिप्ट राइटर की सूझ बूझ है जो उन्होंने इस फिल्म के केन्द्रीय पात्र का नाम जन जन की जुबां पर चढ़ जाने वाला नाम रक्खा है - लक्ष्मीकांत चौहान. लोकेशन चुनी है कोयम्बटूर के स्थान पर माहेश्वर, मध्य प्रदेश. निदेशक आर. बाल्कि ने सूझबूझ से इस फ़िल्म में एम.सी. से जुड़े तथ्यों में भावनायें पिरोकर, थोड़ा हास्य डालकर व नाटकीय बनाकर एक क्रांतिकारी सन्देश दिया है. ये सब कलात्मक रूप से संतुलित ढंग से करना एक चुनौती है जिसे बखूबी निभाया है निदेशक ने. कुछ सन्देश तो बिना किसी संवाद के बिना कुछ कहे दिए गए हैं. साधारण पत्नी के रूप में राधा आप्टे भी अपने किरदार को खींच ले गईं हैं. वह भी अक्षय कुमार जैसे मंजे कलाकार की पत्नी के रोल में.

सोनम कपूर की उपस्थिति साधारण से वातावरण में एक सुगंधित हवा के झोंके की तरह है. बस कभी-कभी लगता है जैसे कोई जनता को प्रेरित करने वाले सरकारी विज्ञापन को फ़िल्म में ढाल दिया गया है. कुछ सीन बहुत दिलचस्प हैं जैसे कुछ औरतों का शर्माते हुए दुकान से सेनेटरी नेपकिन्स ख़रीदना या अक्षयकुमार का केले के पत्तों में पेड्स देना या सायकल पर छोटा टिफिन लेकर उनका अरुणाचलम की तरह चलना. अक्षयकुमार ने फिल्म बनने से पहले इनके घर जाकर इनकी बातचीत करने के व चलने के अंदाज़ का अध्ययन किया था. अरुणाचलम भी हैरान रह गए थे कि कोई सुपरस्टार इतना ज़मीन से जुड़ा हो सकता है?

इस फ़िल्म में लक्ष्मीकांत अद्भुत लगता है जो अपनी पत्नी के अपनी सायकल में बैठने के लिए एक लकड़ी की सीट बना देता है या प्याज़ काटने के लिए ऐसी मशीन जिससे उसकी आँखों में से पानी ना निकले. वह अपनी पत्नी के लिए पैड भी बना देता क्योंकि उसे मंज़ूर नहीं है कि वह गंदा कपड़ा उपयोग में लाये. फिर पैडस का उपयोग अपनी बहिन को करने के लिए देता है तो डाँट खाता है, ‘अपनी बहिन को क्या ऐसी चीज़ दी जाती है?’

इन्हीं पैडस को उपयोग करने को मेडीकल स्टूडेंट्स को देता है. सबसे मज़ेदार दृश्य वह है जब वह एकांत में जाकर सस्ता पैड बनाकर पेंटी में पहनता है व उछल कूद करता है कि जब स्त्रियां इन्हें पहनेंगीं तो वह आरामदायक महसूस तो करेंगी. उधर उसकी पत्नी सोशल टेबू के कारण दुखी की जाता है.

अक्षय कुमार तो पिघला हुआ लोहा हैं – उन्हें ‘बेबी’ के सीक्रेट ऑफ़िसर में ढाल दीजिये या ‘होलिडेज़’ के मिलट्री ऑफ़िसर में या ‘एयरलिफ़्ट’ के बिज़नेसमैन में या ‘टॉइलेट - एक प्रेमकथा’ के एक ग्रामीण में - वह उसी सांचे में ढलकर विश्वनीय रूप से तनकर खड़े हो जाएंगे.

नारी सशक्तिकरण का पाठ तभी पूरा होगा जब स्कूल स्तर से इन बातों की जानकारी दी जाये व शर्म का पाठ न पढ़ा कर हाइजीन का पाठ पढ़ाया जाए. अरुणाचलम भारत ही नहीं विश्व के पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने सस्ते पेड्स बनाकर दिखाया है. सात देशों से अधिक में इन हेंडलूम मशीन्स की व सस्ते पेड्स की मांग बढ़ गई है. ज़ाहिर है एक इंकलाब लेकर आई है ये फ़िल्म जिससे निम्न वर्ग की स्त्रियां भी हाइजीन के लिए सचेत होंगी. इस फ़िल्म का आरम्भ जिस बात से होता है, मैं वही दोहरा रहीं हूँ – ‘अमेरिका के पास है सुपर हीरो, बेट मैन है, स्पाइडर मैन है और भारत के पास है पैडमेन.’ अब तो मुझे बताने में खुशी हो रही है कि भारत के पास एक नहीं दो -दो पैडमैन हैं -- अब असली नाम बताने की ज़रुरत क्या है?

 

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