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  • ओमप्रकाश कश्यप

बचपन के कुछ बिंब - एक दादा का दृष्टिकोण

बालक हमारे भविष्य का प्रतिनिधि है. आने वाले समाज का विवेक. इसलिए जरूरी है कि उसकी नैसर्गिक जिज्ञासा बनी रहे. उसके लिए किया क्या जाए? इसका उत्तर प्रायः हमारे पास नहीं होता. परंपरा और संस्कृति के दबाव में हम जो करते हैं, वह अकसर विपरीत परिणाम देने वाला होता है. शायद इसलिए कि हम बालक को जरूरत से ज्यादा ‘बालक’ समझते हैं. दूसरी ओर बालक कदम-कदम पर संकेत करता है कि वह व्यक्तित्व के स्तर पर स्वतंत्र है. मगर उनपर हम ध्यान नहीं देते. पूर्वाग्रहों के कारण नजरंदाज करते जाते हैं. अब ईशान को ही लें. उसने जीवन का तीसरा वर्ष अभी-अभी पार किया है. अपने आस-पास की चीजों के साथ-साथ वह मानवीय संवेदनाओं को भी पकड़ने लगा है. फिर भी हमारे लिए वह महज बच्चा है; और पांच-सात वर्ष बीतने के बाद भी बच्चा ही रहेगा. उस समय तक रहेगा जब तक वह हमें खुद को बालक न समझने के लिए बाध्य न कर दे. उन दिनों तक संभव है वह स्कूल जाने लगे. किसी प्रतिष्ठित प्रतियोगिता में अव्वल आकर ऐसी सफलता अर्जित करे, जिसे हम कभी प्राप्त नहीं पाए हों. तब भी हमारे लिए वह बच्चा ही रहेगा. इसलिए कि हम बड़े अपने बड़प्पन की भावना से अलग नहीं हो पाते. मेहमानों के आगे हम बालक की चपलता की प्रशंसा करते हैं. बुद्धिमत्ता को सराहते हैं. लेकिन बालक के स्वतंत्र विवेक या उसकी संभावना को प्रायः नजरंदाज करते जाते हैं.

चलिए हम ईशान की ही बात करते हैं. अपनी मासूम अदाओं से वह हमेशा हमारा मन मोहता रहता है. उसकी चपलता पर हमारा वात्सल्य उमड़-उमड़ आता है. हमारे आसपास हो तो प्रत्येक को यही भ्रम होता है कि हम उसे खिलाते-बहलाते हैं. सच तो यह है कि वह हमें खिलाता-बहलाता है. हम उसके सहारे नहीं, बल्कि वह हमारा सहारा है. पूरा घर उसकी इच्छा पर, संकेत पर कठपुतली जैसा व्यवहार करता है. लेकिन बात जब विवेक की हो, स्वतंत्र फैसला करने की हो, तब हम नहीं मानते कि वह अपने स्तर पर कोई फैसला करने में सक्षम है. अपनी इच्छा से वह नहाना भी चाहे तो सर्दी-जुखाम की आशंका पूरे परिवार पर सवार हो जाती है. ‘राजा बेटा’ वह तभी कहला सकता है जब सुबह उठने से रात को बिस्तर पर जाने तक बड़ों की इच्छा का पालन करे. बजाय वह करने के जो उसे अच्छा लगता है, वे सभी काम करे जो माता-पिता और अभिभावकों को सुहाते हैं.

ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्हें बालक के विवेक पर चर्चा करना बचकानापन लग सकता है. उनमें से कुछ वे भी होंगे जो बालसाहित्य को दोयम दर्जे का मानते हैं. ऐसे लोगों की मदद के लिए आगे कुछ कच्चे-पक्के, परंतु सच्चे दृश्य हैं, जिन्हें रचनात्मकता की दृष्टि थोड़ा बदला गया है—

हर दिन शाम होते-होते मैं दफ्तर से घर पहुंचकर घंटी बजाता हूं. परिवार के बड़े सदस्यों को पीछे छोड़ता हुआ वह ऊपर रैलिंग पर आ जाता है. वहीं से गूंज उठती है उसकी आवाज—‘दादू.’

फिर तो दरवाजा खुलते ही गोद में आने की जिद. मैं कपड़े बदल लेना चाहता हूं, वह नहीं सुनता. अपना अधिकार जताते हुए कहता है—

‘दादू ऊपर चलो.’

‘चलेंगे, कपड़े तो बदल...?’

‘नईं, कुछ दिखाना है...’ वह बात बीच ही में काट देता है.

‘अच्छा जूते उतार लें, तब चलेंगे.’

‘नईं, तुम्हें अब्बी कुछ दिखाना है.’

‘ठीक है, चलो.’ बात मनवा लेना उसे आता है.

छत पर पहुंचे. दीपावली करीब थी. केवल चार दिन शेष. घर रोशनी से दमकने लगे थे. लग यही रहा था कि वह झिलमिलाती रोशनी की ओर आकर्षित है. उसी के बारे में कुछ बताना चाहता है.

‘दादू वह देखो....’ उसने एक दरवाजे पर लटकी लड़ियों की ओर इशारा किया.

‘बहुत शानदार, चलो कपड़े बदलकर दुबारा आएंगे.’

‘नईं, अबी और देखना है....’ उसने छत पर डटे रहने का संकेत किया—

‘दादू उधर चलो....’ मुझे कोफ्त-सी हुई. लड़ियां तो बाद में भी देखी जा सकती हैं. कम से कम जूते तो उतारने दिए होते. शायद उसने मेरे मन की हलचल परख ली थी—

‘चलो नीचे चलते हैं....’ वह एकाएक बोला. मुझे अच्छा लगा. साथ लेकर जीने की ओर बढ़ा ही था कि एकाएक पलट गया. मानो कुछ अजूबा देख लिया हो—

‘दादू वह देखो...’ उसने एक घर के आगे दमकते बल्वों की ओर इशारा किया. मुझे भी अपनी गर्दन उस दिशा में मोड़नी पड़ी.

यह करीब-करीब रोज का किस्सा है. बात उसके एक कौतूहल से शुरू होती है, दूसरे पर समाप्त.

बालक के मन में जीवन का उल्लास होता है. उसे वह अपने आप तक सीमित नहीं रखना चाहता. किसी भी चीज को खुद तक सीमित रखना उसका स्वभाव भी नहीं है. सरल होने के कारण ही वह प्रकृति के सर्वाधिक निकट होता है. जो केवल देना जानती है. सभ्यता और संस्कृति के नाम पर बड़े ही बालक को जोड़ना-जुटाना सिखाते हैं. सरलमना बालक बार-बार हमें जीवन जोड़ता है. हमें हमारे नैराश्य और बौद्धिक जड़ता से बाहर निकालना चाहता है. लेकिन हम अपने सिवाय बाकी दुनिया से, जब तक हमारा कोई मतलब न हो, लगभग उकताए हुए होते हैं. इसलिए हम या तो बहुत चिंतित होते हैं, अथवा बेपरवाह. कटु यथार्थ हमारे जीवन के सपने, उमंगे, उल्लास आदि सब छीन लेता है. इस कमी के चलते कई बार अच्छी चीजें भी निगाह से छूट जाती हैं. ऐसी चीजें जो हमारी ऊब और उकताहट कम करने में सहायक हो सकती हैं, उनकी ओर से उदासीन हो आगे बढ़ जाने की हमें आदत-सी पड़ जाती है—

‘दादू उधर चलो.’ ईशान ने मेरा मुंह पकड़कर मोड़ दिया. मुझे उसी ओर मुड़ना पड़ा.

‘दादू सेलो टेप गिर गई.’ वह पड़ोसी की छत की ओर झांकते हुए कहता है. पड़ोसी बाहर रहते हैं. नीचे अंधेरा पसरा हुआ है.

‘कोई बात नहीं बेटा. नई ला देंगे.’

‘मैं देखना चाहता हूं, दिखाओ.’

ईशान के साथ-साथ मैंने भी नीचे की ओर झांका. अंधेरे में सिवाय सफेद से बिंदू के कुछ नजर न आया. मगर ईशान की नजर माशा-अल्लाह. अचानक वह चीख पड़ा—‘वो पड़ी दादू.’

‘ठीक है, दिन में उठा लेंगे. अब चलते हैं.’ मैं उसे लेकर सीढ़ियों की ओर बढ़ा. पर उसका मन बेचैन था—‘दादू सेलो टेप देखनी है....’ उसका स्वर गंभीर था. मानो कुछ सुनिश्चित कर लेना चाहता हो—

‘अभी तो देखी थी....’

‘दुबारा देखनी है....’ मैं उसे लेकर दुबारा मुंडेर की ओर गया. झांककर देखा, अंधेरे में वही सफेद बिंदू झलक रहा था.

‘दादू टेप गिर गई....’

‘कोई बात नहीं. नई ले आएंगे.’ मैं जीने की ओर बढ़ा.

‘दादू, सेलो टेप गिर गई.’ बात उसके दिमाग से उतर ही नहीं रही थी.

बालक अपनी सफलता-असफलता के प्रति बड़ों से ज्यादा सजग होता है. असफलता को सफलता में बदलने के लिए वह बार-बार प्रयास करता है. इतनी बार जितना हम उसके बारे में उतना सोच भी नहीं पाते. कई बार बालक के प्रयास को बचपना कहकर महत्त्वहीन बना देते हैं. बड़े प्रायः बालक के आगे उपदेशनुमा शब्दों में प्रयास की महत्ता का बखान करते हैं. उसे बड़े-बड़े उपदेश दिए जाते हैं. न जाने कितने ग्रंथ इस विषय पर लिखे गए हैं. परंतु बिना हिम्मत हारे लगातार प्रयत्नरत रहना बालक का नैसर्गिक गुण है. किसी को उसे सिखाना नहीं पड़ता. अपने कदमों चलने से पहले वह बार-बार गिरता-पड़ता है. चोट भी खाता है, मगर गिरने-पड़ने या चोटों के डर से प्रयास करना नहीं छोड़ता. कोई सिखाए या न सिखाए बालक अपने आप चलना सीख ही जाता है. बड़ा होने पर यदि वह प्रयास से कतरा रहा है तो अवश्य ही उसकी शिक्षा-दीक्षा में कुछ कमी है. हमने बालक को समझने या समझाने में भूल की है. कुल मिलाकर बचपन के सहज-स्वाभाविक गुणों को, समाजीकरण के नाम पर उससे छीन लिया गया है.

कुछ देर बाद मैं ईशान को लेकर नीचे आ गया. ईशान का चाचा घर में लड़ी लगाने के काम में जुटा था. यह पहला अवसर था जब चार दिन पहले से घर में दीपावली के लिए रोशनी का खास इंतजाम किया जा रहा था. ईशान का अतिरेकी उत्साह जो ठहरा. दीवाली के महीना-भर पहले से वह कल्पनाएं बुनने लगा था. लड़ियां, धमाके, फुलझड़ियां सब उसकी लंबी फेहरिश्त में थे. गोदी से उतरते ही वह अपने चाचा के पास दौड़ गया. मेरे पहुंचने से पहले भी वे रोशनी के इंतजाम में जुटे थे. साथ मिलकर लड़ियां टंगवाई थीं. अब केवल कंदील लगाया जाना शेष था. ईशान दौड़-दौड़कर अपने चाचा की मदद कर रहा था.

‘ईशू, सेलो टेप देना.’ चाचा ने आवाज दी.

ईशू ने कुछ नहीं कहा. चाचा ने दूसरी बार कहा. फिर शांत. अपनी जगह से हिला तक नहीं. आखिर उसके चाचा स्टूल से उतरे. सेलोटेप की खोज में यहां से वहां, अलमारियां झांकने लगे. तब ईशान उनके पीछे पहुंचा—‘चाचा....चाचा!’

‘क्या है?’

‘सेलोटेप निशा दीदी की छत पर पड़ी है....’

‘वहां कैसे पहुंची?’

‘मैं तो खेल रहा था, सेलो टेप निशा दीदी की छत पर जा पड़ी.

‘अच्छा....’

‘गलती से जा पड़ी चाचा....’

‘किसी गलती से...’

‘मेरी, और किसकी?’ उस समय उसके चेहरे की मासूमियत देखने लायक थी. याद आया, बालक झूठ नहीं जानता. बड़े ही उसे झूठ बोलना सिखाते हैं. वह झूठ या तो किसी के कहने पर बोलता है, अथवा तब जब सच बोलने पर दंड मिलने का अंदेशा हो.

‘कोई बात नहीं, नई ले आएंगे.’ चाचा ने हंसकर कहा था. वह दौड़ता हुआ मेरे पास पहुंचा—

‘दादू ऊपर चलो.’

‘अब क्या है?’

‘मुझे लाइटें देखनी हैं.’ दिमाग का बोझ हट जाने से वह पूरे उत्साह में था.

कई बार बालक की चुस्ती, फुर्ती, उसकी मासूम बातचीत बड़ों को बड़े अभाव की पूर्ति जैसी लगती हैं. इसलिए वे बच्चों के साथ बने रहना चाहते हैं. ताकि उनकी मस्ती, उनके सपनों और उमंगों का एक हिस्सा उधार ले सकें. या उन यादों में जी सकें जो उम्र की उठान के समय उनके साथ थीं. उसे गोदी में उठा लेने के अलावा मेरे पास कोई चारा न था—‘ठीक है, किस ओर देखनी है?’

‘दादू उधर देखो.’ अंधेरा बढ़ने से लाइटों की चमक बढ़ गई थी. उसपर तरह-तरह की सजावट. वह छत के इस कोने से उस कोने तक मुझे घुमाता रहा. कभी यहां तो कभी वहां.

‘दादू उस ओर चलो.’ कहकर वह मुझे फिर छत के उसी किनारे की ओर ले आया. और नीचे झांकता हुआ बोला—‘दादू, सेलो टेप गिर गई, वहां...’ उसने धीरे से कहा. तीन साल के बच्चे को खेल-खेल में सेलो टेप नीचे गिर जाने का गहरा एहसास था. अपनी गलती भी वह मान चुका है. फिर भी वह बार-बार स्वीकारता है.

क्या हम बड़े अपनी गलती कभी स्वीकार करते हैं. उल्टे गलतियों पर पर्दा डालने की कोशिश में लगे होते हैं. बालक हमारी देखा-देखी ही बड़ा बनता है. धीरे-धीरे वह सब सीख जाता है, जिसे बड़े दुनियादारी कहते हैं.

बड़े बालक से उसका बचपन ही नहीं, उसकी पवित्रता भी छीन लेते हैं. बालक के पालन-पोषण की कितनी बड़ी कीमत वसूलते हैं हम बड़े.

कभी-कभी लगता है, हम बच्चे ही हमारे सच्चे गुरु हो सकते हैं. पर हम मानें तब न!

(अक्टूबर 31, 2013)

छोटे से छोटा बालक बड़ों से ज्यादा जिज्ञासु होता है. बड़े अनुभव में बड़े होते हैं, जिज्ञासा में छोटे. ज्ञानार्जन के प्रति उनका दृष्टिकोण उपयोगितावादी होता है. वे अकसर सोचते हैं कि जितना जरूरी था, उतना सीख चुके. जो उपयोगी नहीं, उसे सीखना भी जरूरी नहीं. बालक केवल सीखने पर ध्यान देता है. उसकी जरूरत पर कभी विचार नहीं करता. इसलिए उसके जीवन का प्रत्येक पल कौतूहल-भरा होता है. बड़ों की जिज्ञासा युवावस्था पार करते-करते दम तोड़ने लगती है. इसलिए बालक और बड़े की भेंट केवल उम्र की भिन्न दहलीजों पर खड़े व्यक्तियों की मुलाकात नहीं होती. वह अतीव जिज्ञासु और मरणासन्न जिज्ञासा वाले दो प्राणियों जो भिन्न मनोदिशा में जीते हैं—की मुलाकात होती है. पहला दुनिया को एक ही झटके में समझ लेना चाहता है. दूसरा निरंतर संघर्ष और जीवन के थपेड़ों के बीच आस-निराश में झूल रहा होता है. पहले के बाद पास अगाध-अनगिनत सपने होते हैं, उम्मीदें होती हैं. और उन्हें प्राप्त करने का भरपूर उल्लास होता है. दूसरे की उम्मीदें और उल्लास यथार्थ की पथरीली जमीन पर मुरझा चले होते हैं.

बालक जन्म के समय अबोध होता है. इसलिए उसके मस्तिष्क की तुलना कोरी सलेट से की जाती है. सुकरात के शब्दों में कहें तो उसे अपने अज्ञान का ज्ञान होता है. इसलिए दुनिया को जानने की उसे बहुत जल्दी होती है. नयापन उसे आकर्षित करता है. उसे जानने को वह उतावला हो उठता है.

ईशान को साइकिल सवारी का शौक है. साईकिल पर बैठने का उसका अपना अंदाज है. तकिया आगे के डंडे पर टिकाया. उसपर पांव लटकाकर बैठ गए. उसके बाद घंटी की पड़ताल शुरू—

‘दादू घंटी ठीक से नहीं बज रही.’

‘कल मिस्त्री के पास ले चलेंगे....’

‘तुमने घंटी में तेल क्यों नहीं डाला...?’

‘भूल गए.’

‘तुम रोज भूल जाते हो....बदाम क्यों नहीं खाते?’

‘ठीक है, आगे से खा लिया करूंगा.’

अगले ही क्षण उसका ध्यान फिर साइकिल की घंटी की ओर चला गया—

‘दादू घंटी नहीं बज रही.’

‘तेल डाल देंगे. ठीक हो जाएगी.’ मैंने उसकी बात का समर्थन किया.

‘तुम फिर भूल जाओगे. रुको, मैं डालता हूं.’ और वह साइकिल से उतरने को मचलने लगा. रात को दादू सोने की तैयारी में थे कि ईशान जा धमका—

'बताओ मेरी मुट्ठी में क्या है?'

'जरूर टाफी होगी. पर रात में टाफी नहीं खाते. दांत खराब हो जायेंगे. सुबह खाना.' ईशान को अच्छा नहीं लगा. उसके चेहरे के भाव बदले. गुस्से में उसने मुट्ठी खोल दी—

'आजकल तुम्हें कुछ भी याद नहीं रहता. इन्हें दूध के साथ खा लेना. ठीक हो जाओगे.' कहकर वह तमकता हुआ कमरे से बाहर हो गया. पलंग के सिरहाने दो बादाम रखे थे.

दिवाली से एक सप्ताह पहले की घटना है. ईशान के लिए टिफिन खरीदना था. बालक की जरूरत की चीज आप उससे बिना सलाह करके ले आइए. वह रख लेगा. ठीक ऐसे ही जैसे आपकी लाई दूसरी चीजों को रख लेता है. यह उसका संस्कार है. बालक सामान्यतः बड़ों के निर्णय में हस्तक्षेप नहीं करता. लेकिन यदि उसे किसी निर्णय में सहभागी बनाया जाए तो वह चाहता है कि उसकी राय का सम्मान हो. उस समय तक, जब तक आप तर्क द्वारा उसे अपने पक्ष में सहमत न करा लें.

‘बाद में डाल लेंगे. पहले टिफिन खरीद लाते हैं.’

बर्तनों की दुकान नई-नई बसी कालोनी में कम हैं. स्टील का टिफिन अच्छी तरह साफ हो जाता है. मैं वही खरीदना चाहता था. लेकिन बस्ती में बर्तनों की केवल एक दुकान थी. कई टिफिन दिखलाने के बाद उसे एक पसंद आया—

‘दादू ये लेना है.’

‘ठीक है, खरीद लेते हैं.’ मैंने टिफिन हाथ में लेकर देखा. पुराना पीस था. उसका साइट का कुंदा उखड़ा हुआ था. जहां-तहां गड्ढ़े भी पड़े थे. पता नहीं किस मानसिकता में दुकानदार ने हमें पुराना टिफिन थमाया था. वह संभवतः बच्चों की जिद के बारे में जानता था. सोचता था, बच्चा जिद करने लगा तो पुराने टिफिन के कुछ पैसे मिल जाएंगे.

‘दूसरा दिखाइए?’ मैंने दुकानदार से कहा. दुकानदार खोजने लगा. काफी देर के बाद भी उसे नया टिफिन नहीं मिला.

‘दादू यही ठीक है...’ ईशान जल्दी से जल्दी टिफिन को अपना कर लेना चाहता था. मगर यह बताने पर कि पीस पुराना है, वह प्रश्नाकुल निगाह से दुकानदार की ओर देखने लगा. कुछ देर खोजने के बाद उसने हाथ खड़े कर दिए. उतावलेपन के बावजूद ईशान को वस्तुस्थिति समझते देर न लगी....

‘दादू यह खराब है ना?’ उसने दुकान की ओर से मुंह मोड़ते हुए कहा.

‘हां, मंडे को घंटाघर से ला देंगे.’ घंटाघर यानी बड़ा बाजार. यह नाम ईशान को आश्वस्त कर देता है.

‘ला देंगे न!’

‘बिलकुल.’

‘इसी मंडे को...?’ वह सुनिश्चित कर लेना चाहता था.

‘इससे भी अच्छा ला देंगे.’

‘अच्छा.’ वह खुश हो गया. बालहट प्रसिद्ध है. बालहट को लेकर दुनिया में कवियों ने सैकड़ों कविताएं लिखी हैं. मनोवैज्ञानिकों ने बड़े-बड़े ग्रंथों में इसकी चर्चा की है. इस शब्द का इस्तेमाल मुहावरे के रूप में भी होता है. बालहट बालक का सहज-स्वाभाविक लक्षण नहीं है. बालक हट तभी करता है, जब बिना उसके बात न बनती हो. उसके मन को समझने के बजाय बड़े उसपर अपना निर्णय थोपना चाहते हैं. उससे बालक का अहं आहत होता है. हट आहत बालमन की आक्रोशमयी प्रतिक्रिया है. ईशान बालहट से दूर है. एक बार समझा दो, बात उसके दिमाग में उतर जाती है.

(नवंबर 2, 2013)

साप्ताहिक अवकाश के बाद आफिस गया तो लौटते समय टिफिन की याद भी आ गई. लेकिन काफी खोजने के बाद भी उस डिजाइन का टिफिन न मिला. अपनी समझ से अच्छा-सा टिफिन खरीदकर घर लौटा. सोचता था कि दो दिन बीतने के बाद टिफिन की बात ईशान के दिमाग से उतर चुकी होगी. घर पहुंचा तो उसे दरवाजे पर खड़ा पाया.

‘दादू, टिफिन लाए?’

‘बिलकुल लेकर आए हैं?’

‘दिखाओ?’

मैंने टिफिन का पैकेट उसे थमा दिया. उसने तत्काल उसे खोला. सहसा आंखों में चमक उभरी. मगर अगले ही पल उसकी खुशी फीकी पड़ने लगी—

‘क्या हुआ बेटा?’ मैंने उसके बुझते चेहरे को देखकर पूछा.

‘वही टिफिन अच्छा था...’

‘कौन-सा?’

‘जो दुकान पर देखा था, चलो वही लेकर आते हैं.’

‘पर उसका तो कुंदा टूटा हुआ था.’

‘मैं गोंद से चिपका लेता....’

‘गोंद से!’

‘नहीं तो, सेलो टेप से चिपका जाता.’ उसके पास एकाधिक समाधान थे. लगा कई दिनों से यही सोचता आया है. अब चेहरा लटकाने की बारी मेरी थी. सारा उल्लास गायब हो गया. इस बीच ईशान की निगाहें मेरे चेहरे पर टिकी रहीं. चेहरे के भाव धूप-छांव बने रहे—

‘दादू-दादू....’

‘अब क्या है?’ मैंने बुझे मन से पूछा.

‘टिफिन सही है.’

‘कौन-सा टिफिन....’

‘यह भी अच्छा है, वह भी अच्छा था.’

‘कैसे?’

‘ऐसे ही....’ उसने कहा. केवल बड़े ही नहीं, बच्चे भी बड़ों का चेहरा पढ़ना जानते हैं. ईशान ने मेरी उदासी को पढ़ लिया था. और अब वह मुझे बहलाने में लगा था. यह पहला अवसर नहीं था.

बच्चे बड़ों को अकसर चौंका देते हैं.

(नवंबर 5, 2013)

भइया दूज के दिन ईशान नानी के यहां गया. जाते समय बस यूं ही पूछ लिया—ईशान नानी के यहां जा रहे हो, कपड़े तो संभाल लिए?’

‘रहने थोड़े ही जा रहा हूं दादू,’ उसका जवाब था, ‘होकर आ जाऊंगा.’

नानी के घर से लौटा तो खांसी की सौगात लेकर. दीवाली के बाद जो प्रदूषण फैला था, उसी से अलर्जी हुई. उसने गला जकड़ा हुआ था. तुरंत डाक्टर के पास जाना पड़ा. जब से जन्मा है, घर के सदस्यों के अलावा डाॅक्टर को ही भली-भांति पहचानता है. कभी खांसी, कभी बुखार, कभी कुछ और कोई न कोई बीमारी लगी ही रहती है. वह तो अच्छा है कि ज्यादा खाने पीने का शौकीन नहीं है. सो पेट की बीमारी कम जकड़ती है. खांसी के चलते उसका पथ्य-अपथ्य का ध्यान भी रखा जाने लगा. डाक्टर की सलाह पर चिकनाई युक्त भोजन, केला आदि खाने पर नियंत्रण लगा दिया गया.

पथ्य-अपथ्य का मामला स्वाद से ज्यादा स्वतंत्रता में खलल डालने का मामला है. जब जरूरी हो, तब खाद्य अनुशासन के नाम पर स्वतंत्रता की बलि चढ़ा दी जाए.

इस बार अलर्जी का प्रभाव कम था. इसलिए डाॅक्टर ने ईशान के पसंदीदा वसा-युक्त भोजन परांठे, पनीर वगैरह खिलाने की छूट दे दी. वह खुश था. बार-बार सबको याद दिला रहा था—‘दादू मैं खांसी की दवाई लेकर आया हूं...’

‘अच्छी बात है, समय पर खा लिया करना....’

‘ठीक है दादू....एक बात बताऊं.’

‘क्यों नहीं?’

‘डाॅक्टर ने कहा है, पनीर, परांठे खा सकता हूं.’

‘अच्छी बात है.’

‘दादू सुनते हो?’ उसने फिर टोका.

‘बताओ?’

‘दादी से कहकर मेरे लिए आलू के परांठे बनवा दो ना.’

‘खांसी ठीक हो उसके बाद बनवा लेना....’ भीतर से उसकी मम्मा की आवाज आई.

‘नईं, कालरा(डाॅक्टर) ने कहा है, परांठे नहीं खाए तो खांसी ठीक नहीं होगी. मैं चुप था. वह कुछ देर तक मेरी ओर देखता रहा. अचानक मेरा हाथ हिलाते हुए बोला—'दादू, दादी से कहो, मेरे लिए पनीर परांठा बनाए न!

(नवंबर 12, 2013)

बहस, दोस्ताना छीना-झपटी, एक-दूसरे से आगे निकलने की स्वस्थ स्पर्धा, ये बचपन के स्वाभाविक लक्षण हैं. ये नकारात्मक हैं और सकारात्मक भी. नकारात्मक इस अर्थ में कि इनमें बालक की ऊर्जा अनुत्पादक कार्यों में खर्च होती है. कई बार अनावश्यक रूप से आत्ममुग्ध भी बनाते हैं. खुद को आगे निकालने की चाहत का अर्थ है, बाकी को पीछे छोड़ देने की इच्छा. दूसरों को खुद से कमतर मानना. सकारात्मक इस अर्थ में कि इनके माध्यम से बालक स्वयं को, अपनी क्षमताओं को आजमाना सीख जाता है. उसका आत्मविश्वास बढ़ता है.

पहले परिवार बड़े होते थे. अलग-अलग व्यक्तित्वों के बीच रहने से बालक संबंधों को साधना और सामंजस्य बनाए रचना, धीरे-धीरे सीख लेता था. गांव का बालक पशुओं के बीच खेलता था. उन्हें नहाने-धुलाने, चारा-पानी देने में माता-पिता की मदद करता था. इससे आसपास की दुनिया के प्रति अनुराग में सहज जन्म ले लेता था. जिसे उसके परिजन पशु-पक्षियों के नामकरण द्वारा थोड़ा और आत्मीय बना देते थे. परिवार छोटे हुए तो घर में परिजनों की गिनती घटने लगी. बालक के खालीपन को भरने के लिए टेलीविजन, मोबाइल, कंप्यूटर, गेम, काॅमिक्स वगैरह आ गए. जीवन मशीनी स्पर्धा में ढलने लगा. पहले दूध, घी घर में होते थे. बालक परिवार के सदस्यों के साथ गाय-भैंस का नाम भी रख लेता था. इसी आत्मीयता के साथ दूध-दही चट कर जाता था. इन दिनों बालक को दूध पिलाने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ती है. बालक एक गिलास तो दूर, पचास-सौ मिलीलीटर दूध भी गटक ले तो ‘राजा बेटा’ का तमगा आसानी से प्राप्त कर लेता है.

ईशान भी ऐसे बच्चों से अलग नहीं है.

ईशान को दूध पिलाने की जिम्मेदारी दादू पर छोड़ दी जाती है. कभी-कभी वे स्वयं भी संभाल लेते हैं. दादू जानते हैं कि बच्चे खेल पसंद करते हैं. बार-बार आग्रह करने से अच्छा है, बालक द्वारा दूध पीने-पिलाने की क्रिया को किसी रोचक खेल का हिस्सा बना दिया जाए. पर रोज-रोज ऐसी सृजनात्मकता कहां से लाएं. कई बार काम आसानी से बन जाता है तो कई बार खेल को तरह-तरह से घुमाना पड़ता है—

‘भई! कल तो वो बच्चा रात-भर भूख से रोता रहा...’

‘कौन दादू?’

‘वही जो शीशे में रहता है, ईशान की नकल करता रहता है.’

‘क्यों रोता रहा?’

‘तुम उसे रोज-रोज दूध पिलाते थे. कल नहीं पिलाया. सो बेचारा भूख से बिलबिलाता रहा.’

‘उसकी मम्मी कहां गई थी?’

‘नानी के घर....’ ईशान सोच में पड़ गया. दादू के हाथ में कटोरी थी. उसने कटोरी खींच ली. दर्पण के आगे जाकर बड़ा-सा घूंट भरा. शीशे अपने ही प्रतिबिंब को कई कोणों से निहारा. फिर कटोरी दादू के हाथ में देते हुए बोला—‘दादू, पिला दिया. अब नहीं रोएगा.’ मानो अपना कर्तव्य पूरा कर दिया हो.

‘एक घूंट से थोड़े ही भूख मिटने वाली है. कुछ देर बाद तुम सोने चले जाओगे, वह बेचारा भूख से रात-भर तड़फता रहेगा.’ ईशान का ध्यान कहीं और था—

‘इसकी मम्मी नानी के पास गई है!’ दादू के हाथ से कटोरी लेते हुए उसने पूछा.

‘हां...कल यही तो बताया था.’

‘इसे क्यों छोड़ गईं?’

‘भूल गई थीं...’

‘मम्मी भी भूल जाती हैं?’ मैं उसके निहितार्थ समझने का प्रयत्न कर ही रहा था कि उसने अगला सवाल दाग दिया—

‘उसकी मम्मी भूल क्यों गई थीं?’

‘आएगीं जब पूछकर बताऊंगा. अभी तो तुम उसकी भूख के बारे में सोचो. नहीं तो बेचारा रात-भर भूख से बिलखता रहेगा.’

बात उसकी समझ में आ गई. उसके बाद तो कटोरी मुंह से लगाई और एक झटके में खाली कर दी. इस तरह अच्छा बच्चा बन गया. लेकिन दूध पिलाने के लिए एक ही बहाना रोज-रोज चले, यह आवश्यक नहीं है. शीशे में मौजूद बच्चे के लिए रोज-रोज दूध पीना पड़े यह उसे स्वीकार नहीं है. इसलिए दादू को रोज कोई नया बहाना सोचकर रखना पड़ता है.

(नवंबर 14, 2013)

ईशान का दूध पीने से बार-बार इंन्कार करना पूरे परिवार के लिए एक समस्या है. कई बार सोचता हूं कि क्या दूध उसको प्रिय नहीं है. ऐसा तो नहीं है. दूध उसे पसंद है. जब दूसरी मीठी चीजें पसंद हैं तो दूध भला क्यों नापसंद होगा. दरअसल यह समस्या अकेले ईशान की नहीं, हर बच्चे की है. बालक कोका-कोला पी लेगा. बाजार से ठंडे दूध की बोतल ला दो उसे भी गटागट खाली कर देगा. लेकिन घर का दूध चाहे गर्म हो या ठंडा, आना-कानी करने लगेगा. कारण यही है, टाफी, बिस्कुट, चाकलेट बच्चे के मनोविज्ञान को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं, जबकि दूध पारंपरिक भोजन है, जन्म के समय से बालक का भरण-पोषण उसपर टिका होता है. इसलिए बड़े होने पर भी माता-पिता दूध पीने का आग्रह बालक को अपने व्यक्तित्व में हस्तक्षेप जान पड़ता है. गोया वह कहना चाहता है, ‘अगर मेरी पसंद की चीजें नहीं दोगे तो मैं तुम्हारी पंसद की चीजों से भी इन्कार करता रहूंगा.’

बालक को छंटाक भर दूध पिलाने के लिए भी घंटों खुशामद करनी पड़ती है. उपाय यही है कि बालक को यह एहसास करा दिया जाए कि दूध पिलाने का आग्रह अपनी पसंद उसपर थोपना नहीं है. और यदि बालक जान ले कि दूध के जरिये भी वह आपके बड़प्पन को चुनौती दे सकता है, तो दूध पीना उसके लिए मनोवैज्ञानिक खेल बन जाएगा.

‘ईशान, मैंने अपनी आंखें बंद कर ली हैं.’

‘क्यों दादू?’

‘क्योंकि मैं जानता हूं, जब तक आंखें बंद रहेंगी, ईशान दूध नहीं पिएगा.’

‘क्यों नहीं पिएगा?’

‘हमने कह दिया नहीं पिएगा तो नहीं पिएगा. हम आंख बंद करते हैं. जब खोलेंगे हम जानते हैं तब भी दूध की कटोरी भरी हुई मिलेगी. ईशान दूध नहीं पिएगा, नहीं पिएगा. बिलकुल भी नहीं पिएगा.’ कहते हुए दादू ने दोनों हथेलियां आंखों पर टिका दीं. मुंह दूसरी ओर फेर लिया.

‘ईशान दूध पी तो नहीं रहा?’

ईशान चुप.

‘मैं पूछता हूं, ईशान दूध पी तो नहीं रहा....’ दादू उंगली के पीछे से झांकने की कोशिश करेंगे. ईशान की उंगलियां कटोरी की ओर रेंगती दिखेंगी. जब तक खेल का एक चक्र पूरा होगा, ईशान दूध को उदरस्थ कर चुका होगा.

एक बार किसी ने दादू से कह दिया—आप बच्चे को बड़ी अच्छी तरह खिला लेते हैं.’ इसपर दादू का उत्तर था, इसका उलटा समझो जी, बच्चा मुझे बहुत अच्छी तरह खिला लेता है.’

संवेदनाओं का यह खेल कब कौन-सी दिशा ले ले, पता नहीं चलता. कभी-कभी खेल को आगे बढ़ाने का रास्ता अपने आप निकल आता है. हमेशा की तरह उस दिन भी दादू और ईशान का खेल चल रहा था कि रोटी खिलाते-खिलाते दादू की उंगली अचानक ईशान के दांतों तले आ गई—‘शी...ई....ई.’ उनके मुंह से निकला. उसी क्षण नए खेल की राह निकल आई. अगले दिन खाना शुरू होने से पहले ही ईशान ने कहा—

‘दादू उंगली काट कर खाऊंगा?’ दादू समझ गए. उस दिन अपनी ओर से नया बहाना खोजने की जरूरत न पड़ी. खाने की शुरुआत हमेशा की तरह तुकबंदी से हुई—

‘ये रोटी तोड़ी, फिर मोड़ी. सब्जी में डुबाई और ईशू को खिलाई.’ तुकबंदी पूरी होते-होते रोटी का टुकड़ा जैसे ही मुंह तक पहुंचा, ईशान ने तेजी से दांत बंद कर लिए.

‘शी....ई..ई.’ दादू ने दर्द का नाटक किया. जितनी फुर्ती से ईशान ने काटने की कोशिश की, उसी फुर्ती से उन्होंने उंगली बाहर खींच ली थी. दांत उंगली को हल्का-सा ही छू पाए. उसके बाद तो खेल जम गया. ईशान हंसते-हंसते भोजन करने लगा. एक बार दादू सचमुच चूक गए. मुंह से चीख निकली, असली. दर्द की लकीर चेहरे तक खिंच गई. दादू ने उसे मुस्कान के नीचे दबाने की कोशिश की, परंतु....

‘पेट भर गया, दादू.’ ईशान पीछे हट गया. अगले दिन भोजन का समय हुआ तो दादू थाल लेकर बैठ गए. ईशान रोज की तरह उनकी गोद में सवार हो गया.

‘कल के खेल में तो भई खूब मजा आया?’ दादू बोले. बीते दिन का खेल ईशान की मर्जी से शुरू हुआ था. उम्मीद थी कि उसे एक-दो बार आगे भी खेला जा सकता है. लेकिन ईशान मानो पिछले दिन ही निर्णय कर चुका था—‘दादू उंगली काटने का खेल नहीं.’

दूसरों को पीड़ा पहुंचाना बालक का स्वभाव नहीं है. खेल के बहाने भी नहीं. यदि कहीं ऐसा दिखे तो वहां बालक के मन को समझने के बजाए उसके परिवेश की पड़ताल करनी चाहिए. परिवेश में हिंसा होगी तो बालक भी उससे बच नहीं पाएगा.

(नवंबर 20, 2013)

दादू को खांसी थी. दूध पिलाने बैठे तो खांसी का झटका लगा. ईशान की निगाह दादू के चेहरे पर अटक गई. वह एक झटके में उठ खड़ा हुआ. दौड़ता हुआ फ्रिज तक पहुंचा. उसमें रखी दवाइयों में से एक पत्ता निकाला. और लाकर दादू के हाथों में थमा दिया. उसके बाद उठकर पानी लाने के लिए पलटा. तभी दादू ने हाथ पकड़ लिया.

‘छोड़ो, पानी लाना है.’ उसने हाथ छुड़ाने की कोशिश की.

‘हम गोली तब तक नहीं लेंगे, जब तक ईशान दूध नहीं पी लेता.’ ईशान के चेहरे पर उलझन सवार हो गई. दादू दुबारा जान-बूझकर खांसे? ईशान ने आगे बढ़कर दूध की कटोरी उठा ली. एक झटके में कटोरी खाली कर, रसोई की ओर दौड़ गया.

दवा खिलाने के बाद उसने हिदायत दी—‘दादू! लाजा बेटा की तरह लोज दवाई खा लिया करो. नहीं तो चूहा ले जाएगा.’ और पचपन के ‘राजा बेटा’ ने तीन साल के ‘राजा बेटा’ को गोदी में उठा लिया. छोटा राजा बेटा हंसने लगा. वहीं बड़े ‘राजा बेटा’ पर अगले दिन दूध पिलाने के लिए कोई नया बहाना खोजने की चिंता सवार हो गई.

बालक अपनी सामान्य आवश्यकताओं के लिए बड़ों पर निर्भर होता है. जब तक उसकी जरूरतें या कोई और स्वार्थ आपसे सधता है, वह आपके बड़प्पन का सम्मान करेगा. खुद को बालक माने रहेगा. शर्त यह है कि आप भी उसके व्यक्तित्व का सम्मान करें. व्यक्तित्व को जरा-सी ठेस पहुंची नहीं कि अस्मिता का सवाल महत्त्वपूर्ण हो जाता है. वह उम्र के अंतर को भूल जाता है. भूल जाता है कि आप उसके माता-पिता, दादा-दादी हैं या कुछ और. व्यक्तित्व की लड़ाई में उसे प्रत्येक संबंध छोटा लगता है. बालक के साथ अस्मिता की लड़ाई उसके साथ जिद करके नहीं जीती जा सकती. आप बड़प्पन का दर्प भूल जाइए. बालक जिद भूल जाएगा.

(नवंबर 21, 2013)

बचपन जितना सरल है, उतना रहस्यमय भी होता है. कई बार सामने रोशनी का अजस्र स्रोत हो तब भी हमारा मन बुझा-बुझा रहता है. तो कई बार घुप्प अंधियारे में भी हजार-हजार उजाले पल रहे होते हैं. कभी-कभी सुख से भरपूर गलियारे भी कुछ नहीं कर पाते, तो कभी माचिस की मामूली तीली भी बच्चे के चेहरे पर चमक ले आती है. कदाचित इसलिए कि जीवन के आघात सहते-सहते बड़ों की अंतःऊर्जा निःशेष हो चुकी होती है. जबकि बालक के मनस् में ब्रह्मांड-भर की ऊर्जा समायी होती है.

कुछ वर्ष पहले एक फिल्म आई थी. आमिर खान की—‘तारे जमीन पर’. व्यावसायिक फार्मूलाबद्ध फिल्म थी. हाँ, फार्मूला नया था, सो फिल्म चल गई. फिल्म ने बच्चों को पृथ्वी पर हंसते-खेलते तारों के रूप में दिखाया था. क्या बच्चे सचमुच खेलते-कूदते, हंसते-खिलखिलाते बच्चे पृथ्वी पर तारे की तरह होते हैं. मेरा तो मानना है कि वे तारों से भी बढ़कर होते हैं. तारे आकार में भले ही बड़े हों, लेकिन वे मामूली से सपना भी देख नहीं पाते. जबकि बच्चे की छोटी-छोटी आंखों में लुक-झिप करते छोटे-बड़े अनगिनत सपने छिपे होते हैं. मानो एक तारे के भीतर दर्जनों तारे समाए हों. बचपन की खूबी है, बड़े-बड़े सपने देखना.

बावजूद इसके प्रत्येक बालक अपनी आंखों की जादूगरी से मानो निर्लिप्त होता है. अनजान भी कह सकते हैं. जैसे आसमान अपने आंगन में मौजूद तारों के बावजूद शांत, निभ्र्रांत बना रहता है. बालक जैसे-जैसे बड़ा होता है, उसका सौंदर्य बोध बढ़ता ही जाता है. दृष्टि जो पहले सितारों पर टिकी होती थी, अब उनमें चंद्रमा झिलमिलाने लगता है. और किशोरावस्था में जब मन में प्रेमांकुर फूटता है तब चंद्रमा मानो सखा-मीत बन जाता है. कभी कभी कासिद बनकर संदेश पहुंचाने का काम भी करते हुए देखा है. हर रात का संगी-साथी, माना कि आजकल फ्लेट संस्कृति में चंद्रमा और तरुणाई का पहले जैसा नाता नहीं रहा. फिर भी चांद जैसे मुख की कल्पना हर तरुणाई करती है. उसके बाद कल्पना से पीछा छूट जाता है. बालक बड़ा होकर, गृहस्थी संभाल लेता है. पूरी तरह यथार्थवादी धरती का होकर रह जाता है. बुढ़ावे में दुनिया से मिटटी से मन उचटने लगता है. लेकिन उससे नाता नहीं टूटता.

तो क्या जन्म से मृत्यु तक का सफर अंबर में टिमटिमाते सितारों की दुनिया से चांद तक आने और फिर धरती का होकर रह जाने की कथा है? इस तरह जिसे हम शैशव कहते हैं, वह मनुष्यत्व की सबसे ऊंची अवस्था है. और शेष जीवन धरती की ओर आने, मिट्टी के मिट्टी बनकर रह जाने तक की किस्सागोई.

लोग नाहक इसे जीवन का आगे बढ़ना कहते हैं. असल में यह पीछे लौटने की कहानी है. शैशव उसका उच्चतम पड़ाव है.

(नवंबर 24, 2013)

 

लेखक के बारे में - लेखक के कुछ शब्द

जो आत्मलीन रहकर लिखते हैं, उनका वास्तविक परिचय उनके शब्द होते हैं. वे कृतियां भी जिन्हें उन्होंने खुद से संवाद करते हुए रचा है. मैं खुद को ऐसा ही लेखक पाता हूँ. इसका नुकसान तो पता नहीं लाभ काफी हुआ है, सदा वही लिखा जो मन को भाया. कम छपा पर गम नहीं किया. जिस परिवेश से आना हुआ उसमें जन्मतिथि प्राइमरी स्कूल में दाखिले के समय तय की जाती है. अपना जन्म जिला बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश के एक गांव में हुआ था. जन्मतिथि ‘पंडिज्जी’ ने तय की—15 जनवरी 1959. न माता-पिता ने विरोध किया था, न ही अपुन ने. उसी के साथ गाँव की मिट्टी में, खेत-खलिहानों के बीच पला-बढा. दर्शन में परास्नातक और दूसरी डिग्रियां प्राप्त कीं. अलाव किनारे बैठ किस्सा-कहानी सुनकर गुनना सीखा. जमीन से जुड़ाव वैचारिक प्रतिबद्धता का कारण बना. गांव में जातिवाद ने विद्रोही बनाया. धर्म के नाम पर होने वाले पाखंड ने नास्तिक. लेखक बनने का सपना था, कितना फला—, समझने में देर है.

फिलहाल शब्दों से दोस्ती को 40 वर्ष बीत चुके हैं. इस दोस्ती ने पांच उपन्यास, चार कहानी संग्रह, चार नाटक संग्रह दिए हैं. इनके अलावा लघुकथा, व्यंग्य, समीक्षा, विज्ञान, कविता, बालसाहित्य, समाजवाद, सहकारिता दर्शन पर वैचारिक पुस्तकें नाम की हैं. जिनकी संख्या 40 से अधिक है. वैचारिक निबंधों का ब्लाग ‘आखरमाला’ है. उसपर दो सौ से ऊपर आलेख, 3000 पृष्ठों की सामग्री के रूप में सुरक्षित हैं. दो-तीन ब्लॉग और हैं जिनपर कथासाहित्य और बालसाहित्य को जगह मिली है. हिंदी अकादमी, दिल्ली(2002) तथा उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान( 2013) द्वारा सम्मानित.

ओमप्रकाश कश्यप

जी-571, अभिधा, गोविंदपुरम,

गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश, पिन-201013

दूरभाष : 9013 254 2 32

Email. opkaashyap@gmail.com

आखरमाला : omprakashkashyap.wordpress.com

—ओमप्रकाश कश्यप

जी-571, अभिधा, गोविंदपुरम

गाजियाबाद-201013

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