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  • डॉ सविता पाठक

घोंसले के बाहर-भीतर



दिमाग में ढेरों बातें चलती रहती हैं। जैसे पूरा दिमाग रेलवे स्टेशन हो। हर तरफ आवाज आ रही है। खिलौने वाला चला जा रहा है। किसी को देर हो रही है। कोई तेजी से दौड़ कर आ रहा है। कोई बड़े इत्मीनान से चल रहा, जैसे उसे कहीं नहीं जाना है। तो कोई थक कर सो गया है, बेपरवाही से हाथ पैर फेंक कर। दिमाग में मची अफरातफरी के बीच समझ में नहीं आता कि इसमें से मैं कौन सा हूं। मैं थक के सो गया इंसान हूं या हाथ में चाबी के गुच्छे लेकर कर भटकता हुआ कोई वेंडर या जल्दी जल्दी चिप्स कुरकुरे पैकेट खरीदती हुई कोई औरत। मेरे दिमाग में एक जमघट सा लगा रहता है। बार-बार उसे नियंत्रित करने की कोशिश करता हूं कि मैं कौन हूं? लेकिन मैं खुद को ढूंढ नहीं पाता। अपने ही भीतर अपने नाम को पुकारता हूं। फिर ऐसे लगता है कि इस नाम से तो मेरा कोई परिचय नहीं है। जब बाहर से कोई बुलाता है तो फोकस करके उस आवाज को सुनता हूं, जैसे कोई अनाउंसमेंट हो। बार-बार दिमाग को नियंत्रित करने की कोशिश करता हूं।

वो बोलता जा रहा था। बेतरतीब बातों को बड़े ही सिलसिलेवार तरीके से। लेकिन पहले के मुकाबले इस बार ज्यादा थकी हुई आवाचायवाले नेिरती जा रही थी। जैसे उसमें अंधेरा भर रहा था और रौशनी आहिस्ता आहिस्ता गायब हो रही थी। ठीक वैसे ही उसकी आवाज थी। दोनों मेट्रो स्टेशन के बाहर लगी पटरी पर चाय पी रहे थे। चायवाले ने हमेशा की तरह समझ लिया कि वो दोनों दो कप चाय पियेंगे। उसने फिर एक कप थमा दिया। दोनों बगल में रखे एक बिजली के खंबे की बेंच पर बैठे थे और मच्छर उन्हें उठाने के लिए जोर जोर से सिर पर भनभनाने लगे।

यार ये सब छोड़ो, तू ज्यादा दिमाग लगाता है। जिन्दगी ज्यादा बुद्धि लगाने से नहीं चलती। वह रुक रुक कर यही बोल रही थी।

तुम्हें क्या पड़ी है इस सबसे ... परे हटाओ यार ...

खुशबू ने किसी तरह उसे समझाने की कोशिश की। वैसे उसके पास समझाने के लिए कुछ खास नहीं था। एक मामूली सी नौकरी थी और जिन्दगी के हजार पचड़े। अपने तई हर दृश्य को देखकर आंख मूंदने की कोशिश करती थी। लेकिन साहिल का क्या करे। वह तो जब भी बोलता है तो लगता है कि किसी ठहरे तालाब में कोई खूब सारे पत्थर फेंक रहा है। जिससे पूरा तालाब हिल गया हो। बरसों की जमी काई फट गयी हो। लेकिन वह तो ऐसी इंसान थी जिसे बहुत ही कम धूप में जीने की लत लग गयी थी। उसके शरीर को उसके मन को दो कमरे के सीलन वाले कमरे के फ्लोर पर टिके रहने की आदत लग गयी थी। लेकिन साहिल को तो जैसे धूप की कुलबुलाहट हो। जैसे कोई बेचैन पेड़ जिसको कैसे भी करके अपने हिस्से की धूप लेनी है।

साहिल बातें करते हुए छटपटाने लगता है। मन के भीतर की छटपटाहट उसके शरीर पर तारी हो जाती है। वो बोलते बोलते कांपने लगता है। कहां कहां की बातें करता है जैसे बहुत सारे लोग रूहानी बातें करते हैं। बात बात पर कोई फलसफा सुनाते हैं वैसे वह बात बात पर कोई न्युज की लाइन सुनाता है।

आइए आइए देखिए यह देश कैसे बिक रहा है? आपको क्या चाहिए बताइये बताइये रेल चाहिए कि बैंक। ओह आपको तो सिर्फ खाद फैक्टरी चाहिए...

साहिल धीरे बोलो... खुशबू उसकी तेज होती आवाज से घबरा जाती थी। अगल बगल के लोग पलट कर देखने लगे। वह किसी न्यूज एंकर की तरह हाथ हिला हिला कर बोलने लगता और हंसने लगता, वह हंसी उसे हर दिन और उलझन में डाल देती थी। ऐसे लगने लगता कि जल्दी ही वो इस बातचीत से भी दूर निकल जायेगा या कहीं सड़क के किनारे खड़ा होकर बड़बड़ायेगा। फिर वह क्या करेगी।

खुशबू ने चाय की ठेकी पर अपना मुंह दुपट्टे से छुपा लिया ताकि कोई उसे न पहचाने। साहिल ने उसकी उलझन भांप ली।

उसकी आवाज़ मध्यम हो गयी- ठीक है। चल बड़ी छोटी सी बात बताता हूं, मेरी गली में एक छोटा सा पिल्ला है उसके पांव में चोट लगी है, उसको रोज अंडा खिलाता था। जब उस दिन अंडा खरीदने गया। नवरात्रि चल रहे थे। मैंने पूछा अंडा है क्या? दुकानवाले ने मुझे घूर कर देखा। ...यार यकीन मान मुझे अजीब सी सिहरन हो गयी...कई बार मुझे लगता है कि दुकान पर अंडा लेने जाऊंगा और भीड़ मुझे पकड़ लेगी कि देख ये नवरात्रि में अंडा लेने आया है...

ये उसके लिए छोटी सी बात नहीं थी। ये बहुत बड़ी बात थी कुछ ही दिन पहले मीट बेचने वाले लड़के को पकड़कर कुछ लोगों ने बेवजह पीटा था। या कहें तो वजह इतनी जरा सी थी कि किसी ने उड़ा दिया कि लड़का मंगलवार के दिन चोरी से मीट बेचता है। साहिल तबसे बहुत ही परेशान रह रहा था।

साहिल बोलता जा रहा था। पतला-दुबला साहिल हलकी सी दाढ़ी रखता था। लेकिन, पिछले कुछ महीनों से उसने दाढ़ी बढ़ा ली थी। बिलकुल वैसे ही जैसे ज्यादातर लड़कों ने दाढ़ी बढ़ा ली थी। थोड़ी नुकीली बना कर। खुशबू का ध्यान उसके शरीर पर लगा रहता है। ऊंगलियों के नाखून बहुत बढ़ गये हैं, आंखे बहुत रातों से न सोने से पथराई सी लग रही हैं। वो पलके भी कितनी कम झपकाता है। खुशबू का भीतर ही भीतर मन करता है कि नेलकटर लेकर उसके नाखून काट दे लेकिन अगले ही पल सोचती है कि इससे क्या होगा।


उस बरस शहर की हवा साफ हो गयी थी। चिड़ियों ने नयी नयी जगहों पर आशियाना बनाना शुरू कर दिया था। लेकिन घरों के भीतर की घुटन बढ़ गयी थी। शहर में दो खबरें एक साथ तैर रही थी। एक ओर कोरोना की खबर थी तो दूसरी ओर दंगों का माहौल बन रहा था। लेकिन उन दोनों की जिन्दगी में एक तीसरी खबर और पसर चुकी थी। वह यह थी कि कम्पनी जल्दी ही बड़ी छंटनी करने वाली है। छंटनी का तनाव हर दिन बढ़ता जा रहा था। लगता था कि एचआर से आयी हर अगली काल पर उन्ही का नाम लिखा है। कर्मचारियों के व्हाट्सअप ग्रुप बन गये थे। उसमें भी किस कम्पनी में कितनी छंटनी हो रही है उसकी खबरें मिलती थी। सबकुछ अजीब था। सोशल मीडिया पर कोई कोई व्यंजन की रेसिपी डालता था या फिर अपने हुनर को जाहिर करता था। लेकिन यहां सारा हुनर डर की आग में जल गया था। खुशबू को काम से नहीं निकाला गया था लेकिन तनख्वाह आधी हो गयी थी।

तभी उसे एक झटके से अकाउंट वाले गुप्ता जी ने बताया- मैडम साहिल तो पागल हो गया है।

पागल हो गया मतलब।

अरे मैडम आपने देखा नहीं कि वो बहुत बोलने लगा है, पता नहीं क्या क्या बोलता है।

खुशबू ने कोई जवाब नहीं दिया।

पागल शब्द पर उसे लगा कि वो खुद पागल हो रही है। पिछले कितने दिनों से उसे खुद नहीं समझ में आ रहा है कि वह क्या सोच रही है? पिछले कितने दिनों से एक लड़के को रोज गौर से देखती है। मेट्रो स्टेशन के बाहर एक कोने में बैठा रहता है, कुछ कुछ बुदबुदाता रहता है, वह लाख कोशिश कर ले लेकिन उसका ध्यान उधर जरूर जाता है। फिर कोशिश करती है कि उसकी ओर ध्यान न दे। लेकिन ऐसा कहां हो पाता है। आंखे उतनी भी दुनियादार नहीं होती है।

वह लड़का मेट्रो के पास वाली सड़क के एक कोने में बैठा रहता है, शरीर से भी लगातार कमजोर होता जा रहा है। आते जाते लोगों को देखता रहता है। भीड़ का एक रेला बसों से उतरता है फिर बस ढ़ेर सारे लोगों को अपने मुंह में भर लेती है, ऐसे ही मेट्रो का दरवाजा खुलता है। एक धक्का सा लगता है और लोग उसके पेट में समा जाते हैं। फिर वही पेट कितने लोगों को उगल देता है। वह रोज इन भागते-दौड़ते लोगों को देखता है। क्यों देखता है वो सबको, क्या उसका कोई घर होगा, क्या उसके रिश्तेदार होंगे या कोई इसकी परवाह करने वाला होगा क्या वह कभी काम करता होगा। जब भी उधर आंख जाती तो यही सवाल चुभने लगता है। एक दिन खुशबू ने किसी से पूछा कि ये लड़का कौन है? ये ऐसे क्यों बैठे रहता है कुछ खाने को दो तो लेता भी नहीं है।

मेट्रो की तरफ वह भी सबकी तरह तेजी से भागती थी। लेकिन एक दिन उसकी आंखों ने उसे गुमसुम बैठे लड़के के बारे में बात करने पर मजबूर कर दिया। फलवाले ने बताया कि ये घर शिफ्ट कराने वाले के यहां मजदूरी करता था। एक बार तीन मंजिले पर किसी का लोहे का बक्सा चढ़वा रहा था। बालकनी के ऊपर से हाईटेंशन तार जा रहा था। उसी से करंट लग गया। वहीं गिर पड़ा..अपने घर का इकलौता यही कमाने वाला था इसकी मां अब भी घरों में बर्तन मांजती है। दिन दिन भर भूखा रहता है लेकिन किसी से भीख नहीं लेता है। मां शाम को कभी कभी पकड़ कर ले जाती है, खाना खिलाती है। वो भी क्या करे बूढ़ी हो गयी है...

खुशबू के भीतर एक डर चिलक कर उठा और लगा कि कंधे के पीछे की नस टूट गयी है। उसका बैग उसके हाथ से गिर जायेगा अगर साहिल को ऐसा हो गया तो वह क्या करेगी।

गुप्ता जी ने जब से कहा है कि साहिल पागल हो रहा है, उसका दिमाग किसी और चीज में लग ही नहीं रहा है। उस दिन आफिस का समय जैसे दुख की काली रात हो जो बिताये बीत नहीं रही थी। उसे कैसे भी करके साहिल को समझाना है।

साहिल को उसने मैसेज किया- आफिस के बाहर मिल। चाय पिलाऊंगी।

उसके और साहिल के बीच की सबसे सुंदर कड़ी चाय थी। शाम को जब आफिस लोगों को निचोड़ के बार फेंक देते थे तो ये चाय ही थी जो दुबारा जान भरती थी। दोनों किसी तरह की भी चाय पी सकते थे, वह चाय पर कभी मौसम की तो कभी आफिस की बातें करते। चाय की इस हल्की सी मीठी दोस्ती में साहिल ने खुशबू को कभी कोई ऐसी बात नहीं कही जिससे उसके भीतर की डरपोक लड़की और सिमट जाती। पहले वो अक्सर चुप ही रहता था। खुशबू ही दुनिया जहान की बात करती थी। लेकिन साहिल आज चाय की पटरी पर भी बोलता जा रहा था। अगल बगल के लोग कभी हैरानी से उसे तो कभी खुशबू को देखने लगते कभी हां में हां मिलाने लगते हैं। फिर कुछ समझ कर थोड़ी दूरी सी बना लेते हैं। साहिल तो जैसे लोगों की उपस्थिति से ही नावाकिफ सा हो गया हो। अब तो उसे किसी के साथ से भी कुछ खास मतलब नहीं लग रहा था।

वह बोलते बोलते खुशबू के बहुत करीब आकर बोलने लगा-

जानती हो अनप्रोडक्टिव होना क्या होता, बेकार होना क्या होता है, बेकार होना यूजलेस होना है। मैं यूजलेस हूं। वैसे इस सिस्टम में हर आदमी यूजलेस है, एक साथ दस हजार लोग यूजलेस हो जाते हैं। कम्पनी उन्हें कहती है आउट। गेटआउट। जब तक गेट के अंदर हैं यूजफुल, बाहर हैं तो बेकार..

फिर कुछ थम कर बोला-

लाखों लाख लोग ऐसे हैं यार, बहुत डर लगता है सबसे। मरने का डर उतना बड़ा नहीं होता है-नौकरी जाने का डर बहुत बड़ा होता है। आप अपने ही घर में बेकार हो जाते हो, मां कि नजर में, बाप की नजर में, खुद अपनी नजर में बेकार...

उसकी आवाज़ फिर से तेज होने लगी। आस पास के लोगों तक जाने लगी।

ये देखो बेकार यूजलेस पीपल...इनके पास कोई काबिलियत ही नहीं...

देखो मेरे दिमाग में समस्या है, यही कहोगी ना..काउंसलिंग..हर घंटा दो हजार चाहिए इसको हा हा...। देखो ट्रेन आने वाली है। नहीं नहीं मेरी कोई ट्रेन नहीं आती है, मुझे कहां जाना है, कहीं नहीं जाना है, मैं तो रोज यहीं आदतन आकर खड़ा हो जाता हूं।

खुशबू ने आहिस्ता से उसका हाथ पकड़ा। जब उसे कुछ नहीं आता तो वह किसी का हाथ पकड़ लेती है, उसे लगता है कि उसके हाथ उसके भीतर की बातों को ज्यादा सही सही कह पायेंगे। वह अपनी भीतर की सारी उष्मा उन हथेलियों में भरती जा रही थी। लेकिन एक संदेह भी भीतर समाता जा रहा था कि उसने ये करने में बहुत देर कर दी है।

तुम बहुत सोचते हो चिल करो यार...भाड़ में जाय सबकुछ। तुम अपने बारे में सोचो, तुम सोचो आंटी तुम्हारे बिना कैसे रहेंगी।

उसके पास कुछ कहने के लिए खास नहीं था। बस यही बात वह बार बार दुहरा रही थी।

यही तो मैं कहता हूं चिल करो जस्ट चिल चिल ... साहिल उसे चिढ़ाने लगा। खड़े होकर फिर अजीब सी हरकत करने लगा।

देखो-अनुलोम विलोम एक गहरी सांस लो, एक अंदर जा रही उसे जाते हुए देखो, देखो वो गयी, गले में फेफड़े मे रोक लो गिनती गिनो...

एक दो तीन...फिर सांस धीरे धीरे वापस छोड़ो...

वो इस नाटक को भी पूरा नहीं कर पाया। जैसे कोई भूचाल आया हो, उसका पूरा शरीर हिलने लगा फिर एकाएक शांत हो गया। वह बोलता जा रहा था जैसे किसी बड़े से खाली गुम्बद में कोई फुसफुसाहट गूंज रही हो। फिर खुद ही यूं फड़फड़ाने लगता जैसे वहां कोने कतरे में दुबके सैकड़ों कबूतरों को किसी ने छेड़ दिया है।

अरे छह दिन हो गये मामा का फोन आये...

आगरे में बैंड और घोड़ी का काम था। कोरोना ने सब बर्बाद कर दिया। पूरे दो सीजन कुछ कमाई नहीं हुई। ऊपर से उनको कोरोना हो गया। अस्पताल ने पूरे ढाई लाख वसूल लिए । तुम भी पूछो कि इनश्योरेंस क्यों नहीं करवाया। अरे अब क्या बोले... कितने दिन उन्होंने बैंड वाले लड़कों को भी खाना खिलाया। लेकिन कोई कब तक खिला सकता है... बैंड वाले लड़के सब टूट गये। घोड़ी बेचनी पड़ी। छह दिन से रोज फोन कर रहे हैं । नहीं मुझे चिल करना है। अब मामा का कैंसर पता चला है। मैं गया था एम्स कितनी मुश्किल से कार्ड बना...।

मुझे वापस उल्टी गिनती गिननी चाहिए।

वह फिर से अनुलोम-विलोम का नाटक करने लगा।


चाय की दुकान पर कुछ एक लोग खड़े थे उन्होंने कनखी से देखा फिर कुछ समझ के अनदेखा कर दिया। खुशबू के कंधे की नस तेजी से चीसने लगी और जिन हाथों को इतना काबिल समझती थी कि वो किसी से भी उसके दिल की बात कहने में सक्षम हैं वो आज बहुत कमज़ोर लग रहे थे। उसे अपने हाथ की नस इतनी कमजोर लगने लगी कि साहिल के हाथ से उसका हाथ आप ही छूट गया।

वायरस तनख्वाह ले गया।

फिर एक दिन ये आधी तनख्वाह भी कुछ लोगों को मिलनी बंद हो गयी।

लाकडाउन शुरू हो गया। एक चुप पसर गयी। खटर पटर करती प्रेस की मशीने बंद हो गयीं। स्कूलों को किताबें नहीं चाहिए थी। कोचिंग संस्थानों को प्रतियोगी पत्रिकायें नहीं चाहिए थी। खुशबू के आफिस में छोटे-बड़े जोड़कर सौ लोग काम करते थे। उनमें से साठ लोगों को निकाल दिया गया। मालिकान ने बताया कि आनलाइन वर्क होगा दूसरे क्लाइंट ने काम देना बंद कर दिया है।

ये चुप समय था। कोई आवाज़ नहीं। सन्नाटे में सिसकियां और मातम जायज़ था। चलन था कि कोई किसी के साथ नहीं रोयेगा। रोना है तो किस्मत को रोइये।

साहिल को कोई काम नहीं मिला, मिलता भी क्या। काम की जगहों से तो लोग बेकार होकर निकल रहे थे। एक ऐसी फुर्सत का समय सबको मिला जिसमें सिर्फ उदास होने की फुर्सत थी। जिस फुर्सत के लम्हें के लिए लोग तरसते थे, वो किसी श्राप की तरह घर में भन्नाने लगी थी।

हवा में जैसे मांस जलने की गंध भर गयी हो।

खुशबू ने कितनी मिन्नत करके उसे मिलने बुलाया था लेकिन वो अपने आपे में नहीं था। आइ वांट अ जाब व्हेयर माई बाडी एंड सोल कुड स्टे टुगेदर यही लिखा था साहिल की सी वी पर। खुशबू ने इसे तुरंत एडिट किया और लिखा आई वांट टू सर्व द बेस्ट फार द ग्रोथ आफ आरगेनाइजेशन। भला ये भी कोई बात हुई कि आत्मा और शरीर एक साथ रहें, खुशबू थोड़ा सा हंसी भी। लेकिन सर्व द बेस्ट का भी कहीं से जवाब नहीं आया। साहिल का हौसला पूरी तरह टूट चुका था। उसने खुशबू से एक दो बार फोन पर बात की लेकिन अब अक्सर उसका फोन स्विच आफ रहने लगा।

अब वो सोशल मीडिया पर भी नहीं आता था। खुशबू ने मैंसेजर पर उससे कहा कि प्लीज आकर मिल। अरजेन्ट है।

उसका भी छह महीने बाद जवाब आया-मिलता हूं।

खुशबू के घर वह पहले कभी आया नहीं था। बड़े शहरों के चलन के मुताबिक दोनों ने एक दूसरे के घर जाने में कोई रूचि नहीं दिखायी थी। उनके घर किन्ही मोहल्लों में थे उन मोहल्लों की पहले से एक अजीब सी साख थी। उन मोहल्लों के नाम रोज गार्डन हो सकते थे लेकिन वहां झूठे ही सही कोई गुलाब आंखे उठाकर सूरज को नहीं देखता था। पतली-पतली तंग गलियों में हाई-टेंशन तारों और ढ़ेर सारे कैमरों के बीच भी उदासियां घरों में घुस आती थी। ये कहानियां रूप रंग बदल बदल के लोगों का उपहास करती थीं। वो इतनी बार इतनी दफा वहां आती रहती कि उनका होना किसी एक्सीडेंट की तरह नहीं था। वहां घरों की खिड़कियां दरवाज़े बालकनी इतने सटे हुए थे कि उदासियां कहीं से कहीं पहुंच जाती थीं। कई बार लगता है कि एक ही कहानी बारी बारी से हर घर में घट रही है, आश्चर्य होता है कि उन कहानियों के कपड़े डायलाग कैसे बगैर बताये वहां पहुंच जाते हैं।

खुशबू ने साहिल को बहुत मिन्नत करके बुलाया था।

हमेशा की तरह हंसता हुआ साहिल भीतर आया। खुशबू ने एक आश्वस्ति की सांस भरी।

और सब मस्त है...

हां...।

फिर वो बेवजह और मुस्कुराने लगा। फिर वही बड़े से खाली गुम्बद में फुसफुसाहटें गूंजने लगी और उसका शरीर खुद ही दुबके कबूतरों की तरह फड़फड़ाने लगा। चारो तरफ गर्द उड़ने लगी और खुशबू का दम घुटने लगा। उसे लगा कि मेज़ पर रखा पानी का गिलास अभी ढलक कर नीचे आ गिरेगा।

देखो देखो ये है वो जगह जहां यूक्रेन का जहाज खड़ा है। ठीक से देखिये गौर से देखिये। और ये वो जगह है जहां अभी अभी एक मिसाइल आकर गिरी है।

बड़ाम...भड़ाम

वो बोल रहा था, पूरे कमरे में नाच रहा था। वह बोले जा रहा था, किसी न्यूज एंकर की तरह। दोनों एक साल बाद मिले थे। इस दौरान एकआध बार दोनों ने फोन पर बात की थी। उनके बीच क्या पनपता, क्या नहीं कोई कैसे कहे। मिट्टी के भीतर दबे अमोले भी तो बिन पानी के, बिन धूप के मर जाते हैं, कहां अखुआते हैं। खुशबू के भीतर बस एक ही डर समा रहा था कि साहिल इतनी जोर जोर बोल रहा है। पड़ोसियों को पता नहीं, क्या लगेगा। दूसरे कमरे से भाभी निकलकर वहां बैठ गयी जैसे कोई अनहोनी होने वाली हो और वो उसे रोक देंगी।

वो फिर सोफे पर बैठ गया जल्दी जल्दी बोलने और तेज तेज हाथ पांव झटकने से साहिल की पीठ का दर्द और बढ़ गया। फिर फुसफुसाने लगा- मैं अपने पेट की समस्या से परेशान हूं, सारा ग्लुटन बंद कर दिया है लेकिन फिर भी पेट ठीक नहीं रहता है ऊपर से मेरे पीठ का दर्द वो ठीक ही नहीं हो रहा है। तुम्हारे कंधे का दर्द कैसा है।..

मैं चाहूं तो फेसबुक पर लिख सकता हूं लेकिन क्या होगा। दो चार लोग लाइक करेंगे और दो चार लोग गाली देंगे। माफी चाहता हूं आप बुरा नहीं मानियेगा यूपी और बिहार वालों से, यार भूख से लोग मर गये और कितने मर जाते अगर लोग खाना नहीं खिलाते लेकिन..सवाल पूछा किसी से कि क्यों लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया गया...कौन पूछता है ये सवाल...। आप भी तो यूपी वाले हो...


यार आप क्यों बोल रहे हो हम तो दोस्त हैं...। परे हटाओ यूपी-बिहार। खुशबू ने थोड़ा माहौल हल्का करने के लिए कहा।

दोस्त, हां हम दोस्त हैं, हा हा हा आइ एम ओके यू आर ओके दोस्त...दोस्तों का हाल नहीं देखा तुमने। वो भी कहता हैं कि वो दोस्त हैं। वो पुलिस भी कहती है कि वो लोगों की मित्र हैं।

यार पुलिस की बात कहां से आ गयी।

खुशबू बार बार उसे बातचीत का सिरा पकड़ा रही थी लेकिन वह तो जैसे किसी अदृश्य ताकत से बात कर रहा हो। उस ताकत से बात करने के लिए वह अपनी पूरा ताकत लगा रहा था जैसे अपनी जीभ को किसी चीज से छुड़ा रहा है और इस प्रक्रिया में उसकी जीभ बार बार बाहर निकल रही हो। भीतर की छटपटाहट से उसका हलक सूख जा रहा था और होंठ सूखकर फट गये थे उनमें से हलका सा खून निकल आया।

वह बोले जा रहा था जैसे कोई तेजी से गोल गोल पेन कागज़ पर घुमा रहा हो, शुरू में लगे कि गोला बना है लेकिन देखते देखते वो रेखाओं का जंजाल बन जाय।

हमें पचहत्तर साल की आज़ादी से सिर्फ पांच किलो चना चाहिए। चना देखा है अंदर उसमें कीड़े भरे है, पूरा चना खोखला है। लेकिन कैसे लाइन लगी है। रोजगार मिले न मिले... लेकिन ऐसा भी नहीं है, आदमी डरता है। वो कहां बोल पाता है।

जानती हैं वर्क क्या होता वर्क यानि काम होता है यानि ऐसी ताकत लगाना जिससे कोई चीज अपनी जगह से हिल जाय।

साहिल ने बोलते हुए मेज अपनी जगह से खिसका दी-इसे कहते हैं वर्क। भाभी थोड़ी और सर्तक हो गयीं।

हमने क्या हिला कर रख दिया.. बताइये बताइये। हम काम करके किसी चीज को हिलाकर रख देते हैं। हम लोग जो खुद हिल चुके हैं..मजाक है ये...।

साहिल बस कर यार मत परेशान होओ। सब ठीक हो जायेगा।

खुशबू के पास दिलासा देने के लिए बहुत कम शब्द थे। सच तो ये है कि खुद उसकी जबान कुछ बोलने से पहले टूट जाती है। उसने अपने हर परिचित को साहिल की नौकरी के लिए पूछा था, सच तो ये था कि उसे खुद अपनी आधी तनख्वाह वाली नौकरी का भरोसा नहीं था। यह सोचते ही दुख की कहानियां प्रेत की तरह उस पर छाने लगती।

मेरा नाम क्या है मैं बताता हूं साहिल। मेरी बहन का नाम सबा है।

आपको भी लग रहा होगा कि मैं मुसलमान हूं। यही तो प्राब्लम है आपको नाम ही सुनकर कुछ का कुछ लग जाता है। हमारे यहां आदमी इतने जल्दी कोई धारणा क्यों बना लेता है। आप भी बना लीजिए उस झा की तरह। जिस तरह उसने मुझे कहा था कि और बताइये साहिल साब क्या हाल है तख्ते ताउस तो गया आपका। यार वो किस इतिहास की बात कर रहा था। मेरा कौन सा तख्ते ताउस। मेरे पापा तो बंटवारे के बाद आगरे में गठ्ठर कंधे पर लाद कर कपड़े बेचते थे..फेरी लगाते थे। फिर दिल्ली आये। मालूम आपको, उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी थी। मेरी मां मुझे ये रोज कहानी सुनाती है..मैं और मेरी बहन आगरे में पैदा हुए... मेरी मां ने नाम रखा था मेरा साहिल। किसका साहिल, किसका किनारा... वैसे तुमको भी ये जानने में क्या इंट्रेस्ट है।

मेरी पीठ में बहुत दर्द होता है। ये मत सोचो कि वैसे ही हो रहा है। मुझे लगता है कि मेरी पीठ पर कुछ लदा है। वो बहुत भारी है। पहले वो मुझे भारी नहीं लगता था। अभी भारी लगता है।

क्या लदा है मेरी पीठ पर। देखो तो शायद इतिहास है या फिर उम्मीदें या फिर मेरी नाकामी। मेरी पीठ पर कुछ लदा है...

साहिल बैठ जाओ प्लीज़। हम आराम से बातें करते हैं। खुशबू ने किसी तरह ये बोलने की ताकत जुटायी। लेकिन वह उससे बात कर रहा हो तब ना। जैसे वह है ही नहीं, जैसे वह उससे नहीं किसी सिस्टम से बात कर रहा हो।

वह बोलता जा रहा था-

यार! तुमने कभी रात को चांद-तारे देखे हैं, देख कर देखना, जबरदस्त लगता है। रात कितनी सुन्दर होती है, काली शांत..कुछ पल के लिए...यहां पूरे समय एक साथ लाखों इंजन चलते हैं घरररररर इतने इंजन एक साथ, हर समय एक शोर भरा रहता है लेकिन कई बार रात को लगता है कि ये घररर की आवाज कम हो जाती है, मैं इस आवाज को ढ़ूढ़ता हूं। मेरे कान को इतनी खामोशी की आदत ही नहीं.. हर समय आवाज की आदत है। रात को जब सब लोग सो जाते हैं तो बिल्लियों की आवाज सुनायी देती है, वो लड़ती हैं। दिन में उन्हें एकदूसरे की आवाज नहीं सुनायी देती होगी। ये रात में जाग कर तारे देखना क्या है, कभी देखना तुगलकाबाद के किले की वीराने में.. वो लड़के तो रात को इकठ्ठे हो कर तारे देख रहे थे। आसमान जैसे किसी कालीन पर सुनहरी बुटियां जड़ी हो। उनको क्या मालूम कि लोग इतने पागल हो चुके हैं। लोग इकठ्ठा हो गये। उनकी जीप पर चढ़ गये। वो कहते रहे कि वो सब स्टुडेंट हैं। रात के आसमान को देखने के लिए इकठ्ठा हुए है, वो डकैती करने नहीं आये हैं लेकिन साला कौन सुनता है।..भला शरीफ लोग तारे देखते हैं... ऊपर से दो ने तो दाढी भी बढ़ाई थी भीड़ में से कोई चिल्लाया बंग्लादेशी हैं, चोर हैं... आप भी तो नहीं सुन रहे हो...आपको ही क्या फर्क पड़ता है।

यार मैं सुन रही हूं। खुशबू ने किसी तरह बात को संभाला। बात भटकाने के लिए कहा चल मेरा हाथ देखकर बता कि मेरी शादी कब होगी, लेकिन उसे इन सवालों से क्या वास्ता था। ऐसा लगता है वो एकसाथ दो दुनिया से बातें करता है।

हां मैं सितारे देखता हूं, कुंडली देखता हूं। मुझे बड़ा अच्छा लगता है कि जब कोई मुझसे अपना भविष्य पूछता है। भविष्य जाय जहन्नुम में। मैं तो मजे लेता हूं भविष्य जानने की इच्छा क्या है, जैसे पता ही न हो क्या भविष्य है, यार अखबार पढ लो, अपने अड़ोस पड़ोस झांक लो- भविष्य ही तो दिख रहा है। पूरी धरती का भविष्य... बच्चा नहीं हो रहा, बच्चा हो रहा, पढ़ाई, उसकी नौकरी, उसकी शादी, उसका बच्चा, बच्चा नहीं हो रहा...मुझे बच्चे पसंद है। मुझे वो कुत्ते के छोटे छोटे बच्चे पसंद हैं... मैं दुकान पर अंडा लेने गया था...

साहिल बातों को दुहरा रहा था। कमरे में एक धुंध सी छा गयी। ऐसे हो गया जैसे ढेर सारी कहानियां एक साथ एक जगह बैठ कर कोई डरावना खेल खेल रही हैं।


एक रोटी गिलहरी की

साहिल पहले के मुकाबले और डिस्टर्ब हो गया था। उसकी पतली लम्बी उंगलियों के नाखून और बढ़ गये थे उसमें गन्दगी जमा हो गयी थी। बाल कटे नहीं थे। खुशबू उसकी दोस्त थी कितनी थी, कह नहीं सकती लेकिन उससे बड़ा ही अजीब सा लगाव था, उसे हमेशा लगता कि इसके नाखून काट दूं, बालों में तेल डाल कर कंघी कर दूं। हो सकता है कि कुछ ठीक हो जाये। वह समझ नहीं पाती थी कि उससे कैसे बात करे। बातचीत हवा में तो नहीं हो सकती है। वैसे भी जब कोई पूछे कि कैसे हो उसके बदले कोई लगातार एक घंटे बोलता रहे तो पूछने को कुछ नहीं बचता। पूछने वाला भी घबरा जाता है। कई बार रस्मन हाल चाल पूछने का मतलब कुछ जानना नहीं है। बस रस्मन हाल चाल है।

वह दोनों एक ही जगह काम करते थे। साहिल ने उससे पहले आफिस ज्वाइन किया था। जब नयी नयी थी तो उसका भी ध्यान साहिल की ओर उसके नाम की वजह से गया था। साहिल।

आप मुस्लिम हैं.

खुशबू ने पहला सवाल ही यही करके अपने गंवई मिजाज का हाल बता दिया। साहिल हंसने लगा, कहने लगा

हां जी।

लेकिन बातों बातों में पता लगा कि वह पंजाबी है।

अरे कोई नहीं। नाम तो कुछ भी हो सकता है- मेरी भाभी का नाम चिंता है

चिंता हा हा हा...साहिल हंसने लगा।

और मेरे गांव के दोस्त का नाम सनम था और उसकी बहन का नाम फोटू।

सनम और फोटू हा हा हा...

बकलोल की तरह वह जितना मुंह खोल रही थी उतना ही अपने दिमाग की वायरिंग दिखा रही थी।

लेकिन साहिल और सबा में ऐसा कुछ नहीं है मैडम। साहिल का अर्थ किनारा या मंज़िल है और सबा मतलब सुबह। कहकर के साहिल हा हा हंसने लगा।

उसकी बातों में कोई मलाल नहीं था तो कोई बोझ भी नहीं बढ़ा। दोनों धीरे धीरे टिफिन के साझेदार हो गये।

साहिल की मां टिफिन में मसालेदार अरबी की सब्जी भेजती थी। एक दम से सधी हुई भुनी अरबी उसकी लाल रंग की परत चार घंटे बाद तक सही सलामत रहती थी। कितनी बार हुआ कि खुशबू ने उसे अपनी टिफिन दी और उसकी टिफिन का खाना खाया।

साहिल एडिटिंग टीम का सबसे अलहदा लड़का था। वह एक रोटी गिलहरी के लिए लेकर आता था। लंच ब्रेक में से खुद खाना खाने के बाद पांच मिनट तक गिलहरियों को रोटी के टुकड़े तोड़कर देता था।

गिलहरियां उसकी टी टी की आवाज सुन कर मानो हवा से उतर आती थी, वो उनकी पीठ पर हाथ फेरता था, एकाध बार तो खुशबू साथ में खड़ी होती तो कहता दूर जाकर खड़ी हो, नहीं तो वो डर जायेंगी। नेताजी सुभाष प्लेस के इस विशालकाय इमारत में अनगिनत आफिस थे लेकिन इकलौता पीपल का पेड़ था। वह पहले खूब हंसती थी कि एक रोटी मेरे लिए और एक गिलहरी के लिए लाना इसकी आदत हो गयी है।

साहिल कभी कभी वह बड़े सुफियाना अंदाज में कहता था- यार जिन्दगी में क्या चाहिए। एक पेड़ हो, उस पर घोंसला हो, आस पास गिलहरियां हो और आपके डिब्बे में दो रोटी ज्यादा हो..कहकर आस पास उलझा मांझा उठाने लगता।

खुशबू हंसने लगती थी क्योंकि एक रोटी तुमको मुझे देनी है और एक गिलहरी को।

यार ये मांझा, क्या करें इसका। लोगों को पतंग काटनी है। लेकिन वो तो आदमी की गर्दन तक काट दे रहा है। अपने मजे के लिए आदमी ऐसा कैसे हो जाता है...

वो मांझे की गट्ठी बनाने लगता। उसको काट तो पाता नहीं था लेकिन उसकी ऐसी गुड़री बनाने की कोशिश करता कि किसी के खोले न खुले।

खुशबू इस नाज़ुक, नर्म दिल तबियत वाले आदमी को भीतर ही भीतर बहुत प्यार करती थी। बातों में बातों में किसी से कहता अपना हाथ दिखाओ। और हाथ दिखाने का मामला हो या भूत का किस्सा- कौन भला खुद को रोक सकता है। भूत में यकीन करो न करो लेकिन जो बातें भूत की बात करने में है, जो रोमांच है, वो भला कहीं और कैसे मिल सकता है। लोग चोरी से केबिन में आते और हल्के से मुस्कुरा कर कहते-साहिल भाई जरा हाथ देखना यार।

साहिल शुरू हो जाता है। ज्यादातर बातें किसी के अतीत की। तुम्हारा ये था, तुम्हारा वो था तुम्हारा एक्स और तुम्हारा वाई। खुशबू को हंसी आ जाती कि इसकी साहित्य की पढ़ाई इस आफिस में काम आती है। वो भी कहांनियां सुनाने में। साहिल उसे समझाने लगता- इंसान की कहानी कहां एकदूसरे से अलग है तकरीबन एक जैसी। जितनी दूर से सुनाओ, उतना ही एक जैसी। समस्या करीब आकर कहने में है।

लेकिन ये बताते हुए कभी उसके इतने करीब नहीं आया कि कुछ बात हो पाती।

महामारी सब जगह पसर चुकी थी। सरकारी आदेश आ गया था वर्क फ्राम होम का। साहिल बहुत परेशान था उसने बताया कि आफिस में ओवर स्टाफिंग है। और हो सकता है कि लोगों की जाब कट हो। वो खुद भी परेशान हो गयी।

...

दो गज की दूरी कि हिदायत लोगों की सुख-दुख से दूरी में बदल गयी।

खुशबू को घर पर रहते हुए साल भर हो गये थे। सेलेरी आधी आने लगी थी। किसी से शिकायत नहीं कर सकते थे। यह चुप समय है। साहिल की नौकरी चली गयी थी। वैसे ये नौकरियां जाती है तो खुशगप्पियों को लेकर चली जाती है।

कोई दोस्त किसी को डर डर के ही फोन करता है। लगता है कि कोई ये न कह दे कि ये तो खलिहर है।

खुशबू साहिल को समझाती यार ऐसे नहीं सोचा करते हैं।

लेकिन जब चुप समय में कोई एक बोलने लगे तो वह लोगों को पागल लग सकता है। साहिल कुछ ऐसा ही होता जा रहा था।

यार कोई कैसे रोटी चलायेगा, बताओ मेरी बिल्डिंग में जो सीढ़ी पार्किंग की सफाई करती थीं उनको लोगों ने काम से निकाल दिया है। कल वो आयी थी बताओ क्या करे...

यार देश ऐसे चलता है क्या...

साहिल अकसर ही फोन पर देश-अर्थव्यवस्था और नौकरियों की हालत पर बात करता था। ये बातें वो बातें थी जिनको करना नहीं था। भले लोग भला ऐसी बातें कहां कहते हैं।

इसी दौरान खुशबू को पता चला कि साहिल की मां को हार्ट अटैक आया है। उसके पापा पहले से नहीं है। इस सूचना ने उसे भीतर तक झिंझोड़ दिया।

पता नहीं वो कैसे संभाल रहा होगा।

खुशबू को लगने लगा था कि ये देश युद्ध की आग में जल रहा है। हर घर में कहर बरपा है। डरे हुए घबराये हुए रहना क्या होता है। एक दिन किसी ने व्हाट्स अप पर मैसेज भेजा कि देश में नमक खत्म हो गया है। जल्दी से जल्दी नमक खरीद कर रख ले। उसकी भाभी भी हांफते हुए दुकान पर पहुंची। कोरोना से बचने के लिए बने गोल गोल घेरे टूट चुके थे। लोग एक दूसरे पर गिरे जा रहे थे। किसी तरह उन्होंने सौ रूपये में एक पैकेट नमक लिया।

ये डर के मोहल्ले थे।

कुछ दिन पहले गली के दो कुत्ते जो अब अपने ही हो गये थे उनको खुशबू दूध से गीला करके ब्रेड दे रही थी। सूरज को अंधेरा तब तक निगल चुका था। तभी एक बुर्जुग सी महिला उसके पास आयी, माथे पर उन्होंने आंचल खींचा था। धीरे से बोली कि बेटा हमको भी कुछ दे दो। हम भी तो कुत्ता हैं, जो मांग रहे हैं..खुशबू को लगा जैसे किसी ने उसे बिजली का झटका दे दिया है। ऐसा लगने लगा कि एक खाई है जहां लोगों के हाथ फैले हैं और उनकी आंखों से सारे सपने गुम हो चुके हैं। वो उस खाई के किनारे खड़ी है, ज़मीन तेजी से दरक रही है।

एक बार फिर से साहिल से बात करने की तड़प बढ़ गयी।


उसने एक दो जानने वालों से बात की। कुछ पता नहीं चला। खुशबू की खुद की भी तबियत खराब थी। घर पर भाई और भाभी के झगड़े सुनती रहती थी। भाई को बेगारी निगल चुकी थी। उसने पता नहीं कितने तरह के पर्सनल लोन लिये थे, कोई कोई ऊपर आता और लोन नहीं चुकाने का परिणाम धमका कर जाता। कभी भाभी उनको संभालती तो कभी भाभी पूरे दिन गाली देती रहती। भाभी की प्रेगनेंसी का छठा महीना चल रहा था। उदासियों की कहानी कई रात- कई दिन तक चलती है। उसमें कोई हामी भरे न भरे वो बदस्तुर जारी रहती है। खुशबू की भाभी को डाक्टर ने बेडरेस्ट कहा था। खुशबू ने कुछ दिन सबकी तरह मोम्मों बनाना सीखा, कुछ एक तरह का हलवा बनाया लेकिन पाजिटीविटी उसकी गली में नहीं आयी।

रात के दस बजते नहीं कि घर के सामने गालियों का सीधा प्रसारण शुरु हो जाता है। इतनी चित्रात्मक गालियां उसने शायद ही सुनी थीं। सामने वाले फ्लोर का मकान-मालिक किरायेदार को चीख चीख कर बुलाता है फिर उससे अपने घर की हर चीज लेने का न्यौता देता है साले ले ले मेरा फ्रिज ले ले, मेरा सोफा ले ले, कमरा तो कब्जा लिया फिर गुस्से में पैंट पर कभी सामने, तो कभी पीछे हाथ रख कर कहता है कि ये भी ले ले ...। मकान मालिक छोटे से कद का कमजोर-बीमार सा आदमी था। पन्द्रह बाई बीस गज के चार मंजिला मकान के दो फ्लोर का मालिक है। उसी मे एक फ्लोर पर उसका परिवार रहता है, घर में दो जवान बेटियाँ हैं। उनके चेहरे सूखे और उदास ही दिखते हैं। जैसे लौकी में बीज पड़ गये हो वो रूढ़ा गयी हो उसके भीतर का पानी सूख गया हो।

किरायेदार तीन बच्चे का बाप है। पिछले चार महीने से किसी तरह घर चला रहा है। पिछ्ले तीन महीने से किराया नहीं दे सका है। नौकरी छूट चुकी है। सुबह घर से निकल जाता है और रात वापस आता है..। तीसरा बच्चा हाल में ही पैदा हुआ है, घर के दोनों छोटे बच्चे बाहर बिल्कुल नही निकलते। किराये्दार को देखकर लगता है कि वो किसी दिन खुद को मार लेगा या मकान मालिक को मार देगा, मकान मालिक को देखकर लगता है कि इसका परिवार मानसिक संतुलन खो देगा...।

खुशबू को अड़ोस-पड़ोस की खबर दुकानदार औरत देती रहती है।

वह कभी कभी बालकनी के बाहर आकर खड़ी होती थी वहां से खुद उसकी जिन्दगी किसी शुन्य में जाती दिखायी देती थी ठीक वैसे ही जैसे हाईटेंशन तार किसी शून्य में जाता है। घर के सामने वाले घर में एक डाक्टर का क्लीनिक था। कोई बीए एम एस डाक्टर था। उसके यहां लोगों की भीड़ लगी रहती थी। कभी कभी लोग ठेले पर लेकर मरीज आते थे।

रात को कभी कभी जोर जोर से कोई गेट बजाता था। अंदर से कोई गेट नहीं खोलता था। कुछ दिन हो गये डाक्टर वहां से चला गया है। अब भी मरीज़ आते हैं-घंटी बजाते हैं-वापस चले जाते हैं।

पूरे दो महीने हो गये हैं उसे आधी रात को गेट की बेल सुनाई देती है। उसकी नींद टूट जाती है। भाई-भाभी सबने कह दिया है कि कोई घंटी नहीं बजती है। तुम्हारे दिमाग का वहम है। खुशबू रात को अक्सर ही उठती है। उसे घंटी सुनायी देती है। वह फिर से सबकुछ चेक करती है कि कहीं कोई छुप जाता हो लेकिन बाहर रात का निचाट अंधेरा होता है। अब वह बिस्तर पर उठकर खुद को समझाती है कि कुछ नहीं है, कुछ नहीं है...

साहिल किसी सोशल मीडिया पर नहीं है। उसको रह रह कर याद आती है किसी तरह दिल को बहलाती है कि शायद उसका परिवार आगरा शिफ्ट कर गया हो।

एक दिन दोपहर में उसे बड़ा ही अजीब सा ख्याल आता है-

फर्नीचर वाला सब्जीवाला।

फेरीवाला सब्जीवाला

रिक्शावाला सब्जीवाला।

बारदाना वाला सब्जीवाला।

कबाड़ीवाला सब्जीवाला।

पर्सवाला सब्जीवाला।

फ्रेम वाला सब्जीवाला।

गली में हर आदमी सब्जीवाला बन गया है। क्या पता कहीं साहिल भी सब्जी तो नहीं बेचने लगा है।

.............................................

एक कागज़ ने सबकुछ रोका था। एक कागज़ ने सबकुछ फिर से खोल दिया। जिन्दगी में धुआं और धूल वापस आ गयी। मेट्रो और बसें लोगों को उगलने-निगलने लगीं। खुशबू वापस आफिस आने जाने लगी है। उसने पहले से आधी सैलरी पर दूसरी नौकरी ज्वाइन कर ली है। लोगों के पास जितने मौत के किस्से हैं। उतने ही जीते जी मरने के किस्से। मौत के किस्से को किसी को सुना लेते हैं और आंखों से कुछ बूंदें गिरती हैं लेकिन दूसरे किस्से को दिल में ही दबा कर रखते हैं। वह तो चुप समय का चलन हो गया है।

पूरे चालीस मिनट हो गये हैं। मेट्रो नहीं आयी है। एक अनाउंसमेंट हो रहा है- सारी फार द डिले इन दिस रूट। इनकनविनियेंस इज रिग्रेटेड। स्टेशन पर भीड़ बढ़ती जा रही है। इस भीड़ में भी खुशबू सोचती रहती है कि कहीं साहिल दिख जाय। वैसे वह खुद भी साहिल जैसी सी कुछ हो रही थी। खैर वो कहीं नहीं दिखा।

मेट्रो आयी। यात्री आपस में बोले जा रहे थे यार वो इतने अचानक कूदा कि कुछ समझ नहीं आया। कैसे कोई कर लेता है सुसाइड।

खुशबू का दिल घबराने लगा।

खुशबू ने हड़बड़ा के पूछा कौन था, आपने देखा कि कैसा लड़का था।

बगल में खड़ी लड़की उसे नार्मल करने के लिए थोड़ा मुस्करा कर बोली- अरे परेशान नहीं होइये..आजकल ये तो हो ही रहा है। दरअसल ट्रैक साफ करने में टाइम लग गया..लेकिन है तो बहुत ट्रैजिक..

लोगों से पूरा डिब्बा कसा हुआ था। खुशबू को लगने लगा कि उसकी सांस घुट रही है। वह कुछ बोलना चाह रही थी लेकिन मुंह से कुछ निकल नहीं रहा था, लग रहा था कि गला बिलकुल सूख गया है।

उसने किसी तरह बगल में खड़े आदमी से कहा- प्लीज मेरी तबियत खराब है मुझे उतार दीजिए।

एक नौजवान लड़के ने हाथ पकड़कर उसे उतारा। खुशबू को लगा कि इस मेट्रो को छूकर देखे। लेकिन मेट्रो नहीं रूकी चली गयी,उसके एक कोने पर खून लगा था।

खुशबू के दिमाग में साहिल की आवाज गूंज रही थी।

वो बोले जा रहा था-लोग क्यों मर जाते हैं। यार क्यों न मर जाय स्साला ये कोई नौकरी होती है। आज है, आज नहीं है, सारी वर्कलोड नहीं, जाओ एचआर से मिल लो..आपको पता है इस देश में इतने...लोग बेरोजगार है। कल ही वो अभिषेक का फोन आया था कि कहीं कोई भी ओपनिंग हो तो बता दूं। यार मैं क्या बताता कि मेरी नौकरी का खुद कुछ पता नहीं। आपको पता है दुनिया में डर क्या है। मैं बताता हूं मेट्रो के आगे कूदना डर नहीं है सबसे ज्यादा डर तब लगता है कि आप इस सिस्टम से आउट कर दिये जाओगे।

जिस लड़के ने उसे मेट्रो से उतारा था वो कुछ कुछ पूछ रहा था खुशबू को उसकी एक बात नहीं समझ आ रही थी। उसके मुंह से जैसे कोई विनती निकल रही हो कि प्लीज मेरा हाथ अभी नहीं छोड़ियेगा और बड़बड़ाने लगी साहिल मुझसे बात करो.. मेरे साथ बैठो एक बार। तुम कहां हो साहिल यकीन मानो मैं बहुत बीमार हूं, मुझे तुम्हारी जरूरत है।

साथ उतरा लड़का एक गहरे असमंजस में उसका हाथ थोड़ा ढीला करता है फिर थोड़ा मजबूती से पकड़ लेता है।

आप ठीक हैं न।

हां थैक्यू। मैं ठीक हूं।

खुशबू मेट्रो स्टेशन से बाहर निकलना चाहती थी। किसी तरह खुद को संयत किया और बाहर आ गयी। सड़क पर मांझा बिखरा पड़ा था वह गिरते गिरते बची। मेट्रो स्टेशन के बाहर पटरी पर रखे पत्थर पर जाकर बैठ गयी। दिमाग ने तेजी से सारे कनेक्शन काट दिये। आंखों ने तुरंत बात मानी और आंसू तेजी से नमक में बदल कर गले में घुल गया।

सूरज अपने डूबने की डयूटी पूरी कर रहा था। सामने के पेड़ पर एक घोंसला था। उसी घोंसले के बाहर एक कौआ मांझे के गुच्छे में अटक कर उलटा लटक कर मर चुका था। जैसे किसी के पर काटकर उसके घर के सामने ही फांसी पर लटका दिया गया हो। पेड़ की शाख पर एक गिलहरी तेजी से चढ़ उतर रही थी। और इन सबमें एक साथ लाखों मोटरों के इंजन घररर की आवाज हो रही थी। खुशबू की आंखे इस घर्र घर्र में साहिल को सुन रही थी, वो बड़े सूफीयाना अंदाज में बोले जा रहा था- यार जिन्दगी में क्या चाहिए। एक पेड़ हो, उस पर घोंसला हो, आस पास गिलहरियां हो और आपके डिब्बे में दो रोटी ज्यादा हो...


 

लेखक परिचय - डॉ सविता पाठक


अध्यापन के पेशे से जुड़ी सविता पाठक साहित्य की अलग-अलग गतिविधियों में शामिल रही हैं। उन्होंने ‘अम्बेडकर के जख्म’ नाम से उन्होंने ‘वेटिंग फॉर वीजा’ का हिन्दी अनुवाद किया। पत्रिका ‘रविवार डाइजेस्ट’ के लिए विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक लेखों का उन्होंने नियमित तौर पर अनुवाद किया है। वेटिंग फॉर वीजा का हिन्दी अनुवाद बाद में ‘फारवर्ड प्रेस’ से भी प्रकाशित हुआ। सविता पाठक ने पियेद्रो पेयत्री, निकोला डेविस, लिजली कुलसन, इनामुल ओर्तिज आदि कवियों की चुनिंदा कविताओं का अनुवाद साहित्यिक पत्रिका ‘पल प्रतिपल’ के लिए किया। विश्व के अलग-अलग देशों के कवियों की कविताओं का उनके द्वारा किए गए अनुवाद पिछले कई अंकों से पल प्रतिपल पत्रिका के संपादकीय का हिस्सा रहे हैं। क्रिस्टीना रोजोटी के अनुवाद ‘गोबलिन मार्केट’ पर हिन्दी नाटक अकादमी से प्रायोजित नाटक ‘माया बाजार’ का मंचन प्रख्यात रंगकर्मी प्रवीण शेखर ने एनसीजेडसीसी इलाहाबाद में किया। ‘कथन’ और विभिन्न डिजिटल साइट के लिए सू लिज्ली की कविताओं का अनुवाद उन्होंने किया जो काफी चर्चा में भी रहा। ‘रचना समय’ पत्रिका के लिए उन्होंने सिमोन द बोउआर के लेख का अनुवाद किया। इसके अलावा, उन्होंने साहित्य अकादेमी, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस और गार्गी प्रकाशन के लिए भी लेख और कविताओं का अनुवाद किया है। सविता पाठक की कहानियां और लेख नया ज्ञानोदय, कादंबिनी, वर्तमान साहित्य, पूर्वग्रह आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आकाशवाणी और भारत भवन जैसे संस्थानों में परिचर्चा और कहानी पाठ भी किया है। सविता पाठक ने अंग्रेजी साहित्य में वीएस नॉयपाल के साहित्य और जीवन संबंध पर वर्ष 2008 में पीएचडी की है। सविता पाठक का जन्म 02 अगस्त 1976 में उत्तर प्रदेश के जौनपुर शहर में हुआ। पढ़ाई-लिखाई अलग-अलग शहरों में हुई है। फिलहाल वे दिल्ली विश्वविद्यालय के अरविंद महाविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य का अध्यापन कर रही हैं। drsavita.iitm@gmail.com

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