मुंह छिपाने के दिन है
आक्सीजन सिलण्डर लटकाने के दिन हैं
भाई-भाई से ही बात न कर पाए
ये नजरे चुराने के दिन हैं
गम में शरीक हो पाएँ
न खुशी में शामिल हो सकें
बधाई - सांत्वना अब तो सिर्फ
मैसेज करवाने के दिन हैं
जो पाॅजिटिव वो क्वारनटीन हो
दूरियाँ बढाने के दिन हैं
सैर सपाटा बहुत हो गया
घर में समय बिताने केदिन हैं
शुरू कहीं से भी हुआ हो
भुगत रहे हैं सभी
वसुधैव कुटम्बकम प्रतीत हो रहा
ये इल्जाम लगाने के दिन हैं
प्रकृति को चूसा, लूटा, खसोटा
कुटिलता की हद कर दी
आत्म केंद्रित मनुष्य का
हिसाब चुकता फरमाने के दिन हैं
हर पेड़ जो तोडा,
हर बूंद जो व्यर्थ बहायी
हर थैली जो फेंक दी
हर पत्ती जो जलाई
जनसंख्या बढा ली इतनी
जमीन बची न भोजन
लालच स्वार्थ कपट से कर रहे
अपनी ही नस्ल का पोषण
सिर्फ अपना फायदा देखा
जंगल, जमीन प्राणियों पे दांव लगाई
सहअस्तित्व भूल गया मुनष्य
तभी तो ये शामत आई है
धरती जरूरत पूरा कर सकती थी
पर लालच का नहीं छोर है
प्रत्येक व्यक्ति नहीं समझेगा जब तक
मंडराता खतरा घनघोर है
आज दुःख के काले साये में फिर
याद आया भगवान है
मनुष्य ने शोषण न छोडा
जहाँ भी बसता प्राण है
खुद की सांसो पे बन आई तो भी
न पहने मास्क है
कुछ लोगो के लिए कोरोना प्रोटोकाल
सरकार का ही टास्क है
समझो! सम्भल जाओ!
क्या यह तबाही ना काफी है
सांसे खरीद रहे हो अभी तो
भोजन - पानी खरीदना बाकी है
विज्ञान की पराकाष्ठा पर खडे मनुष्य को
अंतर्मन में झंकवाने के दिन हैं।
अपनी करनी पर ये पछताने के दिन हैं
रूठी प्रकृति को मनाने केदिन हैं
मास्कऔर सेनेटाईज़र लगाने के दिन हैं
वाकई शर्म से मुंह छिपाने के दिन हैं..........
पूनम मेहता
कहानी कविता अच्छी लगी। सामयिक है।