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जिंदगी का सफरनामा

6 जून 2016

(यह लेख 2012 में अज़ीमजी फाऊंडेशन की पत्रिका 'इनफोकस' और 2014 में फर्गुदिया ब्लॉग में छप चुका है)
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सबकी जिंदगी एक किताब सी होती है जिस पर कुदरत, समाज और हम स्वयं हर दिन कुछ - कुछ लिख रहे होते हैं। मेरे जीवन का पहला पन्ना 30 जुलाई 1966 को लिखा गया। मेरा जन्म राजस्थान में दौसा जिले के बाँदीकुई कस्बे में हुआ। मेरे पिता रेलवे में मेलगार्ड थे। दादाजी भी देष आज़ाद होने से पहले वहीं मेलगार्ड रहे थे। मेरे नानाजी, मामाजी, चाचाजी, ताऊजी सभी रेलवे में अच्छे पदों पर रहे। मम्मी, दादी सभी पढ़ी  - लिखीे थीं। राजस्थान में ब्राह्मण परिवार अपने को श्रेष्ठ मानते हैंे इसमें गौड़ सनाढ्य कुल के तो अपने को और भी ऊँचे ब्राह्मण कहते हैं। एक तो ब्राह्मण परिवार दूसरा षिक्षित। मेरे पूरे परिवार में सभी के नाम बड़े संुदर - संुदर और भाई - बहनों के मिलते - जुलते नाम रखने की परम्परा रही है। जिस पर भी हमारा परिवार थोड़ा गौरान्वित होता रहा है। इस प्रकार मेरे परिवार में खासतौर से मेरी मम्मी मेें यह बहुत अंदर तक बैठा हुआ है कि हम सर्वश्र्रेष्ठ हैं। बचपन से मैं भी इसी माहौल में पली बढ़ी। हम पाँच बहन - भाईयों में मैं तीसरे नंबर पर हूँ। मुझसे दो बड़ी बहन और दो भाई छोटे हैं। जब मैं अपनी मम्मी के तीसरी बेटी पैदा हुई थी। तब मेरा नाम ’नौना’ रखा गया। राजस्थान में ’नौन’ नमक या खारे स्वाद को कहते हैं। मेरी मम्मी से जब मैंने कुछ वर्षांे पहले इस नाम के रखने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि ’लोना’ बंगाली में मीठे को कहते हैं इसलिए मेरा नाम ’नौना’ रखा। मध्यमर्गीय परिवारों में एक प्रकार का अस्वीकार्य भेदभाव होता है। मेरे भाई के जन्मदिन पर सुबह हवन होता फिर षाम को मेरी मम्मी की बहुत सारी सहेलियाँ गीत बधावा गाने आती थीं। हम एक - दो दिन पहले उन्हें बुलावा देने जाते थे। मेरे भाई को वो सब 2 - 2 रुपये भी देतीं। लड़कों के जन्मदिन पर ऐसा होता है और लड़कियों का जन्मदिन नहीं मनाया जाना ऐसा मुझे बिना के समझाए ही समझ में आ गया था। मेरी प्राथमिक षिक्षा आदर्ष विद्या मंदिर बाँदीकुई में हुई। मुझे और मेरे सभी भाई - बहनों को षिक्षित होने के साथ.- साथ संस्कारित होने के लिए भी  उस स्कूल में भेजा गया था। वहां हम षिक्षक को गुरुजी और आपस में सहपाठियों को भैया - बहन बोलते थे। छठी से आठवीं कक्षा तक मैं वहां आर्य समाज मंदिर स्कूल में पढ़ी। लड़कियों के लिए सीधे घर से स्कूल जाना और सीधे स्कूल से घर आना ही ठीक समझा जाता था। कम बोलना, घर के सारे काम करना, लड़कों से बात नहीं करना, सहेलियां भी नहीं बनाना क्योंकि सहेलियां गलत बात सिखाती हैं, ऐसा समझा जाता था। 13 - 14 की उम्र के बाद लड़कों के साथ खेल खेलना भी गलत माना जाता था।
कुछ - कुछ घर सा, कुछ - कुछ थाने सा, मेरा घर
जिस रेलवे के बंगले में हम रहते थे, वह बहुत ही बड़ा था मेरी मममी आगे होतीं तो मैं और मेरा भाई पीछे खेलते और मम्मी पीछे होतीं तो हम आगे खेलते। घर में हर खेल खेलने कीे मनाही थी परन्तु हम हर खेल खेलते थे। जब भी मेरी मम्मी हमें खेल खेलते देख लेतीं तो हमारी डंडे से जोरदार पिटाई करतीं।  पिटाई के समय कभी - कभी पेषाब भी निकल जाता, बदन पर नील पड़ जाती और कभी - कभी तो खून भी आ जाते।। उनकी अपेक्षा थी कि हम पढ़ाई में ध्यान लगाएं पर हमारा ध्यान पढाई में कम ही लगता था। घर में खाने - पहनने की कोई कमी नहीं थी परन्तु पैसे बिलकुल नहीं मिलते थे। हम भाई - बहन सोचते रास्ते में पापा मिल जाएँ तो हम उनसे पैसे माँग लें। हम पापा से 10 पैसे माँगते तो वे 25 पैसे दे देते। वो मेरे लिए 5 पैसे प्रतिदिन चीज खरीद कर खाने के लिए पर्याप्त होते थे।
एक बार हमारी एक षिक्षिका उमा बहिन जी स्कूल छोड़ कर जा रही थीें। कक्षा की हम सभी ल़ड़कियों ने सोचा कि हम अपनी टीचर को कोई गिफ्ट देंगे। वो कितनी अच्छी हैं और अब हमसे कभी नहीं मिलेंगी। इसके लिए मैंने मेरे पापा की जेब से 25 पैसे चुरा लिए और स्कूल में जमा करवा दिए। मुझे विष्वास था कि इसके लिए मेरी मम्मी मुझे पैसे नहीं देंगी। जिस दिन उन उमा बहिनजी का विद्यालय में अंतिम दिन था हमने उन्हें अच्छा डबल रिफिल का पैन, गले मेें पहनने के लिए चेन और एक डायरी दी। हमारी एक - दो सहपाठियों ने इसके लिए पैसे नहीं दिए जिनमें एक रेनू लड़की भी थी। रेनू की माँ और मेरी माँ आपस में सहेली थीं। एक दिन मेरी माँ मुझे उनके घर ले कर गईं। रेनू की मम्मी ने कहा कि ’’स्कूल में तो बार - बार पैसे मंगाते हैं, अभी 25 -  25 पैसे सभी से मंगवाए मैंने तो नहीं दिए।’’ यहां बात खुल गई कि मैंने तो पैसे स्कूल में दिए थे। इस बात पर घर जाने के बाद मेरी मम्मी ने चोरी करने पर मेरी खूब पिटाई की और कहा कि मैंने यह बात घर में उनको क्यों नहीं बताई। मेरी दो बड़ी बहनें मम्मी के साथ घर के और काम करतीं और मैं पेड़ों में पानी डालना, पानी की हौद भरना, घर में सुबह - षाम झाडू लगाने का काम करती थी। अपने तय काम को मैं बहुत ही खुषी - खुषी और नियमपूर्वक करती थी। मेरा एक भाई मुझसे ढाई वर्ष छोटा है, वह और मैं खूब साथ - साथ खेलते थे। तीन तरह से कंचे खेलते बिलास्तर, अंटे, गुच्चिक। अंटे तो हम एक ही रजाई में बैठ कर जब रात को पढ़ते थे तब भी खेलते थे। मेरी बहन जब पढती तो वह पढ़ते - पढ़ते सो जाती तब मेरा भाई कभी - कभी उसके सामने से किताब उठा लेता परन्तु भाई बहन का पढ़ते हुए सो जाना मम्मी को पता नहीं चलता था। घर में अनुषासन के नाम पर कभी - कभी मुझे मेरा घर पुलिस थाना लगता था। जहां धीरे बोलना है, हंसना नहीं है, खेलना नहीं हैं, दोस्त सहेलियां नहीं बनाने हैं सीधे घर से स्कूल जाना और स्कूल से सीधे घर आना है, सिर्फ कोर्स की किताबें पढना है। पढ़ाई में मैं कभी होषियार नहीं रही। गणित मुझे षुरु से ही बहुत कठिन लगता था। पांचवीं से आठवीं तक तो मैं किसी - किसी होषियार लड़की की कॉपी में से देख - देख कर कर गणित के सवाल कर लेती थी। टैस्ट मेें नंबर कम आने पर स्कूल में पिटाई होती और घर पर भी। मेरी माँ की जब इच्छा होती तब वो हमारी कॉपियां चैक करतीं उसमें नोट पड़़े पन्ने को मैं मांँ के डर से जब कभी - कभी फाड़ देती तो पन्ना दूसरी तरफ से भी निकलने  लगता जो मेंरी माँ तुरन्त समझ जातीं कि एक तरफ से पन्ना फाड़ा गया है। कभी - कभी वो स्कूल में भी आ जातीं हमारी प्रगति को जानने परन्तु वहां हमारी कक्षा अध्यापिका हमारी पढ़ाई में कमजोरी की उनसे मेरी षिकायत करतीें तो षाम को घर जाने में भी डर लगता। घर पर मेरी मां पूछती टैस्ट के नंबर सुना दिए ? मैं कहती ’’अभी तो नहीं सुनाए।’’  एक, दो बार तिमाही टैस्ट में नंबर कम आए तब मैंने प्रोग्रेस रिपोर्ट में पापा जैसे साइन ; हस्ताक्षर द्ध बनाते थे वैसे साइन बना लिए हालांकि वो बिलकुल वैसे तो नहीं बने थे। इस बात का जब मम्मी को पता चला तो उन्होंने  पिटाई की।
नवीं कक्षा में मुझे विज्ञान विषय दिलवाया गया। क्योंकि मेरी नानी की मृत्यु कैंसर से हुई थी और बराबर वालों में अपने बच्चे को डॉक्टर बनाना मां - बाप के लिए भी गर्व से सिर उठा कर जीने जैसा समझा जाता था। इसलिए मेरी मम्मी मुझे डॉक्टर बनाना चाहती थीें। गणित विषय का मुझे ट्यूषन भी लगवाया गया। उस समय ट्यूषन फीस चालीस रुपये प्रतिमाह थी। मैं जिन षिक्षक से ट्यूषन पढ़ती थी वे हमें स्कूल में भी गणित पढ़ाते थे। अंतिम महीने में मैं 15 दिन उनसे पढ़ी क्योंकि फिर परीक्षाएं आ गईं थीं। अंतिम महीने में मेरी मम्मी ने 15 दिन के 20 रुपये ट्यूषन फीस दी। मुझे यह पैसे उन षिक्षक को देने थे जो मुझे ट्यूषन पढ़ाते थे। मैं साइकिल पर बाजार सामान लेने गई फीस के 20 रुपये मैंने कपड़े के थैले में डाले और थेैले को हैंडिल के चारों तरफ लपेट लिया। बाजार में सामान  खरीदते समय वे रुपये कहीं गिर गए। अब मुझे बहुत डर लगा। मैं बाजार अक्सर सामान लेने जाती थी। जब सब्जी लेने जाती तो तीन रुपये की सब्जी खरीदती और घर पर मम्मी को 3 रुपये 25 पैसे की बताती। इस तरह 25 पैसे, 50 पैसे बचा - बचा कर लगभग मैंने साढे अट्ठारह या उन्नीस रुपये इक्कठे कर लिए। ये रुपये मैंे रुमाल में लपेट कर बिस्तर के बक्स में रखती जा रही थी। बिस्तर का बक्स मेरे हिसाब से पैसे रखने के लिए सुरक्षित जगह था। मेरी मम्मी ने एक दिन बिस्तर का बक्स खोला जिसमें वह रुमाल उन्हें मिला। तो उन्होंने घर में सबसे पूछा कि यह किसने रखा ? मेरे पैसे उन्हें मिल जाने पर मैं रोने लगी। जो षिक्षक मुझे ट्यूषन पढ़ाते थे, रास्ते में जब मुझे मिलते तो मुझे गुस्से में घूरकर देखते। एक दिन मैंने उनसे कहा मास्टर जी मैं आपको फीस दे दूँगी। उधर घर पर इक्कठे रुपये निकल जाने पर दुबारा इस तरह पैसे जोड़ना बड़ा ही मुष्किल था। थोड़े दिनों के बाद वे मास्टर जी मेरे घर आए और मेरी मम्मी से बोले ’’भाभीजी अनुपमा ने इस महीने फीस नहीं दी।’’ मेरी मम्मी ने आवाज़ दे कर मुझे अंदर से बुलाया। मैंने पूरी बात बता दी। कि वे पैसे मुझसे खो गए। इसके बाद मम्मी ने उनके सामने ही मेरे बहुत थप्पड़ लगाए।
जिस रेलवे स्कूल में मुझे 9 वीं कक्षा में पढ़ने भेजा वह को - एड स्कूल था। इस कक्षा में 50 लड़के और मैं अकेली लड़की थी। मैं हमेषा लंबी सी डेस्क और बैंच पर आगे बैठती थी । मैं पूरे साल में सिर्फ 2 ही बार अपनी कक्षा के लड़कों से बोली। वो भी 1 या 2 लड़कों से। जब मैंने उनसे बात की या कुछ पूछा तो सभी ने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे कुछ अनहोना सा घटित हो गया हो या मैं लड़कों से बोलना भी जानती हूँ। ग्यारहवीं तक की पढाई मैंने विज्ञान विषय से जैसे - तैसे रट - रटा कर सैकिंड डिविजन से पास की। मुझे ट्यूषन भी लगवाया गया। मेरी दोनों बहनें सुंदर और गोरी थीें और मैं काली थी इसलिए मुझे लड़कों के स्कूल में भेज दिया गया कि मुझसे कोई छेड़छाड नहीं करेगा। इसलिए ही मुझे बाहर जाने के खूब मौके मिले। साइकिल सीखने का अवसर भी मिला। घर में 24 इंच की साइकिल थी जिसे मेरे पापा, छोटा भाई और मैं चलाते थे। मैं बहनों को खाना देने, भाई को स्कूल छोड़ने, राषन लेने, चक्की पर आटा पिसवाने साइकिल से जाती।
ग्यारहवीं तक की पढाई मैंने विज्ञान विषय से की परन्तु फर्स्ट ईयर मेें मुझे ऑर्गेनिक कैमिस्ट्री और फिज़िक्स बहुत कठिन लगने लगे और मैं बारहवीें में फेल हो गई। मांँ का कहना था कि साइंस से ही फार्म भरो वरना हमें फार्म नहीं भरवाना। मैं आर्टस पढ़ना चाहती थी। मैं चीजों को याद कर लेती थी इसलिए जीव - विज्ञान मुझे बहुत अच्छा लगता परन्तु फिजिक्स में न्यूमैरिकल करने में मुझे बहुत ही दिक्कत होती थी। मेरी कलाओं में रुचि थी। मैं गाने खूब सुनती थी। हमारे घर में बडा - सा मरफी का रेडियो था जो कि मेरी बड़ी बहन पैदा हुई तब खरीदा गया था। मैं गीतमाला और आपकी फरमाइष पर खूब गाने सुनती, साथ -साथ गाती। उन दिनों मेरी माँ की लिखी कहानियां  अमिता, नारी जगत और युवक पत्रिकाओं में छपती थीें। घर में साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, कादम्बिनी, सरिता, नूतन कहानियाँ, सच्ची कहानियाँ और मनोहर कहानियाँ पत्रिकाएं आती थीें, जिन्हें मैं या मेरा भाई ए एच व्हीलर स्टॉल, रेल्वे स्टेषन से खरीद कर लाते थे।  राजस्थान पत्रिका उस समय 30 पैसे का आता था जो कि रोज हॉकर घर पर डाल कर जाता था। ये सभी पत्र - पत्रिकाएं मेरी मम्मी पढ़ती थीें। जिन लेखों या चित्रों को वे ठीक नहीं समझती थीं उन पर वे स्याही छिड़क देती थीं जिससे हम नहीं पढ़ पाएँ परन्तु मैं उन्हें आँख गडा़ - गड़ा कर पढती थी। विज्ञान विषय अंततः मुझसे चला नहीं तो फिर राजस्थान विष्वविद्यालय से बी ए के बाद एम ए हिंदी व समाजषास्त्र से किया और फिर प़त्रकारिता एवं जनसंचार में डिग्री ली। इसके बाद पांच वर्ष का षास्त्रीय गायन सीखने के लिए भातखंडे संगीत महाविद्यालय जयपुर में प्रवेष लिया जिसमें एक वर्ष षास्त्रीय गायन सीखा।
एक काली लड़की, जो इंसान बनने जा रही थी
’बोध षिक्षा समिति’ जयपुर में एक संस्था है जो कि कच्ची बस्तियों में बच्चों के लिए वैकल्पिक विद्यालय आरंभ करने जा रही थी। इसका ऑफिस जयपुर में बजाज नगर बी - 86 में था। लगभग 24 वर्ष पहले इसमें षिक्षिकाओं के लिए समाचार पत्र में विज्ञप्ति निकली। तब तक मैं बी ए कर चुकी थी। मैंने आवेदन पत्र भरा। वहां साक्षात्कार के लिए मुझे बुलाया गया। यह मेरा पहला साक्षात्कार था। इसमें हमें  
 ’’सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाषाद है,
 दिल पर रख कर हाथ कहिए देष क्या आजाद है-------!’’
 श्री रोहित धनकर ने सामूहिक रुप से गवाया। इसके बाद इसके अर्थ पर बात की गई। मिटटी से खिलौने बनवाए गए। कुछ लिखने को भी दिया गया और फिर अंत में घर परिवार और रुचियों की बात की गई। इसके बाद 16 सितम्बर 1989 को बोध षिक्षा समिति संस्था में बतौर षिक्षिका के तौर पर मैंने काम करना आरंभ किया। षुरुआती दिनों में ऑफिस का माहौल बड़ा अलग तरह का लगा। योगेन्द्र जी जो कि समन्वयक थे स्वयं झाड़ू लगाते थे। सुष्मिता जी जो कि रिसर्चर थीं पीने का पानी भरती थीें, बिना प्रेस किए कपड़े पहनती थीं, इस ऑफिस में कोई चतुर्थ श्रेणी भी कर्मचारी नहीं था। वहां सब कुछ अजीब लगता था परन्तु सही लगता था। कुछ दिनों के बाद हम सभी मिलकर बारी - बारी से सफाई करने और चाय बनाने लगे। चाय के कप तीन - चार दिन तो हम सब झूठे ही छोड़ कर जाते रहे। चार - पांच दिनों बाद हमारे समन्वयक योगेन्द्र जी ने कहा कि ’’अपने यहां कोई चाय के कप धोने वाला नहीं है यदि हम अपने - अपने कपों को स्वयं ही धो दें तो कैसा रहेगा ?’’ इस बात पर हम सभी ने जोरदार सहमति जताई। परन्तु  हम सब भागते - भागते हुए घर  जाते तो कप बिना धुले कई बार छूट ही जाते थे। इस पर अगले दिन बात होती तो सभी कहते ’’मैं तो वहाँ बैठी थी, मैं तो धो कर गई थी आदि - आदि।’’ योगेन्द्र जी ने सुझाव रखा कि ’’यह भी हो सकता है कि हम सब 2 - 2 रुपये मिला कर कंाचा को दे दें तो वो हमारे कप धो दे।’’ कांचा ऑफिस के नीचे रहने वालों के यहां काम करता था। इस पर सबसे ज्यादा मैंने जोर दे कर हामी भरी और कहा ’’हाँ - हाँ यह ठीक है’’ इस सुझाव के पीछे क्या उद्देष्य हो सकता है, इससे मैं उस समय पूरी तरह अनभिज्ञ थी। एक कारण यह भी था कि ऑफिस का काम खत्म होते ही मैं साइकिल उठा कर घर भाग जाना चाहती थी। जिस दिन ऑफिस में देर हो जाती तो घर पर डाँट पड़ती। अब से पहले किसी बड़े व्यक्ति को नाम के साथ ’जी’ संबोधित करना मेरा यहीं से षुरु हुआ। प्रषिक्षण में हर मुद्दे / बात पर सबके विचार लिए जाते, सवाल रखे जाते और खूब बातचीत और बहस के बाद चीजें मिल - जुल कर तय होतीं। हम अपने ज्ञान से जो भी बोलते योगेन्द्र जी उसके सभी पहलुओं पर ध्यान दिलवाने के लिए खूब सवाल हमारे बीच रखते। सब खूब बात करते। हम सबके बीच एक बहुत ही सहज दोस्ती का रिष्ता कुछ ही दिनों में बन गया जो कि अभी भी है। कभी - कभी लगता कि छोटी सी बात पर इतनी बात करने की क्या जरुरत है ? परन्तु चर्चा करते तो बहुत अच्छा लगता परन्तु उस समय हम खुद भी बात या मुद्दे की गहराई में उतर रहे होते थे। बोध में हमारा तीन महीने का प्रषिक्षण हुआ। पहले एक महीने हम प्रातः 9ः00 बजे से षाम 6ः00 बजे तक ऑफिस में ही रहे। दूसरे महीने में हम आधे समय बस्तियों में चल रही बोधषालाओं का अवलोकन करने जाते, समुदाय के लोगों से मिलते और फिर बस्तियों से लौटकर आधा समय ऑफिस आ कर अपने अनुभवों को साझा करते। हम बस्तियों मेें दो - दो के समूह में जाते थे।
एक दिन मैं जयपुर में मालवीय नगर वाल्मिकी /हरिजन बस्ती सैक्टर 1 में गई।  इस बस्ती में सभी वे लोग रहते थे जो कि षौचालयों की सफाई का कार्य करते हैं। वहाँ से आ कर मैंने अपने अनुभवों मेें कहा कि ’’मैंने तो आज वहाँ एक राजपूत घर में पानी पिया’’ तो योगेन्द्र जी ने कहा कि  ’’ आपको क्या पता कि वे राजपूत हैं ?’’ मैंने कहा ’’उनके घर के बाहर नाम के आगे राजपूत लिखा था’’ योगेन्द्र जी ने कहा आप किस जाति की हो ? मैंने बड़े ही ठसके से कहा ’’हम तो ब्राह्मण है’’ उन्होंने कहा ’’ब्राह्मण तो नीचे होते हैं’’ मैंने कहा ’’नहीं ब्राह्मण सबसे ऊँचे होते हैं।’’ इस पर चली बहस किसी निष्कर्ष पर नहीं पहंँुची परन्तु इसने थोड़ा मुझे हिलाया। प्रषिक्षण में हमारे साथ बहुत तरह के खेल, बालगीत, चेतनागीत गाना, विभिन्न मुद्दों पर बात करना जैसे रोटी क्यों फूलती है ? धर्म क्या है ? समझ क्या होती है ? पर बात हुई। षिक्षाषास्त्री वसीली सुखोम्लीन्सकी की पुस्तक ’’बाल हृदय की गहराईयाँं’’ पुस्तक सभी ने व्यक्तिगत रुप से खरीद कर पढ़ी। इस पुस्तक के कुछ - कुछ अंष पढ़ कर सभी ने प्रस्तुत किया। कक्षा 1 से 5 तक की सभी विषयों की पुस्तकों को कभी व्यक्तिगत तो कभी समूहों में बैठ कर देखा व प्रस्तुत किया। हम गीत गाते, नाचते, खेल खेलते। एक दूसरे से अपने घर की बातें भी साझा करते। यहां काम करना मेरी किसी प्रकार की मजबूरी नहीं थी।
बोध में हमें अपने को अभिव्यक्त करने का पूरा अवसर मिला था इसलिए मैं अपने मन की बात बहुत ही सहज तरीके से कह देती थी। मैं हिंदी में ’अ’ वर्ण को ’ए’ उच्चारित करती थी क्योंकि हमें इसी तरह उच्चारित करना सिखाया गया था। राजस्थान में उस क्षेत्र में’ ’अ’ को ’एै’ ही उच्चारित करते हैं, जहां मेरी प्राथमिक षिखा हुई थी। जब मैं ’अ’ को ’एै’ बोलती तब योगेन्द्र जी कहते कि ’अ’ बोलो तब मैं ’ऐै’ बोलते हुए कहती हां ’अ’ ही तो बोल रही हूँ। उनके उच्चारित करवाने पर भी मुझे ध्वनियों का अंतर समझ में नहीं आ रहा था। तब मैं बहुत सारी चीजों को ले कर सोचती कि एम ए तक मैंने क्या सीखा, मेरी पढ़ाई तो अब षुरु हो रही है। बोध में हर विषय पर खूब चर्चा होती थी। उस समय मुझे बहुत अच्छा लगता था और मैं सोचती थी कि इतनी अच्छी बातें तो मैंने कभी नहीं सुनीं। मैं अपनी मम्मी को कभी ले कर आऊँ तो कितना अच्छा हो। मैं ऐसा मन में ही सोचती थी। जब कोई  अच्छी, निष्पक्ष, सही लगनेवाली बात सुनती तो मेरे पूर्वाग्रह हिलते और फिर मैं उस विचार को मथते हुए आत्मसात करती और अपने नए विचार बनाने लगती। मैं पिछले 24 साल पहले ऐसी अनुपमा नहीं थी षायद मैं हर दिन बदली हूँ। और महसूस करती हूँ कि मैं एक नई अनुपमा बन गई हूं अभी पता नहीं कितना हर दिन और नया - नया मेरे अंदर आएगा और मुझे ताज़गी देता हुआ ऊर्जित करता रहेगा। जिस दिन हमारा प्रषिक्षण का अंतिम दिन था और अगले दिन से जब हमें बस्ती में काम करने जाना था तब मैंने योगेन्द्र जी से कहा ’’ योगेन्द्र जी, आपने हमारी ट्रेनिंग तो बहुत अच्छी की परन्तु यह तो बताया ही नहीं कि पढ़ाना कैसे हैं ’’? उन्होंने कहा ’’बस यही है ट्रेनिंग।’’  बाद में समझ आया कि यदि वे कोई एक तरीका बता देते तो वही हमारे लिए बाइबिल बन जाता। हमें तो कर के नए तरीके देखने सीखने की आजादी दी गई थी और उस पर अपना तर्क रखना, जानना, सवाल करने की छूट भी दी गई थी। बोधषाला नवाचार आधारित वैकल्पिक विद्यालय था। जिसमें षिक्षा व्यवहारिक हो, वह जीवन में काम आए, और जिसमें षिक्षक एक स्वचेता के रुप में अपने को विकसित करे यह उद्देष्य मुझे धीरे - धीरे समझ में आने लगा।
स्वयं सीखते हुए आगे बढ़ते जाना -
बोधषालाओं में कक्षाएँ नहीं थीं, बच्चों के समूह थे जो कि उनकी आयु और स्तर के आधार पर बनाए गए थे। ये समूह हम ही ने बनाए थे। वहां हम बच्चों को 6 घंटे पढ़ाते, योजना बनाते, मूल्यांकन करते, समुदाय में संपर्क करते, बच्चों को कभी - कभी पार्क या पहाड़ पर घुमाने ले जाते। हमें कभी यह नहीं कहा गया कि हमें बच्चों को मारना नहीं है, बच्चों की षिकायत अभिभावकों से नहीं करनी है। परन्तु चर्चा और काम करते समय ही इन सबके बारे में हमारी एक समझ बनने लगी। एक बार 15 अगस्त पर हम आठ षिक्षिकाएँ गुरुतेग बहादुर सिक्ख बस्ती वाली बोधषाला में थीें। हम स्वयं ही बस्ती से बड़ा सा बांस झंडा फहराने के लिए माँग कर ले कर आए, लड्डू बाँटने के लिए हलवाई को ऑर्डर करने गए। हिसाब - किताब रखा। यहाँ काम करते हुए मुझे कभी नहीं लगा कि हमारे साथ कोई पुरुष सहकर्मी होता तो हम इस काम को बेहतर कर पाते। स्कूल की पुताई करना, उसकी सफाई करना, सजाना सभी काम बच्चे और हम मिल कर करते थे। मेरी मम्मी कभी भी लूना ले कर मेरे ऑफिस आ जातीं या मेरे भाई को मेरे ऑफिस मुझे बुलाने के लिए भेज देती । जब मेरे भाई से मैं ऑफिस में मेरे बुलाने का कारण पूछती तो वह कहता मम्मी कह रही हैं ’’हमें नौकरी नहीं करवानी।’’ ऐसा मुझे कम से कम महीने में 2 - 3  बार सुनना पड़ता था तब मैं मन ही मन कहती थी ’’ मैं तो काम करना चाहती हूं न।’’मेरे घरवालों को बाहर के किसी व्यक्ति को यह बताते हुए षर्म आती थी कि मैं कच्ची बस्ती के बच्चों को पढ़ाने जाती हूं। इसलिए मेरी मम्मी कहती थीें कि ’’मैं चाइल्ड एजूकेषन में काम करती हैंू ’’ फिर ज्यादा कोई कुछ नहीं पूछता था। इसी बीच मैंने समाजषास्त्र में एम ए किया। मेरा बहुत सारी घर की मान्यताओं और विचारों के साथ द्वंद्व चलता रहता था। कभी - कभी साइकिल पर रोते हुए बस्ती पहँुचती थी। सुबह जल्दी उठ कर खाना बनाना, घर की सफाई करना जैसे अनेकों काम छोटे - मोटे कर के साइकिल उठा कर भागती वहां भी समय पर पहँुचना होता था। वह सही भी था। ऑफिस में जब देर तक रुकना होता तो मुझे बहुत डर लगता था कि मेरी मम्मी मुझे नौकरी नहीं छुड़वा दें। इसलिए तेज साइकिल चला कर जल्दी से घर पहँुच जाना चाहती थी। 25 रुपये साईकिल में हवा भरवाने के लिए महीने का खर्च अपने हाथ में रखती थी। षुरुआत में बोध में मुझे 1100 रुपये मासिक वेतन मिलता था जो चार साल बाद 1500 रुपये हो गया था। मैं कभी - कभी सोचती थी कि मैं पूरा पैसा घर पर देती हूं, घर का सारा काम कर के जाती हूं। और क्या करुँ ? हमारे समाजों में लड़कियों की मदद करते हैं, उन्हें संबलन नहीं देते। उन पर दया करते हैं, उनमें स्वाभिमान नहीं भरते। उसे यदि आगे बढ़ना है तो समाज द्वारा प्रदत्त सुविधाएं नहीं मिलेंगी उसे तो संघर्ष करते हुए उन्हें स्वयं ही अर्जित करना होगा।
एक बार मेरे पैर में फ्रैक्चर हो गया तो बोधषाला के 30 - 35 बच्चे मेरे घर लगभग 3 किमी दूर पैदल चल कर मुझसे मिलने आए। वे अपने साथ मेरे लिए कागज पर पैंसिल से षुभ संदेष भी लिख कर लाए थे। एक बच्चे विक्र्रम ने लिखा था ’’ दीदी आप ठीक हो जाओगी, आप रोना मत’’ और सच में बच्चों के वो पत्र पढ़ कर मैं रोई थी। मैंने काम करते समय जाना कि बच्चे कभी चोर नहीं होते जिनके बारे मेें मैं यह धारणा ले कर गई थी कि बच्चे चीजें चुरा लेते हैं। हमने व्यवस्थाएं ऐसी बनाईं कि सभी बच्चों को लगता कि यदि वे लिखेंगे तो उन्हें कागज, पैंसिल मिल जाएगा, वह सबके लिए है। जब हम उपसमूहों में बच्चों के साथ काम करते तो बच्चे चित्र बना कर रंग भरते और फिर बीच में रखी प्याली में रंग रखते जाते। बच्चे और मैं मिल कर कक्षा कक्ष की सफाई करने, पैंसिल छीलने और बांटने, पुस्तकालय की पुस्तकें सिलने और जमाने का काम भी करते थे। जब कभी कोई बच्चा षोर करता और कहना नहीं मानता तब मैं कहती ’’अच्छा अब मैं चुप बैठ जाती हूँ।’’ तब अन्य बच्चे उसे डाँटते हुए कहते कि’’ ओ चुप हो जा’’ दीदी को कहने दे। ’’ हां दीदी कहो !’’  कभी - कभी बच्चे एकदूसरे को गाली भी देते तब समूह के बीच बात की जाती। जब बच्चों को लगा कि दीदी बात करेगी तो वे कागज के छोटे टुकड़े पर उस साथी का नाम लिखते और फिर गाली लिख देते। ऐसे सभी मुद्दों पर हम कक्षा में बातचीत करते। बच्चों में धीरे - धीरे स्वअनुषासन आने लगा।
मैं प्रतिदिन बोर्ड पर योजना लिख देती थी कि आज हम पूरे दिन क्या - क्या करेंगे। तो बच्चे बोर्ड पर लिखे हुए को पढ़ने का प्रयास करते थे। ऐसा करते हुए मुझे काम में एक पारदर्षिता भी लगती थी, बच्चों को पता होता था कि आज वे क्या - क्या करने वाले हैं। बस्ती में हम लोग संपर्क करते तो बच्चों की माँओं से भी बातचीत होती थी। कुछ महिलाओं ने कहा कि ’’दीदी हमको पंजाबी बोलनी आती है पर, लिखना नहीं आता हमें लिखना सिखा दो।’’ मुझे पंजाबी न बोलनी आती थी न ही गुरुमुखी लिखना। ’हँा’ं उनके बीच रहते हुए मुझे उनकी भाषा समझ में पूरी तरह आने लग गई थी। जब मैं किसी षब्द को नहीं समझ पाती तो बच्चे मुझे बताते थे कि दीदी इस षब्द का यह मतलब होता है। कुछ बच्चे मतलब को मतबल भी बोलते थे और मैं वैसे ही ठीक समझ जाती थी जैसे कुछ लोग लखनऊ को नकलऊ बोलते हैं। बोधषाला में हमने ऐसी इच्छुक महिलाओं का समूह बनाया जो कि गुरुमुखी लिखना सीखना चाहती थीं फिर मैंने गुरुमुखी लिपि सीख कर महिलाओं को गुरुमुखी लिखना सिखाया।
 खुद ने की खुद से बात  - ’’जब गलत नहीं तो डरना क्या ?’’
1989 में राजस्थान में सांप्रदायिक दंगों के दौरान जयपुर की कुछ बस्तियों में झुग्गी - झोंपड़ियों को जला दिया गया। साम्प्रदायिक सद्भावना के लिए हमने षांतिमार्च निकाला और न्यूगेट पर धरना दिया। 1992 में भंवरी देवी जो कि, महिला विकास अभिकरण में साथिन थीं उनके साथ राजस्थान के दौसा जिले के भटेरी गांव में बाल - विवाह  रुकवाने पर सामूहिक बलात्कार कांड हुआ। जिसके विरोध में सैकड़ों संस्थाओं के कार्यकर्त्ता सड़कों पर उतर आए। इसके विरोध में मैंने गिरफ्तारी दी। लगने लगा कि जब गलत है तो विरोध से क्या डरना ? बोध में काम करते हुए मेरा दुनिया को देखने का एक अलग तरह का नजरिया बनने लगा। बोध मंे आने से पहले मैं पूरी तरह से कट्ट्र और अपनी बातों और मान्यताओं को सही मानने वाली थी परन्तु जब मुद्दों पर बात होती तो दूसरे की बात न्यायपूर्ण या सही भी लगती थी। कहते हैं न कि यदि ’’कप चाय से पूरा भरा हो तो चाय बाहर फैलेगी ही। कप को पहले थोड़ा खाली करना होता है तभी उसमें और चाय आ सकती है’’ या ’’ खिड़कियां खोलने पर ही बाहर की षुद्य हवा कमरे में प्रवेष कर पाती है।’’ वहां चार साल रहते हुए मेरे विचार और सोच एक आकार लेने लगे। उन विचारों को मैंने आत्मसात किया इसलिए इसकी मेरे घर पर भी छाप पड़ी। यहां सिर्फ संस्था में बैठकर सैद्यांतिक बात करना या सत्र का संचालन करना भर नहीं था।
1992 में मेरे सहकर्मी कमल से मैंने काफी विरोध के बाद बिना दहेज के परिवार की ओर से, समाज के बीच विवाह किया। साथियों से ही 16,000 रुपया उधार लिया। मेरे विवाह को ले कर मेरे समूह के बच्चे बहुत उत्साहित थे परन्तु मैंने कहा कि ’’मेरी षादी दूसरे षहर से हो रही है इसलिए मैं तुम सबको नहीं बुला सकँूंगी। वैसे उन्हें इसलिए नहीं बुलाया गया था कि वे कच्ची बस्ती के बच्चे हैं और गंदे रहते हैं। अपने विवाह के समय मैंने चार दिन का अवकाष लिया। उन दिनों बच्चे समूह में क्या काम करेंगे ? इसकी योजना मैंने उनके साथ बैठ कर बनाई। बच्चों को पता था कि, उन्हें इन चार दिनों में क्या - क्या काम करना है। मेरे बिना बच्चे पूरे चारों दिन आए और उन्होंने लगभग सभी वे काम किए जो हमने मिल कर तय किए थे। हमारी कक्षा में बहुत सिखाने पर जोर न हो कर सीखने की स्थितियाँ बनाना कक्षा की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण हिस्सा था। समूह में लगभग बच्चे एक घंटे पुस्तकालय की पुस्तकें पढ़ते। बच्चों को घर पर पुस्तक देने के लिए मैंने एक पतले रजिस्टर में आवष्यक कॉलम बनाए। बच्चे कॉलम पढ़ कर स्वयं रजिस्टर में एंट्री करते थे। इस दौरान बहुत ही कम पुस्तकें फटीं और खोईं तो नहीं के बराबर। मेरी यह धारणा भी टूटने लगी कि बच्चों को दंड दिए बिना नहीं सिखाया जा सकता। मुझे लगने लगा कि हमें ही काम नहीं करना आता, सीखने की जरुरत तो हमें है कि, किसी को कैसे सिखाया जाता है।
आजा़दी चुनने की और मनचाहा करने की
विवाह के बाद मेरा उपनाम वही रहा, जो था। आमतौर पर देष के कई समाजों और राजस्थान में भी विवाह के बाद विवाहित स्त्री अपने पति का उपनाम अपने नाम के सामने लगाती हैं। यह एक परम्परा है, परिवार को एक इकाई मानने की। परन्तु मैंने अपना उपनाम तिवाड़ी ही रखा। मेरी बेटी अपने नाम के आगे उपनाम के रुप में स्वयं का ही घर का नाम लगाती है, बेटा मेरे पति का, मेरे पति स्वयं का और मैं मेरा। विभिन्न समाजों में विवाह के समय जन्मपत्री मिलवाने का रिवाज है और नहीं मिलने पर लड़की का नाम बदल कर जन्मपत्री मिलवा ली जाती है। यानि जो भी बदलना है वह, लड़की का ही बदलना है। लड़का पैदा होने से ले कर आजन्म ’श्री’ है परन्तु अविवाहित लड़की अपने नाम से पहले ’कुमारी’ व विवाहित ’श्रीमती’ लगाती हैं। मैं ईष्वर को धन्यवाद् देती हूं कि कमल से विवाह कर के मैं अपने विचारों के साथ ही नहीं जी पाई बल्कि आगे भी बढ़ पाई। मैंने कभी विवाहित होने का प्रतीक चिह्न नहीं रखा। हर मोर्चे पर महिला को लड़ना होता है और अपने को साबित करना होता है। लेकिन मेरे अंदर मजबूती निष्पक्ष और दृढ़ विचारों से ही आई। मेरे परिवार में हम चार व्यक्ति हैं। कोई किसी से नहीं डरता और सब, सबसे डरते हैं। परिवार में सबको चुनने की आजादी है। मनचाहा करने की आजादी है परन्तु मनमाना करने की, किसी को नहीं। घर में अहं फैसले चारों की मीटिंग कर के ही लिए जाते हैं। मेरी बेटी प्रोफेषनल फोटोग्राफर और थियेटर ट्रेनर है। बेटा 12 वीं मेें पढ़ता है वह 10 साल से थियेटर कर रहा है। बेटी पिछले वर्ष रतन टाटा ट्रस्ट व यू के गवर्नमेंट के एक प्रोजेक्ट के तहत तीन महीने के लिए इंग्लैंड गई जहां उसने धीमा सीखने वाले ;मंदबुद्यि द्ध बच्चों के साथ  क्राफ्ट, फोटोेग्राफी व थियेटर पर काम किया। हमने बच्चों की क्षमताओं व रुचि के अनुसार बच्चों को पर्याप्त सीखने, करने के मौके दिए और अपेक्षाएँ नहीं रखीं कि उन्हें ये बनना है या वो बनना है। वो जो करना चाहते है, बस उसमें सहयोग किया। एक अभिभावक होने के नाते हमारा विष्वास रहा है कि, सब बच्चों में प्रतिभा होती है, उन्हें बने हुए सांचों में फिट नहीं चाहिए। सब बच्चे सीखना चाहते हैं, आगे बढ़ना चाहते हैं। भला कोई्र बुरा इंसान बनना चाहता है ? बच्चों ने पढ़ाई बीच - बीच में छोड़ी भी। जब बेटे ने गिटार सीखने की इच्छा जताई। बच्चे जब स्कूल जाते थे और वहां जिस तरह की प्रतिस्पर्द्वा, दंड दिया जाता था उससे तो हमारा मन खराब ही होता था और मैं सोचती थी कि मैंने अपने जीवन में स्कूल में क्या - क्या सीखा ? परन्तु हमारे बच्चे  हमारे मित्रों, फोटोग्रार्फ्स, पत्रकार, थियेटर आर्टिस्ट, लेखकों, संस्थाओं में कार्यरत हमारे मित्रों से जुड़े रहे हैं जिससे उनका सीखना औपचारिक षिक्षा के साथ - साथ प्रभावी ढंग से तेजी से हो रहा है। हमने बच्चों के साथ लगातार संवाद बनाए रखा है और हमारा विष्वास है कि ऐसा करने पर स्वअनुषासन बच्चों में स्वतः ही आता है। जैसा कि मेरे समूह के बच्चों में आता हुआ मैंने देखा था। बस हमने धैर्य रखा। बच्चों के दोस्त अब हमारे दोस्त और हमारे दोस्त अब, उनके दोस्त हैं। कुछ दोस्त हम चारों के दोस्त हैं। बहुत तरह के काम करते हुए मुझे मेधा पाटेकर का संघर्ष, तस्लीमा की आवाज़, इरोम चानू षर्मिला का अनषन, मदर टेरेसा की सेवा, गांधी का विचार के साथ कर्मषील होना आदि ने मुझे बहुत प्रभावित किया। ये सब किसके लिए बोलते है ? किसके लिए लड़ते हैं ? हमेषा मेरे दिल में एक सवाल की तरह रहता है और मैं अपने आदर्ष इनमें ढूंढने लगती हूं। कबीर को पढ़कर तो मैं कबीरमय हो गई।
मेरा अपने छोटे बच्चों को कभी पति के पास तो कभी कहीं - कहीं छोड़ना बहुत ही तकलीफदेह होता था। मेरे पास एम 80 दुपहिया थी जिस पर अपनी छोटी सी बेटी को चुन्नी से बांध कर मैं उसे दिन में रखने के लिए किसी - किसी लड़की को खोजने दिगंतर के पास कुुंदनपुरा गाँव जाती थी। कभी -कभी जब बेटे को छोड़ कर जाती और वह जब समझ जाता कि मैं अब उसे छोड़ कर जा रही हूँ तो वह रोता और मैं मुँह नीचे कर के आँसूं पोंछते हुए निकल जाती कि कोई नहीं देख ले कि मैं रो रही हूँ। कभी पति कहीं, कभी मैं कहीं। कभी हम साथ - साथ, तो कभी एक बच्चा एक जगह और दूसरा एक जगह रहे। अब भी बच्चों से अलग रहती हूं तो लगता है षनिवार, रविवार बड़े क्यों नहीं होते ? ’संधान’ में काम करते हुए राजस्थान के हर जिले में षिक्षक प्रषिक्षण के दौरान काफी बाहर जाना होता था। यहां काम करते हुए ही पता चला कि बहुत सारी ऐसी जगह हैं जहाँ ट्रेन नहीं जाती  क्योंकि  मेरे पापा रेलवे में थे और हम सब जगह टेªन से ही जाते थे। षहर से बाहर अकेले आना- जाना यहीं से षुरु हुआ।
अच्छा काम, जो रुलाता है अब भी, कभी - कभी
एक्षन एड जयपुर, राजस्थान में मैंने खिलती कलियाँ परियोजना में समन्वयक के रुप में साढ़े चार वर्ष कार्य किया। इसमें मैं जयपुर रहती थी परन्तु राजस्थान के सीकर, अजमेर और कोटा में काम के दौरान जाना होता था। कोटा व अजमेर में हम घर से निकलकर रेल्वे स्टेषन पर आए हुए बच्चों को उनके घर पहुँचाने का काम करते थे। उन साढ़े चार वर्षों में हमने 375 बच्चों को उनके घर पहँुचाया जो कि विभिन्न कारणों से घर से निकल कर भाग आए थे। लोग इन्हें टपोरी, भगोड़े षब्द बोलते थे। मेरे दिमाग में सवाल आता कि कोई भी अपना घर क्यों छोड़ता है ? मेरे बच्चे तो अपना घर नहीं छोड़ कर भाग रहे। घटनाओं के पीछे होने वाले कारणों को हमेषा मेरा दिमाग कुरेदता रहा। ऐसी स्थितियों में मेरे अपने सवाल होते थे और अपने जवाब।
अजमेर प्लेटफॉर्म पर रहने वाले बच्चे कचरा बीन कर कबाड़ी को बेचने, ट्रेन में पेपर सोप बेचने और होटल पर कप प्लेट - धोने का काम करते थे। एक बार दिवाली से पहले उन्होंने थोड़े - थोड़े पैसे इक्कठे किए और फिर उनसे कुछ - कुछ नए कपड़े खरीदे। ये कपड़े वे दिवाली पर पहनने वाले थे। परन्तु तब तक इन्हें रखने के लिए उनके पास कोई सुरक्षित जगह नहीं थी। इन कपड़ों को उन्होंने रेलवे यार्ड में खड़े एक डिब्बे में छुपा दिया। डिब्बा बहुत दिनों से वहीं खड़ा था परन्तु एक दिन डीजल उस डिब्बे को ले गया। यह बात मुझे उनमें से एक बच्चे ने हँस - हँस कर बताई। यह बात अब भी हँसाती कम, रुलाती ज्यादा है। इस परियोजना में हम वाल्मिकी समाज की बालिकाओं के साथ भी सीकर के वार्ड नंबर 39 में काम कर रहे थे। वहां सामुदायिक केन्द्र में हम अनौपचारिक षिक्षा उन बालिकाओं के लिए चलाते थे, जिनकी प्राथमिक षिक्षा पूरी नहीं हुई थी। यह ऐसा केन्द्र था जिस पर आने वाली लड़कियां षौचालयों की सफाई करने जाती थीें और वहां से आ कर पढ़ाई करती थीे। प्राथमिक षिक्षा पूरी करने के बाद पांच लड़कियों ने मारु गर्वनमेंट हायर सैकण्ड्री स्कूल में प्रवेष लिया। सीकर में यह स्कूल लड़कियों के लिए किसी कॉलेज से कम नहीं समझा जाता था। हमारे सेंटर पर अस्पृष्यता, घरेलू हिंसा जैसी बहुत सी सामाजिक समस्याओं पर भी बात होती थी। मैं वहां कालूराम हटवाल के घर में रुकती थी जो कि उसी समाज का व्यक्ति था। षुरुआत में तो वे मेरे लिए बाहर से कोकाकोला मंगवाते थे। उनका सोचना था कि मैं उनके घर की चाय वगैरह नहीं पिऊँगी, बाद में मैं उनके घर बनी चाय या खाना भी खाने लगी। इसी परियोजना में मैंने देह व्यापार में लिप्त परिवार के बच्चों के साथ काम किया। इन बच्चों को  अन्य बच्चे वैष्या या रंडी की औलाद कहते थे और यह कारण बच्चों को स्कूल से विमुख करने के लिए पर्याप्त था। नट समाज की 21 वर्षीय एक लड़की देह व्यापार के काम से निकलना चाहती थी उसके परिवार के सहयोग के बिना जब हम उसे देह व्यापार के काम से नहीं निकाल पाए तो उसने आत्महत्या कर ली। उसका नाम कविता था। वो कविता आज भी जैसे सवाल करती सुनाई देती है कि समाज आपके जीने का रास्ता पहले से ही क्यों तैयार रखता है, जिस पर किसी का जीवन चलना है। अरस्तू ने कहा था’’ हम स्वतंत्र पैदा हुए हैं।’’ गौतम बुद्य ने कहा ’’अप्प दीपो भवः’’ तुम अपना प्रकाष स्वयं बनो। तुम मानना मत अपनी आँखों से देखना।
कोटा के रेलवे स्टेषन पर देष भर से बच्चे भाग कर आते थे। दो बच्चों को मैं व एक कार्यकर्ता  नेपाल उनके घर छोड़ने गए। उस बच्चे के पिता को जब पता चला कि उनका बेटा भारत के राजस्थान के कोटा षहर में हमारे पास है तो वे दो महीने तक नेपाल एक्षन एड के ऑफिस में साइकिल से चक्कर लगाते और पूछते हमारा लड़का कब आएगा ? हमारा  लड़का कब आएगा ? कितने सारे बच्चों को मेरी उपस्थिति में उनके अभिभावकों को सौंपा गया जब अभिभावक अपने खोये हुए बच्चों को हमसे प्राप्त करते तो वे और बच्चे लिपट - लिपट कर रोते थे और मुझे भी वह सब देख कर रोना आता था। यह काम उस समय मुझे दुनियाँ का सबसे बड़ा और पवित्र काम लगता था। इस परियोजना में अजमेर, कोटा और जयपुर के ’बाल सम्प्रेषण गृह’ जहां अपचारी कहे जाने वाले बच्चों को रखा जाता है। मैंने उनके साथ भी काम किया। इन बच्चों के लिए बाल अधिकार अधिनियम का उल्लंघन होते हुए मैंने बहुत देखा। एक मीटिंग में राजस्थान की चीफ जस्टिस को मैंने बताया कि अजमेर के बाल सुधार गृह में उपेक्षित, अपचारी व स्पेषल होम तीनों तरह के बच्चे साथ में रहते हैं जो कि 5 -6 वर्ष से 18 वर्ष तक के हैं। यह बाल अधिकार अधिनियम के विरुद्य है। उन्हें अलग - अलग रखा जाना चाहिए। वहां बड़े बच्चे बहुत प्रकार से छोटे बच्चों का षोषण करते थे और छोटे बच्चे अपनी परेषानियों को स्टाफ के कर्मचारियों को नहीं कह पाते थे। मेरी इस बात का जवाब उन्होंने दिया कि ’’वहां की क्या बात करें ंवहाँ तो चूहे ऐसे ही घूमते रहते हैं।’’ किसी महत्वपूर्ण बात का जवाब नहीं देना हो तो कुछ भी कहा जा सकता है। बस मैंने अपने मन को यही कहा कि ’’वहां इनका बच्चा बंद नहीं है।’’ मैं हमेषा अपराधियों, कैदियों, अपचारी कहे जाने वाले बालक- बालिकाओं के प्रति संवेदनषील रही हूंँ कौन चाहता है कि वह बुरा व्यक्ति बने, उसके लिए मुझे व्यक्ति का परिवार, समाज, देष की नीतियां और कार्यरत लोग अधिक जिम्मेदार लगते रहे हैं। यहां काम करते हुए मुझमें काफी साहस भरा।
कविताएँ लेने लगीं जन्म -
वर्ष 2005 में मुझे उड़ीसा के भुवनेष्वर व पुरी के जगन्ननाथ मंदिर जाने का अवसर मिला। भुवनेष्वर के लिंगराज मंदिर के बाहर लिखा है ’’सिर्फ हिंदुओं के लिए प्रवेष’’ और ऐसा ही जगन्नाथ मंदिर के बाहर लिखा है। वहां के पंडित ने मुझसे कहा मैडम आप गोआ से आई हो ? मैंने का ’’नहीं राजस्थान से।’’ उन्होंने मेरा नाम पूछा मेरे बता देने पर मेरा उपनाम पूछा। मैंने उनसे कहा ’’आपने मेरे बारे में इतना क्यों पूछा ’’ तो उनका कहना था कि ’’मैडम यहां हिंदुओं को ही प्रवेष है। इंदिरा गांधी को भी रोक दिया था मंदिर में अंदर जाने से।’’ जब हम वहां गए तब पुरी के भगवान को बुखार हो रहा था। साल में 15 दिन वहाँ भगवान को बुखार होता है परन्तु दर्षनार्थी आ सकते हैं, चढ़ावा चढ़ा सकते हैं, दुनिया की सबसे बड़ी रसोई देख सकते हैं जैसा कि वहाँ दावा किया जाता है। 100 रुपये का  लगभग 250 ग्राम प्रसाद खरीद सकते हैं। वहँं मैंने देखा कि जगह - जगह पैसे कम चढ़ाने पर पंडित बुरी तरह से श्रद्यालुओं से बोल रहे थे आगे चलो, आगे चलो। 2006 में हैदराबाद के मक्का मस्जिद में जब मैं अपने सहकर्मियों के साथ प्रवेष कर रही थी तब एक महिला ने मुझे बाहर रोक लिया और कहा ’’औरतें अंदर नहीं जाती हैं।’’ ऐसे ही अनेक उदहारण दलितों को मंदिर में प्रवेष से रोकने के मैं सुनती रही थी। मेरे मन में कड़े षब्दों में सवाल बाहर आने लगे ’’षंकर भगवान का नंदी बैल मंदिर के अंदर जा सकता है, गणेष जी का चूहा जा सकता है पर मुसलमान नहीं जा सकता, इसाई नहीं जा सकता, औरत मस्जिद में नहीं जा सकती। सभी धर्म किसी न किसी रुप में कहते रहे हैं कि कण - कण में भगवान है तो क्या इसाई में भगवान नहीं हैं दलित में भगवान नहीं है ? यदि हम सब ईष्वर की संतान हैं तो क्या औरत ईष्वर की संतान नहीं है ? अनेकों सवाल मैं अपनी कविताओं में करने लगी। धर्म की परिभाषा मैंने अपने लिए स्वयं तय की। कबीर को मैंने पढ़ा मुझे उनका फक्कड़पना बहुत भाता है।
ऽ    कस्तूरी कुंडली बसै, मृग ढूंढे बन माहीं
ऐसे घट - घट राम हैं, दुनिया देखे नाहीं।

ऽ    काकर पाथर जोरि ले, मस्जिद लेई चुनाय
ता चढ़ी मुल्ला बांग दे,क्या बहिरा हुआ खुदाय।

कबीर आज भी प्रासंगिक है। जो कहते थे ’’ईष्वर कहीं नहीं है, वो है, तो बस, तुम्हारे अंदर।’’
बहुत सी घटनाओं में मैंने अपने होने की तलाष की। अपने लिए तौर - तरीके से जीने के कारण लोग मुझे कहते आप आर्य समाजी हो ? आप किसी गुरु महाराज को मानती हो ? मेरे मना करने पर वे कहते किसी को तो मानती होओगी ? फिर अंत में वो मुझे नास्तिक भी कहते। मुझे आज तक नहीं पता कि मैं नास्तिक हूं या आस्तिक ? क्योंकि आम लोगों का कर्मकांडी होना धार्मिक होना है जो कि मेरा तो बिलकुल भी नहीं है। मुझे लगता है जो हम धारण करते है,ं वह धर्म है। धर्म और उपवास  की परिभाषाएं मैंने अपने लिए स्वयं गढ़ीं। मानना कुछ नहीं है। मैं कविताएं लिखने लगी। मेरी लिखी कविताएं विभिन्न प्रकार के भेदभावों पर सवाल उठाती हैं, तो कभी व्यवस्था पर, वे वंचितों की आवाज़ हैं, तेजी से बदलता बाजारवाद के प्रति आगाह करती हैं। मैं ऐसे काम करने लगी जिसमें सीधा - सीधा सामाजिक हित हो, सीधे - सीधे किसी वंचित व्यक्ति को मदद मिले। कितनी ही लड़ाई झगड़ों मेें मैं बेपरवाह हो कर कूद गई, कभी - कभी डर भी लगा परन्तु मन में ये ग्लानि नहीं रही कि मैंने कुछ नहीं किया। एक इंसान होने के नाते मेरी इस समाज, देष में क्या भूमिका है ? मेरे अंदर का आदमी हमेषा बाहर आता रहा कभी लेखक, कभी पत्रकार तो कभी सामाजिक कार्यकर्ता बनकर। मैंने अभी तक लगभग 160 कविताएं लिखीं जिनमें से 50 से अधिक कविताएं, कहानियां और लेख देष के विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं व ई - मैगजीनस में प्रकाषित हुए हैं। एक कविता संग्रह ’’आइना भीगता है’’ बोधि प्रकाषन जयपुर से 2011 में प्रकाषित हुआ और दूसरा इस वर्ष आने को है। मुझे लगता है कि एक लेखक का लेखन अधूरा है यदि वह सामाजिक कार्यकर्ता नहीं है तो। क्योंकि उसका लेखन कभी समाज की विदू्रपताओं को सामने लाता है तो कभी वह एक स्वस्थ समाज बनने की अपेक्षा भी करता है। उसके मन में एक न्यायप्रिय और करुण समाज की इच्छा भी कहीं न कहीं रहती है। ऐसी स्थितियों के बारे में वह लिख तो रहा होता है लेकिन समाज के लिए कर क्या रहा होता है ? इसीलिए मेरे लेखन ने मुझे सामाजिक कार्यकर्ता भी बनाया।
काम करने के दौरान ही कन्या भ्रूण हत्या, घरेलू हिंसा, जैसे मुद्दों को समझने का अवसर मिला। रैली धरने, खूब किए जयपुर के पास कालाडेरा में मेधा पाटेकर के नेतृत्व में कोकाकोला प्लांट के विरोध में 2005 में गिरफ्तारी दी। कोकाकोला प्लांट से लगातार आस - पास के गांव बंजर हो रहे हैं। एक बॉटल कोकाकोला के षोधन  में 8 बॉटल पानी की जरुरत होती है और यह कोकाकोला वह गरीब आदमी के लिए तो नहीं है, जिसके जमीन का पानी रीत रहा है और उसकी जमीन बंजर हो रही है। प्याऊ बोतल में बंद होती जा रही हैं। यह पानी भी कीटनाषकयुक्त है। सभी बोतलबंद पेयों में कीटनाषक होते हैं। दिमाग में आता था कि इस धरती के प्राकृतिक संसाधन तो सबके हैं न ! पानी कोई कैसे बेच सकता है ? यहाँ प्रेमचंद का ’ठाकुर का कुआ’ कहानी भी याद आती थी। इस सबमें मेरे पति कमल का सहयोग रहा। तभी षायद में इतनी मजबूत बन पाई। यह सब टुकड़ों में नहीं समग्रता में बना एक विचार है।
 पिछले सात वर्षो से मैं अपने जन्मदिन पर रक्तदान कर रही हूँ। एक सामान्य व्यक्ति के षरीर में साढ़े चार - पांच लीटर खून होता है मैंने संकल्प लिया कि मैं अपने जीवन में एक षरीर जितना रक्तदान  करुँ। जब किसी का एक्सीडेंट हो जाता है और परिवारजन नहीं आ पाते तब ऐसी स्थिति में जो लोग स्वैच्छिक रक्तदान करते हैं उ़न्हीं का रक्त काम आता हैं। रक्तदान, महादान है। लाखों रुपये से भी भारी पड़ता है रक्त उस समय। मैंने व कमल ने देहदान व नेत्रदान का संकल्प पत्र भरा। डॉक्टर हमारी देह को काम में लेते हुए कितना कुछ सीखेंगे और अन्यों की जान बचाएंगे। अपना जीवन जीने के बाद आप दूसरे को ये आँखें दे कर कितना सुंदर कार्य कर रहे होते हैं वह भी ये सुंदर दुनिया देख पाए जिसे कुदरत ने आँखें नहीं दीं। पिछले सात वर्षंो में मैंने लगभग 350 से अधिक पेड़ सार्वजनिक स्थानों पर लगाए। हम एक दिन में ऑक्सीजन के दो सिलिंडर ऑक्सीजन ले लेते हैं पेड़ कितनी ऑक्सीजन देते हैं, हजारों पक्षी घोंसले बनाते हैं, पक्षियों और कितने ही जानवरों को भोजन मिलता है। कितने पषु तपती धूप में इनके नीचे छाँव पाते हैं, हवाएंँ चलती हैं, पर्यावरण षुद्य होता है। पर्यावरण के प्रति इतने सारे फायदों ने मुझे पेड़ लगाने के लिए प्रेरित किया। हम कितना खाते हैं, पानी पीते हैं और बदले में इसे क्या देते हैं ? इसी विचार को लेते हुए मैं खूब बागवानी करती हूं। श्रम में मुझे दृढ़ विष्वास है। पिछले कुछ वर्षों से मैं सर्दी के दिनों में अपने मित्रों से गर्म कपड़े एकत्र कर फुटपाथ पर रहने वाले लोगों को कपड़े देने जाती हूं। इस वर्ष आठ बच्चों को यूनिफार्म बनवार्इ्र और एक बच्चे को स्नातक की पढ़ाई में योगदान दे रही हूं। सात साल पहले एक रिपोर्ट से यह जाना कि दुनियां में तीन में से एक आदमी भूखा सोता है तब से सप्ताह में एक दिन / सोमवार को एक समय का भोजन किसी भी जरुरतमंद व्यक्ति को देती हूं और उस दिन उपवास रखती हूं। उपवास का तरीका मेरा अपना तय किया हुआ है। एक समय का भोजन छोड़ना अपरिग्रह भी सिखाता है। अभी दो महीने से अपने मकान में रहने वाली एक हमउम्र महिला, कमला जी को पढ़ना .- लिखना सिखा रही हूं। इस उम्र में उन्हें पढ़ना - लिखना सीखने की सख्त जरुरत है। क्योंकि उनकेे पति की मृत्यु के बाद उनकी बी एस एन एल विभाग में अनुकंपा पर नौकरी लगी है। मुझे लगता है कि वे पांच - छह महीने में पढ़ना .- लिखना सीख जाएंगीं। यह कोई बड़ा योगदान नहीं है परन्तु मुझे एक प्रकार की संतुष्टि देता है और होठ बुदबुदाते हैं रहीम की ये पंक्तियाँ
देनदार कोई और है, भेजत है दिन रैन,
लोग भरम मोपे करैं ताते नीचे नैन।
मेरे काम की षुरुआत की कड़ी यहाँ से आरंभ हुई -
ऽ    1989 से 1993 तक मैंने जयपुर राजस्थान स्थित ’बोध षिक्षा समिति’ द्वारा कच्ची बस्ती में संचालित बोधषाला में षिक्षिका के रुप में कार्य किया।
ऽ    1993 से 1996 तक ’दिगंतर षिक्षा एवं खेलकूद समिति’ जयपुर में में समूह समन्वयक के रुप में कार्यरत रही। जिसमें षिक्षकों को प्रषिक्षण व षैक्षिक संबलन देने का कार्य किया व पुनः 2007 से 2008 तक ’क्वालिटी एजूकेषन प्रोग्राम’ बारां राजस्थान में फैकल्टी के तौर पर कार्यरत रही। वहाँ षिक्षक प्रषिक्षणों, डाइट व किषनगंज ब्लॉक में सरकारी षिक्षकों के साथ सघन कार्य किया।
ऽ    1996 से 2000 तक ’संधान’ जयपुर, राजस्थान में हिंदी विषय की व्याख्याता के रुप में कार्यरत रही जिसमें सरकारी षिक्षकों के प्रषिक्षण, सहज षिक्षा केन्द्रों के अनुदेषकों के प्रषिक्षण, पाठ्यक्रम निर्माण व षिक्षण सामग्री निर्माण संबंधी कार्य किया।
ऽ    2000 से 2002 तक ’ह्यूमाना प्यूपिल टू प्यूपिल इंडिया’ विराटनगर राजस्थान में परियोजना समन्वयक के रुप में कार्य किया जिसमें अनौपचारिक केन्द्र व पूर्व प्राथमिक षिक्षा के लिए षिक्षकों को अकादमिक संबलन देने का कार्य किया।
ऽ    2003 से 2007 तक ’एक्षन एड’ के खिलती कलियाँ परियोजना की समन्वयक रही जिसमें जो बच्चे घर छोड़ कर रेल्वे प्लेटफॉर्म पर आ जाते हैं, जो बच्चे बाल सुधार गृहों में रहते हैं, वे बालिकाएं जो कि षौचालयों में सफाई का कार्य करती हैं और समाज के सबसे तुच्छ, नीचे माने जाने वाले समाज की हैं, जो बच्चे बालश्र्रम से जुड़े हैं, तथा वे बच्चे जिनके परिवार देह व्यापार में लिप्त हैं, उनके साथ काम किया। यहां काम करते हुए 375 बच्चों को उनके घर पहुंचाया। 50 बालिकाओं को षिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ा।
ऽ    2009 से 2010 तक ’वाग्धारा’ जयपुर संस्था में कार्य किया जिसमें यूनिसेफ कि सहयोग से बायो इंटेसिव गार्डन प्रोजेक्ट में समन्वयक के रुप में कार्य किया।
ऽ    2010 से 2011 तक ’परिवार सेवा’ जयपुर मेें ’एजूकेषनिस्ट’ के रुप में कार्य किया। जिसमें प्रजनन स्वास्थ्य पर महिलाओं, पुरुषों व स्कूली बालिकाओं के साथ कार्य करना रहा।
ऽ    बीच - बीच में यूनिसेफ, सेव द चिल्ड्रन, आई आई एच एम आर , एन आई आर ए संस्थाओं के साथ बच्चों के अधिकारों, एस एम सी, बाल न्याय अधिनियम ,एड्स से पीड़ितों के साथ कार्य करना, दस्तावेजीकरण व स्टडीज़ करने का कार्य किया।
ऽ    वर्तमान में 1 अप्रेल 2011 से टोंक जिला संस्थान राजस्थान में हिंदी विषय की संदर्भ व्यक्ति के रुप में कार्यरत हूँ। टोंक जिले में सरकार के साथ मिलकर षिक्षकों को अकादमिक संबलन देने की हमारी जिम्मेदारी है। फाउंडेषन में जब आई तब प्रतिमाह पांच हजार रुपये अधिक वेतन एक अन्य संस्था में मुझे मिल रहा था परन्तु मैंने अज़ीम प्रेमजी फाउंडेषन को चुना। क्योंकि यहां की संस्कृति के बारे में मैंने थोड़ा बहुत सुना था, मैं हमारे स्टेट हैड गौतम जी की सहजता और सादगी से बहुत प्रभावित हूँ। वे लंबे समय एकलव्य संस्था में काम कर के आए हैं। एकलव्य का षिक्षा और अपनी विचारधारा के लिए देष में अच्छा - खासा नाम है। मैं लिखती हूं, गीत गाती हूं, बागवानी करती हूं। मैंने बहुत जगहों पर काम किया परन्तु यहां कुछ बात है, कुछ अलग है.....। मेरा मानना है कि षिक्षित होना और पैरों पर खड़े होना किसी भी व्यक्ति की ताकत है और यह अधिकार उसे मिलना ही चाहिए।
बालिकाओं और महिलाओं को अवसरों की वंचितता से भी जूझना होता है। हाल ही मेें पाकिस्तान में षिक्षा की आवाज़ उठाने वाली बालिका मलाला पर तालिबानियों ने गोली चलाई। एक कविता मैंने मलाला का हौसला अफजाई करते हुए लिखी है -
मलाला
15 साल की मलाला
तुम जीओ 115 साल।
तुम नहीं मरोगी गोली से
क्योंकि,
तुम्हारी धमनियों में बहता
लहू का हर कतरा गर्म है।
तुम्हारी सपनीली आंखों में
लड़कियों के षिक्षित होने के सपने हैं
तुम्हारी आवाज़ आसमान से बात करती है।
भला, ऐसी फौलाद लड़की को कौन मार सकेगा ? ?
तालिबानियों मारो तुम एक ’मलाला’
एक हजा़र ’मलाला’ पैदा हो जाएंगी
ठीक पत्थरचट्टे की तरह
जिसके हर पत्ते से एक नया पौधा उग आता है।
पता है, बंदूक के कारखाने में जितनी बंदूकें बनती हैं
उनसे कहीं ज्यादा आवाजें हुमकती हैं,
दिलों म,ें
बेताब होती है,
बाहर आने को
हाथ बढ़ाती हैं आगे
छूने को आकाष।

अनुपमा तिवाड़ी ; संदर्भ व्यक्ति हिंदी द्ध
टोंक, राजस्थान, भारत                  

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