(2)
वो पैदा नहीं हुई थी
इसलिए वो प्रेम भी नहीं कर सकती थी/
संगीत के सातों सुर थे उसके पास
मगर वो संगीत नहीं सुन सकती थी/
पहले पहल इस संगीत को उसके होठों ने
खामोश किया/
फिर चुपके से दफ़्न करती गई वो/
उसे अपनी धज्जी-धज्जी सांसों में।
वो पैदा हुई ही नहीं थी/
इसलिए आप उसे रूकैया जहांगीर बुलाएं/
साजिदा ताहिर, संजीदा अब्दुल्लाह/
या कोई भी नाम देना चाहें आप/
पैदा होते ही
जिस्म के भीतर दबे संगीत ने उसे प्यार
करना सिखाया
तो सामने पत्थरों की दीवारें थीं/
घर में अपने कहे जाने वाले भाई या बाप/
असलहों से लैस थे/ जिनकी तरफ
नज़र उठाकर देखने की
हिमाकत भी नहीं कर सकती थी वो।
वो प्रेम नहीं कर सकती थी/
फिर भी वो प्रेम करना चाहती थी/
और साहब इस इत्तेला के लिए धन्यवाद
कि प्रेम घुटन भरे
माहौल/ और जिंदां (कैदखाना) में भी
तलाश कर लेता है एक रास्ता/
वैसा ही रास्ता तलाश किया था/
उस लड़की ने/
जिसे आप साजिदा ताहिर कहें, रूकैया जहांगीर/
या संजीदा अब्दुल्लाह
घर के एक मात्र छोटे से रोशनदान से/
वह लगातार देख रही थी/
टैंकर, तोपों के साथ गुजरती बटालियन/
सफेद गन्दे मैले कपड़े वाले/
सर को मोटी पगड़ियों से बांधे/ हाथों में
असलहे लिए/
एक दम पास से गुजरते हुए/
कुछ-कुछ वैसे ही/ जैसे उसके घर के भाई थे
या अब्बूजान/
और जिनके आगे नजरें उठाने की हिमाकत
भी नहीं कर सकती थी वो/
लेकिन वे अब्बू या भाई नहीं थे/
और कमरे के इस एकमात्र रोशनदान से/
वो नजारा कर कर सकती थी उस समूह का/
या शोर का/
या फिर इंतज़ार कर सकती थी, उनमें से एक/
उसे चेहरे का/ जो टैंकर या तोप के
दहाने पर बैठा/
अभी कुछ दिन पहले गुजरा था/
उसके छोट से रोशनदान के सामने से/
प्रतीक्षा में गुजर गये थे कितने दिन/
फिर वह नहीं आया/
लेकिन उसके आने की प्रतीक्षा बार-बार
उसे रोशनदान तक खींच लाती है/ यद्यपि
उसका चेहरा नहीं
देख सकी थी वो/
फिर भी एक चेहरा बना लिया है
उसने मन में/
यद्यपि उसका नाम नहीं जानती वो/
फिर भी एक नाम रख लिया है उसने/
जिसे वो होठों तक नहीं ला सकती/
वो लौटेगा या नहीं/
वो यह भी नहीं जानती/
मगर वह बार-बार प्रतीक्षा करती है उसका
बारूदी धुएं और टैंकर-तोपों की आवाजें
अब एक रोमांच जागती हं उसमें/
बेहद घने कोहरे में जाग जाते हैं/
सहसा/ जिस्म में दफ़्न संगीत के
सातों सुर/
वो पैदा हो रही थी.....
इसलिए वो प्रेम कर सकती थी।
- तबस्सुम फ़ातिमा
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