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कविता - धनाक्षरी

  • सुशील यादव
  • 29 सित॰ 2017
  • 1 मिनट पठन

भीड़ में कोई किसी को,लो रास्ता नहीं देता

एक तिनका डूबे को,आसरा नहीं देता

कहाँ ले जाओगे तुम ,अपनी उखड़ी साँसे

बीमार को तसल्ली, या हवा नहीं देता

मै चाहता उतार दूँ ,ये गुनाह के नकाब

ऊपर वाला दूसरा ,चेहरा नहीं देता

मिले शायद इनसे,पल दो पल की हंसी

जीवन की मुस्कान .मसखरा नहीं देता

कितने चारागर से, मिल पूछा किये हम

मर्जे इश्क भी दाग , गहरा नहीं देता

कल की कुछ धुधली, बच गई तस्वीरे

आज का अक्स साफ ,आइना नहीं देता

मिल कर जुदा हुए , बीत गए हैं बरसों ं

मेरा सुकून ठिकाना, या पता नहीं देता

सुशील यादव,दुर्ग

sushil.yadav151@gmail.com

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