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  • मिर्ज़ा हफ़ीज़ बेग

दीपक कुमार वर्मा

फ़ेसबुक पर उसे देख सुखद आश्चर्य हुआ । यकायक विश्वास नही हुआ, यह वही है ? प्रोफ़ाईल चित्र से उसे पहचानना मुश्किल था । यह जीवन के छठवें दशक मे चल रहे व्यक्ति का चित्र था । बालों मे सफ़ेदी, आंखों पर चश्मा, ओठो के ऊपर मूछों के अलावा चेहरे पर थकावट के निशान भी नुमाया थे । लगा, यह वह नही हो सकता । वह ओज पूर्ण चेहरा और उत्साह उमंग की शक्ति से चमकती वह आंखें कहां थीं ।

लेकिन क्या कहा जा सकता है । इस बीच समय भी कितना बीत चुका है । मन तो पूरी तरह मान चुका है कि यह वही है । आखिरकार मै भी तो उसका हम उम्र हूं । क्या मै वैसा हूं जैसा उन दिनो हुआ करता था आंखो पे थकावट के निशान नज़र आने लगे हैं । हां, चेहरे पर सम्पन्नता की चमक दमक साफ़ नज़र आने लगी है । क्या वह मेरा प्रोफ़ाईल चित्र देखकर मुझे पहचान लेगा ?

फ़्रेन्ड-रिक्वेस्ट भेजी और वह एक्सेप्ट भी हो गई । लेकिन उसका पेज और उसकी पोस्ट देखकर भी यह मानना ज़रा मुश्किल था कि यह वही है । अलबत्ता वह भी डॉक्टर ही है और नाम भी वही उम्र भी वही और तो और कॉलेज भी वही । इतनी समानताओं के बाद यह तो मानना ही पड़ेगा कि यह वही है ।

डॉ- दीपक कुमार वर्मा ।

क्या यह वही दीपक कुमार वर्मा नही था ? वह तो अद्वीतीय था । कम से कम हमारे कॉलेज मे तो अद्वीतीय ही था । हालांकि नाम मे वर्मा से लोग उसे स्थानीय समझते और छत्तीसगढ़ी मे बात करने लगते और इससे वह बड़ी दुविधा महसूस करता; क्योकि छत्तिसगढ़ी उसे आती नही थी । हां ! हिन्दी का वह बड़ा प्रभावशाली वक्ता था ।

वह बीसवी सदी के आठवें दशक की बात थी जब हम लोग मेडिकल कॉलेज मे सहपाठी थे । हम दोनो ने एक साथ ही एम बी बी एस किया था ।

वे सपनो जैसे सुनहरे दिन थे जब आकाश साफ़ और नीला-आसमानी, चमकीला और नज़र की सीमाओं से बढ़कर विस्तृत हुआ करता था । धरती भी काफ़ी विस्तृत और दूर दूर तक फ़ैली नज़र आती थी ।

आज कल की तरह आप अपने आप को ईट गिट्टी सीमेंट और लोहे के ढेर से घिरा हुआ नही पाते । हम अपनी बाहों को, और अपनी कल्पनाओं के पंख को खुलकर फ़ैलाने के लिये आज़ाद थे । हमारे फ़ेफ़ड़े ढेर सारी साफ़ सुथरी और ताज़ी हवा अंदर खीचते और छोड़ते थे ।

हां वे सपनो जैसे सुनहरे दिन थे, जिनकी सुबहें शांत और उजली हुआ करती । दोपहर उद्दात और क्रियाशील हुआ करतीं । शामें जोश-ओ-जुनून से लबरेज़, बहस मुबाहसों मे बीतती । बहस मुबाहसों के विषय भी साहित्य, फ़िलासफ़ी, आदर्श और सिद्धान्त, और भी जाने क्या क्या हुआ करते । … और वो अनंत शांति वाली राते - - - ? वे रातें ढेर सारी किताबों के बीच चाय की चुस्कियों के सहारे बसर होतीं । चाय जिसकी एक एक चुस्की मे हमारे लिये ढेर सारी उर्जा और जीवन-शक्ति का स्त्रोत हुआ करती । ख़ुदा जाने हम कब सोते और कब जागते ।

दीपक कुमार वर्मा, उन चमकीले और सुनहरे दिनो मे हमारे कॉलेज का सबसे चमकदार सितारा हुआ करता था । वह न सिर्फ़ एक प्रखर और प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही था बल्कि अपनी बातों से श्रोताओं को उद्वेलित कर देने वाला ओजस्वी वक्ता भी था । वह हमेशा छात्र संघ के विभिन्न पदों पर निर्विरोध निर्वाचित होता । हमे उसमे भविष्य की एक महान विभूति नज़र आती । छात्र हों या प्रोफ़ेसर, सभी उसके अंदर भविष्य की असीम सम्भावनाओं को देखते और वह हमारे बीच है इसके लिये खुद को धन्य समझते ।

उसका व्यक्तित्व जितना शांत और गहरा था, उसकी आवाज़ भी उतनी ही शान्त और गहरी थी । उसकी बातें हमेशा तर्कपूर्ण और विभिन्न उद्धरणो से भरी होती । वह जो कुछ भी बोलता उसके पक्ष मे अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत करने की क्षमता रखता । वह हमेशा आदर्श और सिद्धांतों की बातें करता । उसे अपने सिद्धांतो से गहरा लगाव था । सिद्धांत, जो उसे कार्ल मार्क्स, फ़्रेड्रिख़ एंगेल्स, लेलिन, स्तालिन, फ़िदेल कास्त्रो, चे ग्वेरा और यहां तक कि, नेल्सन मंडेला, सरदार भगत सिंह और चन्द्रशेखर आदि आदि से प्राप्त होते थे । वह हमेशा किसानो मजदूरों की चिंता करने वाला, चिकित्सा शास्त्र का एक अनोखा विद्यार्थी था ।

पता नही उसके अंदर वह क्या चीज़ थी कि, जब एम बी बी एस की पढ़ाई का बोझ हमे गहरे अवसाद की ओर ढकेल रहा होता, तब भी वह उतना ही शांत और सहज नज़र आता । और इतना ही नही, इस समय भी वह कभी उत्पादित माल के मूल्य मे मजदूर के श्रम की हिस्सेदारी पर बहस छेड़ देता तो कभी दर्शन शास्त्र के मूल प्रश्न के भौतिकवादी और अध्यात्मवादी उत्तरों की विवेचना मे जुट जाता । कभी यह समझाने लगता कि किस प्रकार कार्ल मार्क्स ने अपने दर्शन शास्त्र के गुरू हेगेल के द्वन्दात्मक अध्यात्मवाद को सिर के बल खड़ा करके द्वन्दात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया ।

कभी उस पर इतिहास का भूत सवार होता तो, फ़्रान्स की क्रांति, नेपोलियन बोनापर्ट या इंगलैंड की औद्योगिक क्रांति के बारे मे सुनते हुये हम लोग हत्प्रभ रह जाते कि इसका भेजा है या भानुमति का पिटारा । हम उसके सिर की ओर देखते हुये यही सोचते कि आखिर इसके अन्दर क्या क्या भरा पड़ा है ? सच पूछो तो, कीट, ब्रेख़्त, ज्यां पाल सात्र, से लेकर तालस्तॉय, गोर्की, लू शुन, यशपाल, चेखव, रांगेय राघव और ऐसे ही न जाने कितने साहित्यकारों के साहित्य की समीक्षाओं से हमारी कितनी ही खुशनुमा शामो को उसने बोझिल किया । और इतने ही अधिकार के साथ वह एनाटॉमी, फीजियोलॉजी और क्लीनिकल साईकोलॉजी पर भी बोलता । हर विषय पर अपना अभिमत रखना उसकी खासियत थी ।

इन सब बातों के साथ या इन सब बातों के बावजूद वह हमेशा ‘टॉप’ पर रहा । और उसपर तुर्रा यह कि डिग्री लेने के बाद किसी गांव देहात मे प्रैक्टिस की चाह । “मेरी ज़्यादा ज़रूरत तो वहीं है,“ वह कहता “और आप सबकी भी । मत भूलो दोस्तों ! हम लोग एक महान संक्रमणकाल से गुज़र रहे हैं । आने वाला दौर महान मेहनतकश जनता का है । जब उत्पादक और उपभोक्ता के बीच से मुनाफ़ा उड़ाने वाले ठग बिचौलियों के लिये इस धरती पर कोई जगह नहीं बचेगी । जब जेल पुलिस और सेना की ज़रूरत ही नही रहेगी । तब इस महान जनता की सेवा की सारी ज़िम्मेदारी हम पर होगी । दोस्तों, महान स्वर्णिम भविष्य के लिये तैयार रहो - - -“

और वह हमारे मन मस्तिष्क मे एक ऐसे खूबसूरत भविष्य की तस्वीर उभार देता, जहां कोई शोषक नहीं, कोई शोषित नहीं, कोई देश नहीं कोई सीमा नहीं, कोई सेना नहीं, हथियारों की ज़रूरत नहीं, कोई जेल नहीं, पुलिस नहीं, झगड़े नहीं - - - हर तरफ़ अम्न और शान्ति…

इन सपनो मे खोये हम उसके साथ गीत गाते_

अमन के हम रखवाले सब एक हैं

हम ज़ुल्म से लड़ने वाले सब एक हैं

हम बच्चों की मुस्कान बेचते नहीं, हम माओं के अरमान बेचते नहीं

आदमखोरी और दौलत के बाज़ार मे हम इनसानो की जान बेचते नहीं

आज़ादी के मतवाले सब एक हैं - - -

इन बस्तियों को जगमगाना है सदा, इन खेतियों को लहलहाना है सदा

उठाओ साज़ गाओ गीत अमन के, इस ज़िन्दगी के गीत गाना है सदा

क्या गोरे क्या काले सब एक हैं - - - -

उन क्षणों मे अपनी कल्पनाओं मे हम सब एक अन्तर्रष्ट्रीय कौम बन जाते, विश्वव्यापी कौम यानि मानव ! न रंग से भेद न नस्ल से, न भाषा से भेद न धर्म से । न कोई ग़ुलाम न कोई आका, न कोई बड़ा न कोई छोटा सिर्फ़ मानवता सिर्फ़ भाईचारा - - - । पता नही कितने ऐसे ख़्वाब उसने दिखाये थे कि जिनके टूटने का दर्द अब भी मन मे टीस बनकर उभर आता है ।

मै जानता था, बल्कि मानता था कि वह वही करेगा; जो उसने कहा है । कुछ लोग, कुछ चुनिन्दा लोग, कोई बड़ा काम करने के लिये ही जन्म लेते हैं । यह भी दुनिया मे ऐसे ही कार्य करेगा । - - - वह ऐसा ही था ।

कॉलेज की पढ़ाई के साथ ही वे दिन भी ख़त्म हुये । हम सब अपनी अपनी सुविधानुसार अपनी अपनी दुनिया मे रम गये । उन दिनो सम्पर्क के इतने साधन तो थे नहीं । टेलिफोन की सुविधा भी सीमित लोगों तक ही थी । एक पत्र व्यव्हार ही सर्वसुलभ साधन था सम्पर्क का । शुरू के कुछ दिन तो दोस्तों की खोज खबर रही फ़िर सब अपनी अपनी ज़िंदगी मे रम गये ।

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समय इतनी तेज़ी से गुज़रा, कि पता ही नहीं चला, कब ज़िंदगी इस मुकाम पर पहुंच गयी । मेरी प्रैक्टिस अच्छी चल निकली थी । समय के साथ काम भी बढ़ता गया तो और डॉक्टरों के साथ मिलकर अपनी जमापूंजी और बैंक के कर्ज के सहारे एक हॉस्पिटल की स्थापना की और उसका मैनेजिंग डायरेक्टर बन गया । अपनी कुशल बुद्धी के सहारे सारे नियंत्रण अपने हाथ मे रखा और आज की तारीख तक उस हॉस्पिटल का सर्वेसर्वा बन बैठा । लोगो को मेरी ज़िंदगी सफ़लताओं की दास्तान लगने लगी यहां तक कि बेटा भी डॉक्टर बन गया ।

इतने दिनो मे उसकी कोई खोज खबर नही मिली । शुरू शुरू मे तो लगता रहा कि एक सुबह, अख़बार मे उसकी ख़बर पढ़ने को मिलेगी और मुझे इस बात का गर्व होगा कि वह मेरा दोस्त था । भारत रत्न या ऐसे ही बड़े बड़े पुरस्कार निश्चित ही उसके इन्तेज़ार मे होंगे; शायद नोबल परस्कार भी - - -

लेकिन ऐसी कोई ख़बर कभी अख़बार मे नहीं आई; न उसका कोई पता ही चला । हां! एक अनुमान ज़रूर था कि वह कहां होगा और क्या कर रहा होगा । वह अपनी फ़ितरत के अनुसार ही कहीं दूर दराज़ गांव या देहात मे, जहां दूर दूर तक चिकित्सा की सुविधा उपलब्ध न हो, वहां चुप चाप निर्धन मज़दूर किसानो और बूढ़ों का इलाज कर रहा होगा । फ़िर एक न एक दिन यह दुनियां उसकी कुर्बानियों के गीत गायेगी । लेकिन ऐसा कुछ नही हुआ और समय के साथ उसकी यादें भी धुंधली पड़ गईं । सच पूछो तो कई साल तक वह याद ही नही आया । जीवन और व्यवसायिक सफ़लताओं ने सारी स्मृतियों को मस्तिष्क के किसी अंधेरे कोने मे ढकेलकर कैद कर दिया था । अब सिर्फ़ वर्तमान ही वर्तमान था । व्यस्तता थी, - - - और चिकित्सा के कारोबार मे अपने हॉस्पिटल को स्थापित रखने की चुनौतियाँ सामने थीं । बैंक के कर्ज़ चुकाने की चिंता और नया कर्ज़ लेकर कारोबार बढ़ाने की चिंता । बस इन्ही दो चिंताओं के बीच ज़िंदगी की गाड़ी घूम रही थी । कर्ज़ चुकाने के लिये कारोबार बढ़ाना, और कारोबार बढ़ाने के लिये नया कर्ज़ लेना; बस इसी अन्तहीन, अंधी दौड़ मे फ़सकर रह गया था । कहां की डॉक्टरी और कहां की मनव सेवा, यह तो मै व्यापारी बन गया था ।

सफ़लता का यही छद्म रूप धीरे धीरे आपके जीवन को अपने अनुसार ढाल लेता है । अपको आपकी पुरानी स्मृतियों से मुक्त कर वर्तमान मे जीना सिखा देता है । वर्तमान के दोस्त ही, दोस्त; और वर्तमान के रिश्ते ही, रिश्ते रहजाते हैं । लेकिन आप लाख सफ़लता के घोड़े पर सवार रहें, जीवन मे वह समय कभी न कभी वह समय ज़रूर आता है जब पुरानी स्मृतियां सरे बांध तोड़ कर बाहर निकल आती हैं । उस समय पुराने महत्वहीन दोस्त और रिश्ते भी यकायक महत्वपूर्ण हो उठते हैं । गो कि स्मृतियाँ आपके मन मस्तिष्क पर हावी हो जाती हैं । वह आपके विचार और यहां तक कि, व्यव्हार पर भी हावी होने लगती हैं । आप अंदर ही अंदर व्याकुल रहते हैं और किसी से कुछ नहीं कहते । वह कितनी विचित्र अवस्था होती है कि, मन को शान्ति भी इसी अवस्था मे मिलती है ।

मन की कुछ ऐसी ही अवस्था थी जब वह फ़ेसबुक पर नज़र आया था । पुराने तार फ़िर जुड़ गये । फोन नम्बरों का आदान-प्रदान भी हुआ और व्हाट्सऐप पर सन्देशों का आदान-प्रदान भी शुरू हुआ । बात चीत भी होने लगी । उसकी आवाज़ अब भी वैसी ही थी और बात करने का अंदाज़ भी वैसा ही था; लेकिन एक बात खटक रही थी- उसके अंदाज़ मे अब वह पहले वाला आत्मविश्वास नहीं था । और न वह लम्बी लम्बी बातें । पता नहीं, शायद मोबाईल पर ऐसे ही बात करता हो या वह सचमुच इतना बदल गया था । सचमुच वह अल्पभाषी हो गया था । हमेशा छोटे छोटे वाक्यों मे अपनी बात कहता और चुप हो जाता । हां , बातें उसकी अब भी वैसी ही, जैसे गागर मे सागर ।

मन मे कितनी तड़प थी उसका काम देखने की । या शायद मेरी अपनी सफ़लताओं का उसके चेहरे पर असर देखने की । सो एक दिन अपनी व्यस्तताओं से छुट्टी लेकर उससे मिलने जा पहुंचा । दूर दराज़ के एक गांव मे उसकी प्रैक्टिस थी तो मैने अपनी ही गाड़ी से जाने की सोचा ।

आज कल मै आमतौर पर अकेले सफ़र नहीं किया करता; और गाड़ी चलाना बंद कर दिया । अकेले कहीं जाना भी होता तो ड्राईवर गाड़ी चलाता । लेकिन आज अपने पुराने दोस्त से मिलने निकला था । बस, आज भर के लिये, एक दिन के लिये पुराने दिनो को पुनर्जीवित करना चाहता था । मन मे बस यही लालसा थी कि, पहले की तरह खूब गप्पे हांकेंगे, खूब हसेंगे खूब रोयेंगे । कुछ अतीत की जांच-पड़ताल, कुछ सुनहरे सपनो का हिसाब किताब - - -, वो वादे - - -, वो चुनौतियाँ - - - । वो बात बात मे एक दूसरे को धौल जमाना - - -, वह बिना बात घूंसे चलाना, कभी हारना कभी जीतना - - -, यह सब एक दिन के लिये फ़िर जी लेने की चाह मे, आज बिना ड्राईवर के सुबह सवेरे अकेले ही चल पड़ा ।

संकरी एकांगी पक्की सड़क उसके गांव की तरफ़ जाती थी । मोड़ पर लगे बोर्ड पर उसके गांव का नाम देख कर गाड़ी उसी सड़क पर डाल दी । दोनो तरफ़ खेतों का सिलसिला शुरू हो गया । छोटे बड़े खेतों का सिलसिला । खेतों पर मेड़ों के द्वारा छोटी बड़ी ढूलियाँ बनी हुई थी । मेड़ों पर पेड़ भी नज़र आ रहे थे, जो ज़्यादातर आम के थे । इसके अलावा, बेर, पीपल और कहीं कहीं छिंद(एक किस्म की छोटी खजूर जैसा फ़ल) भी नज़र आने लगे थे । कहीं कहीं पर विकसित फ़ार्म-हाऊस भी थे, जहां सिंचाई की एक से एक आधुनिक व्यवस्थायें मौजूद थीं । इन फ़ार्म-हाऊसों मे ज़्यादहतर सब्ज़ियाँ और फ़ल उगाये गये थे । सड़क बिल्कुल खाली थी । बस, कभी-कभी कोई एकाध पुरानी बस या कोई सवारी टेम्पो खड़खड़ाता हुआ गुज़र जाता । कुछ देर बाद इक्का दुक्का आधे कच्चे आधे पक्के मकान नज़र आये और इसके साथ ही इक्का दुक्का दुकाने भी । यह संकेत था इस बात का कि, आगे कोई बस्ती है ।

एक जगह रुककर एक दुकान पर उसके गांव का पता पूछा । पता चला आगे एक चाय की दुकान के बगल से एक कच्चा रास्ता कटा है, जो एक तलाब की ओर जाता है । यही रास्ता तालाब के किनारे किनारे होता हुआ उसके गांव की ओर जाता है ।

मैने गाड़ी उसी रास्ते पर डाल दी । यह भाटा ज़मीन थी; खेती की ज़मीन से अलग । बिल्कुल ठोस, लाल मुरम । सीधी जाती हुई सड़क अचानक बलखाती हुई दाईं तरफ़ को मुड़ गई । एकदम अचानक से गाड़ी को मोड़ने के बाद मेरे हाथ पैर फ़ूल गये यह देख कर कि मोड़ के ठीक बाज़ू गहरा गड्ढा था, बिल्कुल खाई जैसा; जो मुरम के उत्खनन से बना है । अगर गाड़ी की स्पीड ज़्यादा होती और समय पर नहीं मोड़ पाता तो गाड़ी सीधा नीचे - - - । मैने गाड़ी रोकी और नीचे उतर आया । हाथ पैर फ़ैलाये और गहरी सांस लेकर अपने आप को संयत किया । सांस पर काबू पा कर वापस गाड़ी मे बैठ गया । वैसे भी वहां कोई देखने लायक नज़ारे तो थे नहीं । - - - वाह रे डॉक्टर दीपक कुमार वर्मा ? खूब जगह चुनी तूने । इतना पढ़ लिख कर भी ऐसी जगह आ बसा । तूने तो अपनी मेहनत और अपने बाप की खून पसीने की कमाई भी डुबा दी । काश तू शहर मे प्रक्टिस करता । लेकिन अगर तू शहर मे होता तो हम जैसों का क्या होता ? चलो अच्छा हुआ - - - कुदरत खुद अपने आप को बैलेन्स करती है ।

यहां से आगे जाने पर एक तालाब दिखाई दिया जिसकी मेड़ पर एक पीपल के पेड़ के नीचे एक छोटा सा मंदिर बना हुआ था । यह रास्ता अब इसी तालाब के नीचे नीचे चलता हुआ अचानक बायीं ओर को मुड़ गया ।

यहां से आगे एक चरवाहा भेड़ और बकरियों के एक झुंड को हांकता हुआ तालाब की ओर चला जा रहा था । मैने रुक कर उससे रास्ता पूछना चाहा तभी मेरी नज़र दाईं ओर गयी जहाँ कुछ दूर पर एक बस्ती नज़र आ रही थी जिसके शुरुआत मे ही दो चार दुकाने और एक पान ठेला नज़र आया । मैने गाड़ी दांई ओर मोड़ कर उसी तरफ़ चल पड़ा । इस जगह रास्ता बड़ा ऊबड़ खाबड़ था । शुक्र है कि मै एस यू वी मे था । जानबूझकर मैने अपनी ऑडी नही ली थी ।

वहां पहुंच कर एक दुकान पर डॉक्टर दीपक वर्मा का पता पूछा । तब तक वहा और कई लोग जमा हो गये थे और छोटे छोटे बच्चे मेरी गाड़ी के इर्द गिर्द जमा होकर, नज़र बचाकर उसे छूने की कोशिश करने लगे । यह देख मेरे चेहरे पर बरबस ही एक मुस्कान दौड़ गई । लेकिन यहां लोग उसका नाम इतने सम्मान से ले रहे थे मानो किसी संत महात्मा का नाम हो । उन लोगों ने बताया कि बस अगले ही गांव मे वह रहता है । वहां पहुंचने का जो रास्ता उन लोगों ने दिखाया उसे देख कर मेरे होश उड़ गये । आगे जाकर एक बाड़ी के कोने से वह रास्ता ही गायब था । वहां ज़मीन ऊंची उठी हुई थी मानो कोई दीवार हो ।

“यहां रास्ता कहां है?” मैने कहा “वो तो मेड़ है ।“ वे लोग हसने लगे ।

“रद्दा हवे न । बाड़ी बाजू मे मुड़ गे है । इहां ले नई दिखही । आगू जाबे तहान दिखही ।“ वे बोले ।

“गाड़ी जायेगी ?” मैने पूछा ।

“चल दिही । चल दिही ।“ वे लोग बोले ।

“पक्का न ?” मैने पूछा ।

“त क्या हमन झूठ कहथन ?” एक ने टेड़ा जवाब दिया ।

“टरक ह पार हो जाथे । पार हो जाही तोर गाड़ी ।“ दूसरे ने थोड़ा ठीक ठाक जवाब दिया । फ़िर उस लड़के को डाँटते हुये कहा “शहर से इलाज कराये बर आये है, देखथस नई ।“

मै मुस्कुरा दिया ।

मै गाड़ी चलाते हुये सोच रहा था- अच्छा तो उसका जादू यहां भी चल गया । लोग उसका इतना सम्मान करते हैं जैसे वह कोई चमत्कारी देव पुरुष हो । चमत्कारी तो है स्साला । इस बात से तो कोई इनकार नहीं कर सकता । पर मुझे वे लोग मरीज या मरीज के परिवार वाला समझ रहे थे । मैने भी नहीं बताया कि मै एक डॉक्टर हूँ; ज़रूरत ही नहीं । फ़िर भी पता नही क्यों, अचानक मुझमे अपने लिये एक हीन भावना सी उत्पन्न होने लगी; पता नहीं क्यों - - - ?

आगे बाड़ी के पास पहुंचने पर सचमुच बायीं ओर एक खूब खुला हुआ रास्ता नज़र आया । रास्ता कच्चा ही सही - - - । यहां से दाहिनी ओर आगे जाने पर, कुछ दो तीन किलोमीटर चलने पर ही एक गांव नज़र आता है । गाँव के शुरुआत पर ही एक पक्का सा मकान दिखाई दिया, जिसके एक ओर बरामदा और बरामदे के पीछे एक कमरा था । बरामदे के छ्ज्जे के साथ एक साईन-बोर्ड लटक रहा था –

“डॉक्टर दीपक कुमार वर्मा,

एम बी बी एस,”

मैने गाड़ी रोक दी और बाहर आ गया । पर लगा जैसे मेरा अपने आप पर नियन्त्रण नहीं रहा । पैर थरथराने लगे । बरामदे के पीछे वाले कमरे मे एक छाया नज़र आई । दूसरे ही क्षण बरामदे मे अचानक एक चेहरा प्रकट हुआ और वह बरामदा पार करके खुले मे आगया । मैने न उस चेहरे की तरफ़ देखा और न पहचानने की कोशिश ही की, और मुझे यकीन है उसने भी मेरे चेहरे की तरफ़ ध्यान नही दिया और न ही मुझे पहचानने की कोशिश की । पता नही किस शक्ति या चेतना के अभिभूत हम दोनो एक दूसरे की ओर लपके और अगले ही पल हम आलिंगनबद्ध थे । कुछ देर बाद हम दोनो ने एक दूसरे के चेहरों की तरफ़ देखा और एक दूसरे का मुआयना किया ।

“अबे ! टकला हो गया तू तो ।“ वह चहक कर बोला ।

“तू भी तो बुढ़ऊ हो गया - - - ।“ मैने भी खुशी के अतिरेक मे लगभग चीखते हुये जवाब दिया ।

इतनी सी देर मे हमारे आस पास कुछ गांव वाले जमा हो गये थे । दीपक ने मेरा परिचय करवाया “ये मोर फ़िरेन्ड हरे (फ़्रेंड है) । कालिज के - - -,”

“आपौ डाक्टर हौ, साहेब …?” उन लोगों ने उत्सुकता दिखाई ।

“अरे, ये बहुत बड़े डॉक्टर है । भिलाई मे बहुत बड़ा अस्पताल है, इनका ।” उसने सगर्व मेरा परिचय करवाया । ठीक है जिसका ऐसा मित्र हो वह गर्व के साथ ही परिचय करवायेगा ।

थोड़ी देर बाद हम दोनो आंगन मे कुर्सियां डाल हसते खिलखिलाते गप्पे हांक रहे थे । बातों बातों मे धीरे धीरे हम एक दूसरे पर खुलते जारहे थे । अब उसके पास परिवार नाम की कोई चीज़ बची नहीं थी । उसकी पत्नि बहुत पहले ही छह साल के एक पुत्र को छोड़ दुनिया से कूच कर चुकी थी । वही बेटा अब मुम्बई मे आई आई टी मे पढ़ रहा था । और यहां मेरा दोस्त बिल्कुल अकेला रहता था ।

“छुट्टियों मे घर आता है तो ज़िन्दगी, ज़िन्दगी जैसी लगने लगती है ।“ उसने अपने बेटे का ज़िक्र करते हुये कहा ।

“वैसे, क्या हुआ था भाभी को ?” मैने हिचकिचाहट के साथ पूछा । मै उसकी दुखती रग को नही छेड़ना चाहता था; लेकिन दोस्ती रिश्ता ही ऐसा है - - - बिल्कुल डॉक्टर और मरीज़ जैसा । हर ज़ख़्म को बेदर्दी से उधेड़ना और उसकी मरहम पट्टी करना ।

“हेपेटाईटस बी ।“ उसने संक्षिप्त सा जवाब दिया । लगा जैसे उसकी आवाज़ उसके गले मे अटक गई है ।

“उफ़्फ़ !” मैने गहरी सांस लेकर कहा “दुनिया हमे क्या क्या समझती है, लेकिन हम लोग भी कितने बेबस होते हैं । फ़िर भी लोग हम पर विश्वास करते हैं । कितनी बड़ी विडम्बना है ?”

वह चुप हो रहा । मेरी ओर से आंखें फ़ेर ली और अनन्त मे देखने लगा । उसकी आंखें भर आई थीं ।

“बेटे की लाईन क्यों चेंज कर दी ?” मैने बात का रुख मोड़ने के लिये पूछा ।

“पहले जैसे दिन कहां रहे यार? तू तो जानता है, मेडिकल की पढ़ाई मे कितना धन लगने लगा है । फ़िर मेहनत भी कितनी ज़्यादा है । और फ़िर इन सबका रिटर्न क्या मिलता है? अब मुझे ही देख ले, मैने कौन से तीर मार लिये । इंजीनियर बनेगा तो मुझसे बेहतर ही बनेगा ।“

“अब तू बिल्कुल बुर्जुआ पूंजीवादियों की ज़बान बोल रहा है ।“ मैने उसे छेड़ने की कोशिश की । जवाब मे वह एक फ़ीकी मुस्कान देकर रह गया ।

“और सुना,” मैने कहा “तूने यार नाम तो बहुत कमाया है । मैने देखा, आस पास के लोग तो तुझे बड़ा मानते हैं ।“

“बस यार , ऊपर वाले की मेहरबानी है ।“ वह बोला ।

“अबे ! तू कबसे आस्तिक हो गया ?” मैने कहा ।

“पता नहीं,” उसने कहा “पता नहीं, मै आस्तिक हूं या नास्तिक । असल मे मैं खुद अपने आप को नहीं पहचान पाया हूँ - - -, लेकिन इतना जानता हूं कि, ज़िंदगी आपको बदल कर रख देती है और आपको पता भी नहीं चलता । वैसे, अपने मूल रूप मे मै वैसा ही हूँ । पूजा पाठ मैने तो कभी किया नही; और अपना अभिमत किसी पर लादा भी नही । पत्नी थी तो वह पूजा पाठ करती थी । मै उसका साथ देता रहा । आखिर पत्नि थी, मेरी जीवन साथी । बस इतना ही वास्ता रहा धरम करम से । हां, बेटे को आस्था है इस सब मे, लेकिन मै उससे इस बारे मे कभी कोई बात नहीं करता ।“

“हां यार ! ज़िन्दगी हमे कितना बदल देती है? कहां गये वे दिन जब आंखों मे ख्वाब हुआ करते थे और बाज़ुओं मे ताकत । दिल मे हौसला और रग रग मे दौड़ती उमंगे कहाँ गई ? कहां गये वे दिन जब लगता था कि हम दुनियाँ को बदल कर रख देंगे ?” और हम दोनो के बीच मौन स्थापित हो गया ।

“अच्छा, अपनी सुना । तेरा तो बढ़िया चल रहा है,” वह बोला “बड़ा कारोबार है । बेटे का भी सपोर्ट है । तू तो सुखी है । दिल को सुकून मिलता है यह देखकर ।“

“कहे का सुख यार ! बस, लगता है एक कभी न खत्म होने वाली दौड़ मे शामिल हो गया हूं ।“ मैने कहा “अच्छी खासी प्रक्टिस चल रही थी । दिन भर पेशेंट की भीड़ रहती । महंगे महंगे टेस्ट कराओ, महंगी महंगी दवाईयां लिखो; लोग अपने आप कहने लगते छोटा मोटा डॉक्टर नहीं है । सटैन्डर्ड तो ऐसे ही बढ़ जाता । ऊपर से लैब और फ़र्मेसी से कमीशन भी तगड़ा आता । वे भी आपको ज़्यादा महत्व देते क्योंकि आपके कारण उनका भी टर्नओवर बढ़ता है । मौज ही मौज थी, खूब पैसा पीट रहा था । बड़े बड़े लोगों मे मेल जोल हो गया । लोगों ने सलाह दी ‘डॉक्टर साहब, अपना हॉस्पिटल खोल लो; आपके नाम से तो चलना ही चलना है । बस पड़ गया चक्कर मे । कुछ अपनी पूंजी लगाई कुछ पर्टनर्स ढूंढे, बैंक से कर्ज़ लिया और खुल गया हॉस्पिटल । अब पार्टनर्स की कमाई और बैंक के कर्ज़ का दबाव आ गया । इसके लिये ज़रूरी था अपने रिसोर्सेस का भरपूर इस्तेमाल । तू समझ रहा है न? यानि जो मशीने डाली उनका खूब इस्तेमाल किया जाये । मरीज को ज़रूरत हो न हो । जो सिर्फ़ क्रोसिन से ठीक हो सकता है उसके भी दो तीन टेस्ट करवाओ । मरीज़ को बिना वजह आई सी यू मे डालो । बड़े बिल बढ़ाओ । बिल बढ़ाने के लिये फ़ैसलिटी बढ़ाओ, फ़ैसलिटी बढ़ाने फ़िर बैंक से लोन लो । फ़िर वही चक्कर - - -, इन चक्करों मे फ़ंसकर घनचक्कर बन गया हूं । अब तो डॉक्टर होने का गर्व भी नही रहा, लगता है व्यापारी बन गया हूं । कभी मन करता है सब छोड़ छाड़ कर कहीं भाग जाऊं ।“

“तो छोड़ दे । जब जागे तभी सवेरा ।“

“लेकिन भागने की भी कोई राह नज़र नही आती । अगर हाथ खीचता हूं तो घर बार गाड़ियाँ, सारी प्रॉपर्टी कर्ज़ मे चली जायेगी ।“

“तो फ़िर संघर्ष कर ! संघर्ष का ही नाम ज़िंदगी है ।“

“हाँ, और कोई रास्ता भी तो नहीं । लेकिन यार कभी कभी मन बड़ा करता है, सब छोड़ छाड़ कहीं गंगा किनारे धूनी रमाकर बैठ जाऊँ ।“

“यह तो पलायनवाद है । यकीन मान पलायन किसी समस्या का हल नहीं ।“

“मानता हूं, लेकिन और कोई रास्ता भी तो नज़र नहीं आता ।“ मैने निराशा से कहा ।

“तो फ़िर जैसा चल रहा है चलने दे ।“ वह बोला ।

“हाँ, वैसे भी हमारी तकदीर हमारे हाथ कहां होती है । हम सोचते कुछ और हैं, और होता कुछ और है । इसीलिये कभी कभी लगता है, ज़िंदगी को किस्मत की धारा मे बहने देना चाहिये, जिधर भी वह ले जाये क्योंकि हाथ पैर मारने से भी कुछ होने वाला नहीं । हम किस्मत से नहीं जीत सकते ।“

“लेकिन यार, शिक़ायत किस बात की?” उसने कहा “आखिर रास्ते तो हमारे ही चुने हुये होते हैं । यह अलग बात है कि हमारे चुनाव सही हैं या गलत, यह वक़्त तै करता है ।“

“सच है,” मैने कहा “सही गलत का फ़ैसला तो वक़्त के हाथ ही होता है । हम कितने भी बड़े विद्वान हों, कितना भी गुणा भाग कर लें चूक सकते हैं ।“

“असल मे हम तो बस सम्भावनाओं का ही चयन करते हैं, लेकिन अनगिनत संयोग हमारी राह मे मुह फ़ाड़े खड़े होते हैं ।“

“सच है यार, बस ये संयोग ही हमारे खेल बनाते या बिगाड़ते हैं । हमारे फ़ैसले सही या गलत नही होते ।“ मुझे यह बात कहते हुये राहत सी महसूस हुई ।

“इसीलिये मेरे दोस्त तुमने सही समझके जो फ़ैसला लिया उसके लिये पछताने से कुछ हासिल नहीं । अच्छी बात तो यह है कि हमने फ़ैसला लिया । किंकर्तव्य विमूड़ बनकर बैठे नही रहे ।“ उसने समर्थन किया ।

“सचमुच यार ज़िंदगी कितनी जटिल है?” मैने कहा ।

“हां, सच है । लेकिन कितने आश्चर्य की बात है हम उम्र के इस पड़ाव पर आकर ऐसी बात कर रहे हैं जबकि ज़िंदगी को हम कितना कुछ जान चुके हैं ।“

“हां, सच है यार, इसे जितना भी जानलो कम है ।“

“सचमुच ज़िंदगी एक बड़ी पहेली है ।“ उसने आकाश की ओर देखते हुये कहा, मानो वहां ज़िंदगी का कोई हल छुपा हो “यार ! ज़िंदगी उन दिनो कितनी सरल और सुगम लगती थी । ऐसा लगता था ज़िंदगी हमारे हाथों का खिलौना है, हम जैसे चाहें वैसे इसे चला सकते हैं ।“

“अब जाकर समझमे आता है कि, ज़िंदगी जीना भी एक कला है । इंसान इसे सीखते सीखते ही सीखता है । और इसे सीखने मे ज़िन्दगी गुज़र जाती है । और इसे सीख लेने के बाद इसके अनुसार जीने के लिये दूसरा मौका भी नहीं मिलता ।“

“और मौका मिला भी तो क्या ग्यारंटी है कि, इस ज़िंदगी की सीख दूसरी ज़िंदगी मे काम आयेगी भी । सच पूछो तो यार जीवन का कोई निश्चित ढर्रा नही है । जीवन मे तो कुछ भी अन्तिम सत्य नहीं है । जीवन तो बस अनगिनत संयोगों और सम्भावनाओं का एक उलझा हुआ पुलिन्दा है ।“

अब हम बातें कर ही रहे थे कि एक पेशेंट आ गया । “चल, तूने शहर मे ऐसे पेशेंट नहीं देखे होगे । देखना यह अपना प्रॉब्लम और उसका इलाज भी खुद बतायेगा ।“ उसने मुझे कुहनी मारकर धीरे से फ़ुसफ़ुसाया । मै उसके साथ अंदर चला गया ।

“डाक्टर साब, एक बने दरद वाले सूजी देदे त । हाथ-गोड़ अब्बर पिरावत हे ।“ वह ग्रामीण बोला । अक्सर लोग डॉक्टर के सामने अपना चिकित्सकीय ज्ञान ज़रूर बघारते हैं, और हम भी इसके आदी हो जाते हैं । लेकिन खुद ही दवा मांगकर फ़िर तकलीफ़ बताने वाला मरीज़ मैने पहले कभी नही देखा था । मै जानना चाहता था वह इसे किस तरह हैंडल करता है । उसने ग्रामीण से बातें कीं, कुछ पूछताछ की और उसे इन्जेक्शन के लिये अंदर लेटने कहा और इन्जेक्शन तैयार करने लगा । उस इन्जेक्शन की निडिल देख मुझसे रहा नही गया ।

“अबे, इसमे तो बहुत दर्द होगा ।“ मैने टोका ।

“जानता हूं । और अगर दर्द नही हुआ तो वह दुबारा मेरे पास इलाज करवाने नही आयेगा । सुना नही उसने क्या कहा । बने दरद वाले सूजी देबे ।“ उसने आगे बताया “इनकी नज़र मे इन्जेक्शन मतलब दर्द । इन्जेक्शन जितना दर्द देगा, उतना असरकारक ।“

“लेकिन यार, तू तो डॉक्टर है । तू तो असलियत जानता है ।“ मैने कहा ।

“रहना तो इन्ही के बीच है । अपनी दुकान तो यहीं चलानी है । फ़िर यार डॉक्टर तो तू भी है । अपने पेशेंट की असलियत तो तू भी जानता है ।“

अब मेरे पास चुप रहने के सिवा और कोई चारा नहीं रहा ।

एक ग्रामीण आया जिसे बुखार था । उससे उसने इधर उधर की और खेती बाड़ी की बातें करते करते बुखार के साथ के लक्षण भी पूछ लिये । दो गोली कुनैन की खिलाने के बाद, विटामिन बी कॉम्प्लेक्स, रेनिटिडिन, पैरासेटामाल, सिफ़्रोफ़ेन और एमॉक्सीसिलिन वगैरह मिलाकर छ: खुराक़ बनाकर दे दिया और दो दिन मे फ़िर आकर दिखाने कहा । उस ग्रामीण के जाने के बाद मैने कहा “क्या करता है यार ! तू तो छर्रा मार रहा है । यह इतनी एन्टीबयोटिक हजम करेगा?”

“हां । इनका हाजमा बहुत तगड़ा होता है । ये शहर वालो जैसे नाज़ुक नही होते ।“

“तो भी यार तीन-तीन एन्टिबयोटिक? इलाज तो ढंग से करना चाहिये ।“

“मसलन? कैसे करना चाहिये?” यह बात उसने चुनौती भरे स्वर मे कहा तो जैसे मेरा आत्मविश्वाश डोल गया । ज़ाहिर है उसे मेरी यह सीख अच्छी नही लगी थी । फ़िर भी मैने संयत स्वर मे कहा “यार पहले पता तो करले उसे हुआ क्या है? मलेरिया, टयफ़ाईड, वायरल या और कुछ ।“

“तो जो सिम्प्टम्स उसने बताये उससे क्या नतीजा निकलता है ?”

“उससे तो कोई नतीजा नही निकलता । या तो पेशेन्ट खुद कनफ़्यूज़ है या ठीक से एक्सप्लेन नही कर पा रहा । इसका एक ही रास्ता है, ब्लड टेस्ट ।“

“यार यही तो बात है । यह देहात है । यहां कहां ब्लड टेस्ट । और ब्लड टेस्ट के लिये शहर भेजें तो हो सकता है रिपोर्ट के इन्तज़ार मे मरीज़ ही निकल ले ।“

“समस्या गम्भीर है ।“ मैने चिंतातुर होकर कहा ।

“और इसका हल यही है कि, आपको जो जो अधिक सम्भावित लगे, उसका इलाज चालू कर दो । दो दिन बाद फ़िर बुलाओ मरीज को, आपको पता चल जायेगा आपका इलाज सही दिशा मे जारहा है कि नही । और फ़िर यहीं गांव के लोग है तो चौबीस घन्टे मेरी नज़र मे ही रहते हैं ।“ उसने अपनी रणनीति का बचाव किया । और बड़ी खूबी से किया । मै फ़िर भी बोला “यहां आसपास के गांवो के बीच एक लैब तो होना चाहिये - - -”

“हाँ, होना तो चाहिये । होना तो बहुत कुछ चाहिये । लेकिन, कौन लैब डालेगा ? कुछ लोगों ने कोशिश की लेकिन कब तक चलाते? कलेक्शन ही नहीं है ।“ उसने निराश स्वर मे जवाब दिया ।

“इसमे कौनसी बड़ी बात है? कलेक्शन तो तू ही दे सकता है । हर किसी को भेजता रह । लैब वाले का धन्धा चलेगा । तेरा कमीशम बनेगा । वो भी खुश, तू भी खुश । और गांव का भी भला ।“ मैने समझाया । बस थोड़े से कॉमन सेंस की ही बात तो थी । इसे यह भी नही सूझा?

“यार, यह शहर नहीं है । इनके पास पैसे नही हुआ करते । और जब ये शहर के अस्पतालों के चक्कर मे फ़सते हैं तो अपना घर खेत बेचकर सड़क पर आजाते हैं ।“ उसके स्वर मे घृणा थी । मै समझ गया, वह मुझे ही आईना दिखा रहा है । लेकिन वह रुका नहीं “पता है, अगर मै भी इन्हे महंगा इलाज देने लगूं तो ये फ़िर से बैगा-गुनिया (तंत्र-मंत्र के द्वारा इलाज करने वाले) लोगो के चक्कर मे फ़ँस जायेंगे और मै ऐसा कभी नही होने दे सकता । क्योंकि, बड़ी मुश्किलों से इन ग्रामीणो को बैगा गुनियों के चक्कर से बाहर निकाला हूं; वर्ना एक डॉक्टर का यहां पैर जमाना असम्भव था ।

ओह ! तो यह सब इतना आसान नही था? और मै सोचता था कि एक ऐसी जगह जहां डॉक्टर नहीं है एक एमबीबीएस डॉक्टर को तो लोगों ने सर आँखों पर बैठा लिया होगा ।

“तो यहाँ प्रैक्टिस जमाने के लिये भी तुझे स्ट्रगल करना पड़ा?”

“स्ट्रगल?” उसने प्रतिप्रश्न किया “मुझे बहुत लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी । और इसमे मेरी लगभग आधी ज़िंदगी ही गुज़र गई ।“

“लेकिन क्यों?” मैने पूछा- “यहां पहले से तो कोई डॉक्टर था नहीं ।“

“हाँ, नही था ।“ उसने दूर अतीत मे कहीं गोते लगाते हुये कहा “और ठीक इसी लिये मुझे एक लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी । और यह सब कुछ वैसा बिल्कुल नही था जैसा मैने अपने विद्यार्थी जीवन मे सोचता करता था । मुझे उन दिनो लगता था, मै एक पिछड़े हुये दूर दराज़ के गांव मे जाऊंगा और वहां लोग मेरे इन्तेज़ार मे पलक पावड़े बिछये बैठे होंगे । वे मुझे सिर आँखों पर बैठा लेंगे । अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं मे मेरे त्याग और सेवाभाव के किस्से होंगे । मेरी तस्वीरें छपेंगी और देश मुझे सम्मानित करेगा । यहाँ आकर मैने तो अपने आप को एक युद्ध मे घिरा हुआ पाया । युद्ध जो एक परम्परा के विरुद्ध था । एक संस्कृति के विरुद्ध था । इसी लिये मुझे लोगों की बेहिसाब नफ़रतों का सामना करना पड़ा ।

“मेरे आने से पहले यहाँ बैगा-गुनियों का अध्यात्मिक साम्राज्य था । वे लोग झाड़-फ़ूँक और विचित्र विधि-विधान से रोगों का इलाज किया करते थे । इतना ही नही वे गाँव वालों की धार्मिक गतिविधियों के केन्द्रबिन्दु भी हुआ करते थे … उनकी आस्थाओं का केन्द्र । और मै बाहरी घुसपैठिया । और तिस पर कि मुझे छत्तीसगढ़ी बोली नहीं आती थी । यानि, करेला; वह भी नीम चढ़ा ।

“आज उन दिनो को याद करता हूं तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं । मुझे आश्चर्य है कि मै जीवित कैसे रहा । यह सब बताना जितना आसान है, भोगना उतना आसान नहीं था । आज इसका विश्लेषण करना आसान है लेकिन संघर्ष के उन दिनो यह चेतना कहां थी कि अपने मन को यह दिलासा दे सकूं कि मैं किस बड़े उद्देश्य के लिये लड़ रहा हूं । पता है? यह सिर्फ़ एक परम्परा को उखाड़ फ़ेंकना ही नही था । और न सिर्फ़ एक अंधविश्वास की संस्कृति के विरुद्ध एक वैज्ञानिक संस्कृति को स्थापित करने की ही लड़ाई थी । बल्कि, आज की भाषा मे कहें तो, एक जमे जमाये बाज़ार के विरुद्ध एक नये बाज़ार का संघर्ष भी था । क्योंकि हम लोग जो कुछ भी करते हैं, उसका एक आर्थिक पहलू भी ज़रूर होता है । इस तरह देखा जाये तो, उस समय यहाँ के चिकित्सा के बाज़ार पर बैगो और गुनियों का कब्ज़ा था और मै एक नये चिकित्सा बाज़ार का प्रतिनिधित्व कर रहा था । बस यही सच है । हां यार ! हम सब किसी न किसी रूप मे अपना धंधा ही तो चला रहे हैं । तू अकेला ही डॉक्टर नही है जो व्यापारी बन गया । हम सब चिकित्सा के इस बाज़ार का ही एक हिस्सा हैं । तू अपने आप को दोष मत दे हम सब इस सिस्टम मे फ़से हुये हैं ।“

बरसो बाद उसके इस धारा प्रवाह वक्तव्य को मुग्ध भाव से सुन रहा था । लग रहा था जैसे हम अभी कॉलेज के दिनो मेही जी रहे हैं । उसके आखरी शब्दों ने मुझे वर्तमान मे ला पटका और दिल को बड़ी राहत भी पहुंचाई ।

तभी उसके क्लिनिक का एकमात्र सहायक लड़का, खाने के लिये बुलाने आ गया । शायद उसका किचन भी वही सम्हालता था । भोजन के लिये हम लोग उसके क्लिनिक से निकलकर घर मे दाखिल हो गये । घर जैसा बाहर से दिखता था, पुराना लेकिन मज़बूत और साफ़-सुथरा, वैसा ही अंदर से भी था । हम बैठक पार करके दूसरे कमरे मे गये जहां एक लकड़ी का पुराना और भारी भरकम और मज़बूत डायनिंग टेबल मौजूद था जो आमतौर पर गांवो के घरों मे नही होता ।

“सुधा ने इसे यहीं अपनी नज़रों के सामने बनवाया था ।“ दीपक ने बताया ।

इसी कमरे से लगा हुआ एक किचन था जो आज के ज़माने के हिसाब से आधुनिक तो नही कहा जा सकता लेकिन साफ़ लगता था जब यह बना उस दौर के हिसाब से यह काफ़ी आधुनिक रहा होगा । हां, गांवों की ‘रंधनी-खोली’ के मुकाबले तो अब भी काफ़ी अधुनिक था । यहां एक प्लेटफ़ॉर्म, वाश-बेसिन और पुरानी आलमारियाँ थी, जो शायद अब काम भी नही आतीं । बाहर के दरवाज़े से लगकर एक पुराना फ़्रिज रखा था; और शायद यह उपयोग नही होता होगा ।

“यह सब कुछ सुधा की रूचि के हिसाब से बना हुआ है । बड़ी सुरूचि-सम्पन्न थी । यहां की एक एक चीज़ मे उसकी यादें बसी हुई हैं ।“ उसने किसी और ही दुनिया मे खोये हुये बताया । ऐसा लग रहा था मानो उसकी आवाज़ किसी और ही दुनिया से आ रही है । मुझे अपने आप पर खीज हुई, मेरे पास ऐसे कोई शब्द भी नहीं थे जो उसके दर्द को हल्का कर सके । कैसा दोस्त हूं मैं?

खैर ! हमने खाना खाया जो बिल्कु सादा लेकिन स्वाद मे बचपन के दिनो मे खाये खाने का सा स्वाद था ।

“यार, आज-कल भी सब्ज़ियों मे इतना स्वाद मौजूद है ?” मैने आश्चर्य से कहा ।

“बाज़ारो मे आजकल देसी सब्ज़ियाँ कहां मिलती है? सब हाईब्रिड फ़सल होती है । यह सब्ज़ियां पीछे बाड़ी मे उगाई हुई हैं; बिना खाद और बिना कीटनाशक के उगायी हुई ।“

“तभी - - -” मैने कहा ।

खाने के बाद हम बैठक मे आ गये । बैठक भी बहुत सादी थी । एक पुराना सोफ़ा, सामने सेंटर-टेबल और सामने एक दीवान था जिसपर साफ़सुथरी चादर और दो गाव तकिये लगे थे । एक लकड़ी की आलमारी जिसके पल्लों मे लकड़ी के फ़्रेम मे कांच लगे हुये थे । इसमे कुछ किताबें और ट्रॉफ़ियाँ रखी हुई थीं । दीवर पर कुछ नई पुरानी तस्वीरें टंगी हुई थी और एक नया टीवी भी था ।

“सिगरेट छोड़ दी?” गाव तकिये का सहारा लेते हुये मैने पूछा ।

“नहीं । अपने आप छूट गयी । संघर्ष के दिनो ने सिगरेट को ही भुला दिया ।“

“मुझे भी ज़माना हो गया । याद है कितनी सिगरेट पीते थे ।“

“हां, याद तो है ।“

“तो आज यादें ताज़ा हो जाये, जब इतने दिन बाद मिले हैं ।“

“बिल्कुल !” उसने कहा और लड़के को भेजकर सिगरेट मंगवाली । हम लोग एक बार फ़िर बरसों बाद सिगरेट पीने लगे । अब पुराने दोस्तों का ज़िक्र निकला लेकिन तभी कोई मरीज़ आगया और वह मुझे आराम करने कहकर चला गया । मै टीवी देखते हुये वहीं दीवान पर सो गया । जागा तो दोपहर ढल चुकी थी और शाम होने को थी ।

बाहर आंगन मे बैठकर हम चाय पी रहे थे । अंदर एक मरीज़ को ब्लड चढ़ा हुआ था यह देखकर मै हैरान था कि, इसे ऐसा क्या हुआ है । और इससे भी बढ़कर हैरानी इस बात की थी कि, इस जगह इतनी जल्दी ब्लड का इन्तेज़ाम कैसे हो गया । मैने पूछा तो वह मुस्कुराने लगा । बोला- “यार ये मेरा बिज़नेस सीक्रेट है ।“

“तो, तुझे मुझसे क्या डर है? हम तो दोस्त हैं, रक़ीब नही ।“ मैने कहा ।

“तो क्या सारे भेद आज ही ले लेगा ?” फ़िर वह मुस्कुराया । बोला- “असल मे इसे हुआ कुछ नही है । यह इस गांव के पुराने मालगुज़ार का बेटा है । मालगुज़ारी तो रही नही पर रोब अभी भी कायम है । मुझसे आकर बोला- कमज़ोरी आगयी है, एक बोतल खून चढ़ा दो । इनकार नही कर सकते इस लिये मैने कहा दाऊ जी, आपका खून टेस्ट करना पड़ेगा । तो बोला- करो टेस्ट डॉक्टर हो, कैसे टेस्ट नही कर सकते? अब इलाज तो इनकी मर्ज़ी से नही हो सकता । और न इन्हे समझाया जा सकता है । सवाल इनके इगो का है । इन्हे यह नही लगना चाहिये कि कोई इनकी आज्ञा मानने से इनकार कर रहा है । इनसान का अहंकार तो उसके विवेक को हर लेता है । तो मुझे कोई रास्ता निकालना था । बस मैने थोड़ा सा खून उसकी नस से निकाला और सलाईन की बोतल मे डाल दिया और चढ़ा दिया ।“

मै बहुत आहत हुआ । बेशक, हम लोगों से बेहतर था वह और उसे अब तक इन सब बातों से गुज़रना पड़ता है ? मैने उद्विग्न होकर कहा-

“तुझे यह सब तीन पांच करने की ज़रूरत नहीं । यू आर बेस्ट ! तू चल मेरे साथ । मेरे हॉस्पिटल को तेरी ज़रूरत है ।“

“और तुझे लगता है, मैं वहाँ काम कर सकूँगा?” वह बोला “मुझे पता है वहाँ किस तरह की लूट खसोट होती है । मै वह सब नही कर सकता यार । यह मेरे बस का होता तो मै भी शहर मे प्रैक्टिस करता । चार-पाँच सौ रुपये फ़ीस लेकर प्रिस्क्रिप्शन लिख देता न कि यहां की तरह सौ-पचास रुपये मे दवाई वगैरह सब देता ।“

“फ़िर भी, यह जगह तेरे लायक नही है मेरे दोस्त ! तू हम सब मे बेस्ट था । अब भी समय है । आज भी दुनियाँ को तेरी ज़रूरत है । किस्मत और कामियाबियाँ तेरे कदम चूमने को तैयार है ।“

“मै तो नास्तिक आदमी हूं,” वह बोला- “किस्मत को मै मानता नहीं । और दुनिया मे कोई नाकामियाब नही होता । यह सब सोचने की ही बात है । हमे ज़िंदगी हमेशा चुनाव करने का मौका देती है, तो अपने लिये परिस्थितियों का चुनाव तो हम खुद करते हैं । हम ज़िंदगी से जो चाहते हैं वही पाते हैं तो फ़िर नाकामियाब कैसे ? मैने भी अपनी ज़िंदगी मे जो चाहा वही पाया । मुझे अपनी ज़िंदगी से कोई शिकायत नहीं । मैने अपनी ज़िंदगी का चुनाव खुद किया । तुमने अपनी ज़िंदगी का चुनाव खुद किया । अब पलायन किस लिये?”

मै निरुत्तर रह गया । फ़िर भी मैने एक आखरी प्रस्ताव रखा । “देख हमारे हॉस्पिटल के एजेंट हर गांव देहात मे है । कमीशन बेस पर । तू एक काम कर तू अपने पेशेन्ट हमारे पास रिफ़र कर तुझे कमीशन भी मिलेगा और हर रोज़ का विज़िटिंग चार्ज भी बनेगा । पेशेंट जितने दिन भर्ती रहेगा ।“

“तू यहाँ अपने दोस्त से मिलने आया है या अपना बिजनेस प्रमोट करने ?” वह बोला ।

“ठीक है, अब नही बोलूंगा । नाराज़ मत हो ।“ मैने समर्पण करते हुये कहा ।

“दोस्तों से तो बेवकूफ़ ही नाराज़ होते हैं । तू नही बोलेगा तो कौन बोलेगा । एक यही तो ऐसा रिश्ता है जिसमे कुछ बुरा नही लगता ।“

“यार मुझे अब निकलना पड़ेगा । कहीं रात हो गई तो गाड़ी चलाना मुश्किल होगा ।“ मैने कहा- “अब हम लोग बुढ़ऊ हो रहे हैं न ।“

हम लोग बड़े कसकर गले मिले जैसे आखरी मुलाकात हो । मै गाड़ी मे बैठा तो उसने एक लिफ़ाफ़ा मेरे हाथ मे दिया- “यह तेरे हॉस्पिटल के लिये मेरा गिफ़्ट है ।“

“यह क्या है?” मैने लिफ़ाफ़ा खोलकर देखा । उसमे उसकी वसीयत के कागज़ात थे ।

“मैने मरने के बाद अपना शरीर तेरे हॉस्पिटल को देने की वसीयत की है । यार मै चाहता हूँ, मरने के बाद भी मै चिकित्सा जगत के कुछ काम आ सकूँ । चिकित्सा जगत ने जो कुछ मुझे दिया है उसे लौटाने का छोटा सा प्रयास है । तू तो मेरा दोस्त है तू मेरी मदद करेगा न?”

अचानक मेरी नज़र धुंधली हो गई । गला भारी हो गया । इससे पहले कि रो पड़ूँ, मै उसकी नज़र से दूर चला जाना चाहता था । मैने गाड़ी बढ़ा दी । गाड़ी के शीशे मे वह हाथ हिलाता नज़र आ रहा था ।

आसमान मे लालिमा अभी बाकी थी । सूरज डूब चुका था । मेरी गाड़ी टेढ़े-मेढ़े घुमावदार कच्चे रास्ते को को पार कर सड़क पर आ चुकी थी । मैने एक बार पीछे मुड़कर देखा वह टेढ़ा-मेढ़ा घुमावदार रास्ता पीछे छुट चुका था । अब मेरे आगे सीधी सपाट पक्की सड़क थी । मैने एक्सीलेटर दबाया, गाड़ी हवा से बातें करने लगी । हाईवे सामने था - - -

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उत्तरगाथा-

मै कितना आगे निकल आया था - - - । और समय भी तो - - -

अब मेरा हॉस्पिटल एक प्रॉयवेट मेडिकल कालेज बन चुका था । उसकी(यानि डॉ दीपक कुमार वर्मा की) बॉडी मेरे मेडिकल कॉलेज की सम्पत्ती बन चुकी थी । मेरे स्टुडेन्ट उसके सहारे चिकित्सा विज्ञान का ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं । हाँ, उस की बॉडी मे मल्टीफ़्रैक्चर ज़रूर है । उसकी मौत भी उसके जीवन की तरह थी, खामोश, गुमनाम और एक पहेली जैसी ।

एक रविवार की सुबह की बात है । भिलाई के एतिहासिक, आर्थिक और सांस्कृतिक महत्व का, सुपेला का संडे-बाज़ार, घड़ी चौक से लक्ष्मी नगर मार्केट तक सड़क के दोनो ओर और तो और, सड़क के बीचोबीच डिवाईडर पर भी दुकाने सजी हुई थी । यही कारण है कि, सभ्य लोगों के आंख का कटा है यह संडे-बाज़ार । असभ्य लोग पूरी सड़क पर जहाँ तहाँ बिखरे हुये, कि सभ्य लोगों की गाड़ियों के लिये जगह नही रहती । बड़े-बड़े ब्रांड के रिजेक्टेड सामान, नई पुरानी चीज़ें कौड़ियों के दाम मे बिकती हुई । खरीदारों मे भिलाई के मध्यम और निम्न तबके से लेकर गांव देहात के लोगों की चहल पहल के बीच वह भी था । एक गुमनाम खरीदार की तरह उस रविवार सुबह वह यहां से कुछ सस्ते कपड़े खरीद कर जी. ई. रोड की तरफ़ आ रहा था कि, एक फ़र्राटा भरती हुई शानदार ऑडी कार की चपेट मे आ गया । आज तक किसी को पता नही चला किस गाड़ी की चपेट मे आया है । यह सब होता रहता है । समरथ को नही दोष गुसाई ।

ऐ बड़े लोग ज़रा भी नही सोंचते उनकी शानदार गाड़ी ने किसकी ज़िंदगी छीन ली । उस ऑडी कार के मालिक ने भी एक पल को नही सोंचा । बस नफ़रत से थूकते हुये कहा- “असभ्य लोग ! साले, कीड़े मकोड़ों की तरह पैदा होते है; और कुत्ते बिल्ली की तरह मरने आ जाते है ।“ और तेज़ी से फ़रार हो गया । बात आई-गई हो गई - - -

लेकिन अपने दिल का क्या करता? एक बोझ दिल पर पड़ा था । एक दबाव - - - यादों और वादों का बोझ लेकर कहां जाऊँ कहां मुंह छिपाऊँ? शायद इसी बोझ से छुटकारा पाने के लिये अपने मेडिकल कॉलेज का नाम उसके नाम पर रख दिया “स्वर्गीय डॉ दीपक कुमार वर्मा चिकित्सा महाविद्यालय” । फ़िर भी दिल हल्का नही हुआ तो कॉलेज मे उसकी प्रतिमा लगवा दी । प्रतिमा के अनावरण के लिये खास तौर से मुख्यमंत्री को आमन्त्रित किया था । उसके जीवन और संघर्षों, उसके आदर्शों से लोगों को परिचित कराने का एक छोटा सा प्रयास - - - । अपने दोस्त के प्रति मेरी भावनायें लोगों के लिये मिसाल बन गई है । फ़िर भी - - -

आज भी अपने केबिन की खिड़की से जब उसकी प्रतिमा पर निगाह जाती है, आत्म-ग्लानी से भर जाता हूं । अपने कहे वे शब्द मेरे दिल ओ दिमाग पर हथौड़े की तरह पड़ने लगते हैं- “असभ्य लोग ! साले, कीड़े मकोड़ों की तरह पैदा होते है; और कुत्ते बिल्ली की तरह मरने आ जाते है ।“

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अपने बारे मे. . .

अपने बारे मे मै क्या लिखूं? मैं कभी समझ नही पाता हूँ, और शायद इसी लिए मै कहानियाँ लिखता हूँ ; और इन्हीं मे अपने आप को तलाशता हूं । मै इनसे अलग हूं भी नही, फिर अलग से क्या कहूँ. . . . यह उन दिनों की बातें हैं, जब दिन सुनहरे हुआ करते और आसमान नीला । बिल्कुल साफ शफ्फाक । मै एक विशिष्ट शहर भिलाई का रहने वाला हूं; और भिलाई के ऊपर उन दिनो आसमान बिलकुल खुला खुला सा हुआ करता, और इसके दक्षिण में क्षितिज पर एक तसवीर थी बहुत सारी चिमनियों और कुछ विचित्र आकृतियों की । वे रहस्यमयी चिमनियां , अकसर बहुत सारा गाढ़ा गाढ़ा धुआँ उगलती । कभी दूध सा उजला सफेद, कभी गेरुआ लाल जिसके बारे मे मुझे लगता कि उस सफेद धुयें मे ही ईट पीसकर मिला देते होंगे और कभी काला धुआँ, जो मै सोचता कि ज़रूर, चिमनी के नीचे डामर(कोलतार) जलाया जारहा होगा जैसे सङक पर बिछाने के लिए जलाते हैं । "वो क्या है?" मै पूछता । "वो कारखाना है ।" दादा दादी बताया करते "तेरे अब्बा वहीं काम करते हैं ।" मेरे अब्बा एक विशिष्ट इनसान थे, वे अथक संघर्षशील, मृदुभाषी और मुस्कुराकर बात करने वाले थे । उन जैसा दूसरा इनसान मैने दूसरा नही देखा । वे जहाँ जाते लोग उनसे प्यार करने लगते । उनके व्यक्तित्व मे जादू था । जादू तो उन रातों का भी कम न था, जब अंधेरे के दामन पर जगह पुराने दौर के बिजली के लैम्प पोस्ट के नीचे धुंधली पीली रौशनी के धब्बे पङ जाते । जब कोई चीज उन धब्बों से होकर गुज़रती तो नज़र आने लगती और बाहर होती तो गायब होजाती । एक और जादू आवाज़ का होता । रात की खामोशी पर कुछ रहस्यमयी आवाज़ें तैरती . . . . जैसे - ए विविध भारती है. . . या हवा महल. . . . और बिनाका गीतमाला की सिग्नेचर ट्यून या अमीन सयानी की खनकती शानदार आवाज़ । ये आवाज़ें रेडियो से निकलती और हर खास ओ आम के ज़हन पर तारी हो जाती । मेरे खयाल से उन बङे बङे डिब्बों (रेडियो) मे छोटे छोटे लोग कैद थे जो बिजली का करंट लगने पर बोलने और गाने लगते । और उन्हें देखने के लिये मै रेडियो मे झांकता और डाट खाता कि- करंट लग जायेगा । अब्बा जब रेडियो को पीछे से खोलकर सफाई या और कोई काम करते तो मै उसमे अपना सिर घुसाकर जानने की कोशिश करता कि वे छोटे छोटे लोग किस जगह होंगे , एकाध बार मै रहस्योदघाटन के बिलकुल करीब पहुँच भी गया लेकिन हर बार अब्बा डाटकर भगा देते । क्या अब्बा को यह राज़ मालूम था ? मै अब तक नही जान पाया । किसी रात जब हम बाहर सोते तो आसमान पर अनगिनत तारों को मै गिनने की कोशिश करता । ठीक है वे अनगिनत हैं , फिर भी इनकी कोई तादाद तो होगी । मै उन्हे गिनकर दुनिया को उनकी तादाद बता दूंगा, फिर कोई नही कहेगा कि आसमान मे अनगिनत तारे होते हैं । अफसोस !! हर बार मुझे नींद आ जाती और मै यह काम अब तक पूरा नही कर पाया और अब तो शहर के आसमान पर गिनती के तारे होते हैँ, जिन्हें ढूँढ ढूँढ कर गिनना पङता है ; लेकिन लोग अब भी यही कहते हैं कि आसमान में अनगिनत तारे हैं । खैर! रातें जब सर्दी की होतीं, हम दादा दादी के साथ अपनी बाङी मे छोटी सी आग जलाकर आग तापते आस पङोस के और बच्चे भी आ जाते और दादा दादी की कहानियों का दौर शुरू हो जाता । दादी के पास उमर अय्यार की जम्बिल के नाम से कहानियों का खजाना था और उमर अय्यार मेरा पसंदीदा कैरेक्टर था । कई बार वो मोहम्मद हनीफ की कहानियां भी सुनाती । दादा की कहानियाँ मुख्तलिफ होती और वे मुझे अब भी याद हैं, उन्हें मैने अपने बच्चों को उनके बचपन मे सुनाई । हम बी एस पी के क्वार्टर में रहते जहां हमारे क्वार्टर के पीछे ही गणेशोत्सव होता । जिसमे नाटक, आरकेस्ट्रा जैसे कई आयोजन होते । बस यहीं से नाटक का शौक पैदा हुआ और इसके लिए मैने एक नाटक(एकांकी-प्रहसन) लिखा 'कर्ज़' इसका मंचन हुआ तब मै कक्षा छठवीं मे था । इसके बाद ज़िंदगी मे कई अकस्मिक मोड़ आये जिन्हे बताने के लिये बहुत वक्त और बहुत जगह की दरकार है । तो मुख्तसर मे यही कि नवमी कक्षा मे मै एक साप्ताहिक मे संवाददाता बन गया । दसवीं मे था तब पहली कहानी ‘क ख ग घ …’ प्रकाशित हुई जो जलेस की बैठक मे खूब चर्चा मे आई । तभी रेडिओ से एक कहानी प्रसारित हुई जिसके लिये पहली बार मानदेय प्राप्त हुआ । लेकिन लेखक बनने और दुनिया भर मे घुमते रहने के मेरे सपने ने मेरे घर मे मुझे भारी संकट मे डाल दिया । मेरे अब्बा से मेरे रिश्ते बिगड़ गये, वे चाहते थे कि मै अपना सारा ध्यान पढ़ाई पर लगाऊं, खूब तालीम हासिल करूं और उसके बाद बी एस पी मे नौकरी करूं । वे मुझसे बहुत ज़्यादह उम्मीद रखते थे और अपने टूटे हुये ख्वाबों को मेरी ज़िंदगी मे साकार होते देखना चाहते थे, तो वे कुछ गलत नही चाहते थे, क्योंकि बेटे की कहानी तो बाप की कहानी का ही विस्तार होती है । लेकिन मेरे अपने अब्बा से रिश्ते बिगड़ गये और यह हाल तब तक रहा जब उस दिन सुबह – सुबह मेरी अम्मी बद हवास सी मुझे जगा रही थी । नींद से जागते ही पता चला मेरे सर से आसमान छिन गया है; सुनते ही मेरे पैरों तले से ज़मीन खिसक गई । तीन बहन और तीन भाईयों मे सबसे बड़ा बेटा था मै । अब्बा, जो हमेशा मेरी फ़िक्र मे रहते थे और मै यह बात अच्छी तरह जानते हुये भी कभी उनसे कहता नही, उस रात ट्रक एक्सिडेंट मे दुनियां से रुख्सत हुये तो हम दोनो के बीच बातचीत तक बंद थी । मै अपने दिल की बात उन्हे बताना चाहता था लेकिन …… वह हादसा मेरी ज़िंदगी का बड़ा सबक बन गया । अफ़सोस ! ज़िंदगी सबक तो देती है लेकिन उसपर अमल करने के लिये दूसरा मौका नही देती ।

अब मेरे सामने दूसरा विकल्प नहीं था, नौकरी के सिवाय । फ़िर वह वक्त भी आया जब लेखन और नौकरी के बीच एक को चुनना था और निश्चित रूप से मैने चुना नौकरी को । मैने अपना लिखा सारा साहित्य रद्दी मे बेच दिया, अपनी सारी पसंदीदा किताबों का संग्रह भी । मैने अपने अंदर के लेखक की हत्या की और अपने अंदर ही कहीं गहराइयों मे दफ़न कर दिया । मै मुतमईन था कि उस लेखक से पीछा छूटा लेकिन करीबन चौथाई सदी बाद किसीने मुझसे मेरे ही नाम के एक पुराने लेखक का ज़िक्र किया और मै चुप रहा । किस मुंह से कहता कि वह मै ही था । वह दिन बड़ी तड़प के साथ गुज़रा और रात को जनम हुआ एक कहानी का ‘एक लेखक की मौत’ । दरअसल वह एक लेखक के पुनर्जनम की कहानी थी ।

वह लेखक जो आज आपसे रू-ब-रू है …

लेखक से सम्पर्क - zifahazrim@gmail.com

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