
हैदराबाद-रायगढ़ की रेलवे लाईन पर एक छोटा रेलवे स्टेशन। स्टेशन के बाईं ओर पटरी को पार करती सड़क पर छोटे-बड़े वाहन आ जा रहे थे। सड़क के किनारे बनी दूकानों में काफी चहल पहल थी। स्टेशन के दाईं ओर पटरी के दोनों किनारों पर दूर तक दिखती सफेदे के पेड़ों की लम्बी कतारें थीं। स्टेशन के पीछे की ओर करीब सौ मीटर की दूरी पर बने मंदिर में बजती घंटियां वातावरण को भक्तिमय कर रही थीं। ट्रेन आने के लिए दो घंटे से भी अधिक समय था, इसलिए स्टेशन पर अभी तक चार पांच लोग ही थे। इंतजार लम्बा था। कुछ देर टहलने के बाद मैं पटरी के पार घास के छोटे से मैदान में आम के पेड़ के नीचे बैंच पर बैठ गया। बरसात के बाद चारों ओर की हरियाली और फूलों की सुंदरता मन मोह रही थी।
तभी एक भरा पूरा परिवार बैंच के पास आकर रुका। एक मर्द, एक औरत और पांच बच्चे। सबका रंग एक सा, हल्का सांवला परंतु शरीर पर जमीं मैल के कारण गहराई पकड़ चुका था। मर्द और औरत ने कुछ देर खड़े रहकर चारों ओर नजर दौड़ाई। पीठ पर उठाई गठरियां नीचे रख दीं। औरत ने अपनी बाहों में जकड़े बच्चे को घास पर लिटा दिया। गठरी के साथ पीठ टिकाकर बैठ गई। थकावट में चूर अपनी काया को आराम देने के इरादे से आंखें बंद कर लीं। पांचों बच्चों के कद में मामूली सा अन्तर था। उलझे-बिखरे बाल, फटे पुराने कपड़े, नंगे पैर बिना जूते-चप्पल के। बड़े तीन लड़के थे। उन्होंने भी अपनी पीठ पर लदी छोटी-छोटी गठरियां नीचे रख दी और धड़ाम से उन पर बैठकर उछलने लगे। मर्द ने आंखें तरेरकर देखा तो गठरियों पर से उठकर घास पर लुढ़क गए। उनसे छोटी लड़की थी और पांचवे की पहचान कर पाना कठिन था कि लड़का है या लड़की।
भूरे रंग की धोती और कुर्ता पहने मर्द मध्यम कद काठी का था। वह पालथी लगाकर घास पर बैठ गया। कान पर फंसाई बीड़ी खींचकर सुलगा ली। घास पर लेटे सबसे छोटे बच्चे ने रोना शुरू कर दिया था। शायद भूख लग आई थी। औरत दोनों हाथों से सिर खुजलाती हुई उसे रोते देखती रही। बच्चे ने रोना बंद नहीं किया तो उसने ब्लाऊज ऊपर खींचकर उसे सीने से सटा लिया। घाघरे की जेब में से पीले रंग की गोल खैनी की डिबिया निकाली और चुटकी भर खैनी निचले होंठ में दबा ली। तभी एक बच्चा दौड़ता हुआ आया और उसके गले में बाहें डालकर पीठ पर सवार हो गया। उसने बच्चे को गले में लिपट आए सांप की तरह दूसरी तरफ धकेल दिया। बच्चे ने गुस्से में उसकी पीठ पर तीन चार मुक्के जड़ दिए और भाग खड़ा हुआ। मुक्के इतने जोरदार थे कि “घम्म” की आवाज़ दूर तक गूंज गई। बाएं हाथ से पीठ मलते हुए औरत जहर उगलने लगी - “करमजलों... नासपीटों ... तुम सब को इसलिए पैदा नहीं किया कि मुझे ही मार डालो। पता होता, ऐसे निकलोगे तो पैदा करते ही गाड़ देती जमीन में।”
औरत की जुबान थमी ही थी कि सबसे बड़ा लड़का उसके आगे आ खड़ा हुआ। उसकी उम्र करीब आठ दस साल थी। पेट पर हाथ फेरते हुए बोला - “अम्मा, भूख लगी है।”
पास बैठे मर्द के कान खरगोश की तरह खड़े हो गए। वह भड़का - “हरामखोरों, खाते रहा करो चौबीसों घंटे। आओ पांचो, आज मुझे ही खा जाओ।”
उसके इस तरह भड़कने से डरा हुआ लड़का भागा और दूर जाकर खड़ा हो गया। उससे छोटे तीनों भी सहमे से उसके पास जाकर खड़े हो गए।
“चीख क्यों रहा है बच्चों पर? मुझे भी भूख लगी है। कल रात भी एक-एक रोटी खाई थी।” औरत तेज स्वर में बोली।
मर्द ने उस पर जल्लाद की नजर डाली और बची हुई बीड़ी झटक कर दूर फेंक दी। जेब में से रूपये निकालकर गिने। काफी देर तक उसका मन अस्थिर रहा। फिर उठकर दुकान की ओर चला गया। औरत ने दुकान पर टकटकी बांध ली। खेल में मस्त बच्चे भी थोड़ी-थोड़ी देर बाद गर्दन उठाकर दुकान की ओर देख लेते। भूख ने उन सब के चेहरों को नीरस कर रखा था। पेट की इस आग सहन करना बच्चों का खेल नहीं, परंतु वे शायद इसके अभ्यस्त हो चुके थे। इस आग को जितना महसूस किया जाए उतना ही सेंक देती है।
पोलीथीन के छोटे-छोटे थैले लिए मर्द को दुकान से निकलते देख औरत में फुर्ती आ गई। उसकी गोद में लेटा बच्चा सो चुका था। घास पर कपड़ा बिछाकर बच्चे को उस पर लिटा दिया। बाकी बच्चे भी दौड़ते हुए उसके पास आ पहुंचे। अब कुछ न कुछ खाने को मिलेगा ही, इस सोच के सुख ने सबको पुलकित कर दिया था। वे कभी सामने से आ रहे मर्द को देखते तो कभी उसके हाथ में लटके थैलों को। मर्द ने थैले औरत को थमाकर खिचड़ी बनाने के लिए कहा तो उनके चेहरे फूल की तरह खिल गए। जिंदगी का सबसे बड़ा रण जीत लेने जैसी खुशी में उछलने लगे। मर्द ने जेब में रखी टॉफियों में से एक-एक टॉफी उनमें बांट दी, जिसने उनकी खुशी को कई गुणा बढ़ा दिया।
‘‘अब जाओ, झाड़ियों में से लकड़ियां चुनकर ले आओ।” मर्द ने झाड़ियों की तरफ इशारा करके बच्चों पर हुक्म झाड़ा।
बच्चों ने एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में शोर मचाते हुए उस ओर दौड़ लगा दी। सफेदे के पेड़ों की लम्बी कतारों में फैली झाड़ियों में घुस गए। मर्द बीड़ी सुलगाकर बैठ गया और दो तीन कश खींचने के बाद गम्भीर सा गाने लगा। आस-पास के वातावरण में मधुरता फैल गई। मैं उसके मधुर सुरीले स्वर में खोकर रह गया।
“धाम अपने चलो भाई, पराए देस क्यों रहना?
काम अपना करो जाई, पराए काम नहीं फंसना।”
गठरी में से बर्तन निकाल रही औरत ने उसके रफ्तार पकड़ते स्वर को बीच में ही बेंध दिया, “अब चूल्हा तो बना दे। खिचड़ी मेरे सिर पर नहीं पकेगी।”
“बनाता हूं रुक।” गाना छोड़कर मर्द बोला।
“यह गाना-बीड़ी बाद में भी होता रहेगा।” औरत खीझी।
“इतनी ज्यादा भूख लगी थी तो पहले क्यों नहीं कहा? सोचती है जैसे तेरी तिल भर भी चिंता नहीं मुझे।” मर्द ने स्वर में मिठास घोल दी।
“बच्चों का भी बुरा हाल है भूख से।” औरत के जवाब में भी नरमी थी।
“ठीक है, मैं चूल्हा बनाता हूं। तू पानी ले आ।”
वह उठ गया। एक कोने में लगे पत्थरों के ढेर में से चूल्हा बनाने लायक तीन पत्थर छांट लाया और चूल्हा तैयार कर दिया। औरत सामने की टंकी से बड़े प्लास्टिक के डिब्बे में पानी भर लाई। बच्चे लकड़ियां लेकर नहीं लौटे थे। उन्हें आवाज लगाने के लिए मर्द को थोड़ा आगे जाना पड़ा। आवाज सुनकर बच्चे एक-एक करके झाड़ियों में से निकले और लकड़ियां लाकर मर्द के आगे पटक दीं। एक लकड़ी उसकी आंख में घुसते बची। खोपड़ी पीछे न खींचता तो डेला बाहर आ जाता। उसने घूरकर औरत को देखा मानो इसमें उसका दोष रहा हो। फिर चूल्हे में लकड़ियां ठूंसकर आग जलाई और एक किनारे पर हट गया। बच्चे चूल्हे को घेर कर खड़े हो गए।
औरत पूरी लगन के साथ खिचड़ी बनाने में जुट गई। उसने दोनों हाथों में दाल और चावल के थैले उठाकर वजन जांचा। वजन से संतुष्ट दिखी। गठरी खोलकर बर्तन और प्लास्टिक की बोतल निकाली। उसमें आधा कप भर सरसों का तेल था। तीन बड़ी-बड़ी पुड़ियां भी निकालकर रख लीं। पतीली में तीन चम्मच तेल डालकर गर्म किया। पुड़ियों में से हल्दी, नमक और तीन चार बड़ी लाल मिर्चें डालकर तड़का तैयार करने लगी।
मर्द उसे ध्यान से देख रहा था। वह गरजा - “अरी, चार पांच मिर्चें और फैंक दे। मिर्च तेज होगी तभी कम खाएंगे यह तेरी मां के खसम।”
“मां की गाली तो ऐसे बकता है जैसे अपनी मां ही नहीं थी।” औरत ने पलटवार किया। पतीली में तीन चार मिर्चें और पटक दी। गुस्से में जल्दी-जल्दी कड़छी चलाने लगी।
पतीली में से गरम तेल के दो तीन छींटे मर्द की टांगों पर पड़े तो पीछे खिसक गया। औरत की ओर देखता मन ही मन में कुढ़ कर रह गया। गुस्सा बच्चों पर उतार दिया - “जाओ हरामजादों, उधर जाकर खेलो। खिचड़ी बनने में बहुत देर है अभी।”
उसकी चीख सुन बच्चे थरथरा कर रह गए। उन्होंने वहां से भागना ही उचित समझा। सोए हुए बच्चे ने भी चीख सुनकर करवट बदली, फिर सो गया।
“एक तू ही है आदमी इस भरी दुनिया में। बाकी सब तुझे हरामजादे दिखते हैं।” औरत भी चीखी।
मर्द से रहा न गया। बोल पड़ा, “तू क्यों मेरी जान के पीछे पड़ी रहती है? जल्दी से खिचड़ी पका।”
“अब पतीली में घुस जाऊं?”
मर्द नर्म पड़ गया, “बच्चों को भूख लगी है इसलिए कह रहा हूं।”
“सीधा क्यों नहीं कहता कि अपने पेट में हौल पड़ रहा है? बच्चों की तुझे कितनी चिंता है, मैं जानती हूं।”
“और कैसे करूं चिंता? बता तो जरा?” तैश में मर्द पंजों के बल बैठ गया।
“अकेला तू ही नहीं करता सब कुछ। मैं भी बराबर हाथ पैर चलाती हूं।”
“हाथ पैर चलाती है तो दुनिया से बाहर का नहीं करती। सब औरतें काम करती हैं।”
“दुनिया से बाहर के सब कामों का ठेका तो भगवान ने तुझे ही दे रखा है।” औरत ने व्यंग्यात्मक स्वर में कहा।
मर्द गुस्से में लाल हो गया, “कभी तो ठीक बात किया कर। जब देखो खाने को दौड़ती है।”
उसे गुस्से में कांपते देख औरत ने प्लास्टिक का खाली डिब्बा उठाया और पानी की टंकी की ओर चली गई। मर्द आराम से बैठ गया। बीड़ी सुलगाकर उसने तीन चार कश ही खींचे थे कि लड़की दौड़ती हुई आई और कांटेदार तार के बाड़ की ओर इशारा करके हांफते हुए बोली, “बापू-बापू गुल्लू के पैर में खून निकल आया, तार का चीरा लग गया है।”
मर्द ने बीड़ी फेंकी और कांटेदार तार की ओर दौड़ा। सबसे बड़ा लड़का वहां जमीन पर लेटा रो रहा था। उसी का नाम गुल्लू था। मर्द ने उसे घेरे खड़े बच्चों को दो-दो थप्पड़ जड़े तो वे वहां से भाग कर चूल्हे के पास पहुंच गए। उसने तीन चार थप्पड़ गुल्लू के गाल पर भी छाप दिए। फिर उसे सहारा देकर खड़ा किया और खींचता हुआ चूल्हे तक ले आया। थप्पड़ इतना जोरदार था कि दहशत में उसका रोना थम चुका था। मात्र सिसकियां ही शेष थीं। बाकी बच्चों को जैसे सांप सूंघ चुका था। चुपचाप चूल्हे के पास खड़े तमाशा देख रहे थे। मर्द ने उन्हें अपने पास बुलाया और गरजकर बोला, “सब यहां आकर बैठ जाओ। पता नहीं क्या खाकर पैदा किए हैं मां ने। पूरे भूत हैं। जहां देखो वहीं नजर आते हैं। खबरदार, अब यहां से हिले तो टांगें तोड़ दूंगा।” बच्चे एक दूसरे के पीछे छुपते हुए पंक्ति में आए और गुल्लू के पास सुन्न से बैठ गए।
टंकी से पानी भर रही औरत यह दृश्य देख रही थी। उसने आकर सिसकते गुल्लू को घास पर लिटा दिया और उसके पैर के घाव को गौर से देखा। पैर खून से लथपथ था। मैदान के एक कोने से रेतीली मिट्टी उठा लाई और घाव पर छिड़़क दी। खून बहना रुक गया। मर्द मुंह मिचका कर दूसरी तरफ घूम गया।
“पीटने की क्या जरूरत थी? जानवरों की तरह मारने-पीटने के लिए पैदा किए हैं बच्चे?” औरत कुढ़कर बोली
“तो क्या धूप-अगरबत्ती दिखाऊं इनको? मेरी अक्ल मारी गई थी जो तुझे ब्याहा। जब से ब्याही है, जनती जा रही है हर बरस।” मर्द ने भी जहर उगल दिया।
औरत का गुस्सा भी आसमान छूने लगा, “मैं इनको अपने घर से लेकर नहीं आयी थी।”
मर्द सहन नहीं कर पाया। उसका भी पारा उछला, “मुंह बंद कर, जल्दी से खिचड़ी पका नहीं तो यहीं काटकर रख दूंगा।”
उसकी गर्जन सुनकर औरत चुप हो गई, परंतु गुबार ज्यादा देर तक अन्दर नहीं टिक पाया। चूल्हे में लकड़ियां ठूंसते हुए जोर से भुड़कने लगी, “मेरी तो किस्मत मारी गई थी जो यह मर्द पल्ले पड़ गया। कितना कुछ किया पर कभी दो बोल प्यार के नहीं बोला। मौत भी नहीं आती मुझे। पिंड छूट जाए इस जंजाल से तो ठीक है। वैसे भी यह मुझे कहां जीने देगा।” अपने भाग्य को कोसती हुई वह न जाने क्या-क्या कह गई। मर्द अपनी प्रकृति और मेरी आशा के विपरीत चुपचाप बैठा सुनता रहा। मुझे उन पर हंसी आ जाती।
अब हालात थोड़े सुधर चुके थे। एक चुटकी भर खैनी होंठ को भेंट चढ़ाकर औरत चूल्हे और पतीली पर केंद्रित थी। मर्द शांत बैठा यहां-वहां देख रहा था। बच्चे आराम से बैठे बतिया रहे थे, परंतु धीमे से। शांति थी पर तब तक ही जब तक कि कुल्फी वाले का भोंपू नहीं बज उठा। भोंपू की “पों-पों” सुनकर बच्चों में भगदड़ मच गई। घास पर लेटे गुल्लू का सिसकना बंद हो गया। वह झट से उठा। चारों ओर देखा। कुल्फी वाले का ही भोंपू बजा है, यह जानकर वह प्रसन्न हो गया। बच्चों की प्रकृति के अनुरूप कुछ देर पहले घटे सारे प्रकरण को भूल गया। वह लंगड़ाता हुआ मर्द के पास पहुंचा।
मर्द के आगे हाथ फैलाकर वह बोला, “बापू, एक रूपया दे।”
उससे छोटे तीनों ने भी मर्द को घेर लिया। मर्द दाएं-बाएं मुंह घुमाकर उन्हें टालने की कोशिश करने लगा। गुल्लू ने रुपया मांगना बंद नहीं किया। मर्द ने “सटाक” एक थप्पड़ उसके गाल पर रसीद कर दिया। “सटाक” की आवाज इतनी दहशत भरी थी कि बाकी बच्चे भी वहां से भाग खड़े हुए और सामने पत्थरों पर बैठ गए। औरत मुंह खोलते कुछ सोचकर चुप रह गई। चकित सा गुल्लू गाल पर हाथ रखे लंगड़ाता हुआ वहां से हट गया। गाल पर उभरी अंगुलियों को हाथ से मलकर समतल करने लगा। गाल का सेंक कुछ कम हुआ तो उसने चूल्हे के पास पड़ा कटोरा उठाया और मेरे आगे से होता हुआ टिकट घर के बरामदे में पहुंचा। वहां बैंचों पर बैठे लोगों के आगे कटोरा तानकर कुल्फी के जुगाड़ में लग गया। उससे छोटे तीनों में से किसी ने कटोरी उठाई तो किसी ने गिलास और उसके पीछे हो लिए। उनकी कोशिश बेकार गई। किसी से कुछ नहीं मिला। गुल्लू पैर के घाव की परवाह किए बिना दौड़ता हुआ मेरे पास पहुंचा और उसके पीछे छोटे तीनों भी। चारों के बर्तन मेरे आगे तन गए।
“एक रुपया दे दो।” गुल्लू सहमे से स्वर में बोला।
“क्या करेगा एक रुपये का?” जानते हुए भी मैंने उससे पूछा।
“कुल्फी खाऊंगा; बापू नहीं देता।”
“क्यों नहीं देता? शरारतें बहुत करता होगा तू।”
“नहीं करता; रोज मांगता हूं पर बापू देता ही नहीं।”
“और मां?”
“कौन, अम्मा?”
“हां-हां अम्मा।”
“कभी-कभी देती है, बापू से छुपाकर। बापू उसे भी डांटता है।”
“अम्मा कुछ नहीं कहती उसे?”
“नहीं, बापू डांटता है।”
“कुल्फी बहुत पसंद है तुझे?”
उसके मुंह में पानी भर आया, “हां, मीठी होती है; दूध वाली।”
“भूख लगी है?”
“लगी है।”
“सुबह खाना खाया था?”
“नहीं, अम्मा खिचड़ी बना रही है।”
मैंने कुल्फी वाले को चार कुल्फियां लाने के लिए कहा तो उनकी आंखें चमक उठी। मेरे आगे ताने हुए बर्तन वापस खींच लिए। कुल्फियां हाथ में आने तक बेचैन रहे। गुल्लू मर्द के आगे जा खड़ा हुआ और कुल्फी दिखाकर चिढ़ाने लगा। मर्द के चांटा दिखाने पर भाग खड़ा हुआ। मर्द ने एक कठोर दृष्टि मुझ पर डाली। शायद गुल्लू का चिढ़ाना उससे सहन नहीं हुआ था। उसकी नजर में इसके लिए दोषी मैं था, क्योंकि मैंने उन्हें कुल्फियां खरीद कर दी थी। मुझे मुस्कुराते देख उसकी कठोर दृष्टि ने हल्की मुस्कान का रूप ले लिया। मैं उसके इस बदलाव को देखकर चकित नहीं हुआ। शायद यह उसकी प्रकृति थी। पल में तोला, पल में माशा। उसने चूल्हे में सुलगती लकड़ी खींचकर बीड़ी सुलगाई और आकर मेरे पास बैंच पर बैठ गया।
“नमस्ते, साब।” दोनों हाथ जोड़कर वह बोला।
“नमस्ते।” मैंने जवाब दिया।
बच्चों को कुल्फी खाते और नाचते गाते देखकर अब वह खुश था। मैल पक्के रंग के उसके चेहरे पर हल्की सी लालिमा थी। बच्चों ने देखा कि बापू उन्हें देखकर खुश हो रहा है तो वे उत्साहित हो उठे और नाचते हुए जोर-जोर से चीखने लगे।
“तुम दोनों इतना क्यों झगड़ते हो?” मैंने पूछा।
वह सिर खुजलाने लगा, “थोड़ा बहुत झगड़ा तो चलता है, साब।”
“पर तुम दोनों कुछ ज्यादा ही झगड़ते हो।”
“नहीं, साब। बस, कभी-कभी।”
“मुझे नहीं लगता कि तुम दोनों एक दूसरे को थोड़ा सा भी प्यार करते हो।”
“नहीं साब, करते हैं। बहुत करते हैं।”
“झूठ बोल रहे हो तुम।”
“सच्ची साब, करते हैं।”
“तो बुलाओ अपनी बीवी को और एक कुल्फी खरीद कर दो।” मैंने उसकी पीठ थपथपाई।
वह रोमांच से भर गया। औरत को आवाज लगाई, “अरी ओ गुल्लू की अम्मा। इधर तो आ जरा।”
“क्या है? तू ही आ जा। खिचड़ी आंच खा जाएगी।” उधर से औरत बोली।
“एक मिनट आ तो जरा।”
औरत ने पतीली में से कड़छी निकाल कर घास पर रख दी। सोए बच्चे पर मक्खियां भिनभिनाने लगी थी। उसका मुंह कपड़े से ढक दिया। घुटनों पर हाथ रखकर उठी। पैरों के नीचे आ रहे घाघरे को एक हाथ से ऊपर उठाए हमारे पास आ पहुंची।
एक रूपये का सिक्का उसकी ओर बढ़ाकर मर्द ने कहा, “ले, कुल्फी खा। तेरा भी जी कर रहा होगा।”
औरत उसे देखते रह गई जैसे यह कोई विचित्र घटना उसके जीवन में पहली बार घट रही हो। फिर उसकी बड़ी-बड़ी काली आंखें मुझ पर आ टिकीं। हल्का सा गोरा रंग लिए उसके बदन को मैल ने ढक रखा था। मैल की परत को उसके बदन से अलग कर देने पर वह निःसन्देह यौवन से भरपूर सुन्दर औरत थी। उसने मर्द से सिक्का लिया, कुल्फी खरीदी और चूसती हुई चूल्हे के पास जा बैठी। एक बार मर्द की ओर देखकर मुस्कुराई। मर्द का सीना चौड़ा हो गया।
“घर कहां हैं तुम्हारा?” मैंने उससे पूछा।
“यू.पी.में साब। बचपन में घर छोड़कर भाग आया था। लौटकर नहीं गया। अब तो उम्र बीत गई यहां।”
“यहां काम करते हो?”
“जी साब, यहां ईंट भट्ठे पर काम करते थे। दो दिन पहले छोड़ दिया।”
“क्यों?”
“क्या बताऊं, साब। दो दिन पहले मेरे साथियों ने कालज के एक लड़के को पीट दिया। लड़का धमकी दे गया कि कालज के सब लड़के-लड़कियों को लाकर हमारी बस्ती में आग लगा देगा। हमारी औरतों-लड़कियों को उठाकर ले जाएगा। उसी दिन से काम छोड़ दिया। कालज के लड़कों का क्या भरोसा? बिगड़े दिमाग के होते हैं।”
“दो दिन कहां रहे?”
“गांव के पंचायत घर के बरामदे में।”
“कॉलेज के लड़के को क्यों पीटा?”
“गुल्लू की अम्मा बस्ती के पीछे झाड़ियों में लकड़ियां चुन रही थी। अकेली देखकर पकड़ ली उसने। वो तो हमारी किस्मत अच्छी थी कि बस्ती की एक लड़की अपनी बकरी के पीछे वहां जा पहुंची तो उसने गुल्लू की अम्मा को छोड़ दिया।” उसकी जुबान पर भारीपन छा गया।
“गुल्लू की अम्मा ने शोर नहीं मचाया?”
“कैसे मचाती, साब? वह लड़का तो उसे दबोचे लेटा था। लड़की को देखकर हिम्मत जागी तब चीखी। सच पूछो तो बस्ती की कुछ औरतें ही गलत हैं। उनसे हिम्मत पाकर लड़के अब किसी भी औरत को तंग करते हैं।”
उसे थोड़ा सा भी संदेह होता कि मैं उसी कॉलेज में पढ़ता हूं तो शायद इस घटना का जिक्र मुझसे न करता। वह नहीं जानता था कि जिस हमले के डर से काम छोड़कर भागा है, वह हमला अब तक उसकी बस्ती पर कहर ढा चुका था। कितना भयानक और दर्दनाक दृश्य था वह। देखकर किसी की भी रूह कांप जाए।
कॉलेज में सुबह ही हड़ताल हो गई थी। सभी लड़के-लड़कियां जाकर ईंट भट्ठे के मजदूरों की बस्ती पर टूट पड़े। पूरी बस्ती में हाहाकार मच गया था। कॉलेज की सभ्य कहलाने वाली लड़कियों ने बस्ती के मजदूरों को असभ्य कहते हुए उनकी औरतों और जवान लड़कियों के कपड़े फाड़ डाले। कॉलेज के लड़कों को इससे अधिक और क्या चाहिए था। नोंच-घसीट मचा दी। सभी एकता के नारे लगा रहा थे। एकता की परिभाषा को लेकर मैं संशय की स्थिति में आ गया था। एकता का ऐसा भयानक दुरुपयोग इससे पहले कभी देखा-सुना नहीं था मैंने। झोंपड़ियां धू-धू करके जलने लगी थी। अपने साथी लड़कों से अलग होकर पेड़ की ओट में खड़ा संवेदनहीन मूक दर्शक सा मैं उस भयानक दृश्य को देख नहीं पाया। घर के लिए ट्रेन पकड़ने आ गया।
उन दोनों के कमाए तीन हजार रूपये भी ईंट भट्ठे के मालिक के पास छूट चुके थे। दिन भर कमर तोड़ मेहनत करने वाले मजदूर के लिए तीन हजार रूपये क्या मायने रखते हैं, यह उसका दर्द भरा स्वर बता रहा था। अब वह परिवार को लेकर होशियारपुर जा रहा था। वहां उसका बड़ा भाई ईंट भट्ठे पर काम करता था। ट्रेन का सफर बिना टिकट के करना उसकी मजबूरी थी, क्योंकि आगे के बस किराए जितने रूपये ही थे उसके पास।
“बहुत मीठा गाते हो तुम।” मैंने उसकी तारीफ की जिसका वह हकदार था।
प्रसन्नता और उत्साहपूर्वक उसने पूछा, “आप सुनेंगे?”
“जरूर सुनूंगा, पर तुम्हारी एक बात मुझे पसंद नहीं आई।”
“कौन सी बात, साब?”
“यही कि भजन गाते वक्त तुम बीड़ी पीते हो।”
वह कान पकड़कर बोला, “अब नहीं पीऊंगा, साब। क्या सुनाऊं?”
“वही सुनाओ जो पहले गा रहे थे।”
“जी, अभी सुनाता हूं।”
उसने तीन चार बार खांसकर गला साफ किया और गाने लगा। मैं एक बार फिर उसके मधुर सुरीले स्वर में खो गया ।
“धाम अपने चलो भाई, पराए देस क्यों रहना?
काम अपना करो जाई, पराए काम नहीं फंसना।
नाम गुर का सम्भाले चल, यही है दाम गठ बंधना।
जगत का रंग सब मैला, तू ले मान यह कहना।
भोग संसार कोई दिन के, सहज में त्यागते चलना।”
भजन सुनकर मैं एक बार फिर उसकी तारीफ करने से अपने आप को नहीं रोक पाया। गाते वक्त वह अपनी आत्मा में ही कहीं डूब गया था। उसके इस रूप ने मुझे बहुत प्रभावित किया। यह भी उसकी अस्थिर प्रकृति का ही एक रूप था। मेरे मस्तिष्क में बनी उसकी छवि अब बदलने लगी थी। अपूर्णता से हटकर अब मुझे उसमें एक सम्पूर्ण इन्सान की छवि उभरती हुई दिखने लगी थी। परिवार के साथ अटपटे, चिड़चिड़े और अस्वभाविक दिखते उसके व्यवहार का कारण शायद पिछले दो तीन अवसाद भरे दिन भी थे।
तभी चूल्हे के पास बैठी औरत ने प्रेमपूर्वक उसे पुकारा, “खिचड़ी तैयार है, जी। आकर खा लो।” उसके मुंह से “जी” सुनकर वह मेरी ओर देखने लगा।
‘‘कैसा लगा “जी” सुनकर?” मैंने पूछा।
“बहुत अच्छा लगा, साब।”
“एक कुल्फी और प्यार से कहे दो शब्दों ने ही उसकी जुबान में मिठास भर दी। मियां-बीवी में प्यार हो तो कठिन से कठिन वक्त भी खुशियों को नहीं रोक पाता। जाओ, अब खिचड़ी खाओ।”
मेरी बातों को बड़े ध्यान से सुनता हुआ वह “हां” में सिर हिला रहा था। बैंच से उठकर हाथ जोड़ते हुए बोला, “अब हम नहीं झगड़ेंगे, साब। चलिए, आप भी खिचड़ी खा लीजिए।”
“तुम खाओ, मुझे भूख नहीं और बीड़ी कम पिया करो।”
उसने फिर “हां” में सिर हिलाया और चूल्हे के पास जाकर बैठ गया। बच्चे पहले से ही वहां बैठे खिचड़ी बंटने के इन्तजार में उतावले हो रहे थे। सबसे छोटा बच्चा अभी तक भी गहरी नींद में था। औरत ने खिचड़ी परोसने के लिए थालियां और कटोरे रखे ही थे कि दूर ट्रेन का हॉर्न बजा। उनमें अफरा तफरी मच गई। मर्द चीखा, “उठो, जल्दी करो। सामान बांधो, गाड़ी आ गई।” गुल्लू से छोटे तीन बच्चे घबराकर रोने लग पड़े। औरत सामान बटोरने और मर्द गठरियां बांधने में लग गया।
मेरा ध्यान उनसे हटा। लोगों की भीड़ ट्रेन के इन्तजार में खड़ी थी। बैंच पर बैठे दो घंटे से अधिक समय हो चुका था इसलिए उठते ही बिजली के करंट सी तेजी से दर्द की लीक मेरी कमर से पैरों तक दौड़ गई। टिकट खरीदकर कम भीड़ वाले डिब्बे में बैठ गया। दरवाजे पर शोर सुनकर मेरा ध्यान उस ओर गया। बाहर वह पूरा परिवार खड़ा था। सबसे छोटे बच्चे को बांह में जकड़े मर्द औरत को अन्दर धकेल रहा था। औरत ने अन्दर आकर उससे बच्चा ले लिया और फर्श पर लिटा दिया। खिचड़ी की पतीली और बर्तनों के बाद मर्द ने गठरियां अन्दर ठूंसी। ट्रेन का हॉर्न बज उठा। अभी तक चार बच्चे नीचे ही थे। औरत चीखी, “बच्चे नीचे हैं। जल्दी से अन्दर चढ़ाओ। गाड़ी चल पड़ेगी।” बच्चे भी नीचे खड़े चीखने-चिल्लाने लगे। मर्द उन्हें उठाकर घास की गांठों की तरह अन्दर फैंकने लगा। बच्चे अन्दर गिरते और भले चंगे उठ जाते। उसके चढ़ते ही ट्रेन चल पड़ी। गहरी सांस खींचकर फर्श पर बैठ गया। मुझे अन्दर बैठे देख उसके चेहरे पर थकी सी मुस्कान उभर आई।
बच्चों की भूख और बेचैनी बढ़ती जा रही थी। औरत को घेरे खिचड़ी-खिचड़ी चिल्लाने लगे थे। मर्द ने औरत को खिचड़ी परोसने के लिए इशारा किया। सबसे छोटे बच्चे को सीने से सटाकर औरत ने खिचड़ी परोसी। अपने-अपने बर्तनों में खिचड़ी लेकर बच्चों के दिल हरे हो गए। जीवन की सारी खुशियां मानो उनके बर्तनों में सिमट आई थी। आस पास बैठे सब लोगों का ध्यान उन पर था। कई असंवेदनशील हंसने भी लगे थे।
“साब, खिचड़ी खा लीजिए।” थाली मेरी ओर बढ़ाते हुए मर्द ने कहा तो सब लोग मेरी ओर देखने लगे। कुछेक मुस्कुराने लगे।
“मुझे भूख नहीं; तुम खाओ।” मैंने कहा।
उसने थाली वापस खींच ली और खाने लगा। बार-बार एक दूसरे के बर्तनों को देखते हुए बच्चे खाने में मग्न थे। तेज मिर्च के कारण उनके नाक से पानी बहने लगा था। एक हाथ से मुंह में निवाला डालते तो दूसरे हाथ से नाक में से बह रहे पानी को साफ करते।
पेट की आग कितनी भयानकता और टीस समेटे होती है, मुझे इसका एहसास उन्हें देखकर होने लगा था। “भूख” शब्द का अर्थ औरों के लिए भले ही केवल “भूख” या “पेट की आग” रहा हो, परंतु उनके लिए भूख केवल “भूख” या “पेट की आग” ही नहीं थी। उनके शब्दकोश में भूख ही दिन, भूख ही रात, भूख ही आसमान, भूख ही जमीन थी। भूख ही एकमात्र पूंजी, भूख ही जिंदगी थी उनकी।
गुल्लू का कटोरा खाली हो गया। उसने गर्दन सीधी करके सबके बर्तनों को देखा। किसी का भी बर्तन खाली नहीं हुआ था। उसने कटोरा औरत के आगे बढ़ाकर खिचड़ी मांगी। पतीली में खिचड़ी नहीं थी। औरत ने अपने बर्तन में से दो निवाले भर खिचड़ी उसके कटोरे में डाल दी।
गुल्लू इससे संतुष्ट नहीं हुआ और रोने लगा। पास बैठे मर्द ने खींचकर एक हाथ उसके गाल पर उकेर दिया। वह गाल पर हाथ रखकर रोने लगा। औरत ने इसका विरोध जताया तो मर्द का हाथ उसकी ओर उठकर हवा में ठहर गया। उसने हाथ वापिस खींच लिया और मेरी ओर देखा। अपना हाथ वापस खींच लेने के फैसले से वह खुश था और यही आशा उसको मुझसे भी थी। अपनी प्रसन्नता जताने के लिए मैं मुस्कुराया। उसने अपनी थाली में से थोड़ी सी खिचड़ी गुल्लू के कटोरे में डाल दी। गुल्लू रोना भूलकर खाने लगा। औरत ने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरा और प्रेमपूर्वक मर्द की ओर देखा। मर्द गर्वपूरित हो उठा। मैं मन ही मन मुस्कराकर रह गया और आंखें मूंद लीं। ट्रेन धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ चुकी थी।
लेखक परिचय – प्रवीण कुमार सहगल
शिक्षा-एम.ए.,साहित्यरत्न, पी.जी.डी.आई.सी.एस.
लेखन एवं प्रकाशन-बीस वर्षों से लेखन कार्य में सक्रिय। देश-विदेश की स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में हर विधा में लगभग 500 से अधिक रचनाएं प्रकाशित। कहानी संग्रह “मार्मिक कहानियां” (2012) प्रकाशित। फरीदाबाद (हरियाणा) से प्रकशित दैनिक समाचार पत्र “फूटती किरण” में पांच वर्षों (2005-2009) तक सह-संपादक के पद पर कार्यरत।
सम्मान-युवा लेखन सृजना पुरस्कार, आर्यसमृति साहित्य सम्मान के साथ-साथ देश-प्रदेश की विभिन्न संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित ।
सम्प्रति-स्वतंत्र लेखन। साहित्य-सृजन के साथ-साथ शैक्षिक-सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय।
संपर्क-9871346063
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