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  • डॉ. दविंदर कौर होरा

उम्मीद के फूल

बाहर बादल बार- बार गरज़ रहे थे और बिजली भी यदा- कदा उसका साथ दे रही थी और अपनी तीखी चमक से वातावरण को रोशन करने की नाकाम सी कोशिश करती परंतु इन काले- कज़रारे घनघोर बादलों के आगे उस बेचारी बिज़ली की एक न चलती और वह थक कर शांत हो जाती।

सच! थक तो मैं भी गया था। आज फिर मुझे प्यासे ही तड़पना पड़ रहा था। अब तो मेरी पीठ भी बूढ़े मालिक की तरह झुकती चली जा रही थी। घर का माहौल दिन पर दिन बिगड़ता ही जा रहा था और मैं मौन.. बस...समय की भांति मन पर दर्द के छाले लिए कराह रहा था।

मुझे वो दिन आज भी अच्छी तरह से याद है जब आज से 25 वर्ष पूर्व मेरा और मुन्ना भैया का जन्म इस घर में एक साथ हुआ था।

बाबूजी ने मुझमें और मुन्ना भैया में कोई फर्क नहीं रखा था। वो एक हाथ से मुन्ना भैया को उठाते और दूसरे हाथ से प्यार से मुझे सहलाते थे। बाबूजी के प्यार और मुन्ना भैया की शरारती हठखेलियों के साथ ही समय पंख लगाकर उड़ चला और मेरा कद भी बढ़ने लगा था।

इस घर में मैंने हमेंशा प्यार, शांति और अनुशासन ही देखा था। देखते ही देखते मुन्ना भैया बड़े हो गये और व्यापार करने लगे।

मैं भी तो मामूली से गमले से निकल कर फैलता और फलता- फूलता बरामदा पार करता हुआ बंगले की शोभा ही बन बैठा था।

जो भी मुझे देखता तो बस ठगा सा देखता ही रह जाता था और मेरी तारीफ़ किए बिना नहीं रह पाता था । बाबूजी मेरी तरफ प्यार भरी नज़रों से देखते और मै गर्वित हो झूम उठता। घर आये मेहमान तो बस मुझे ललचाई निगाहों से देखते और एक आह सी भरकर बाबूजी से कहते कि ‘‘इसी मनीप्लांट की वजह से आपके बंगले की शान है। इसी ने आपके बंगले में चार चॉंद लगा दिए हैं।

फिर... एक दिन हमारे घर से ढोकल की थाप सुनाई देने लगी।

बड़ी चहल- पहल हो गई और मुन्ना भैया की शादी हो गई । लम्बा सा घूंघट लिए खूबसूरत सी भाभी हमारे घर में आ गई । बहुत ही स्नेही और मिलनसार थीं हमारी प्यारी भाभी जी।

भाभी जी ने घर में आते ही घर की सारी जिम्मेदारी जैसे- मॉं- बाबूजी और मेरी भी अपने उपर ले ली। भाभी के कोमल हाथों का स्पर्श मुझे मॉं का सा एहसास करवाता। धीरे- धीरे समय सरकता गया और मुन्ना भैया की शादी को दो वर्ष बीत गये।

इस बीच मुन्ना भैया ने अपना व्यापार बहुत बढ़ा लिया। अब उनका दिन तो व्यापार की चाशनी में डूबा होता । वह देर रात को आता और खाना खा कर थका- मांदा सो जाता। उसके व्यापार के साथ ही उसके दोस्तों की तादाद भी बढ़ती जा रही थी।

घर से रह- रह कर बरतन टकराने की आवाजें आने लगीं थीं। और कभी- कभी तो तुफान के साथ घर की दिवारें भी हिलने लगी थी। लेकिन सुबह के वादे के बाद भी मुन्ना भैया घर देर रात तक ही लौटते। अब भाभी जी का सारा नूर मुरझाने लगा था वे देर रात तक बरामदे में अकेले टहलती रहतीं। उनका समय काटे नहीं कटता था। अकेलापन एक ऐसा ज़हर है, जो इंसान की सोच को खोखला कर देता है। भाभी जी भी बस गुमसुम न जाने क्या सोचती रहती और मुन्ना भैया के घर आते ही उनसे उलझ जातीं।

मुन्ना भैया का तर्क था कि- ‘‘कार, बंगला, गहनें, कपड़े, पैसा, सारा ऐशो- आराम है तुम्हारे पास’’। हॉं! वाकई में से सब तो था लेकिन..., प्यारी भाभी जी से बातें करने वाला कोई ना था जिसके साथ वो हॅंसतीं- गुनगुनातीं और अपने दिल के राज़ को बांटती।

अकेलेपन ने उन्हें मानसिक रूप से कमज़ोर कर दिया था और वे बहुत चिड़चिड़ी सी हो गई थीं। मुन्ना भैया उनके दिल की हालत समझने की बजाय उनके और दूर होते जा रहे थे और घर में तनाव बढ़ता ही जा रहा था।

घर के तनाव की वज़ह से मैं भी ढीला पड़ गया था। मेरी टहनियॉं जो हमेंशा हरी- मोटी और भरी- भरी रहतीं थीं, पीली और बेजान सी हो गईं थीं। घर के प्रतिकूल वातावरण का मुझ पर कुछ ज्यादा ही असर हो रहा था। सिर्फ मुझ पर ही नहीं मेरे साथ और भी पेड़- पौधों पर घर के बुरे माहौल का असर तेजी से हो रहा था। गुलाब के पौधों में फूल कम और कॉंटे अधिक उग रहे थे। गेंदे के फूल जो कभी हमारे घर की रौनक हुआ करते थे अब मुरझा कर कंटिली झाड़ियों में बदलते जा रहे थे। तुलसी मॉं भी सूख कर कॉंटा हो गई थीं। हम पेड़- पौधे जिस घर में रहते हैं वहॉं के प्राणियों से और आसपास के माहौल से हमारा दिली रिश्ता कायम हो जाता है। हम उस घर के मैम्बर हो जाते हैं । हमारे उपर वहॉं के सुख- दुख का सबसे पहले असर पड़ता है। सिर्फ हम पर ही नहीं हमारे नन्हें फरिश्ते साथी भी इससे प्रभावित होते हैं। तितलियॉं,चिड़ियॉं, तोते, गिलहरियॉं आदि पर घर के माहौल का बहुत प्रभाव पड़ता है। प्रकृति के हर प्राणी पर वहॉं के वातावरण और वहॉं रहने वाले मानवों का बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। मैंने अक्सर देखा है कि वहॉं रहने वाले जीव- जन्तु खुशहाल और स्वस्थ होते हैं, वे आपस में बहुत प्यार से रहते हैं और जिस घर या आस- पास के लोग झगड़ते रहते हैं वहॉं के जीव- जन्तु लड़ाके- आक्रामक और अति क्रोघी होते हैं, वो अपने आस- पास दूसरे जीवों को बिल्कुल बरदाश्त नहीं करते।

रात गहराने लगी थी। सब खाना खा कर सो चुके थे। भाभी जी अकेली बरामदे में टहलते हुए ऑंसू बहा रही थी, उसी समय बाबूजी किसी काम से बाहर आ गए। वो भाभी जी को ढ़ाढ़स बंधाने लगे तभी उनकी नज़र मुझ पर पड़ी और भाभी जी से कहने लगे ‘‘ बहु तुमने फिर बहुत दिनों से मनींप्लांट में पानी नहीं डाला है, देखो तो कैसा मुरझा गया है, जानती हो जिस दिन मुन्ना पैदा हुआ था उसी दिन मैं यह मनीप्लांट घर लेकर आया था तब मुझे लगा था कि मेरे एक नहीं दो पुत्र हैं और मैंने इस पौधे को अपने बेटे की तरह ही पाला है ‘‘मेरा छोटा बेटा’’ कहते हुए बाबूजी भावुक हो गए। वो भाभी से कहने लगे कि ‘‘ लगता है बहू मेरी परवरिश में ही कोई कमी रह गई ’’।

बाबूजी की बूढ़ी ऑंखें भाभी जी के दिल के हालात को पढ़ चुके थे। उनके चेहरे पर यकायक कठोरता आ गई और वो सिर झुकाये घर के अंदर चले गये।

देर रात जब मुन्ना भैया घर लौटे तो भाभी जी बरामदे में ही एक खंबे से टेक लगाए झपकियॉं ले रहीं थीं। मुन्ना भैया उन्हें अनदेखा करते हुए बरामदा पार कर गये और अपने कमरे में घुसे तो दंग रह गये। कमरे में बाबूजी अटेचियों में भाभीजी का सामान भर रहे थे। मुन्ना ये सब देखकर हद्प्रद - परेशान सा रह गया, उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। असमंजस की हालत में वह

बाबूजी को टकटकी लगाये देखे जा रहा था और बाबूजी बहू के एक- एक सामान को करीने से अटैंची में रख रहे थे।

बहुत हिम्मत बटोर कर मुन्ना भैया ने बाबूजी से इसका कारण पूछा।

बाबूजी ने जवाब दिया कि-‘‘ मैंने एक बहुत बड़ी गलती की थी उसी को सुधारने की कोशिश कर रहा हूॅं। बहू कल मायके अपने पिताजी के घर जा रही है। मैंने तुम्हें पढ़ाया- लिखाया, एक व्यापारी बनाया.., लेकिन एक अच्छा पति और पिता ना बना सका’’। मुन्ना चुपचाप पिता की बातें सुनता रहा।

बाबूजी मुन्ना भैया को बॉंह से पकड़कर मेरे करीब ले आये और कहने लगे ‘‘घर- संसार एक बगीचे की तरह होता है और पति-पत्नी का संबंध एक पौधे की तरह। इस पौधे को ध्यान से देखो, यदि समय पर इसे खाद- पानी देते रहोगे तो यह फलता- फूलता रहेगा। यदि नहीं दोगे तो मुरझा जायेगा। इसी तरह गृहस्वामी का कर्तव्य है कि वह अपने परिवार को समय, प्यार और संरक्षण समय पर देता रहे। तुम्हारा समय तुम्हारे घर वालों के लिए खाद का काम करेगा और प्यार पानी का, तभी तुम्हारा घर- संसार फलेगा- फूलेगा और पनपेगा अन्यथा पतझड़ बन जाएगा।

मुन्ना भैया को चुप देखकर बाबूजी समझ गए कि लोहा गर्म है, एक चोट और करनी चाहिए। अतः उन्होंने मुन्ना भैया के चेहरे पर अपनी नज़रें गड़ा दीं और कहने लगे कि-‘‘ तुलसीदास जी बहुत समय पहले कह गये हैं कि मुखिया मुख सो चाहिए, खान- पान को एक। पाले पोसे सकल अंक तुलसी सहित विवेक।।

और तुम! तुम भी इस बात का अच्छा अनुसरण कर रहे हो, इसका अंज़ाम मुझे यहीं बरामदे में देखने को मिल रहा है। इतना कहकर बाबूजी अंदर चले गये और मुन्ना भैया कुछ पल सुन्न सा खड़ा रह गया। बाबूजी की एक- एक बात उसके दिमाग पर हथौड़े की चोट सी पड़ रही थी।

कुछ पल बाद मुन्ना भैया ने अपने मन में कोई फैसला बुदबुदाया और उनके चेहरे पर एक मीठी सी मुस्कान दौड़ गई।

भैया के चेहरे की शांति को देखकर मेरा मन भी खिल उठा और मैंने देखा कि मुन्ना भैया भाभी जी के गले में बाहें डाले उन्हें अपने साथ कमरे की और ले जा रहे हैं। यह मेरे लिए पहला सुखद अनुभव था।

कुछ ही देर बाद सूरज की लाली फैल गई और चिड़ियॉं चहचहाने लगीं। वातावरण में एक खुशनुमा खुशबू फैल गई। मैं भी हवा के हिंडोले में बैठकर झूमने लगा और तब मुस्कुरा दिया, जब देखा कि मुन्ना भैया भाभी जी को बाय करते हुए घर से बाहर जा रहे हैं और यह वादा करके कि घर जल्दी लौट आऐंगे।

आज भैया के चेहरे पर सच्चाई की लाली है और भाभी की ऑंखों में उम्मीद की लौ।

पर मुझे पूरा यकीन है कि इस घर की दीवारें अब कभी नहीं दरकेगी। क्योंकि इन्हें प्यार का सिमेंट मिल चुका है।

 

डॉ. दविंदर कौर होरा

सम्पादक : ‘‘काव्य कुॅंज’’ - ‘‘त्रैमासिक’’ की प्रधान संपादक उपाध्यक्ष : साहित्य कलष, इंदौर

मेम्बर : इंदौर लेखिका संघ, इंदौर Contact- 9827451260

hora_davinder@rediffmail.com



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