शब्दों का जाल बुनना
मुझे नहीं आता
मेरी क्या मजाल
कलम चलाने की
बस हृदय में कुलबुलाती है
पीड़ा कुछ अपनी
तो कुछ परायों की
और मैं चल पड़ता हूँ
धधकते अंगारों पर
जब रुकता हूँ तो
खड़ा रहता हूँ
फुंकारती नदी के किनारे पर
जो पल-पल कट रहा है
अन्दर ही अन्दर
और मुझे तैरना नहीं आता |
फिर भी मैं साँसें समेटकर
ले रहा हूँ लोहा
स्वयं की शैतानी से
पता नहीं कब करदे विद्रोह मेरा मन
इसीलिए उसे उलझाये हुए हूँ
फिजूल के काम में,
मतलब कलम घिसाई में...
- मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
ग्राम रिहावली, डाक तारौली,
फतेहाबाद, आगरा 283111