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डाकिया डाक लाया

  • डॉ अमित रंजन
  • 29 सित॰
  • 7 मिनट पठन

सुबह की हल्की धूप पूरे गाँव में फैल चुकी थी। चिड़ियों की चहचहाहट के बीच साइकिल की घंटी बजी — वही पुरानी, पहचानी आवाज़।


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गाँव का डाकिया, रामसुमेर, झोला लटकाए धीरे-धीरे पैडल मार रहा था। बालों में असमय सफ़ेदी उतर आई थी, कमर झुक गई थी, और टखनों में महीनों से हल्का दर्द था — पर चेहरे पर वही पुरानी मुस्कान थी, जो चिट्ठियाँ बाँटते समय और गहरी हो जाती।

पचपन पार कर चुके रामसुमेर को अब रातें अक्सर भारी लगतीं। पत्नी के जाने के बाद उसका छोटा-सा घर सूना पड़ गया था। उसका बेटा शहर में नौकरी करता था और महीने में एक बार उससे मिलने आता।

कभी-कभी वो रात को करवटें बदलते सोचता — “कहीं मैं हमेशा के लिए अकेला न पड़ जाऊँ?”

लेकिन ये तमाम डर मायावी असुर की भांति केवल रात्रि में ही उसे परेशान करते थे। प्रभात के पहले आलोक के साथ ही उसके तमाम डर बुदबुदे के समान विलीन हो जाते थे। वह फिर झोला सँभाले, साइकिल की घंटी बजाते, गाँव की गलियों में उम्मीद बाँटने निकल पड़ता।

गाँववालों के लिए रामसुमेऱ सिर्फ एक सरकारी कर्मचारी नहीं था, बल्कि खुशियों और उम्मीदों का दूत था। उस की घंटी की आवाज़ सुनते ही गाँव के आँगन चहक उठते। किसी की आँखें खिड़की से झाँकतीं, कोई छत से उतरकर दौड़ता।

ससुराल में घर के कामों में वह लगी रहती, लेकिन उसका मन मायके में ही अटका रहता। कभी उसे अपनी माँ की मीठी झिड़की याद आती तो कभी अपने भाइयों के साथ की गयी लड़ाई। सो, जब भी डाकिये की साइकिल की घंटी सुनाई देती, उसका दिल जोर से धड़क उठता। वह घूंघट की ओट से आँगन में आकर दरवाजे की ओर देखने लगती। हर रोज़ की तरह आज भी उसके मन में आशा थी कि शायद पिता ने कोई चिट्ठी भेजी हो।

सुनीता ने घूँघट की ओट से झांकते हुए डाकिये की ओर देखा। उसका दिल तेजी से धड़क रहा था। उसने अपने पिता की चिट्ठी का इंतजार किया था, लेकिन आज भी कुछ नहीं आया। वह धीरे से बुदबुदाई, "पिताजी, क्या आप मुझे भूल गए? क्या आपको मेरी याद नहीं आती?" उसकी आंखों में आंसू छलक आए, लेकिन उसने उन्हें पोंछ लिया। वह जानती थी कि उसके पति को यह देखकर बुरा लगेगा।

पिछला महीना समाप्त हुए चार दिन बीत गए थे। बूढ़ी रामेश्वरी का चार वर्षीय पोता उसके पास दौड़ा-दौड़ा हाथ फैलाए आया। हर बार रामेश्वरी उसे चूरण, लेमनचूस या कुछ न कुछ देती थी, किंतु इस बार वह मन मसोस कर रह गई। उसकी आंखों में एक अजीब सी दयनीयता उभर आई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उसका वृद्धा पेंशन का पैसा खत्म हो गया था। वह रोज़ डाकिये की राह देखती, लेकिन आज उसकी आंखें सचमुच चमक उठीं।

रामसुमेर ने झोले से एक लिफाफा निकालकर पुकारा, "रामेश्वरी काकी, तुम्हारी पेंशन आई है।"

"बेटा!" उसकी आंखों में कृतज्ञता के आंसू छलक आए। कांपते हाथों से रुपये लिए और सबसे पहले पोते को गोद में उठा लिया। "चल, आज तुझे तेरी पसंदीदा लेमनचूस दिलाऊंगी।" पोते ने उत्सुकता से पूछा, "दादी, क्या मुझे चूरन की पुड़िया भी मिलेगी?" रामेश्वरी मुस्कुराई और बोली, "हाँ बेटा, आज तुझे जो चाहिए, वह सब मिलेगा। तू मेरा राजा पोता है ना?" पोते ने खुशी से सिर हिलाया और "नाना नाती, पहने गांती, जंगल में चरावे हाथी" गाते हुए दादी के गले लग गया। दादी ने प्यार भरी चपत लगाते हुए कहा- "खाता दादा का है, गाता नाना का है।" यह कह कर वह हंसने लगी।

बगल वाले घर में रमेश बाबू पहले से दरवाजे पर खड़े थे। उनका बेटा परदेश में नौकरी करता था। हर हफ्ते उसकी चिट्ठी का इंतजार रहता।

रामसुमेर ने अपनी साइकिल रोकी, झोले से चिट्ठियाँ निकालीं और पुकारने लगा—"रमेश बाबू! आपकी चिट्ठी आई है।" रमेश बाबू का चेहरा खिल उठा। उन्होंने कांपते हाथों से चिट्ठी ली और धीरे-धीरे पढ़ने लगे। चिट्ठी में लिखा था, "पिताजी, मैं अगले महीने घर आ रहा हूँ। अपनी सेहत का ख्याल रखना।" रमेश बाबू की आँखें नम हो गईं। उन्होंने चिट्ठी को अपने सीने से लगा लिया और धीरे से बुदबुदाए, "बेटा, तुम जल्दी आ जाओ। तुम्हारी माँ भी तुम्हें बहुत याद करती है।"

रामसुमेर धीरे-धीरे आगे बढ़ गया, लेकिन उसके पीछे गाँव में कई दिलों की धड़कनें तेज हो चुकी थीं। कुछ को अपनों की खबर मिली, कुछ को अगली चिट्ठी का इंतजार रह गया।

समय के साथ गाँव में बदलाव की आहटें गूंजने लगीं।सड़क किनारे एक मोबाइल टावर खड़ा हो गया और धीरे-धीरे स्मार्टफोन हर घर में पहुँचने लगे।अब लोग वीडियो कॉल पर अपनों को देखने लगे, व्हाट्सएप पर संदेश भेजने लगे।बैंक की शाखा भी डिजिटल हो गई थी — पेंशन सीधे खातों में आने लगी, मनीऑर्डर की जगह गूगल पे और फोनपे ने ले ली।

रामसुमेर को अब कोई चिट्ठियों का इंतजार करता नज़र नहीं आता।रमेश बाबू का बेटा अब फोन पर ही हाल-चाल पूछ लेता,रामेश्वरी काकी का पोता सीधा दुकान से लेमनचूस ले आता।अब कोई दरवाज़ों से झाँकता नहीं, कोई दौड़कर नहीं आता।

रामेश्वरी काकी जैसे लोग अक्सर रामसुमेर से पूछते, "बेटा, ये मोबाइल वाली बात कैसे होती है? क्या ये चिट्ठी से बेहतर है?" रामसुमेर मुस्कुराता और कहता, "काकी, चिट्ठी की जगह अब ये आ गया है। एक तरह से यह अच्छा ही है। लोगों को अपने प्रियजनों का सन्देश जानने के लिए लम्बा इन्तजार नहीं करना पड़ता है।" लेकिन उसके मन में यह सवाल अक्सर उठता कि क्या यह नया ज़माना पुराने रिश्तों और भरोसे को बचा पाएगा।

अब जब रामसुमेर गाँव में साइकिल की घंटी बजाता, तो पहले जैसी उत्सुकता नहीं दिखती। लोग दरवाजों से झांकते भी नहीं, बस मोबाइल की स्क्रीन पर नजरें गड़ाए रहते। कभी जिन आँखों में अपने बच्चों की चिट्ठी पढ़ने की ललक होती थी, वे अब ठंडी और उदास थीं।

शाम की हल्की बूंदाबांदी में रामसुमेर अपने घर के बरामदे में बैठा, पुराने दिनों की यादों में खोया था। उसे याद आया, कैसे एक बार रामरति 'विधवा पेंशन' के इंतजार में थी। जब पेंशन आने में देर हो गई थी और घर में खाने तक के लाले पड़ गए थे, तब उसने अपनी ओर से पैसे दे दिए थे, ताकि रामरति को यह लगे कि पेंशन आ गई है। बाद में जब रामरति को इस बात का पता चला था तब उसके आँसू छलक पड़े थे और उसने रामसुमेर के सामने हाथ जोड़ लिए थे। 

फिर उसे ज्योति की याद आई। ज्योति ने पुलिस बहाली के लिए परीक्षा पास कर ली थी, लेकिन उसके फिजिकल टेस्ट का पत्र डाक में खो गया था। ज्योति रो-रोकर बेहाल थी, लेकिन रामसुमेर ने उसे धीरज बंधाया था, "रो मत बिटिया, तुम्हारा पत्र जहाँ भी होगा, मैं उसे खोज निकालूंगा।" तपती दोपहरी में 20 किलोमीटर दूर मुख्य डाकघर तक जाकर उसने पत्र खोज निकाला था और ज्योति को सौंपा था। वर्षों बाद भी ज्योति कहती थी कि वह पुलिस में रामसुमेर दादा की वजह से ही है।

रामसुमेर की आँखें भर आईं। क्या अब उसकी जरूरत खत्म हो गई थी? क्या अब उसकी साइकिल की घंटी की आवाज कोई नहीं सुनेगा? उसकी आँखों में अकेलेपन की छाया दिखी। उसे अपने बेटे की याद आई, जो शहर में रहता था और हर दस-पंद्रह दिन पर अपने डाकिया पिता को चिट्ठी लिखता था। बेटे के लाख कहने पर भी रामसुमेर ने मोबाइल नहीं ही लिया था। उसकी चिट्ठी के इंतजार की व्याकुलता, चिट्ठी मिलने पर उससे उत्पन्न आनंद, यह सब उसके लिए वर्णन से परे था। उसका ऐसा मानना था कि जो बात, जो अनुभूति पत्र के भौतिक स्पर्श में है वह बात किसी टिन के डब्बे से बात करने में कहाँ है। उसने गहरी साँस ली और घर के सामने की सूनी सड़क पर टहलने लगा।

गाँव में डिजिटल क्रांति ने डाकिए रामसुमेर को अप्रासंगिक बना दिया था। अब लोग चिट्ठियों के इंतज़ार में दरवाज़े की ओर नहीं ताकते थे, न ही मनीऑर्डर की राह देखते थे। मोबाइल, इंटरनेट और ऑनलाइन बैंकिंग ने सब कुछ आसान बना दिया था। लेकिन जब सब कुछ तेजी से बदलता है, तो कुछ दरारें भी रह जाती हैं।

एक दिन गाँव में हड़कंप मच गया। कई लोगों के बैंक खाते खाली हो चुके थे। किसी की वृद्धा पेंशन गायब हो गई, किसी के मनीऑर्डर की राशि किसी और के खाते में चली गई। गाँव के भोले-भाले लोगों को किसी ने ऑनलाइन ठग लिया था। शिकायत करने पर भी कोई समाधान नहीं निकल रहा था।

अब लोगों को पुराने दिनों की याद आई। "जब तक रामसुमेर था, कभी कोई धोखा नहीं हुआ। वो पैसे लाता था, गिनवा कर देता था, कोई चिंता नहीं रहती थी," बूढ़ी रामेश्वरी ने ठंडी सांस भरते हुए कहा।

जब गाँव में ऑनलाइन ठगी की खबर फैली, तो सभी लोग एकजुट हो गए। उन्होंने महसूस किया कि तकनीकी प्रगति के बावजूद मानवीय संबंध और भरोसा अभी भी महत्वपूर्ण हैं। गाँव के लोगों ने तय किया कि वे रामसुमेर को अपनी वित्तीय लेनदेन की निगरानी का जिम्मा देंगे। रामसुमेर ने भी यह जिम्मा स्वीकार कर लिया और गाँव के लोगों को ऑनलाइन धोखाधड़ी से बचाने के लिए कुछ सरल उपाय सिखाए। उसके इस कार्य में नये जमाने की पढ़ी-लिखी बहू सुनीता ने भी सहयोग किया। अपने घर वालों को सम्बोधित करते हुए सुनीता ने कहा, "तकनीक अच्छी चीज है, लेकिन उस पर अंधा भरोसा नहीं करना चाहिए।"

उसका वर्षों तक डाकिया के रूप में किए गया कार्य का अनुभव काम आया। अब वह सिर्फ एक डाकिया नहीं था, बल्कि गाँव का एक मार्गदर्शक बन गया था। उसने गाँव के लोगों को डिजिटल साक्षरता के बारे में जागरूक करना शुरू किया। वह गाँव के बच्चों को मोबाइल और इंटरनेट का सही उपयोग सिखाता और बुजुर्गों को ऑनलाइन धोखाधड़ी से बचने के तरीके बताता। अब रात का अँधेरा अकेलेपन के भय के साये में उसे नहीं जकड़ पाता था क्योंकि उसने भी अब मोबाइल खरीद लिया था और उसपर रात्रि में काम की बातें सीखता रहता, जिससे वह बच्चों को सीखा सके। मोबाइल अब उसके लिए केवल टिन का डब्बा नहीं रहा।

उसकी इस नई भूमिका ने गाँव के लोगों के बीच उसके प्रति और भी सम्मान बढ़ा दिया। अब जब वह साइकिल की घंटी बजाता, तो लोग न केवल उसके लिए दरवाजे खोलते, बल्कि उससे सलाह और मार्गदर्शन भी लेते।

डाकिया भले ही वह पहले जैसा न रहा हो, लेकिन उसकी ज़रूरत कभी खत्म नहीं हुई। अब वह चिट्ठियाँ नहीं, बल्कि भरोसे का संदेश लेकर गाँव-गाँव में घूमता था।



लेखक परिचय : डॉ अमित रंजन


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डॉ अमित रंजन

सहायक आचार्य, हिंदी

जय प्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा।

(9798021736)


शैक्षणिक पृष्ठभूमि

स्नातक(हिंदी) : काशी हिन्दू विश्वविद्यालय

दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.ए.(हिन्दू कॉलेज), एम.फिल एवं पीएच.डी,

 

कृतियाँ : 

-कर्म पथ के पथिक(विमोचन : श्री हरिवंश, उप सभापति, राज्यसभा द्वारा) 

-भारतीय समाज राजनीति एवं हिंदी उपन्यास(आलोचनात्मक ग्रन्थ)

-स्त्री-प्रश्न और हिंदी उपन्यास(आलोचनात्मक ग्रन्थ) 

-सुधर गया मोटू(बाल कहानी संग्रह)

-निबंध कौशल(अमेज़न किंडल पर बेस्ट सेलर में शामिल)

 

प्रकाशन: 

हिंदुस्तान, प्रभात खबर, दोआबा, साहित्य कुंज, प्रश्न चिह्न, देशबंधु, विश्वगाथा, प्रेरणा अंशु, भारत दर्शन(न्यूजीलैंड से प्रकाशित ई पत्रिका) समेत विविध पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित। चौदह शोध-पत्र प्रकाशित।

 

सम्प्रति : बैंक में सहायक प्रबंधक,कोल इंडिया लिमिटेड में सहायक प्रबंधक,बिहार सरकार में राजस्व सह अंचल अधिकारी(राजपत्रित पद, BPSC) जैसे पदों पर कार्य करने के उपरांत वर्तमान में जयप्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा में सहायक आचार्य,हिंदी के पद पर कार्यरत (BPSC द्वारा चयन)। BSUSC द्वारा भी असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी के पद पर चयनित।

 

संपर्क : C/O अरबिंद कुमार सिंह, शास्त्री नगर वेस्ट, सुभाष इंटर नेशनल स्कूल के पास, गली नंबर 8, गया जी, बिहार,भारत, 823001

9798021736

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8 टिप्पणियां

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अतिथि
6 दिन पहले
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Badhiya

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6 दिन पहले
5 स्टार में से 5 रेटिंग दी गई।

Bahut achi kahani likhe h

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अतिथि
6 दिन पहले
5 स्टार में से 5 रेटिंग दी गई।

Very good

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Santosh kumar
01 अक्टू॰
5 स्टार में से 5 रेटिंग दी गई।

Badhiya kahaani hai.purane dino ki yaad taja ho gayi.

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Anup singh
01 अक्टू॰
5 स्टार में से 5 रेटिंग दी गई।

Nice story to read.

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