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  • सुदर्शन वशिष्ठ

प्रेम परिंदे

अचानक छोटे से रोशनदान से झरने की तरह एक लाट फूटी और कमरे के बीचोंबीच कोने तक फैल गई। कमरे में नीम अंधेरा था। रोशनी की बूंदें जममग चमकने लगीं। रोशनी के उस झरने में पानी की छोटी छोटी बूंदों की तरह अनेक धूल कण किलबिलाने लगे। धूल कणों को सजीव करती वह धूप की लाट जैसे कमरे में गड़ गई। पहले यहां कुछ दिखलाई नहीं पड़ रहा था। अब असंख्य कण जैसे मौन हो कर एकदम हरकत में आ गए। क्या ये कण पूरे कमरे में होंगे.... हर जगह होंगे........! ‘‘ बहुत बार हमें कुछ दिखलाई नहीं पड़ता। कभी कोई रोशनी आती है तो बहुत कुछ साकार कर जाती है। बहुत कुछ वातावरण में विद्यमान रहता है, हम देख नहीं पाते।‘‘ प्रशांत ने धीमे से कहा। वह खा़मोश रही। बस, लेटे लेटे रोशनी में किलबिलाते कणों को देखती रही। ‘‘ मैं भी तो ऐसे ही हूं। जब आप जैसी कोई रोशनी मिलती है तो नज़र आती हूं। नहीं तो होते हुए भी नहीं दिखती।‘‘ बहुत बड़ी बात कर गई, सोचा प्रशांत ले। ऐसी बात की अपेक्षा उससे नहीं की जा सकती थी। रोशनी अब बाथरूम के दरवाजे से भीतर घुसती जा रही थी। उसने उठ कर दरवाजा कस कर बंद कर दिया। बाथरूम निहायत गंदा होने से बदबू आती रहती थी। अक्सर नलकों में पानी नहीं होता। कभी आधी बाल्टी पानी वहां रखा रहता जिसे छूने में भी घिन आती। भीतर आते ही वह बाथरूम का दरवाजा बंद कर देती। कभी बिस्तर गंदा होता तो उस पर अपनी चुन्नी बिछा देती कि इस पर बैठो। उसकी बांह में कलाई के पीछे जलने का ताज़ा निशान था। एक लकीर सी बन गई थी चमड़ी पर। अभी भी हाथ लगने पर वह सी कर उठती। कभी उसकी बांह में, कभी हाथ के पिछली ओर जलने का निशान होता। जैसे किसी ने गर्म कर चिमटा दे मारा हो। कभी उंगलियों की पोरों में कट लगे होते जिनमें जरा सा नमक लगने पर चरता था। हां, कभी पीठ पर लाल निशान, जैसे किसी ने चाबुक मारी हो। ऐसे निशान तो सभी औरतों की बांहों में होते है, वह कहती। सच ही, इस ओर ध्यान देने पर प्रशांत को राह चलती, बस में सवार, कई औरतों की बाहांे में ऐसे निशान नजर आते। हां, संभ्रांत और अमीरजादियों की बात और है। इन निशानों के तनिक दुलार पर पिघल जाती। शायद यही उसकी कमज़ोरी थी । खुश्बू नाम बताया था उसने। नाम एकदम अलग और आकर्षक था जो उस जैसी लड़की का नहीं हो सकता था। ‘खुश्बू‘ संबोधन पर वह कभी चैंकी भी नहीं। अपने नाम के संबोधन पर आदमी एकदम रिएक्ट करता है। खैर, शेक्सपियर ने कहा है - नाम में क्या रखा है! रोशनी की लाट अब कमरे के बीचोबीच पूरे बिस्तर पर दूधिया ट्यूब सी जलने लगी थी। बिस्तर की चादर मैली और दाग़दार थी। खूश्बू की चूनर चमकने लगी। अंतिम लौ की तरह जितनी जल्दी यह लाट जगमगाई, उतनी जल्दी बुझ भी गई। सूर्य शायद अस्त हो गया था। वह हमेशा जल्दी में रहती थी। चेहरे पर एक संत्रास सा छाया रहता। मन एकदम बेचैन और भटका हुआ। आराम से लेटी होने पर भी लगता, एक अजब सी बेचैनी है उसके भीतर और बाहर। हालांकि बार बार मिलने पर एक पारस्परिक समझ ने सहजता ला दी थी। एक दूसरे को समझने, जानने पर आदमी खुल जाता है। आदमी और आदमी के बीच निकटता और सानिध्य बनता है। अजनबीपन ख़तम होता जाता है। आदमी खुलते खुलते ही खुलता है। खुलने और नंगा होने में बहुत अंतर है। ऐसी निकटता होने के बाद लगभग तीसरे महीने उसी गंदे बाथरूम वाले कमरे में मिला प्रशांत तो उसने गले में ताबीज पहन रखा था। काले धागे से बंधा। पांव में एड़ियों के पास काले धागे बंधे थे। ‘‘ यह क्या डाल रखा है!‘‘ पूछने पर उसने बताया: ‘‘ मुझे किसी ने कुछ कर दिया है......‘‘ ‘‘ क्या! तूझे कोई कुछ क्योंकर करेगा!‘‘ ‘‘ आपको नहीं पता। मुझे किसी ने कुछ किया है। मैं इसका ईलाज करवाने जा रही हूं। यहां से तीस किलोमीटर दूर एक देवी का मंदिर है। मुझे वहीं मंदिर में रहना होगा तीन हफ्ते तक। अब मैं महीने बाद ही आऊंगी...।‘‘ ‘‘ अच्छा!‘‘ विस्मित हुआ प्रशांत। अंतिम मुलाकात में उसने भावावेश में आ कर कहा था:‘‘आप मुझ से शादी कर लो। घर में मेरी एक मां ही है। वह भी बीमार रहती है। आप जब मर्जी आया जाया करो। कोई किसी का डर नहीं,कोई बन्धन नहीं।‘‘ वह चुप रहा। ‘‘ नहीं तो प्रीपेड मोबाइल की तरह ही रहूंगी। जितना चार्ज करोगे, उतना ही चलूंगी। ऐसे मैं घर में ही रहूंगी। आप दिन मंे आओ, रात में आओ।‘‘ वह चुप रहा। ‘‘ बहुत गोरा चिट्टा बच्चा होगा हमारा, बिल्कुल आपकी तरह।‘‘ वह चुप रहा। ‘‘ आप मुझे प्यार नहीं करते.....।‘‘ ‘‘ बोलो... कुछ बोलते क्यों नहीं....‘‘ ‘‘ मैं तुमसे कम से कम पंद्रह साल बड़ा हूं...।‘‘ चुप्पी तोड़ते हुए बोला प्रशांत। ‘‘ मरद की उम्र नहीं देखते। उम्र तो औरत की देखी जाती है। औरत तो गुलाब की तरह है। एकदम खिली, खुश्बू बिखेरी, रात पंखुरी पंखुरी झर गई। मरद गेंदे का फूल। देर तक रहता है, एकदम गठीला।.. आप तो लगता है, मुझे प्यार करने लगे हो।‘‘ ‘‘ प्यार क्या होता है, पता है।‘‘ ‘‘ हां, क्यों नहीं। जो मरद औरत का पेट भर दे, वही प्यार है। चार दिनांे का खेल है यार ये। और क्या, प्यार तो मिट्टी है। जैसे चाहो, मनमर्जी से ढाल लो। मिट्टी से ही तो घर बनता है। एक घर में साजन इकट्ठे रहते हैं और क्या!‘‘ ‘‘ अच्छा! ... और....।‘‘ ‘‘ पता नीं। जैसे पंछी जोड़े में रहते हैं।‘‘ ‘‘ हां, पंछी तो रहते हैं। क्या पता बार बार वही होते हैं या अगली बार बदल जाते हैं।‘‘ ‘‘ लगते तो वही हैं, जो पिछले साल थे हालांकि देखने में सब एक से लगते हैं।‘‘ ‘‘ किसी जोड़े को पकड़ कर पक्का रंग लगाना। फिर अगले साल देखना।‘‘ कहीं खो गया प्रशांत। प्रेम एक पंख था जो उसने उछल कर पकड़ना चाहा था। उसका एक दोस्त था जो उड़ते पंख को जमीन पर गिरने से पहले अपनी मुट्ठी में पकड़ लेता और झट जेब में रख लेता।.... क्या प्रेम भी पकड़ कर जेब में रख जा सकता है... प्रेम क्या है! सर्द मौसम में धूप की एक किरण, तपती गर्मी में ठण्डी फुहार! प्रेम... एक याचना..एक प्रार्थना। क्या ऐसा प्रेम सब को मिलता है कभी। वह चुप हो गई। उसके बाद, वह सच ही महीनांे गायब रही। बहुत दिनों बाद मिली खुश्बू। वह जैसे उसे अपने भीतर समो लेना चाहता था। पहले से थोड़ी मोटी हो गई थी हालांकि उसका शरीर अभी भी पतला और इकहरा था। आंखें वैसी ही चमकती हुई। होटल का वही कमरा जिसके बाथरूम का दरवाजा उसने आते ही बंद कर दिया। वही दुगन्र्धभरा कमरा जैसे खुश्बुओं से तर बतर हो गया। ‘‘ कहां थी इतने दिन......।‘‘ भावुक हो प्रशांत ने कठिनाई से कहा। ‘‘ तुम्हारे इंतजार में।‘‘ खुश्बू जैसे फुसफुसाई। उसके छोटे से चेहरे पर बड़ी बड़ी चमकदार आंखें थीं। उसका सारा व्यक्तित्व जैसे आंखों में ही आ कर समाया था। ‘‘ तुमने कहा था, परिंदों का वही जोड़ा एक साथ रहता है।‘‘ प्रशांत ने उसका माथा सहलाते हुए पूछा। ‘‘ हां, परिंदे जोड़ी नहीं बदलते। मैंने परखा हुआ है। हमारे गांव के घर की छत्त में हर साल गौरेया अण्डे देती है। मैंने वही जोड़ा देखा। एक का पंख टूटा हुआ था। वही अगले साल इकट्ठे रह रहे थे।‘‘ ‘‘ जानवर तो ऐसे नहीं होते।‘‘ प्रशांत ने छेड़ा । ‘‘ एक पंछी होता है जिसका जोड़ा मर जाए तो वह भी अकेला रह कर मर जाता है।‘‘ ‘‘ हां, हंस भी ऐसा ही होता है। हंसिनी मर जाए तो हंस भी अकेला जी नहीं पाता।‘‘ ‘‘ जानवर तो कई मादाओं के पीछे अकेला भागता है। परिंदों में ऐसा नहीं होता। जानवर मादाओं के पीछे भागता है, तभी उसे जानवर कहते हैं..... आदमी भी जानवर है। आदमी परिंदा नहीं होता। ‘‘, कहा खुश्बू ने तो धक्का सा लगा प्रशांत को। ‘‘ तुम्हारे मंुह से बड़ी अच्छी खुश्बू आ रही है। मैगी खाई है क्या.....!‘‘ खुश्बू ने कहा। ‘‘ तुम्हारी सांसों से जो इतनी अच्छी खुश्बू आती रहती है तो क्या तुम कुछ खा कर आती हो.... तुम्हारे से हमेशा चंदन सी खुश्बू आती रहती है। तुम ने सुना है चंदन में जहर नहीं चढ़ता जबकि उसके चारों ओर इस खुश्बू के कारण सांप लिपटे रहते हैं।..... मैं भी सांप हूं। तुम चंदन हो।‘‘ उस बदबूदार कमरे में आज रोशनदान से कोई किरण नहीं आ रही थी। फिर भी वह घटिया सा कमरा खुश्बुओं के सागर में डूब उतरा रहा था। वह कमरा न हो एक महल था उस क्षण जिसके सरोवर में राजहंस तैर रहे थे। वह जैसे कह रहा था.. उजले दिन सा तुम्हारा रंग.. नहीं, तुम्हारे रंग सा उजला दिन, , तुम्हारे केश शांत स्याह रात। कभी तुम पृथ्वी बन सब सहती, कभी झरना बन झर झर बहती। कभी गहरी घाटी, कुछ न कहती। कभी नदी सी सब कह जाती। खुश्बू एकाएक फिर गायब हो गई। नंबर स्विच आॅफ आता। या ‘यह नंबर मौजूद नहीं है‘, ऐसी भरी भराई आवाज गूंजती। उसकी सहेली मुसकान तो कभी दिखी ही नहीं। यह एक अचंभा था कि कोई भी कहीं भी नजर नहीं आती थी। इतनी दुनियां, इतने लोग। जाने पहचाने, अनजाने भी। उनका कोई पता नहीं। अंततः अपने मित्र से पूछा प्रशांत ने, जिसने खुश्बू से पहली बार मिलवाया था। वह खिलखिला कर हंस दिया: ‘‘ भाईजान! किसे ढूंढ रहे हो। कौन खुश्बू और कैसी बदबू। इनके नाम नहीं होते। इनके नंबर भी नहीं होते। ये अपना नंबर हर दूसरे महीने बदल लेती हैं। इन्हें तो बाहर आते ही भूल जाना बेहतर। वैसे भी एक दो बार मिलने पर पहचान कहां रहती है। अब तो लोगों को बार बार मिलने पर भी शक्ल याद नहीं रहती। किस दुनिया में हो जनाब! भूल जाओ सब। और सेवा बताओ। कितनी खुश्बूएं चाहिएं, अभी हाजिर किए देते हैं।‘‘ ‘‘ नहीं नहीं। मैं तो ऐसे ही पूछ रहा था।‘‘ शर्माते हुए वह बोला। एक मुलाकात में वह उससे अस्सी हजार उधार मांग रही थी।... मेरे से जो लिखवाना है, लिखवा लो। मैं धीेरे धीरे भर दूंगी। वैसे मैंने दो कमरे किराए पर लिए हैं। वहां आप बिना रोकटोक आ सकते हो। प्रशांत ने फिर हूं हां कर टाल दिया था। अंतिम वह कब मिला, अब यह भी याद नहीं रहा। स्टेज पर पंजाबी नम्बर की रिहसल हो रही थी। पिछली पंक्ति में कुछ लड़के तेजी से जैसे पीटी कर रहे थे। अगली पंक्ति में लड़कियां ऊंची स्कर्ट और बनियान सी पहने बिजली की सी फुर्ती से उछल कूद मचा रहीं थीं। भरपूर साउंड से बिंदराखिया का गाना बज रहा था: ‘‘तैंनूं तीजे दिन फिलम दिखाऊंदा नी हथ्थीं छि़ल के बदाम खुआऊंदा नीं ओह्दे इश्के दा पारा है भोलि़ए कि तेरे नाल़ नाल़ बोलदा।....... तू नीं बोलदी रकाने तू नीं बोलदी, तेरे च तेरा यार बोलदा यार बोलदा।‘‘ गाने की दो पंक्तियां बजतीं, फिर बंद हो जाता। सभी दोबारा वही स्टेप्स दोहराते। प्रशांत ने देखा, बीच में खुश्बू थी। वह बड़ी फुर्ती से नाच रही थी। उसने फिर देखा, वही थी। उसकी जांघ का तिल दूर से भी साफ़ दिख रहा था। उसकी नज़रें धोखा नहीं खा सकतीं। शूटिंग की रिहसल बंद हुई तो वह तेजी से ग्रीन रूम की ओर भागा। ‘‘ अभी जो तीसरे नंबर पर लड़की नाच रही थी, उसे बुला दीजिए।‘‘ ‘‘ कौन तीसरी लड़की...‘‘ एक तगड़े आदमी ने पूछा। ‘‘ खुश्बू.... खुश्बू नाम है उसका। हमारे पहाड़ की है। प्लीज...‘‘ ‘‘ अंकलजी! किससे मिलना है।‘‘ एक मोटे आदमी झांका। ‘‘ खुश्बू... वही फुर्तीली लड़की, जो तीसरे नंबर पर नाच रही थी।‘‘ ‘‘ ओए केह्ड़ी खुश्बू ओए....अंकलजी इत्थे किसे दा नां नहीं हुंदा।‘‘ एक सरदार जी प्रकट हुए। ‘‘ पर भाई मैंने उसे देखा है और पहचाना भी है।‘‘ ‘‘ ओए! तूं बाहर निक्कल जा। बाल़ सुफेद होण लग्गे ते ढूंढ रिहा खुश्बुआं नूं। एह कम्म शरीफ आदमियां दे नईं।‘‘ तगड़े आदमी ने उसे बांह से पकड़ बाहर कर दिया। कभी उसे खुश्बू शूटिंग में ग्रुप के साथ डांस करती दिखती, कभी किसी लोक नाच में। कभी जुराबें या किचन के प्रोडक्ट बेचते तो कभी मांगने वाली औरतों के बीच हाथ फैलाए। कभी किसी अख़बार की स्टिंगर बनी नजर आती तो कभी किसी शो रूम के बाहर रिसेप्सनिस्ट। कभी लगता किसी मिनिस्टर की कार में जा रही है, कभी लगता पुलिस कस्टडी में मुंह ढांपे बैठी है। तेजी से चलती, कुछ घबराई सी, हर लड़की उसे खुश्बू लगती। उसके घुटनों से सीने तक दर्द था। सिर भारी था। शायद वीपी बढ़ गया था। फिर भी वह भीड़ में आगे बढ़ने की कोशिश में था। शहर से कुछ दूर एक स्कूल के ग्राउंड में कार्यक्रम था। मां पुण्या का प्रवचन सुनने दूर दूर से लोग आए थे। बिल्कुल सादा और गंवई बोली में प्रवचन देती थीं मा पुण्या। उनके प्रवचन में औरतों की संख्या अधिक रहती। अब स्थानीय चैनल पर भी उनके प्रवचन आने लगे थे। भीड़ सवेरे से ही जुटने लगी थी। भजन कीर्तन जारी था। भीड़ को छकाता हुआ धीरे धीरे अगली पंक्ति तक पहुंचने में सफल हो गया प्रशांत। साध्वी पुण्या के बाल कन्धों तक झूल रहे थे। सभी बाल घने और काले थे। वह बार बार बालों को हाथ से पीछे करती। भवें एकदम घनी और काली, बीच से जुड़ी र्हुइं। भरा हुआ गोल मटोल चेहरा। बड़ी बड़ी चमकदार तेजस्वी आंखें। .... जिनकी भौंहें बीच से जुड़ी हों, आंखों में चमक हो, वे कहीं न कहीं जरूर पहुंचते हैं। पल भर को लगा जैसे खुश्बू ही परिष्कृत हो कर ऊंचे आसन पर विराजमान है। हां, नाम कुछ भी हो,यह खुश्बू ही है। कभी लगता, नहीं, यह तो कोई पहुंची हुई साध्वी है। पूरे माथे पर चंदन का लेप,गले में कई मालाएं। इतनी गरिमामयी। भगवां साड़ी में तो मुख मण्डल और भी निखर गया था। प्रवचन जारी था: ‘‘जीवन का आधार हमें परिंदों से सीखना चाहिए। परिंदों की जोड़ी में एक मर जाए तो दूसरा पागल हो जाता है। बहुत बार वह मर ही जाता है। परिंदे एक परिवार में रहते हैं। कभी देखा आपने, चिड़िया का नर और मादा, दोनों इकट्ठे घांेसला बनाते हैं। तिनका तिनका लाते हैं। अण्डों को सेते हैं, बच्चों को चोग लाते हैं। उनके बच्चे असहाय होते हैं। जानवरों के बच्चों की तरह नहीं कि जन्म लेते ही खड़े हो गए और पीने खाने लगे। परिंदों के बच्चे कई दिन बाद चलने लगते हैं। परिंदें जरा सा खतरा होने पर चीखने चिल्लाने लगते हैं। बच्चे उड़ने काबिल हो जाएं तब भी उन्हें साथ लिए चलते हैं। परिंदों में जो प्रेम,सद्भाव और समझ है, व जानवरों में नहीं। कहते हैं कि परिंदों के बाद जानवर बने। यह सरासर गलत है। मैं कहती हूं परिंदें जानवरों का कहीं ज्यादा विकसित रूप है। वे जानवरों से कहीं ज्यादा समझदार और बुद्धिमान हैं। आदमी को परिंदा बनना चाहिए, जानवर नहीं।‘‘ प्रवचन खतम हुआ। आर्शीवाद के लिए लम्बी लाइन लगी। वह आरम्भ के लोगों में लगने में सफल हो गया। निकट जाते ही उसने एकटक साध्वी को देखा। तभी चंदन की खुश्बू का एक झोंका आया। पता नहीं कब वह दण्डवत् हो नीचे गिर गया। साध्वी ने अपने गुदगुदे हाथ उसके गंजे सिर पर रख दिए। आंसू की एक बूंद उसके माथे पर गिरी। उसने आंखें मूंद लीं। तभी एक तगड़े सेवक ने उसे बांह से पकड़ उठा दिया और कहा: ‘‘ आप धन्य हुए श्रीमान!‘‘

 

सुदर्शन वशिष्ठ 24 सितम्बर 1949 को पालमुपर (हिमाचल) में जन्म। 125 से अधिक पुस्तकों का संपादन/लेखन। वरिष्ठ कथाकार। नौ कहानी संग्रह, दो उपन्यास, दो नाटक, चार काव्य संकलन, एक व्यग्ंय संग्रह। चुनींदा कहानियों के पांच संकलन। हिमाचल की संस्कृति पर विशेष लेखन में ‘‘हिमालय गाथा’’ नाम से छः खण्डों में पुस्तक श्रृंखला के अतिरिक्त संस्कृति व यात्रा पर बीस पुस्तकें। पांच कहानी संग्रह और दो काव्य संकलनों के अलावा सरकारी सेवा के दौरान सत्तर पुस्तकों का सपंादन। ई-बुक्स: कथा कहती कहानियां (कहानी संग्रह), औरतें (काव्य संकलन), डायरी के पन्ने (नाटक), साहित्य में आतंकवाद (व्यंग्य), हिमाचल की लोक कथाएं। जम्मू अकादमी, हिमाचल अकादमी, साहित्य कला परिषद् (दिल्ली प्रशासन) तथा व्यंग्य यात्रा सहित कई स्वैच्छिक संस्थाओं द्वारा साहित्य सेवा के लिए पुरस्कृत। हाल ही में हिमाचल अकादमी से ‘‘जो देख रहा हूं’’ काव्य संकलन पुरस्कृत। कई रचनाओं का भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद। कथा साहित्य तथा समग्र लेखन पर हिमाचल तथा बाहर के विश्वविद्यालयों से दस एम0फिल0 व पीएच0डी0। पूर्व उपाध्यक्ष/सचिव हिमाचल अकादमी तथा उप निदेशक संस्कृति विभाग। पूर्व सदस्य साहित्य अकादेमी, दुष्यंत कुमार पांडुलिपि संग्रहालय भोपाल। वर्तमान सदस्यः राज्य संग्रहालय सोसाइटी शिमला, आकाशवाणी सलाहकार समिति, विद्याश्री न्यास भोपाल। पूर्व फैलो : राष्ट्रीय इतिहास अनुसंधान परिषद्। सीनियर फैलो: संस्कृति मन्त्रालय भारत सरकार।

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