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  • ई-कल्पना

मौन



सुहासिनी शांत रहकर अपने काम में मग्न थी। रोज की तरह सुबह उठकर नहाना, पूजा करना, घर की साफ-सफाई करके बेटे की पसंद का खाना बनाना। सुहासिनी के पति को गुजरे करीब 20 वर्ष हो गये। पति की जुदाई वह बर्दाश्त न कर सकी और सदमे से उसकी आवाज चली गई। पति की मृत्यु के समय उसके दो बच्चे, एक बेटी पांच वर्ष और बेटा दो वर्ष का था। बड़ी कठिनाईयों का सामना करते हुये उसने दोनों बच्चों को पाल-पोषकर बड़ा किया। अब बेटी की शादी हो चुकी है और बेटा इंजीनियर बन गया है।

दोनों बच्चों ने हर पल माँ का साथ दिया, माँ की परेशानियों को समझा और मेहनत और लगन से अपने पैरों पर खड़े हो गये। बेटा माँ को बेहद चाहता है और माँ का हर संभव इलाज करा रहा है। आज वह एक बहुत योग्य डॉक्टर को दिखाने जा रहा है। डॉक्टर को दिखाने के बाद वह परेशान सा है और माँ की गोद में सिर रखकर पूछता है - ”माँ डॉक्टर साहब कह रहे थे आप बिल्कुल ठीक हैं और सही हो सकती हैं, आप बोल सकती हैं, आपके मन में कोई ऐसी बात है जो आपको बोलने से रोक रही है। माँ आज आपको बताना होगा कि आपको कौन-सा गम और डर है, किस सदमे की वजह से आपने बोलना छोड़ दिया। माँ आज आपको सब कुछ बताना होगा। मैं थक गया हूँ, परेशान हो गया हूँ, मेरी सारी खुशियाँ छिन गई हैं, मैं आपको इस हाल में नहीं देख सकता, माँ बताइये, आप क्यों चुप है?“

बेटे की की बातों को सुनकर सुहासिनी की आँखों से अश्रु बहने लगते है। वह कोई जवाब नहीं देती और फिर उन्हीं पुरानी यादों में खो जाती है।


सुहासिनी के पति नरेन्द्र एक दृढ़ इंसान थे, उन्हें हमेशा नियम में बंधा रहना पंसद था। वह सफाई पसंद इंसान थे। उन्हें ज्यादा हँसना, बोलना, घूमना, मौज-मस्ती करना बिल्कुल पसंद नहीं था। घर में उन्हीं का शासन चलता था। सुहासिनी की पसंद-नापसंद की कोई जगह नहीं थी। सुहासिनी को पति के पसंद के कपड़े पहनने पड़ते थे। उसे हर समय खाने-पीने, उठने-बैठने, बोलने के बेहतर तौर-तरीकों का पालन करना पड़ता था। नरेन्द्र चाहता था कि घर हर समय चमकता रहे, कोई सामान अस्त-व्यस्त न रहे। सुहासिनी हर वक्त काम में लगी रहती थी कि किसी तरह नरेन्द्र खुश रहें। अपनी स्वयं की पहचान को वह न जाने कहां खो चुकी थी।

बच्चों की भली-भाँति परवरिश करना, उन्हें अच्छी आदतें सिखाना, उनकी पढ़ाई, उनके स्वास्थ्य का ध्यान रखना, सभी जिम्मेदारियां सुहासिनी को उठानी पड़ती। घर में मेहमानों का आना-जाना लगा रहता, जिनकी सुख-सुविधाओं का ध्यान सुहासिनी को करना पड़ता। नरेन्द्र को शुगर और हृदय की बीमारी थी। सुहासिनी को उनके स्वास्थ्य और खान-पान पर भी बहुत ध्यान देना पड़ता था। वह सुबह से रात तक काम में लगी रहती। वह न अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखती न आराम के लिये वक्त निकाल पाती। वह दिन-रात चक्की की तरह पिसती रहती।

इतना सब करने के बाद उसे हर वक्त पति की डाँट और कटु वचन सुनने पड़ते। वह रोज अच्छा करने की कोशिश करती और सोचती आज नरेन्द्र उसके काम से खुश होकर उससे प्यार से बात करेंगे पर उसे अक्सर निराशा मिलती। वह हमेशा अपमान सह लेती, कभी कुछ न कहती। वह बोझ की तरह जिदंगी काट रही थी। वह सोचती कि नरेन्द्र को किस तरह की पत्नी चाहिये थी जो पूर्ण होती, जिसमें कोई अवगुण न होता और नरेन्द्र उससे खुश रहते। उसकी हर कोशिश नाकाम हो जाती। उसके पति उसका बिल्कुल ध्यान न रखते। वह क्या खाती-पीती है, कैसे जी रही है, उसकी पसंद-नापसंद क्या है, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं था। उसे लगता कि वह पति कम बॉस ज्यादा है।

सुहासिनी पुरानी यादों में खोई थी और बेटा बार-बार कह रहा था, माँ एक बार बोल दो। सुहासिनी जब किसी पति-पत्नी को प्यार से बोलते देखती तो सोचती कि यह स्त्री कितनी भाग्यशाली है, जो इसे पति का प्रेम मिला। उसके पति तो कभी भी सीधे मुँह बात नहीं करते, हर वक्त कमियां ही ढूँढ़ते रहते है। उसकी जीने की इच्छा खत्म होती जा रही है। वह जिदंगी को किसी तरह काट रही है।

एक दिन उसके पति ऑफिस से जल्दी घर आ जाते हैं। उन्हें घर बिखरा और फैला दिखता है, उन्हें गुस्सा लगती है और वह सुहासिनी पर चिल्लाने लगते हैं। वह कहते है तुम किसी काम की नहीं हो, तुम्हें कोई काम नहीं आता, तुम केवल काम चलाऊ काम करती हों। न तुम बच्चों को ठीक से रख पाती हो, न घर को सही से रख पाती हो, न खुद ढंग से रहती हो। मैं तुमसे नफरत करता हूँ। मैं तुमसे कभी खुश नहीं रह सकता। तुमसे अच्छी गंवार औरते हैं जो कम से कम अपने पति का ख्याल रखती है, तुम्हें मैं सिर्फ बोझ की तरह ढो रहा हूँ। मेरी किस्मत खराब थी जो तुम जैसी बेकार औरत से मेरा पाला पड़ा।

आज सुहासिनी की तबियत ठीक नहीं थी इसलिये घर फैला था। पति के इतने ताने सुनने के बाद उसका सब्र टूट गया और वह भी बोल पड़ी - “मैं भी तुमसे अब ऊब गई हूँ, तुमने मेरी ख्वाबइशें, इच्छायें, हँसी, खुशियाँ सब छीन ली है। तुमने आज तक प्यार के दो बोल मुझसे नहीं कहें। तुमने मुझे सिर्फ दासी की तरह समझा, तुमने दुःख और आँसुओं के सिवा मुझे दिया ही क्या है? तुम्हें सिर्फ मेरी कमियां ही दिखाई देती हैं, तुम मुझे इंसान नहीं जानवर समझते हों। मैं हमेशा तुम्हें खुश रखने की कोशिश करती हूँ पर तुम मुझे एक मीठी मुस्कान भी न दे सकें।”

सुहासिनी रोते हुये कहती है, “मैं इस जिन्दगी से थक गई हूँ। मैं केवल अपने बच्चों के लिये जी रही हूँ। मुझे जिन्दगी से कोई प्यार नहीं है। तुम मेरे ऊपर सिर्फ एक उपकार कर दो, मुझे और मेरे बच्चों को जंगल में छोड़ आओ। मैं अब जीना नहीं चाहती। मैं तुम्हारी नफरत लेकर नहीं जी सकती, मैं थक कई हूँ, मेरे अंदर अब और सहने की ताकत नहीं बची है। मैं मर-मर कर जी रही हूँ।”

नरेन्द्र सुहासिनी की बातें सुनकर अवाक् रह जाता है। वह सपने में भी नहीं सोच सकता था कि वह सुहासिनी पर जुल्म ढा रहा है और वह जिन्दगी से हार चुकी है। नरेन्द्र को गहरा सदमा लगता है और उसके सीने में दर्द शुरू हो जाता है। सुहासिनी सब कुछ भूलकर नरेन्द्र को संभालने लगती है और कहती है, “मैंने सब कुछ गलत कहा, तुम्हारा कोई दोष नहीं है, सारी गलती मेरी है, मुझे माफ कर दो।”

पर नरेन्द्र के प्राण निकल चुके थे। सुहासिनी अवाक् रह जाती है और चीखती है, “नहीं ये क्या हो गया।“



बेटा माँ को झकझोरते हुए कहता है, "माँ बोलो, तुम बोल सकती हो।"

ख्यालों में डूबी सुहासिनी कहती है, “नहीं ! मुझे मौन रहने दो। इससे पहले कि फिर दुबारा कोई अनर्थ हो, मुझे मौन रहने दो।“


 

लेखक परिचय - डॉ किरण द्विवेदी

नाम  : डॉ किरन

जन्म तिथि: 22  दिसम्बर 1971

जन्म स्थान : ग्राम कलिकापुर, ज़िला प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश

शिक्षा : डॉक्टरेट। परास्नातक, प्राणी विज्ञान

व्यवसाय : अध्यापन (प्रवक्ता प्राणी विज्ञान)।टेक्नो ग्रुप ऑफ हायर स्टाडीज, अनौरा, लखनऊ

प्रकाशन: प्रथम कृति-खोजो नये शिखर।

समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन

अभिरुचि: पठन-पाठन, लेखन, समाज सेवा

यूट्यूब चैनल: Pahal by kiran

सम्पर्क : 5/337 विकास नगर, लखनऊ


 
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