ब्लैक गर्ल
- अनुपमा तिवारी
- 30 अप्रैल
- 7 मिनट पठन

एक बेटे और दो बेटियों के बाद जन्मी थी मोहना। अपने माता – पिता की चौथी संतान। एक बेटा परिवार को नाकाफ़ी लग रहा था। रुचि की सासूमाँ बात – बात में कह देतीं कि “एक आँख का क्या भरोसा?” तो दूसरी आँख की ख्वाहिश ने एक के बाद एक कर के तीन बेटियाँ ला दीं। मोहना को यह नाम उसकी माँ ने बड़े लाड़ से दिया। जिसका दोनों बड़ी और छोटी बुआ ने खूब मजाक बनाया। मोहना, मन को मोहने वाली! सुना तूने नाम? तीसरी बेटी हुई है और वह भी काली कलूटी तब रखा है ये नाम! बेटा होता तो जाने क्या नाम रखती?
मोहना सुंदर नैननक्श की गहरा साँवले रंग की लड़की थी। घर – परिवार में उसके रंग के चलते जो भी देखता तो कुछ न कुछ ताना मार ही देता “यह तुम्हारे सब बच्चों से अलग है न!“ उनका इशारा उसके काले रंग पर ही होता। माँ को तो सभी बच्चे प्यारे लगते इसलिए माँ भी किसी – किसी के ताने का हँसकर जवाब देती कि जब यह पेट में थी तब मैं मद्रास चली गई थी।
कभी – कभी मौसी आतीं तो माँ कहतीं मेरी ये छोरी काली है।
मौसी मीठी झिड़की झिड़कते हुए कहतीं कहाँ है काली? कैसा कटवाँ चेहरा है, सुग्गे - सी तीखी नाक है देखना बड़ी हो के कैसी सुंदर लगेगी। माँ के कलेजे पर थोड़ी ठंडक पड़ती।
मोहना अब किशोर उम्र में पहुँच रही थी। बेटा सुनील कॉलेज में पढ़ रहा था। उसकी पढ़ाई सभी के लिए बहुत महत्वपूर्ण थी। नीना और उमा भी दसवीं और आठवीं में पहुँच चुकी उनके गोरे रंग के कारण उनका दाखिला गर्ल्स स्कूल में ही करवाया गया। खूब पहरों में नीना और उमा की कॉलेज तक की शिक्षा प्राइवेट ही पूरी हुई। समय आने पर ये गोरी, सुंदर, सुशील कन्याएँ अपना – अपना नंबर आने पर ब्याह दी गईं।
मोहना के लिए माँ सोचतीं ये तो काली है इसे कौन लड़का छेड़ेगा? इसलिए उसका को - एड स्कूल में दाखिला करवाया दूसरा माँ को यह भी लगता था कि यह डॉक्टर बन जाएगी तो इसे तो लोग हाथों में ले जाएँगे। अब यही बाजार हाट के कामों के लिए भी जाती। घर से बाहर निकलने से सहेलियों के साथ अब वह साइकिल सीखने लगी। साइकिल सीख लेने पर तो अब सब्जी लाने, राशन लाने, पोस्ट ऑफिस जाने जैसे सभी काम भी उसे ही करने पड़ते।
घर में कभी – कभी गुस्से में माँ और बड़े भाई - बहन उसे ‘कल्लो’ विशेषण से भी सुशोभित कर देते। कभी – कभी पड़ौस का लड़का गुड्डू भी चिढ़ाता
‘काली कलूटी, बैंगन लूटी,
बड़े बाजार में धम – धम कूटी।
मोहना कौने में घुस – घुसकर रोती। कभी – कभी माँ कहतीं तू भी चिढ़ा दिया कर लेकिन मोहना को तो पता था कि वह यह तो नहीं बोल सकती न! वह तो गोरा है। जब वह गुड्डू की माँ से शिकायत करती तो वह बेशर्मी से वहीं खड़ा – खड़ा शरारती स्वर में जवाब में देता। “मैं तुझे थोड़े ही कह रहा था मैं तो ऐसे ही बोल रहा था।“ लेकिन मोहना समझ जाती कि यह उसे ही सुनाया जा रहा है।
अब किशोर उम्र से ही मोहना की माँ और पिता को उसके रंग को ले कर चिंता सताने लगी कि इसकी शादी कितनी मुश्किल से होगी। उस समय ‘पीयर्स’ साबुन और ‘फेयर एण्ड लवली’ क्रीम ने बाजार में धमक आ चुकी थी। पापा मोहना के लिए पीयर्स साबुन और फेयर एण्ड लवली क्रीम के कर आए। घर में सब जानते थे कि ये केवल मोहना के लिए ही हैँ क्योंकि बाकी सब तो गोरे हैं। मोहना सोचती मैं कहीं जाऊँगी तब पीयर्स से नहाऊँगी और तभी यह क्रीम लगाऊँगी। अब स्कूल तो रोज ही जाती हूँ स्कूल के लिए इसे क्यों लगाना? स्कूल के अलावा वह खास जगह जाती भी कहाँ थी? यूँ ये साबुन और क्रीम सालों अलमारी में सुरक्षित रखे रहते।
सुनील की नौकरी लगने के बाद घर में स्कूटर आया। स्कूटर पापा चलाते, सुनील चलाता। पर, अब मोहना के भी पर निकलने लगे। उसे लगने लगा कि वह साइकिल चला सकती है तो स्कूटर भी चला सकती है, वह पोस्ट ऑफिस के काम कर सकती है, वह लड़कों के साथ पढ़ सकती है तो अब वह बहुत कुछ और भी कर सकती है। उसने बारहवीं के बाद नीट के परीक्षा दी। पहले चांस में वह दस नंबर से रह गई। उसे लगा कि यदि उसने थोड़ी और मेहनत की तो वह अगले चांस में जरूर से निकल जाएगी। अगले साल नीट की परीक्षा में उसने राज्य में पंद्रहवाँ स्थान प्राप्त किया और जयपुर के सवाई मानसिह मेडिकल कॉलेज से उसने एम. बी. बी. एस किया।
अब पापा घर में एक ही रट लगाए रहते “हमारे रहते हुए इसके भी हाथ पीले हो जाएँ फिर तो हम गंगाजी नहा जाएंगे, सारी जिम्मेदारियाँ पूरी हो जाएंगी। पढ़ाई अपनी जगह है लेकिन बेटा शादी ब्याह भी तो जरूरी है। हर माँ – बाप चाहते हैं उनके बच्चों के घर बस जाएँ। यूँ पापा के ये अपेक्षा भरे वचन जब – तब हर दिन घर में चलने लगे।“
रविवार का दिन था पापा मैट्रिमोनियल वाले कॉलम में आँखेँ गड़ाए बरामदे में अखबार पढ़ रहे थे। उनकी नज़र ग्रूम के कॉलम पर पड़ी। 28 वर्षीय, सुंदर, सुशील छह फुटा लड़का पुलिस अधिकारी था। एक नज़र में पापा को वह सही लगा। बेटी डॉक्टर थी उसे कौन रिजेक्ट कर सकता था इसी आत्मविश्वास से भरकर उन्होंने पेपर के बॉक्स के नंबर पर चिट्ठी डाल दी। चिट्ठी पत्री से बात आगे बढ़ी। लड़के का परिवार देहरादून में बसा था। लड़के का नाम था ‘मोहन।’
मोहना एक साथ मन – ही - मन बोलती मोहन – मोहना। अरे! कितना सुंदर लगेगा हम दोनों का एक जैसा नाम! वह उसे बिना देखे ही एक अलग से रोमांच से भरने लगी। शुरुआती पारिवारिक बातचीत थी इसलिए उनके बीच अभी तक कोई बातचीत नहीं हुई थी। मोहन के पिता ने जयपुर में रहने वाले उसके चाचा को कह दिया कि अरे! विशु, एक बार तू देख आ लड़की, फिर हम आते हैं देखने।
अगले रविवार सुबह मोहना नाइट ड्यूटी से लौटी थी। थोड़ी थकी, थोड़ी अस्तव्यस्त। मोहन के चाचा के आने से पहले उसने बड़ी बहन की लाई कोटा डोरिया की हल्के प्याज़ी कलर की साड़ी, कंटरास्ट ब्लाउज़ के साथ पहनी। ढीला – ढीला जूड़ा बनाया उसमें रातरानी की भीनी – भीनी खुश्बू का गुच्छा खोंसा और कानों में मोती के ईयरिंग पहनकर तैयार हो गई। एक नजर ड्रेसिंग टेबिल पर लगे शीशे पर डाली तो जैसे खुद पर ही मोहित हो गई।
दोपहर का वक्त था। घर के बाहर एक सेंट्रो आ कर रुकी। चुस्त और आकर्षक व्यक्तित्व के मोहन के चाचा ने कॉलबेल बजाई। पापा तो बस जैसे उनके इंतजार में गेट की ओर ही देख रहे थे। उन्होंने अपनी सहज मुस्कान और खुशी से लपककर स्वागत में उनकी ओर अपना हाथ बढ़ा दिया।
औपचारिक बातचीत के बाद मोहना को ड्रॉइंगरूम में माँ ने बुलाया। चाचा ने सोफ़े पर बैठने के लिए इशारा करते हुए बैठने के लिए कहा। वह सोफ़े पर सामने माँ के पास बैठ गई.
नेमा पहले पानी लाया और फिर चाय के साथ मीठा – नमकीन। मोटेतौर पर तो एकदूसरे के परिवारों और लड़के – लड़की की शिक्षा और नौकरी के बारे में पता चल ही गया था। माहौल में हलचल बनाने के लिए थोड़ी मौसम और समाज की स्थितियों की बातें चल निकलीं। अब पापा ने मोहना को अंदर जाने को कहते हुए आगे के बारे में बात करनी शुरु की। पहला प्रश्न यही था कि बच्ची कैसी लगी?
चाचा ने कहा अभी भाईसाहब और परिवार भी देख लें।
लेकिन, पापा शुरुआती तौर पर उनके हाव – भाव पकड़ते हुए बोले हाँ, वो तो देख ही लेंगे। आप तो बताइए आपको बच्ची कैसी लगी?
चाचा बोले “देखिए, दहेज वगैरह की तो इतनी कोई बात नहीं है। मोहन और भाईसाहब दोनों ही अधिकारी हैं, घर में कोई कमी है नहीं। आप बुरा न मानें तो एक बात कहूँ कि बस उनकी एक ही शर्त है कि उन्हें फेयर लड़की चाहिए। आपकी बिटिया का रंग थोड़ा दबता हुआ है। उनके पूरे परिवार में सभी का रंग काफी साफ है।“
पापा क्या कहते? बोले अरे नहीं! इसमें बुरा मानने के क्या बात है, कहकर बस चुप हो गए। पाँच – सात मिनिट अब सभी को भारी लग रहे थे लेकिन अचानक से उठना भी सबको अजीब लगता इसलिए औपचारिक सी बातें उनका साथ देती रहीं।
चाचा के जाने के बाद मोहना इस परीक्षा के रिजल्ट के इंतजार में थीं। पापा ने खुद ही उसे ड्रॉइंगरूम में बुलाकर चाचा का किया फैंसला सुना दिया।
दो चार दिन गुजरे। अब मोहना के दिमाग में एम. बी. बी. एस के बाद पी. जी करने की तैयारी चलने लगी. पापा कहते पी. जी करनी ही है तो गाइनी में कर या पीडियाट्रिक्स में। ये कॉर्डियो, यूरो, ऑर्थो, न्यूरो, साइको तो मुझे लड़कियों के लिए समझ में नहीं आते। मोहना, साइको में ही पी. जी करने के लिए जिद्द कर रही थी। पापा को उसकी यह जिद्द अच्छी नहीं लग रही थी वे बोले पागल आएंगे तेरे पास, पागल। कोई पागल थप्पड़ भी मार दे। पागल का क्या भरोसा ? मोहना अपनी बात जोर दे कर बोली कि पापा, आपको यहाँ – वहाँ, बिखरे – बिखरे पागल दिखाई नहीं देते ?
पापा समझो! थप्पड़ वही नहीं होता तो हाथ से गाल पर पड़ता है। कितने ही थप्पड़ हम रोज खाते हैं और इन भले लोगों से थप्पड़ खाया आदमी रो भी नहीं पाता। आपको क्या लगता है जो डॉक्टर के पास जो पागल आता है वही पागल होता है? अपने आस – पास देखो पापा, हमारे आस – पास कितने तरह – तरह के पागल घूम रहे हैं।
पापा बस चुप थे उनके सामने मोहन के चाचा के आने की रील आँखों के सामने घूम गई।
अंदर माँ को फोन पर उमा रोते – रोते कह रही थी कि मम्मी कुछ भी हो सकता है इनको अटैक आया है। मोहना ने जल्दी से कपड़े बदले और सफेद कोट गले में डाला और स्कूटर पर फुर्र हो गई। माँ और पापा की आँखों में मोहना के सफेद कोट की चमक झिलमिला रही थी।
लेखक परिचय - अनुपमा तिवारी

ई-मेल: anupamatiwari91@gmail.com
शुक्रिया।