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  • सरला रवीन्द्र

दिवास्वप्न

जब तक मैं आपके पास रही कभी भी अपने मन की बात आपसे नहीं कही. ऐसा नहीं था कि कहना चाहा नहीं, परंतु कह नही सकी. कहने का साहस ही नहीं हुआ. हर दूसरे-चौथे रोज़ मैं आपके घर जाती, आपसे बात करने का इरादा भी मैंने कई बार किया था, पर हर बार...

यों आपसे मुझे कहना भी क्या था ? आप पूर्ण थे. उस पूर्णता में मेरा कोई स्थान नहीं था. फिर भी ऐसा लगता कि सब कुछ कह देने के बाद अपने-आपको नकारने की जिस दुखद स्थिति में मैं फँसी हूँ, उससे उबर जाऊँगी. किन्तु संस्कार सदैव जकड़ लेते थे वाणी को.

पहली बार आपसे मुलाकात आपके घर पर ही हुई थी. पापा मुझे आपके पास ले गये थे. अभी मुझे कुछ ही दिन हुए थे आपके शहर में आये. पापा कुछ महीने पहले से रह रहे थे. एक ही कॉलोनी में रहने कारण आपका व पापा का परिचय-संबंध तो बन ही गया था. पापा को यहाँ एक फैक्टरी में ‘टेक्निकल डायरेक्टर’ की काफी अच्छी पोस्ट मिल गयी थी. इसीलिए बीच सेशन में हम लोगों को आगरा में छोड़कर पापा को यहाँ आना पड़ा था. मेरा इण्टर फ़ाइनल था और अब बहन रीना इण्टर फ़ाइनल और भाई दीपक हाई स्कूल में आ गये थे. इसलिए मम्मी इस साल भी नहीं आ सकीं थीं. मुझे पापा ने बी० ए० में एडमीशन दिलाने के लिए अपने पास बुला लिया था, जिससे अगले साल मम्मी और बहन-भाई आसानी से यहाँ आ सकें.

आपका काफी अच्छे प्रोफेसरों में नाम था. शहर में काफ़ी लोग आपको जानते थे, अच्छी रेपुटेशन थी. इसी से पापा आपसे सलाह-मशविरा करने के लिए कि मुझे किस कॉलेज में एडमीशन लेना चाहिए जहाँ मेरा कांबिनेशन भी मिल जाये व पढ़ाई भी अच्छी हो, गये थे. शहर यद्यपि आगरा के मुकाबले छोटा था, पर इतना छोटा भी नहीं कि कुछ सोचना ही न पड़े. चार कॉलेज थे.

आप और पापा बहुत देर तक बातें करते रहे. केवल मेरे एडमीशन के बारे में ही नहीं बल्कि हिंदी-इंग्लिश के दिग्गज लेखकों के विषय में भी. पापा यों तो टेक्निकल साइड में थे, पर उन्हें लिटरेचर में रूचि बहुत थी. जो भी समय मिलता पढने में ही बिताते.

बहुत देर बाद आपका ध्यान मेरी ओर गया था. शायद मेरी चुप्पी की ओर. और कुछ बात करने की गरज़ से आपने पूछा था, 'आगरा से यहाँ आकर तो बहुत बुरा लगता होगा. वहाँ चाँदनी रातों में चमकता ताज़, कलकल करती यमुना की नीली धारा और यहाँ... हरियाणा का तो कोई भी शहर नदी के किनारे नहीं है. फिर यह शहर तो बिलकुल ही सूखा है.’

'मुझे तो सबसे ज्यादा मम्मी की याद आती है', कहते हुए मेरा गला कुछ भर आया था. पर मेरा पहला अवसर था, जब मैं भाई-बहन और मम्मी के बिना अकेली रह रही थी. आप आगे बढ़ आये थे मेरे पास. हम लोग वापस जाने के लिए खड़े हो चुके थे. मेरे कंधे थपथपाते हुए आपने कहा था –‘यहाँ आ जाना जब भी मन उदास हो, अपना घर समझकर.' आपके स्पर्श में मुझे आत्मीयता की झलक मिली थी और मैं अभिभूत हो गयी थी. आपके बात करने के ढंग से मैं बहुत प्रभावित हुई थी. गेट तक छोड़ने आये थे आप और मैं गेट के बाहर यह निश्चय करके निकली थी कि एम० डी० कॉलेज में ही एडमीशन लूँगी, जहाँ आप पढ़ाते हैं.

कॉलेज में दाख़िला होते ही मेरा और आपका एक रिश्ता क़ायम हो गया था. संबोधन के लिए किसी प्रकार की दुविधा नहीं थी. 'सर', यों तब तक मैं दुविधा की स्थिति में आई भी कहाँ थी. दुविधाएँ तो बाद के उन वर्षों में उपजीं थीं जब मैं आपकी स्टूडेंट रही थी.

शाम को पापा सात बजे से पहले फैक्टरी से नहीं आ पाते थे और मैं तो कॉलेज से ढाई-तीन बजे ही फ्री हो जाती थी. इसलिए शाम का समय काटे नहीं कटता था. कुछ समय फ्रेंड्स में बिताती. कभी-कभी आपके घर भी चली जाती थी, याद होगा आपको.

आंटी - हाँ, आपकी पत्नी को मैं आंटी ही कहती थी, मुझे बहुत प्यार करतीं. मम्मी नहीं थीं न. तो मेरा बहुत ख्याल रहता उन्हें. मैं आपसे व आंटी से गप्पें मारती, बच्चों से खेलती और कुछ देर बाद लौट आती.

पापा ने देखा मैं अपना समय यों ही बर्बाद करती हूँ. बीच-बीच आपके पास जाती तो रहती ही हूँ, क्यों न इंग्लिश लिटरेचर में आपसे कुछ हेल्प करने को कह दें. और फिर पापा एक दिन मेरे साथ आपके घर आये थे. बड़े तपाक से मिले आप. 'आइये, आइये, चीफ साहब, कैसे तकलीफ़ की.' यहाँ सब पापा को 'चीफ साहब' ही कहते थे, क्योंकि फैक्टरी में सबसे बड़ी पोस्ट पर थे वे.

'इसकी रिपोर्ट जानने के लिए ही आया हूँ. कैसी चल रही है. मुझे तो समय नहीं मिल पाता कुछ देखने का.' पापा ने अपनी सफाई दी.

'चल तो अच्छी रही है विनीता: और फिर ज़रूरत हो कैसी भी हेल्प की तो मैं तो हूँ ही.' पापा की बात आपने स्वयं ही कह दी थी. साथ ही यह भी जोड़ दिया था, 'कल से रोज़ पाँच बजे तुम पढने आओगी, समझीं'. और इस तरह आपके घर आने का अवसर ही नहीं, बंधन भी हो गया था.

जैसे ही पढने के लिए मैं आपके पास पहुँचती, आंटी पास-पडोस निपटाने चली जातीं. आप बहुत तन्मय होकर बहुत स्पष्ट आवाज़ में पढ़ाते जैसे पूरी क्लास को पढ़ा रहे हों. पढ़ाते समय तो आप अपने-आपको भी भूल जाते. मैं बहुत ध्यान से सुनती रहती या कहूँ देखती रहती तो ज्यादा ठीक होगा. पता नहीं आपके पढ़ाने के ढंग से मैं प्रभावित थी या किताब के शब्दों पर फिरती आपकी लंबी-पतली उँगलियाँ मुझे आकर्षित करतीं या आपके काले घुँघराले बाल. पर आपके पास बैठकर पढना मुझे अच्छा लगता था. हर समय आपके पास रहने का जी चाहता, पर यह संभव कहाँ था.

एक ही किताब होती. उसको देखने के लिए एक ही सोफे पर मुझे और आपको बैठना पड़ता. किताब के अक्षरों को देखने के लिए कई बार मैं इतना आगे झुक आती कि मेरे कटे बाल आपके सीने व चेहरे से टकराने लगते. आप कुछ अधिक आगे झुककर किताब को देखने की कोशिश करते. आपका वह मेरे ऊपर झुकना मुझे अच्छा लगता. ऐसा लगता आपको भी यह सब कुछ अच्छा लग रहा हो. पर आप जल्दी ही सचेत हो जाते और कहते - 'विनीता, इतने आगे झुक आओगी तो कैसे देखूँगा.' पर इस कहने में कोई नाराज़गी नहीं होती. और मैं फिर पढ़ने में लग जाती और आप पढ़ाने में.

आपसे मिलने में मुझे कोई हिचक तो थी नहीं और न कोई बंधन ही. आप मेरे प्रोफेसर थे और अब तक पापा के अच्छे दोस्त भी बन गये थे, रुचियाँ एक होने के कारण. कह नहीं सकती, 'सर' , रोज़-रोज़ मिलने से प्यार का वह बंधन बँध गया था या मन का बंधन रोज़ मिलने को प्रेरित करता. घर पर आपकी याद मन-प्राण पर इतनी छाई रहती कि रात में नींद हराम हो जाती. पता नहीं आप इसे क्या कहेंगे या सॉयकोलाजी के विद्वान् इसे क्या नाम देंगे.

एक बार मैंने अपनी फास्ट फ्रेंड मीनाक्षी से कहा था, 'मिनी, सर मुझे इतने अच्छे लगते हैं कि यदि उनकी पत्नी न होतीं तो मैं उनसे विवाह कर लेती.'

'पागल हो गयी है; चालीस साल के बुढ़ऊ में क्या देखा है तूने.' उसने इस बात को यों ही मज़ाक समझा होगा, पर मुझे बहुत बुरा लगा था और आज भी मुझे यही लगता है. प्रेम-संबंध की प्रगाढ़ता को उम्र का फासला कम नहीं करता. प्रेम की कोई उमर होती है.

ऐसा नहीं था, 'सर' कि मैं पहले दिन से ही आपको इसी रूप में प्यार करती थी. प्यार के रूप तो कितने ही होते हैं. पति का पत्नी से, भाई का बहिन से, पिता का पुत्री से, प्रेमी का प्रेमिका से. और फिर हर संबंध प्यार को एक अलग संज्ञा देता है. वैसा ही अलग-सा वह प्यार था मेरा - एक विद्यार्थी का अपने गुरू के प्रति. इतना अच्छा पढाते थे आप और साथ ही क्लास को बोर भी नहीं होने देते थे. आपकी इसी विशेषता से तो मैं अभिभूत थी.

पापा के पास अकेले रहने से मैं सिरचढ़ी तो थी ही बहुत. आपसे भी निस्संकोच हो गयी थी. हर बात में आपसे ज़िद करती. पता नहीं आपको याद है या नहीं. इतने विद्यार्थी हर साल आते-जाते हैं कि उनकी हर बात, हर घटना को याद रखना आपके लिए तो मुश्किल ही रहा होगा. परन्तु मेरे जीवन का तो एक नया पृष्ठ खुला था उस दिन. मैं कैसे भूल सकती हूँ वह क्षण जब एक बार सेमिनार में कराए गये एक 'एसे' पर क्लास में ही ज्यादा नम्बर देने की ज़िद की थी मैंने. पर आपने नम्बर नहीं बढाये थे. शाम को घर पर पढ़ते समय रूठी बैठी रही थी मैं. आपने मेरा रूठना जान लिया था और कहा था, विनी , नाराज़ हो ! लाओ, कॉपी दो, ए-प्लस किये देता हूँ. क्लास में यों ज़िद करना ठीक नहीं. और लडके-लडकियाँ क्या सोचेंगे.'

'सर', वही पहला दिन था, जब मेरे मन में आपसे मेरा संबंध बदल गया था. मेरा और आपका कोई ऐसा भी संबंध भी हो सकता है, जिसके बारे में लोग सोचें. और उस एक क्षण में मैं पूर्ण युवती बन गयी थी. कहीं बहुत गहराई में पड़े एक अनजानी भावना के बीज अंकुरित हो आये थे. एक अनचीन्ही राह खुल गयी थी मेरे मन में.

'सर', अब इतने वर्षों बाद यह सब जानकर आप इसे मेरा पागलपन ही कहेंगे और शायद डर भी जाएँ कि कहीं आपकी जवान होती बेटी किसी ऐसे मोह में न फँस जाये . किन्तु मैं उस समय एक ऐसी मानसिक उलझन में फँसी थी, जिससे निकलना भी चाहती थी और उसमें फँसी अपने को बहुत संतुष्ट भी पाती.

कभी-कभी आंटी मुझे खाने पर बुला लेतीं थीं क्योंकि मम्मी नहीं थीं न. खाने के बाद आपके दोनों बच्चे - बबली और गुड्डू हाथ धोने के लिए पहले लपकते थे. मैं हमेशा ही आपके बाद बेसिन पर जाती. आंटी और आप शायद यही समझते होंगे कि ऐसा मैं आपके सम्मान में करती हूँ. पर वह मेरी चालाकी होती. पता नहीं आपने जाना था या नहीं. आपके मुँह पोंछने के बाद तौलिये में बसी आपकी गंध मुझे अच्छी लगती. हो सकता है दूसरों को इससे घिन उपजती हो.

हो सकता है, 'सर', आप मेरी भावनाओं को समझते हों, आपके दिल में भी मेरे लिए लगाव हो. पर उस स्थिति का सामना करने को आप तैयार नहीं थे, ऐसा मुझे आज भी लगता है और तब भी लगता था. आखिर हम सब सामाजिक प्राणी हैं न.

***

फाइनल का एक्ज़ाम देने के बाद मेरी शादी की बात चलने लगी थी. सुनकर मुझे अच्छा लगता कि मैं अपनी मानसिक उलझन से उबर जाऊँगी. दूसरी तरफ पति में आपकी प्रतिमा को पा लेने की इच्छा के कारण प्रभात पर तरस भी आता, जो मेरा पति बनने वाला था.

एक दिन मैं दोपहर में आपके घर गयी थी. आप यूनिवर्सिटी से आई कापियों में उलझे हुए थे. अकेले ड्राइंग रूम में बैठे थे. गर्मी की दोपहर आंटी और बच्चे सोकर काट रहे थे. मुझे लगा अपनी बात कहने का यह अंतिम अवसर है मेरे पास. परन्तु जब-जब अपनी बात कहने की कोशिश करती, आशंकाओं से घिर जाती. यह तो आंटी के प्रति अन्याय होगा, जिनसे मम्मी की अनुपस्थिति में माँ का स्नेह मिला था मुझे. और फिर आपको भी कहाँ स्वीकार होगा. वैसे किसी इंग्लिश मैगजीन में पढ़ा था - 'दुनिया में ऐसा पुरुष नहीं हुआ जो किसी नवयुवती के प्रेम-प्रस्ताव को ठुकरा सके.' हो सकता है उनके समाज में न हुआ हो, पर मेरे सामने तो कच का उदाहरण था.

संस्कारों में बँधी अपनी मनस्थिति को आपके सामने स्पष्ट न कर सकी, परन्तु 'सर', मैंने कोई गलत काम नहीं किया था. यह बात दूसरी है कि मैं 'मिसेज साल्क' नहीं हूँ कि कोई मुझसे पिकासो के संस्मरण पूछे और आप भी तो पिकासो नहीं हैं. पर आप मेरे लिए क्या हैं, मैं यह कभी भी किसी को बता नहीं सकूँगी. मेरा देश और परिवेश दोनों ही ऐसे नहीं हैं जहाँ जैकलीन और ओनासिस के संबंधों को सहज ही मान्यता मिल जाये. न ही मैं उस स्वनिर्मित आकाश के नीचे रहती थी जहाँ प्रतिमा बेदी और आइ० एस० जौहर के बड़े-बड़े फोटो छपें, तमाम इंटरव्यू लिए जाएँ.

फिर 'सर', आपका अपना आकाश था जिसमें अपने ग्रह और नक्षत्र थे. किसी 'सैटेलाईट' की जरूरत ही कहाँ थी आपको. मैं आज भी दो ग्रह-नक्षत्रों के बीच भ्रमित घूम रही हूँ. यह सब पढ़कर मुझे विश्वास है आप यही आशीर्वाद देंगे कि मैं मन से एक ग्रह की कक्षा में स्थिर हो जाऊँ और निश्चय ही वह ग्रह आप नहीं प्रभात ही हों.

'सर', आपको शिकायत है मैं याद भी नहीं करती आपको. पर प्रभात से मैं आपके बारे में कितनी ही बातें करती रहती हूँ. सुनते रहते हैं, सुनते रहते हैं, फिर ऊबकर कहते हैं - कॉलेज-डेज़ में सभी लडकियाँ ऐसे ही प्रोफेसरों पर दीवानी हो जाती हैं, और लपककर मुझे बांहों में समेटते हुए पूछते हैं - 'क्यों, अब भी याद आते हैं प्रोफेसर साहब ?' यों इस पूछे जाने में कोई ईर्ष्या नहीं होती. न ही मेरे इस दीवानेपन से उन्हें कोई खतरा है. शायद कौतूहल हो तो हो. मैं मुस्करा देती हूँ. वे आश्वस्त हो जाते हैं. उन्हें नहीं मालूम कि उन जैसा प्यारा पति पाकर भी मैं आपको भूली नहीं हूँ. परन्तु 'सर', भावना अलग चीज है और उसके अनुसार कर्म करना अलग. भावना मन की चीज है, कर्म संसार के लिए होता है. उसमें समाज, कानून, संस्कार - कितनी ही तरह की बाधाएँ हैं.

आज भी आप कितने ही विद्यार्थियों से घिरे रहते होंगे. कई तो ऐसे भक्त होंगे जो दूर-दूर पढ़ने जाकर भी आपसे मिलने आते होंगे. आपके पास उनकी जिज्ञासा के लिए नई-नई बातों का खज़ाना जो है. आम्रपाली से लेकर संजय गाँधी तक सभी विषयों पर आप समान रूप से धारा-प्रवाह और तर्कसंगत बोल जो सकते हैं.

इतने सारे विद्यार्थियों से घिरे आपको वह छोटी-सी बात याद हो, आशा तो नहीं, क्योंकि आप हमेशा अपनी 'मेमोरी' को कोसते रहते थे. जब मैं कहती - 'सर', आप पी एच० डी० कर लीजिये, फिर आप डॉ० डी० सी० राय कहलायेंगे ', तब आप चश्मे से झाँकती अपनी बौद्धिक आँखों से हँसते हुए कहते थे - 'तुम्हारे लिए कुछ दूसरा हो जाऊँगा, विनी ?' और मेरे उत्तर की प्रतीक्षा बिना ही कहते - 'विनीता, अब अपनी 'मेमोरी' इतनी ‘रिटेंटिव’ नहीं रही. फिर तुम लोग

( आपका मतलब शायद अपने विद्यार्थियों से होता ) जितना हमसे ‘एक्स्पेक्ट’ करते हो, उतनी सामर्थ्य हममें होती नहीं.' पर मैंने कभी भी इस बात पर विश्वास नहीं किया. इसी से सोचती हूँ अब भी आपको याद होगा. जब नई प्रयोगात्मक फिल्मों की चर्चा चलने पर आपने पुरानी फिल्म 'बन्दिनी' की तारीफ की थी और कहा था - 'प्रयोगात्मक फिल्मों की शुरूआत तो विमलराय और राजकपूर ने की थी. यह बात दूसरी है तब जनता उनके लिए तैयार नहीं थी. जैसे समांतर कहानी के प्रणेता तो प्रेमचन्द ही थे, चाहे उस पर मसीहाई अंदाज़ में चर्चा-परिचर्चा आज होती हो.'

उसी दिन से मेरी इच्छा 'बन्दिनी' देखने की थी. पर वहाँ देखने को मिली ही नहीं. पुरानी फ़िल्में कहाँ देखने को मिलती हैं आसानी से. बाद में चंडीगढ़ में मैंने देखी थी वह .

***

'सर', मीनाक्षी से आपकी शिकायत पता चली. मिनी ने आकर कहा - 'क्यों री विनी, अब प्रो० राय से मिलने भी नहीं जाती.' उसका लहजा शरारत भरा था.

'फुर्सत ही नहीं मिल पाती', मैंने उसे टालने की गरज़ से कहा था. 'हुंह', अविश्वास से मेरी ओर देखते हुए उसने कहा था - वे कह रहे थे, विनीता घर के सामने से 'वेव' करती निकल जाती है. दो मिनट खड़ी भी नहीं होती. कैसे-कैसे स्टूडेंट आते हैं. जब तक सामने हैं, तब तक तो लगता है इस प्रोफेसर के सिवा कोई और है ही नहीं. फिर मिलते तक नहीं.'

आपके साथ मीनाक्षी ने भी यही सोचा होगा, क्योंकि वही उन दिनों मेरी राज़दां थी. किन्तु आज उससे भी मैं अपना मन न खोल सकी. आपको जो बताना है, वह किसी और को बताना क्या ठीक होगा. वास्तविकता तो यह है कि मुझे आज भी डर है कि मैं कहीं 'बन्दिनी' की नायिका न बन जाऊँ. फिल्म तो आपको याद ही होगी. कैसे बन्दिनी अपने डॉक्टर प्रेमी को ठुकराकर उस क्रन्तिकारी के पास चली गयी थी, जिससे उसने पहला प्यार किया था. पर 'सर', वह फिल्म थी, यह संसार है, जहाँ भावना और कर्म के पथ अलग-अलग हैं.

मैं आपके शहर में बराबर आती रहती हूँ और रहूँगी भी, क्योंकि पापा-मम्मी हैं वहाँ पर. आपकी ‘लेन’ से आपकी झलक पाने के लिए ही निकलती हूँ, पर आपसे मिलने की हिम्मत नहीं कर पाती, जैसे पहले भी कभी कुछ कह पाने का साहस नहीं जुटा पाई. आशा है आप क्षमा करेंगे, पर क्षमा करेंगे कैसे. यह सब जो लिख गयी हूँ, वह आप तक पहुँचेगा ही नहीं, क्योंकि कागज़ पर मैंने कुछ लिखा ही कहाँ है. सब मन-मस्तिष्क के पन्नों पर उभरा है. और जब वहीं दफन हो जायेगा तब मिलूंगी आपसे....

[प्रकाशित - 'कहानी' ( संपादक श्रीपत राय ), फरवरी १९७८ ]

 

प्रमाणपत्र-नाम : सरला श्रीवास्तव

जन्म स्थान : लखनऊ / जन्म तिथि : ९ मई १९४२

शिक्षा : एम० ए० (राजनीति शास्त्र) - लखनऊ विश्वविद्यालय १९६२

ईस्वी सन् १९६३ से विवाहोपरांत जालंधर एवं हिसार में आवास

ईस्वी सन् १९८० से १९९७ तक हिसार (हरियाणा) के ठाकुर दास भार्गव सीनियर सेकेंडरी स्कूल के प्राइमरी सेक्शन की ' इंचार्ज ' के रूप में कार्य किया।

एक लेखिका के रूप में आकाशवाणी रोहतक एवं हिसार से कहानियों एवं वार्ताओं का प्रसारण।हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा संकलित कहानी संग्रहों में कहानियों का प्रकाशन।

वर्तमान पता : क्षितिज ३१० अर्बन एस्टेट-२ हिसार-१२५००५

मो० - ०९४१ ६ २४०९४२

ई-मेल : द्वारा –kumarravindra310@gmail.com

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