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  • मनीष कुमार सिंह

आजी

बाढ़ का पानी अब उतरने लगा था. जो नुकसान होना था वह हो चुका. ढ़ोर-ड़ंगर की लाशें, चौपट फसलें, मकान और सड़कों पर बिखरा मलबा विभीषिका की दास्‍तान सुना रहे थे. पशु-धन, फसलों और मकानों के अलावा मानव जीवन की भी हानि हुई थी. बॉध टूट गया था. तन जैसे गलित व्रण के कारण जरा से स्‍पर्श से सिहर उठता है वैसे ही तटबंध मरम्‍मत के अभाव में गुर्राती धारा के सम्‍पर्क में आकर ध्‍वस्‍त हो गया. ऐसा नहीं कि सरकारी तंत्र निष्क्रिय था. पीडि़तों का राहत देने एवं स्थिति को पटरी पर लाने में जुटा हुआ था. पर सवाल वही था कि आखिर इस बाढ़ का आजी की मौत से क्‍या रिश्‍ता.....? आखिर बॉध टूटने की खबर सुनकर वे क्‍यों बड़े जोर से चीखी? हवेली तो सारे गॉव से कई हाथ ऊॅचे टीले पर बना था. बाढ़ के पानी की क्‍या मजाल कि वहॉ तक पहॅुच सके. कुछ महीने पहले जेठ के लू का प्रकोप उनका कुछ नहीं बिगाड़ सका. सका. ग्‍लोगल वार्मिंग की बात करने वाला उनका शहरी पोता इस असहनीय गर्मी के लिए न जाने कौन-कौन से कारण गिना रहा था. पिछले जाड़े में जब ठंड सारे कीर्तिमान धवस्‍त कर रही थी तो भी वे मौसम के सारे तेवर झेल गयीं. सभी से हॅसकर कहती कि पहले भी ठंड़ इससे कम नहीं पड़ती थी लेकिन मुझे लगती नहीं थी. समय की चक्‍करी घूमने के साथ-साथ अब ठंड़ चमड़ी में नहीं, हड्डी में लगती है. रजाई, कम्‍बल, गर्म चाय सब कुछ बेकार.

नब्‍बे साल की आजी के देहांत पर दुख मनाने की ऐसा क्‍या जरुरत है? बूढे-बुजुर्ग नहीं मरेगें तो क्‍या कल के छोकरे असमय काल-कवलित होगे? इसे नित्‍य कर्म जैसी अनिवार्यता न समझकर कुटुम्‍बी पूर्ण उत्‍सव-धर्मिता के साथ तेरहवीं पर एक दूसरे से हॅसी-मजाक में लगे हुए थे. जैसे बचपन में इंसान के दॉत आते हैं वैसे ही अब सारे दॉत झड़ जाने के बाद आजी के मॅुह में दुबारा दॉत आने शुरु हो गए थे. न जाने कितने सालों से ओसारे में शीशम की मजबूत चौकी पर पड़ी थीं. यह चौकी उनसे भी उम्रदराज थी. उनके ससुर के पिताजी के समय की होगी. ये निर्जीव चीजें भी इंसान से कम दीर्घायु नहीं होती हैं.

ऑगन में हथेलियों पर हल्‍दी मलकर हॅसी-ठठ्ठा करती भाभियॉ अपने देवरों को श्रृंगार रस का स्रोत दिख रही थी. लोग इस अवसर पर सात खून माफ है वाले अंदाज में उनसे मुख पर हल्‍दी लगवाकर स्‍वयं को कृत्‍य-कृत माने रहे थे. बुरा न मानो होली है की तर्ज पर वे खुद भी एक हद तक छूट लेने को आमादा थे. बाल-वृंद की गतिविधियॉ पृथक जारी थीं. उधम मचाते बच्‍चे तब तक अपनी माताओं के निर्देश और चेतावनी की उपेक्षा करते जब तक यह सुनिश्चित नहीं हो जाता कि अब अगर सीमा रेखा मार की तो मार खानी पड़ेगी.

अंतिम कुछ सालों में आजी की उपस्थिति और गतिविधि पूजा-घर के बगल की कोठरी और ओसारे तक सीमित हो गयी थी. लेकिन फिर भी शारीरिक और खासकर मानसिक तौर पर कोई उन्‍हें चुका हुआ नहीं कह सकता था. लेकिन प्रश्‍न यह था कि गॉव में आए बाढ़ का उनकी मौत से क्‍या सम्‍बन्‍ध था. कस्‍बानुमा इस शहर में पिछले दसेक दिन से घर में बिना हल्‍दी-नमक के भोजन बन रहा था इसलिए बच्‍चों के साथ बड़े भी परेशान थे. सुबह होते ही यह द्दश्‍य दिखता कि मोहनलालगंज के फूफाजी अपने दोनों सुपुत्रों को लेकर हलवाई के यहॉ दही-जलेबी का नाश्‍ता करवाने निकल पड़ते. उन्‍हें चुपचाप बाजार गमन करते देखकर बख्तियारपुर वाले मौसाजी भी अपने औलादों को पूड़ी-सब्‍जी खिलाने कूच कर जाते.

आजी का सबसे छोटा पोता सुबोध किशोरवय का होने के बावजूद गंभीर स्‍वभाव व चिंतक प्रवृति का था. इस कोलाहल से दूर वह मोबाइल पर अत्‍यन्‍त गंभीर मुद्रा में वार्तालाप करता रहता या उॅगलियों द्धारा निपुणता से फेसबुक व चैट में लीन रहता. आजी की बहूऍ बस मोबाइल का प्रयोग महज बात करने के लिए करतीं. फेसबुक,चैटिंग और मैसेज भेजने से नितांत अनभिज्ञ होना मोबाइल, इंटरनेट के इस त्‍वरित सम्‍पर्क युग में उनका एक सद्गुण माना जाएगा.

‘’बड़ी खड़क औरत थी आजी.‘’ मझली बहू के मुखारविन्‍द से मन की बात निकल गयी. इस पर शेष स्त्रियॉ खी-खी करने लगीं. ‘’ऑखों से बेहद जब्‍बर थी आजी. क्‍या मजाल कि कोई घर के अंदर-बाहर उनकी नजर से बचकर चला जाए.‘’ मझली बहू के वक्‍तव्‍य से प्रोत्‍साहित होकर छोटी बहू ने भी अपने उद्गार प्रकट कर दिए. मउगा के नाम से चर्चित बड़ी बहू का सुपुत्र औरतों के बीच गुड़-मुड़ कर बैठा था. विषयानुकूल उसने भी मन की बात कही. ‘’आजी का निशाना बड़ा पक्‍का था. गुस्‍से में किसी को चप्‍पल-जूता उठाकर मारती थी तो दस-पन्‍द्रह हाथ तक निशाना चूकने का सवाल नहीं उठता था.’’

‘’दादी इतनी बुरी नहीं थीं.’’ उनकी पोती और छोटी बहू की बिटिया पीछे से घूमती हुई आ गयी. ‘’मुझे स्‍कार्फ के लिए पैसे देने से कभी मना नहीं करती....गुल्‍लू जब लट्टू और पतंग की जिद्द करता तो अम्‍मा और बाऊजी मना कर देते थे लेकिन वे अपनी साड़ी की गॉठ खोलकर जरुर पैसे देतीं.’’ हॅसी-मजाक में मग्‍न व्‍यस्‍कों ने उसकी बात का जवाब देना श्रेयस्‍कर नहीं समझा. वे विषयांतर करके सभा का रस भंग नहीं करना चाहते थे.

घर के आगे टैक्‍सी की आवाज सुनायी दी तो कई जोड़ी उत्‍सुक निगाहों ने बरबस बाहर झॉका. टैक्‍सी से साड़ी पहनी एक संभ्रांत महिला उतरी. ‘’अरे ये तो रचना है....!’’ छोटी बहू के मुख से अनायास निकल पड़ा. ‘’पहचान में नहीं आ रही है.’’ बाकी दोनों बहूओं ने समवेत स्‍वर में इस सत्‍य को स्‍वीकार किया. ‘’महारानी अब आ रही हैं. सब कुछ फॅूक-फॉक दिया तब सुध आयी.’’ घर की सीढि़यॉ चढ़ते हुए रचना की ऑखें ऑसुओं से सराबोर थी. कदम लड़खड़ा रहे थे. उसकी इस अवस्‍था को देखकर अपनी क्रोधाग्नि व द्धेष को क्षण भर के लिए भूला कर औरतें उसे तख्‍त पर बैठने को कहने लगी. ‘’अरे रचना तुम अभी आ रही हो?’’ बड़ी बहू ने अपने मन को बहुत दबाया तो भी यह वाक्‍य तीर की भॉति तमाम कर्कशता समेटे निकल गया. रचना कुछ पल यह सुनकर अवाक रह गयी. एक अंतराल के बाद धीरे से बोली. ’’दीदी ये घर में थे नहीं, बच्‍चों को पड़ोसी के भरोसे छोड़कर चली आयी. आखिरी दर्शन न होने का अफसोस जिंदगी भर रहेगा.’’ इतना कारण शायद अपर्याप्‍त दिखा. उत्‍तर से संतुष्‍ट न होने का भाव मुख पर एक विद्रुप मुस्‍कान के साथ लाकर बड़ी बहू अंदर हो गयी.

छोटी बहू की बिटिया आयी. ‘’बुआ मेरे लिए क्‍या लायी हो?’’ घर की दसेक साल की लड़की को लाड़ से लिपटते देखकर रचना थोड़ी देर के लिए दुख भूल गयी. ‘’बेटा अभी तो मैं तेरे लिए कुछ नहीं लेकर आयी. बाद में अच्‍छी सी फ्रांक लाकर दॅूगी.’’

‘’अपनी गृहस्‍थी में ढल गयी हो रचना तुम.’’ मझली बहू ने उसकी देह-यष्टि पर विहंगम द्दष्टि डालते हुए कहा. ‘’तुम्‍हारे पतिदेव और बाल-बच्‍चे राजी-खुशी हैं ना?’’ सामान्‍य शब्‍दों से लबरेज इस वाक्‍य में कहीं कोई परेशानी नहीं थी लेकिन शब्‍दों पर बलाघात और मुख व नयनों की वक्र मुद्रा ने इसे व्‍यंग्‍यात्‍मक बना दिया था. वह रचना की वैवाहिक पृष्‍ठभूमि पर बिना कोई टिप्‍पणी किए काफी कुछ कहना चाहती थी.

वह बिना कुछ जवाब दिए अंदर के कमरे में चली गयी. दीवाल पर आजी की तस्‍वीर पर टॅगी माला देखकर वह भावुक हो उठी. इंसान हर बार रोए यह जरुरी नहीं है. अन्‍तस का दुख शिला बनकर तालाब के पानी में जैसे बैठ जाता है. नब्‍बे पार की वृद्धा के लिए शोकाकुल होना कोई अनिवार्यता नहीं है. वह भी नाते-रिश्‍तेदारों के लिए. जब घर वाले छक कर पकवान खा रहे हैं तो औरों का उपवास करना क्‍या कहा जाएगा. घर से ज्‍यादा ऑगन को इतराता देखकर बहूऍ आपस में मुस्‍कायी. अभी भी कुछ लेने की चाह बची है.

रचना महसूस कर रही थी कि जाति के बाहर शादी करके वह अभी तक कुटुम्‍ब से बाहर की मानी जाती है. घर में कुहराम मच गया था. पुरुष सदस्‍य एक स्‍वर में चिल्‍ला पड़े. इस लड़की को बोरे में बंद करके कछार में ले चलते हैं. वहीं नदी में डूबा देगें. आजी हाथ में दही मथने वाले मथनी को लिए सामने खड़ी हो गयीं. लड़की बालिग और समझदार है. खानदान में सबसे पढ़ी-लिखी..... अपनी मर्जी से शादी करना गुनाह कैसे है? पुरुषों का आतंकित करने वाला आक्रोश देखकर घर की महिलाऍ समझाने-बुझाने और मनाने की फूहड़ कोशिश कर रही थी. इस प्रयास में वे स्‍वयं भी कई बार डॉट खा चुकी थी. ‘’तू क्‍या चाहता है चन्‍द्रमणि.....बेकसूर लड़की को अधेड़ से ब्‍याह कर घर की इज्‍जत में चार चॉद लगा देगा. देस में कोई कायदा-कानून भी है. अपने कान अच्‍छी तरह सजा कर सुन ले....‘’ वे रचना के मझले भाई के एक कान में झूल रहे कुण्‍डल की ओर संकेत करती हुई गरजी. ‘’मैं दिल्‍ली और लखनऊ तक जाने को तैयार हॅू. यह पंचायत-वंचायत धरी रह जाएगी.’’ किसी ने घर के बाहर चुगली की कि पुलिस केस बन सकता है. यह आशंका घरवालों के आक्रोश का शमन करने में सहायक हुई.

विदा होते समय रचना आजी के गले लगकर फूट-फूट कर रोयी. वे उसके लिए मॉ, दादी, पिता सब कुछ दिख रही थीं.

अनेक तोले स्‍वर्णाभूषण और अचल संपत्ति की स्‍वामिनी आजी की राय को नजरअंदाज करना कठिन था. फिर यह तो उनकी महज राय न होकर अंगद के पॉव जैसा मजबूत संकल्‍प था.

घरवालों में इस विजातीय विवाह को लेकर दो विरोधी फाड़ हुए. एक ओर ये शादी नहीं हो सकती वाले खेमे में घर के वरिष्‍ठ पुरुषों से लेकर कुटनी बुढि़याऍ एवं बेटे-बेटियों वाली महिलाऍ थीं जो इस घटना के अपनी औलादों पर पड़ने वाले दुष्‍परिणाम से चिन्तित थीं. दूसरी ओर आने शिविर में आजी अकेली थीं. कुछ ऐसे बचे-खुचे उदारपंथी नुमा प्राणी भी थे जो निरपेक्ष होने का सराहनीय अभिनय कर रहे थे. बड़े चाचा ने सबके सामने कहा कि आजी तूने खानदान की नींव हिलायी है. आगे जो कुछ होगा उसका जिम्‍मा तेरा.....

उस जमाने में जब स्‍त्री सास-ससुर और जेठ से ही नहीं अपितु पति से भी पर्दा करती और उसके आने पर शर्म के मारे धनुष की तरह सिकुड़ जाती, यह दुस्‍साहस विस्मित करने के लिए पर्याप्‍त था.

समय बीतता गया पर आजी पर कोई गतकालिकता का दोष नहीं लगा सकता. तद्भव शब्‍दों और जनपदीय बोली के द्धारा भी वे नए जमाने के शहराती नाती-पोतों से सहज सम्‍प्रेषणीयता स्‍थापित कर लेती थीं. फेसबुकिया मित्रों से संवादरत किशोरवय पोता हाय ओल्‍ड लेडी कहकर ठिठोली करता तो वे आधा-अधूरा समझ कर पास में जो भी चीज मिलती उसे प्रक्षेपास्‍त्र बनाकर फेंकना न भूलती. एक दिवसीय मदरस् ओर फादरस् डे मनानेवाली किशोरवय पीढ़ी से आजी का रोजाना हास-परिहास और बतकुच्‍चन होता. गॉव में जो होता है वह शहर में कहॉ.... यहॉ मोबाइल पर मिसकॉल को मिस्‍काल बोलते हैं.

बीरन की बहू इस कुटुम्‍ब की सबसे पुरानी नौकरानी थी. पति के देहावसान और बेटों की नालायकी की वजह से पोते के लालन-पालन की जिम्‍मेवारी मुख्‍यत: उसी पर आ गयी. एक दिन वह अपनी तमाम कर्मठता के बावजूद निरुपाय होकर आजी के सामने डबडबायी ऑखों से व्‍यथा सुनाने लगी. आजी को पता था कि मेहनती होने के बावजूद बीरन की बहू मॅुहफट है. इस कारण घर की स्त्रियों से उसकी कतिपय अवसरों पर तकरार हो चुकी है. धीरे से अपने पल्‍लू से कुछ रकम निकालकर उसे थमाते हुए वे बोलीं. ‘’ तू काली मिट्टी में उगी झक्‍क कपास है. गुणी की कद्र हर कोई नहीं कर पाता. पोते को पढ़ा -लिखा. उसका बाबा हलवाही करते हुए चला गया. बाप भी अनपढ़ रहा. लेकिन आगे की नस्‍ल को सॅभालो. बाकी जो होगा उसमें मैं पीछे न रहॅूगी.’’ बीरन की बहू को उस दिन अपने दुख से ज्‍यादा इस अप्रत्‍याशित उदारता से अश्रुपात हुआ. आज आजी ने कर्ण के कवच-कुण्‍डल की तरह विपदा से उसकी रक्षा की थी. पूजा-पाठ से ज्‍यादा लौकिक परमार्थ करने वाली वृद्धा पुरुषों के लिए विस्‍मय और महिलाओं के मन में कुढ़न का कारण थी.

एक दिन बीरन की बहू का पोता एक सुदर्शन युवा के रुप में पूर्णतया शहरी पोशाक में ड्योढ़ी पर हाजिर हुआ तो कोई पहचान नहीं पाया. आजी से मिलने आया हॅू. वह विनम्रता से भृकुटी चढ़ाकर देखते लोगों से बोला. आजी का चरण-स्‍पर्श करके उसने अपना परिचय दिया. उन्‍हें मिठाई का डिब्‍बा देकर वह कुर्सी बगल में होने के बाद भी खड़ा रहा. ‘’तू बैठता क्‍यों नहीं है?’’ आजी की धॅुधली द्दष्टि ने उसे पहचान लिया. वह संकोच करके स्‍टूल पर बैठा.

आजी ने लगातार ऑखों की कम होती रोशनी में भी भॉप लिया कि एक जमाने में इस हवेली में जमीन पर बैठे में हिचकिचाने वाले लोगों के समृद्धि और भोग में आगे निकलने पर ईर्ष्‍या और द्धेष घरवालों के मन में दुर्गन्‍ध की तरह फैला हुआ है.

जमाना बदलता गया. गया. नए लड़कों के लिए गॉव भूतकाल होता चला गया. पढ़-लिखकर नौकरी मिल जाने के बाद गॉव कोई क्‍यों लौटेगा? एक समय घर के सभी द्रव्‍य और ठोस आहार, चाहे वह शहद हो या विष, सूखी रोटी हो या छप्‍पन भोग, सब आजी के अधिकार में था. शक्ति का क्षय लोगों की नजरों में उनके लिहाज को समाप्‍त नहीं कर सका. आजी आपका साया हमारे लिए ईश्‍वर की कृपा है. बहूऍ प्रात:काल से ही कुछ ऐसे सुभाषित अपने मुखारविन्‍द से उच्‍चारित करती. वे अतिशय लाड़ में कहती कि अगर अपनी बहुओं को बीस तोले की कमरधनी न पहना सकॅू तो इस घूमती हुई पृथ्‍वी पर जन्‍म लेना अकारथ समझॅूगी.

ऐसा नहीं कि आजी के राज के खिलाफ कोई सुगबुगाहट नहीं थी. उनकी प्रबुद्ध निरंकुशता कतिपय जनों को खटकती थी. आजी समझती हैं कि उनसे ज्‍यादा अच्‍छा घरबार कोई चला नहीं सकता है. इस तरह की बात कानों में पड़ने पर आजी का रजोगुण आसमान छूने लगा. ‘’यॅू ही राह चलते किसी हाथी ने मेरे गले में माला डालकर राजसिंहासन पर नहीं बैठा दिया है. जात की सूरज हॅू मैं. जब तक जलॅूगी कोई नाइंसाफी नहीं बर्दाश्‍त करुगी.‘’ सत्‍ताभिमुखी वृद्धा स्‍वयं को अमर मान बैठी है. लेकिन अगले दिन ही उन्‍हें सबने सरलमति बालकों की लुभावनी द्दष्‍टताओं पर स्‍नेह बरसाते देखा. ‘’अरे परसराम तनिक सब बाल-गोपालों के लिए जलेबी लाना. बच्‍चों को मीठा खिलाना भगवान की मूर्ति पर दूध चढ़ाने जैसा है. असली सुख इसी में है. बेहकीकत चीजों पर क्‍या वारी जाना.’’

आजी ठहरी बिल्‍कुल एलमुनियम का तसला. चूल्‍हे पर रखते गर्म और नीचे उतारते ही ठंड़ा. कुछ दिनों बाद सभी से नाता सामान्‍य हो गया. सुबह से ही उनकी बाल-केन्द्रित दिनचर्या शुरु हो जाती. बाल-गोपालों के प्रति उनका ममत्‍व मॉ के देवी होने के मिथक पर भारी पड़ता दिखता. कट्टर विरोधी बड़ी बहू भी बोल पड़ी. ‘’आजी के सामने हम भी अपने बच्‍चों के लिए सौतेली लगती हैं.’’

स्‍नातक छोटी बहू ने प्रसव वेदना के समय यह इच्‍छा प्रकट की थी कि संतान का जन्‍म शुभ- नक्षत्र में कराने हेतु दो दिन पूर्व शल्‍य क्रिया की सहायता ली जाए. लोग सहमत होने लगे थे. आजी आधुनिक विज्ञान का इस ग्रह-नक्षत्र के फेरे में प्रयोग होने पर पहले हॅस दी. फिर गुस्‍सा होकर बोली. ‘’ऐसे बखत मॉ की सेहत और जिंदगी का खास ख्‍याल रखने की जरुरत है. जब सब कुछ सही हो रहा है तो ऑपरेशन-वॉपरेशन क्‍यों?’’ सभी को आखिरकार सद्बुद्धि आयी. छोटी बहू की बात नहीं मानी गयी.

ऐसे अवसर पर घर के चाणक्‍य समझे जाने वाले बड़े चाचा ने मानो शीतल जल का छिड़काव करते हए कहा. ‘’आजी अब तुम्‍हारी देह ढ़लान पर है. नए लोगों को लगाम पकड़ने दो. आराम करो. राम का नाम जपो.’’ वे वक्र हॅसी के साथ बोलीं. ‘’क्‍यों क्‍या मेरे पेट की आंतें खाना नहीं पचा रही हैं या बदन से पसीना नहीं निकलता है. लड़की के गले में सॉकल बॉधते वक्‍त सब तैयार थे. उस समय तुम सब की नयी सोच किधर गयी थी?’’ शतवर्षीय जिजीविषा की कामना दबाए इस दुघर्ष वृद्धा का कोई क्‍या कर लेगा? ‘’तुम सब ठहरे लकीर के फकीर. किताबों में यज्ञ में अर्पित करने के लिए अजा से यज्ञ करने का विधान है. लेकिन यह अजा बकरी नहीं है, सात बरस पुराना धान है. पर इसे कौन समझेगा? तुम लोग ऐसे हो जो छोटों को मेला देखने की मनाही करके खुद सजधज कर घूमने निकल जाओगे.’’ क्रोधित आजी का मुख देखकर लगता था कि खिलने का मतलब बस हरा या गुलाबी होना नहीं है. लू की लपलपाती जिहृवा के बीच पॉव जमाकर खड़ा रहना भी कोई चीज होती है.

‘’बबुआजी चाहे लाख तरक्‍की कर लो लेकिन अगर जिन्‍दगी में जब दोस्‍त, बिरादरी, मिट्टी के लिए जगह न बचे तो हमारा ही नहीं बल्कि हमारे बच्‍चों का भी कभी भला नहीं हो सकता..... जितनी जिन्‍दगी से जुड़ोगे उतना अच्‍छा रहेगा.‘’ लोग इस जीवन-दर्शन को कई मर्तबा सुन चुके थे. आजी जिन्‍दगी का हिसाब इतना आसान नहीं है. हजार बातें सोचनी पड़ती है. असहमत लोग आखिर बोल देते. ‘’अरे बेटा यह जिन्‍दगी कोई तिलिस्‍म नहीं है. तुम लोगों ने इसे क्‍या बना रखा है. सीधा-सच्‍चा ही छोड़ दो. जिन्‍दगी बनाने के लिए चाहे जहॉ जाओ लेकिन जीने का तरीका सीखने के लिए प्‍यार-मुहब्‍बत की गलियों में आकर नेह की लड़ी बीननी होगी.’’

खुर्राट आलोचक पीठ पीछे कठोर शब्‍दों में आजी की भर्त्‍सना करते परंतु सम्‍मुख पड़ने पर यथासंभव मधुर वचनों का प्रयोग करते. आज के जमाने में पता नहीं लगता कि कौन हमारे लिए प्रार्थना कर रहा है और हमसे खिलवाड़ करने में लगा है.

बदलाव की दिशाऍ उजाले की ओर खुलती हैं तो अंधेरी बंद गलियों में भी ले जाती हैं. लाख जाति-पाति और ऊॅच-नीच की बातों के बावजूद कायम एका और सामुदायिक सौहार्द्र को विलुप्‍त हुए अरसा हो गया था. अब हर इंसान फलां टोले और फलां जाति वाला के नाम से पहचाना जाता है. पिछले दो साल से बॉध में दरार पड़ती पर टूटने जैसी कोई बात नहीं थी. मरम्‍मत का काम कोई नहीं करता था. आजी को वे दिन बिल्‍कुल आजकल जैसे लगते थे जब उनके पति और देवर अपने पिता समेत सभी को समूहबद्ध करते. कार्यरत लोगों के लिए पूड़ी-सब्‍जी किसी घर में बनती तो कहीं कढ़ी-चावल पककर सीधे तटबंध दुरुस्‍त करने के काम में लीन श्रमजीवियों तक पहॅुचाया जाता.

साहबगंज और कोथवा में बॉध टूटा है. खबर आयी. टूट गया....? लोग हड़बड़ा गए. पहले की तरह दरार पड़ी होगी. घुटने भर पानी भरेगा. नहीं जी बॉध पूरा धराशायी हो गया है. बातों का अंत नहीं था. ‘’बॉध की मरम्‍मत हुई कि नहीं?’’ आजी ने इस वक्‍त का सबसे अहम् सवाल किया. उत्‍तर में सुनने को मिला कि अजी कहॉ. हर टोली का अब तो अपनी ढपली और अपना राग है. पहले वाली बात कहॉ रही कि हर घर, हर टोले से मर्द निकालता था. औरतें तक कमर कस लेती थी. बात की बात में बॉध हर साल मजबूत होता था. इस बार कोई घर से नहीं निकला. बाबू साहब लोग कॉफी और केक उड़ाए और हम मिट्टी-बालू में लोटे यह नहीं होगा. हलवाहों से लेकर हर छोटे काश्‍तकार का यह कहना था. हवेली के मर्द कहते कि आजकल हमसे नमस्‍ते और दुआ-सलाम कौन करता है जो हम किसी से बात करे. कहते हैं कि बिस्‍तर से उठकर आजी हवेली के चबूतरे से उतरकर सबको समझाने चली थी. बड़ी बहू ने उनका हाथ पकड़कर रोका. ‘’बीरन की बहू का घर निचली जमीन पर है. कैसे बचेगा. छत तक नहीं दिखेगी. आजकल उसका पोता भी यहॉ नहीं है.‘’ वे करुण स्‍वर में चिल्‍ला पड़ी. यदि कोई और अवसर होता तो कड़क और खड़कदार आवाज वाली आजी की वाणी सुनकर शायद उनके विरोधी प्रसन्‍न होते. लेकिन आज वे मन मे करुणा जगाने वाले स्‍वर में जंगल में ह्रिस्‍त्र पशु के चंगुल में फॅसी हिरनी सी क्रन्‍दन कर रही थीं.

गॉव के कुछ लोग की डूबने से मौत हुई थी. वीरन की बहू भी मृतकों में शामिल थी. चलो अपनी सारी जिम्‍मेवारियॉ निभाकर मरी. बाढ़ और महामारी ऐसे लोगों को अपने साथ ले जाए तो क्‍या आदमी इनकी याद में ऑसू चुआता फिरे?

जीव-हत्‍या से दूर रहने वाले, चिडि़या के लिए पानी रखने वाले और गॉव के हद पर खड़े पीपल के भूत से डरने वाले लोग इतने बेगाने कैसे हो गए कि खुद अपने पैर पर कुल्‍हाड़ी मार ली. कुटुम्बियों का अंदाजा था कि आजी गॉव वालों को जी भर कर कोसेगीं. लेकिन वे बस चुप थीं. बिस्‍तर पर पड़ी होने पर भी जीवन्‍त लगने वाली स्‍त्री की ऑंखों में एक पथराया हुआ दर्द दिखा. घरवाले आखिर यह देखकर सफाई में बोल पड़े. हमने सभी को समझाने की कोशिश की थी आजी लेकिन आजकल कौन किसकी सुनता है. सबके द्धारा स्‍वयं को निर्दोष बताने की फूहड़ कोशिश को कुछ घड़ी तक देखने के बाद वे बोलीं,’’अगर तुम जाने वाले का न हाथ थामोगे, न दामन पकड़ोगे तो वह क्‍यों रुकेगा?’’

‘’आजी यह समझिए कि सब कुछ एकाएक हो गया. बाढ़ ने कुछ कुछ कहने-समझने का मौका नहीं दिया.’’ बोलने वाले की वाणी का खोखलापन इतना घना था कि खाली घड़े की तरह आवाज करने लगा. न चाहते हुए भी वे मानो स्‍वगत भाषण करती हुई बोलीं. ‘’जिन्‍दगी में चमत्‍कार नहीं होता है. अपना बोया ही काटने को मिलता है.’’ कुटिल खलों के बसेरे में नेह का निबाह कैसे हो. जब हर शख्‍स चूड़ी पहने हो तो बॉध क्‍या खाक बनेगा.

विशेषज्ञों के दल ने नदी के बॉध को दुरुस्‍त करने की बात करने के साथ तलछट हटाने और पर्यायवरण संबंधी कई पहलुओं की चर्चा की. हालॉकि इसमें स्‍थानीय लोगों के सहयोग द्धारा प्रतिवर्ष मरम्‍मत की बात शामिल नहीं थी.

सब कुछ निपट जाने के बाद बड़े चाचा ने टिप्‍पणी की. ‘’आजी लोगों का दुख नहीं देख सकीं. बेचारी इसी सदमें में चली गयीं.’’

‘’लेकिन वे दुबारा आएगीं,..देखिएगा.’’ आजी का पोता सुधीर सहसा बोल पड़ा. घर की तीसरी पीढ़ी को लगता था कि आजी फिर हवेली में शायद पोती बनकर जन्‍म लेगीं क्‍योंकि अभी अंधविश्‍वास के विरोध के साथ पारस्‍परिक सहयोग की भी जरुरत थी. आजी के भीतर कोई अशरीरी और कालातीत चीज थी. वरना बचपन, जवानी और बुढ़ापा तो सभी को आते हैं. मृत्‍यु कोई अंत थोड़े न है. इधर से एक दरवाजा बन्‍द हुआ तो दूसरी तरफ से कोई और दरवाजा खुलेगा.

लिखने की शुरुआत पढ़ने से होती है। मुझे पढ़ने का ऐसा शौक था कि बचपन में चाचाजी द्वारा खरीदी गई मॅूँगफली की पुड़िया को खोलकर पढ़ने लगता था। वह अक्‍सर किसी रोचक उपन्‍यास का एक पन्‍ना निकलता। उसे पढ़कर पूरी किताब पढ़ने की ललक उठती। खीझ और अफसोस दोनों एक साथ होता कि किसने इस किताब को कबाड़ी के हाथ बेच दिया जिसे चिथड़े-चिथड़े करके मूँगफली बेचने के लिए इस्‍तेमाल किया जा रहा है। विश्‍वविद्यालय के दिनों में लगा कि जो पढ़ता हूँ कुछ वैसा ही खुद लिख सकता हूँ। बल्कि कुछ अच्‍छा....।

विद्रुपता व तमाम वैमनस्‍य के बावजूद सौहार्द के बचे रेशे को दर्शाना मेरे लेखन का प्रमुख विषय है। शहरों के फ्लैटनुमा घरों का जीवन, बिना आँगन, छत व दालान के आवास मनुष्‍य को एक अलग किस्‍म का प्राणी बना रहे हैं। आत्‍मीयता विहीन माहौल में स्‍नायुओं को जैसे पर्याप्‍त ऑक्‍सीजन नहीं मिल पा रहा है। खुले जगह की कमी, गौरेयों का न दिखना, अजनबीपन, रिश्‍ते की शादी-ब्‍याह में जाने की परम्‍परा का खात्‍मा, बड़े सलीके से इंसानी रिश्‍ते के तार को खाता जा रहा है। ऐसे अनजाने माहौल में ऊपर से सामान्‍य दिखने वाला दरअसल इंसान अन्‍दर ही अन्‍दर रुआँसा हो जाता है। अब रहा सवाल अपनी लेखनी के द्वारा समाज को जगाने, शोषितों के पक्ष में आवाज उठाने आदि का तो, स्‍पष्‍ट कहूँ कि यह अनायास ही रचना में आ जाए तो ठीक। अन्‍यथा सुनियोजित ढंग से ऐसा करना मेरा उद्देश्‍य नहीं रहा। रचना में उपेक्षित व‍ तिरस्‍कृत पात्र मुख्‍य रुप से आए हैं। शोषण के विरुद्ध प्रतिवाद है परन्‍तु किसी नारे या वाद के तहत नहीं। लेखक एक ही समय में गुमनाम और मशहूर दोनों होता है। वह खुद को सिकंदर और हारा हुआ दोनों महसूस करता है। शोहरत पाकर शायद स्वयं को जमीन से चार अंगुल ऊँचा समझता है लेकिन दरअसल होता वह अज्ञात कुलशील का ही है। घर-समाज में इज्जत बहुत हद तक वित्तीय स्थिति और सम्पर्क-सम्पन्नता पर निर्भर करती है। कार्यस्थल पर पद आपके कद को निर्धारित करता है। घर-बाहर की जिम्‍मेवारियाँ निभाते और जीविकोपार्जन करता लेखक उतना ही साधारण और सामान्‍य होता है जितना कोई भी अपने लौकिक उपक्रमों में होता है। हाँ, लिखते वक्त उसकी मनस्थिति औरों से अलग एवं विशिष्‍ट अवश्य होती है। एक पल के लिए वह अपने लेखन पर गर्वित, प्रफुल्लित तो अगले पल कुंठा व अवसाद में डूब जाता है। ये विपरीत मनस्थितियाँ धूप-छाँव की तरह आती-जाती हैं। दुनिया भर की बातें देखने-निरखने-परखने, पढ़ने और चिन्तन-मनन के बाद भी लिखने के लिए भाव व विचार नहीं आ पाते। आ जाए तो लिखते वक्त साथ छोड़ देते हैं। किसी तरह लिखने के बाद प्रायः ऐसा लगता है कि पूरी तैयारी के साथ नहीं लिखा गया। कथानक स्पष्ट नहीं कर हुआ, पात्रों का चरित्र उभारने में कसर रह गयी है या बाकी सब तो ठीक है पर अंत रचना के विकास के अनुरूप नहीं हुआ। एक सीमा और समय के बाद रचना लेखक से स्वतंत्र हो जाती है। शायद बोल पाती तो कहती कि उसे किसी और के द्वारा बेहतर लिखा जा सकता था। मनीष कुमार सिंह एफ-2,/273,वैशाली,गाजियाबाद, उत्‍तर प्रदेश। पिन-201010 09868140022 ईमेल:manishkumarsingh513@gmail.com

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