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  • सुधा गोयल ‘नवीन'

पुनर्जन्म

मैंने ऐसा तो कभी नहीं सोचा था. कानों पर विश्वास नहीं हो रहा है. हो सकता है मज़ाक हो. मज़ाक ... नहीं ऐसा मज़ाक कोई कैसे कर सकता है? मज़ाक हंसाने के लिए किया जाता है, या फिर परेशान करने के लिए, रुलाने के लिए तो नहीं ... मेरी आँखों से आँसू तो नहीं निकल रहे हैं पर मेरी अंतरात्मा रो रही है ... अभी चंद घड़ी पहले नेहा ने मुझे फोन करके बताया कि समीर ने अपने घर की बाल्कनी से कूद कर आत्महत्या कर ली ...

"अब तो सब ठीक चल रहा था समीर ... तेरे पास एक अदद अच्छी नौकरी, एक समर्पित बीबी, एक अपना मकान वह भी मुंबई जैसे शहर के सोहलवें माले पर ... फिर क्या था मेरे यार, जिसने एक बार फिर तुझे तोड़ दिया." मैं बुदबुदाया. मेरी सोच रुकने का नाम नहीं ले रही थी.

अभी उसी दिन तो ... जब हम बार में बैठे थे, और जिन्दगी के उतार-चढ़ाव पर चर्चा हो रही थी, समीर तुम्हीं ने तो कहा था न मेरे यार, "खुश हूँ मैं, बहुत खुश ... कैसे शुक्रिया अदा करूं तेरा ... मेरी जिन्दगी की नाव जब डूब रही थी, पता नहीं कहाँ से तू आया, और संभाल लिया मुझे..... आज मैं जो कुछ भी हूँ सिर्फ और सिर्फ तेरी वजह से हूँ रोहन..... मेरे यार... याद है तुझे मैं कितना टूटा हुआ था. उस दिन तक मुझे सुनने वाला कोई नहीं था. मम्मी-डैडी भी नहीं......" समीर बात मुझसे कर रहा था... देख कहीं और रहा था.

"बस बस रहने दे मुझे याद है वह सब." मैंने कहा था. मैं पुरानी बातें दोहराना नहीं चाहता था. अभी उसी दिन तो.... यही कोई दस दिन पहले...... बीता हुआ कड़वा अतीत एक बार फिर तुझे अवसाद के काले गह्वर में न ढकेल दे, डर था मुझे....... पर तुम नहीं माने मेरे यार. क्या वह आज के भयानक सच के आने की पूर्व सूचना थी....... क्या तुझे अवसाद घेर चुका था...... काश! उस दिन तूने मुझे सारा सच बताया होता. सारा... पूरा का पूरा..... तू तो बस हमारी पहली मुलाक़ात में अटक कर रह गया था. समीर तू बोलता जा रहा था.

"हमारा मिलना भी कैसा अजब संयोग था..... न हम स्कूल में साथ थे... न कॉलेज में.... इसी 'बार' में पहली बार मिले थे हम. मैं पीता जा रहा था.... पीता जा रहा था.... तुम पहला गिलास पकड़े चुपचाप देखे जा रहे थे...... फिर जब मैंने पांचवां गिलास मँगाया तो तुमने मेरा हाथ थामा और बिना कुछ पूछे-कहे मुझे 'बार' से उठाकर मेरे घर ले आये और बाल्कनी में पड़ी कुर्सी पर धकेलते हुए कहा , जो भी मन में है कह डालो मैं सुन रहा हूँ."

मुझे नही याद कि मैं तुमसे नाराज़ था, कि तुम्हारी मदद करना चाहता था,समीर. ..... तुम मेरे कोई नहीं लगते थे. उस दिन से पहले मैंने तुम्हें देखा भी नही था. दस साल पहले की घटना,.... लगभग भूल चुका था मैं..... लेकिन तुम्हें याद था सब कुछ..सिलसिलेवार ढंग से...... तुम कहते जा रहे थे,

"रोहन, तूने पास पड़ी दूसरी कुर्सी खिसकाई..... ठीक मेरे सामने बैठ गया, मेरा हाथ अपने हाथों में लिया और चुपचाप मेरी तरफ देखता रहा. मुझमें हिम्मत नहीं थी तुझसे आँख मिलाने की..... पता नहीं कितनी देर हम यूं ही बैठे रहे फिर मेरी आँखों से आँसू निकलने लगे. तू चुप रहा रोहन, बिलकुल चुप.... फिर तूने मेरा हाथ हलके से दबाया था और मैं अपना आपा खो बैठा था. फफक-फफक कर रोया था मैं और मैंने तुझे वह सब कुछ बता दिया जो उस दिन तक सिर्फ और सिर्फ मेरी यादों में कैद था. कितना हल्का हो गया था मैं. तूने किचेन में जाकर दो कप कॉफी बनाई और फिर आकर मेरे पास बैठ गया. मैंने पूछा था, तू तो पहली बार आया है इस घर में तुझे कैसे पता चला कौन सी चीज़ कहाँ है. तुम बोले, हिन्दोस्तान के किसी भी किचेन में जाओ चाय-कॉफी और बर्तन की जगह वही होती है, जहां मुझे मिली."

समीर तू हँसने लगा था. खूब हँसा. हमारे हाथ में बीयर का ग्लास था. आह! दस दिन पहले. मुझे लगा तू खुश है बहुत खुश, जैसा तूने कहा. लेकिन फिर यह आज का सच....... हाँ तूने कुछ सोचते हुए अचानक यह भी पूछा था,....... रोहन, बर्तनों की तरह हर किसी के माँ-बाप एक से क्यों नहीं होते......मैं कुछ समझता इसके पहले तू इस तरह हँसा जैसे कितनी बेवकूफ़ी की बात की हो. सुरेखा का हाल पूछने पर तूने बताया था ........ आजकल वह ज़रा नाराज़ है ... अपनी एक बहुत पुरानी सहेली के घर कुछ दिन रहने गई हुई है. मेरे पूछने पर कि सब ठीक है न...... तू हँसा, कहने लगा, "क्यों रे सुरेखा ने तुझसे कुछ कहा क्या? मुझसे उसकी नाराज़गी नहीं सही जाती मेरे यार! वह तो बहुत अच्छी है. शायद मुझमें ही खोट है. चल छोड़....... तेरा गिलास अभी भी भरा है ...... मेरी इतनी चिंता करने की बुरी आदत छोड़ दे..... बहुत पछतायेगा..... "

उस दिन तू फिर बहुत पी रहा था. हँस रहा था. बहुत बातें कर रहा था. जब हम चलने लगे, तूने मुझे गले लगा लिया. हम बड़ी देर तक गले लगे खड़े रहे. उस दिन मुझे यह एहसास कदापि न हुआ कि हम आखिरी बार गले मिल रहे थे.

मुझे मिलना होगा ...... सुरेखा से मिलना होगा. कहाँ होगी सुरेखा...... ? सहेली के घर, या लौट आई होगी अपने घर..... आज ही आई होगी या आज से पहले....

सुरेखा, समीर की बीबी.... बेहद सुलझी हुई, समझदार, समर्पित बीबी..... मैं सुरेखा के प्रति बेहद भावुक हो उठा. एक लड़की अपना घर-परिवार, माँ-बाप छोड़कर पति के घर आती है, पति जैसा चाहता है बिल्कुल वैसा करती है....... कम से कम सुरेखा तो बिल्कुल वही करती थी जैसा समीर चाहता था. उसके जीवन का एक ही मकसद था समीर को गहरे अवसाद के कुएं से बाहर निकालना. होता भी क्यों न..... इन दोनों की शादी एक समझौता थी. समीर के धनाढ्य, सुसंस्कृत, व्यवहार-परस्त माँ-बाप और सुरेखा के दुखी-निराश माँ-बाप के बीच.

समझौता चाहे जो भी रहा हो, दोनों को मान्य था. वे खुश थे. एक दूसरे में डूबे हुए. जैसे ईश्वर ने दोनों को एक-दूसरे के लिए ही बनाया था.

पिछले आठ-नौ या दस सालों में सुरेखा ने एक भी मौक़ा ऐसा न दिया जब महसूस होता कि समीर जिंदगी से उदास हो रहा है. अक्सर हमारी मुलाक़ात इसी 'बार' में हुआ करती थी. सुरेखा जैसी निम्नमध्य वर्ग की लड़की के लिए पति को समझने, उसका दुःख बाँटने और हमराज़ बनने के लिए पति के दुराग्रह पर शराब का पहला घूँट पीना अपने वज़ूद को निचोड़ कर गिलास में ढालना था. पर सुरेखा ने बिना हिचक समीर के साथ 'बार' में बैठना..... पीना शुरू कर दिया था. वे घंटों बातें करते. घर पर कोई इंतज़ार करने वाला भी तो न था. न बाल, न बच्चे...... न सुबह जल्दी उठाने-उठने की चिंता......न सास-ससुर के ताने-उलाहने. समीर दस बजे ऑफ़िस जाता, वहीं ब्रेकफास्ट - लंच लेता. शाम फिर किसी मित्र के घर या 'बार' में बीतती. दिनभर सुरेखा क्या करती है, कैसे समय बिताती है, क्या खाती-पीती है, न कभी समीर ने पूछा..... न कभी सुरेखा ने बताया. कम से कम उसकी बातों से तो मैंने यही अंदाज़ लगाया था. पर वे खुश थे बहुत खुश!

मेरे कदम सुरेखा-समीर के आशियाने की ओर मुड़ गए.

मुझे देखते ही सुरेखा मुझसे लिपट गई और फूट-फूट कर रोने लगी. समीर की मॉम भी आँखों पर काला चश्मा पहने मेरे पास आकर खड़ी हो गईं और सुरेखा के हटते ही मेरे गले से चिपक गईं.

"तुम्हीं बताओ रोहन, बचपन की नादानियों की सज़ा, क्या कोई बच्चा अपनी माँ को अपनी जान लेकर, देता है."

'बचपन की नादानियाँ' किसके लिए कह रहीं थीं वे....... उन्होंने ही स्पष्ट कर दिया, "अठारह साल की थी मैं, जब मेरी शादी हुई थी, समीर के पापा से.... उन्नीस साल पूरे भी नहीं हुए थे कि समीर आ गया गोदी में...... मैं तैयार नहीं थी...... रोहन, मैं बच्चा पालने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं थी.... समीर के पापा ऊंचे ओहदे पर थे. देर रात की पार्टी, शराब और बड़े-बड़े लोगों का घर में आना जाना उसे कभी अच्छा नही लगता था. वह आया-नौकर की देख-रेख में पला बढ़ा.... , पर मैं उसे बहुत प्यार करती थी. वह क्यों नहीं समझ पाया. उसने मुझे कीमती आया-नौकर रखने के लिए कभी माफ़ नहीं किया. ....... तुम्हें तो पता है न .....सब कुछ पता है ... क्या किया था उसने."

उन्होंने मुझे प्रश्न-सूचक, अश्रुपूरित नेत्रों से देखा...... " तेरह साल की कच्ची उम्र थी उसकी ......उस छोटी सी उम्र में उसने अपने ...... "

और वे फफक-फफक कर रोने लगी.

मेरे पास एक भी शब्द नहीं थे उन्हें सांत्वना देने के लिए. आज तक मैं केवल समीर को सुनता आया था, उसके बचपन की कहानी. मेरी सारी की सारी सहानुभूति केवल और केवल समीर के साथ थी. सुरेखा से मिलने के बाद मैं उसकी भी इज्ज़त करने लगा था, लेकिन मेरी पूरी सहानुभूति तब भी समीर के ही साथ थी. हाँ... मुझे पता था ,क्या किया था उसने, उस छोटी सी उम्र में अपने साथ... लेकिन आज से पहले मेरी जानने की इच्छा भी नहीं थी, कि उसने ऐसा क्यों किया.

आंटी के जाने के बाद समीर के पापा मेरे पास आये और रुंधे हुए गले से मेरा हाल पूछा फिर यह भी पूछा कि क्या समीर ने मुझे कुछ बताया था, क्योंकि पापा से उसकी बातचीत बेहद औपचारिक लगभग ना के बराबर थी. मैंने सर हिलाकर जता दिया कि समीर ने मुझे भी कुछ नहीं बताया है. निराश पापा सहानुभूति जताने आये शोक-संतप्त भीड़ में कही गुम हो गए. मैंने पेट में हल्का सा दर्द महसूस किया, जैसे कुछ गुड़गुड़ा रहा था. मेरी रोने की इच्छा हो रही थी, लेकिन मैं पुरुष था और समीर मेरा दोस्त था, सगा नहीं, इसलिए मेरे लिए यह वाज़िब नहीं था कि मैं उस संभ्रांत, विशिष्ट, उच्च वर्गीय भीड़ में आँसू बहाकर अपना उपहास करवाऊं.

मैंने चारों ओर नज़र दौड़ाई,कहीं सुरेखा दिख जाए तो मैं कुछ क्षण उससे बातें कर सच्चाई जान लूँ. लेकिन मुझे सुरेखा नहीं दिखी और मैं भारी मन लिए लौट आया. लगभग दस दिन तक मेरे पेट में हल्का दर्द होता रहा और मन बेचैन रहा. फिर धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य होने लगा, लेकिन समीर मेरी शख्सियत का हिस्सा बन चुका था और अपना अंग काटकर फेंक देना क्या आसान है?

मेरा ट्रांसफर हो गया और मैं जमशेदपुर आ गया. मुंबई छोड़ने के साथ समीर के परिवार से संपर्क नहीं के बराबर था. मैं भी अपने काम में इतना उलझ गया कि संपर्क रखने का प्रयास नहीं किया. बीतते बीतते एक साल बीत गया. एक दिन अचानक सुरेखा का फोन आया, उसने मुझे बंबई बुलाया था. उसका आग्रह आत्मीय था. वह अपने जीवन के इस ख़ास दिन को मेरे साथ शेयर करना चाहती थी. उसे लग रहा था कि यदि मैं पहुँच जाऊंगा तो उसकी खुशी दुगुनी हो जायेगी क्योंकि मैं ही एकमात्र ऐसा इंसान हूँ जो समीर के सबसे करीब रहा है. सुरेखा मुझे बहुत कुछ बताना भी चाहती थी.

सुरेखा ने फोन पर कहा, "रोहन..... भईया.... मैं एक बच्चा गोद ले रही हूँ. वह मेरा और समीर का बच्चा कहलायेगा. क्या आप अपने दोस्त के बेटे से मिलने नहीं आयेंगे."

मैंने कहा,"ज़रूर आऊँगा.'' और फोन काट दिया.

''बच्चा गोद ले रही हूँ.'' मुझे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. 'बच्चा' के नाम से समीर को नफ़रत थी. .... उसने उस छोटी सी उम्र में अपने साथ यही तो किया था. अस्पताल जाकर भारी रिश्वत देकर खुद को नपुंसक बना लिया और इस तरह उसने अपनी माँ से बदला लिया. फिर इश्तिहार दिलवाकर ऎसी लड़की से शादी की थी जिसकी बच्चेदानी ही न हो. हिसाब बराबर ....... उसने सोचा, न एक और बच्चा इस दुनिया में आयेगा न समीर-सुरेखा की तरह ज़हालत-ज़िल्लत सहेगा. समीर ने पद-प्रतिष्ठा-अमीरी से उपजी उपेक्षा सही थी तो सुरेखा ने दैविक अन्याय, नाइंसाफी की अवहेलना. इसीलिए दोनों की जोड़ी 'मेड फॉर इअच अदर' थी. दोनों खुश थे , बहुत खुश........

मुझे जाना ही होगा..... मिलना ही होगा....... सुरेखा से बात करनी ही होगी...... और नहीं सह पाऊंगा मैं...... मेरे पेट में कैसा अजीब सा दर्द, मीठा-मीठा बना रहता है, कभी-कभी ऐंठन भी होती.

"आप आ गए, रोहन, मैं आपका ही इंतज़ार कर रही थी. आइये न, देखिये कितना प्यारा है, हमारा समीर....." उत्साहित सुरेखा मुझे खींचती हुई अपने कमरे में ले गई. समीर....? सुरेखा ने अपने गोद लिए बच्चे का नाम समीर क्यों रखा, मैं जानना चाहता था. मैंने आश्चर्यमिश्रित स्वर में पूछा, "समीर"....... सुरेखा मुस्कुराई, "हां रोहन .... अब मैं अपने समीर के साथ रात-दिन रहूँगी. मुझे छोड़कर जाना चाहता था.... नहीं जा सकता वह ...मुझे छोड़कर नहीं जा सकता ..... हा.... हा..... हा..... वह हँसने लगी.

रोहन आप सोच रहे होंगे बच्चा गोद लेकर और उसका नाम समीर रखकर मैंने समीर के साथ बग़ावत की है, क्योकि सबको पता है समीर बच्चा नहीं चाहता था. लेकिन नहीं मैंने बग़ावत नहीं की है. समीर के बिना मैं अपनी ज़िंदगी की कल्पना भी नहीं कर सकती. मैं तो केवल समझाना चाहती थी. उस दिन इसी बात को लेकर मुझमें और समीर में बहुत कहा-सुनी, लड़ाई और रोना-धोना हुआ था . मैं कुछ दिन सहेली के घर रहने चली गई ...... यह सोचकर कि बात ठंडी हो जायेगी तब बात करेंगे, लेकिन......

रोहन एक औरत के दिल में मातृत्व की अभिलाषा का जागना क्या इतना बड़ा अपराध है? उस दिन समीर से मैंने एक बच्चा गोद लेने की बात कही थी. मैं अपनी और समीर की ज़िंदगी में एक ठहराव, एक उत्साह चाहती थी. एक भविष्य, एक जीने का मकसद चाहती थी. क्या ग़लत था? समीर भाग रहा था. खुद से, अपने अतीत से, माँ-बाप से, ज़िंदगी से........ पीना....... पीना.......... और पीना. मैं समीर का साथ देते-देते थक गई थी रोहन...... बहुत थक गई थी. मैंने सोचा कुछ दिन अलग रहकर आत्म-मंथन करूंगी फिर लौट आऊंगी और फिर से मनाने की चेष्टा करूंगी.....पर उसने मेरा इंतज़ार नहीं किया. चला गया..... सबसे दूर .....बहुत दूर........हमेशा के लिए......."

क्षण भर को वह रुकी. शायद दर्द का घूँट पी रही थी. फिर बोली, " समीर मुझे बहुत प्यार करता था. मेरी हर छोटी सी इच्छा उसके जीने का बहाना थी...... फिर....... वह रोने लगी. फिर अपने आप चुप हो गई. ....... रोहन एक बार मेरे मन में आया कि मैं भी अपने समीर के पास चली जाऊँ..... फिर मुझे लगा यह कायरता होगी , क्यों न समीर को अपने पास बुला लूँ........ तुम्हें पता है न....... पापा ने समीर से बात करना बंद कर दिया था क्योंकि उन्हें उनका वारिस चाहिए था और समीर ने जड़ ही काट दी थी. रोहन तुम्ही बताओ...... माँ-बाप जिन्दगी भर बच्चों को उनकी भूलों के लिए माफ़ करते रहते हैं..... हैं न........ क्या बच्चे माँ-बाप को एक गल्ती के लिए भी माफ़ नहीं कर सकते?"

सुरेखा कुछ पल रुकती फिर बोलने लगती. जो उसने आज तक नहीं कहा आज कह देना चाहती थी. आज मैं सिर्फ सुनने आया था. अपनी कोई कोई राय देने नहीं. उसने कहा,

"समीर और नेहा में सात साल का अंतर है. नेहा को माँ-पापा से कोई शिकायत नहीं है. नेहा ने बहुत बार माँ का दर्द समीर को बताना चाहा, पर समीर हर बार पत्थर का बुत बन जाता. नौकर-आया के हाथों हुई अपनी परवरिश के लिए उसने अपनी माँ को कभी माफ़ नहीं किया और जीवन भर के लिए बच्चा न पैदा करने की कसम खा ली."

सुरेखा क्षण भर चुप हुई फिर बोली, "रोहन, मैं नही चाहती कि समीर का नाम कड़वी यादों के साथ लिया जाये. रोहन देखो समीर लौट आया है, सिर्फ मेरे लिए नही...... माँ-पापा लिए, नेहा के लिए और तुम्हारे लिए भी...... "

सुरेखा के नन्हें समीर ने अंगड़ाई ली और ऊँ...... आँ...... की आवाज निकाली. सब कुछ भूल कर सुरेखा ने उसे गोद में उठा लिया...... प्यार करने लगी..... बेतहाशा...... जैसे सचमुच उसका समीर लौट आया हो.

कुछ आश्वस्त, कुछ तृप्त, कुछ निश्चिन्त मैं लौट आया अपने घर, अपने शहर.

अब मेरे पेट में ऐंठन नहीं होती.

 

सुधा गोयल ’नवीन‘

स्नातक शिक्षा मनोविज्ञान से,

एम. ए. हिन्दी, इलाहाबाद विश्वविद्यालय

रुचि ....... कहानी, कविता, यात्रा संस्मरण लिखना, गायन, भ्रमण, counselling.

सम्प्रति .... बारह वर्षों तक सतत अध्यापन, काॅलेज स्तर पर।

तत्पश्चात् रोटरी, इनरव्हील आदि संस्थाओं से जुड़कर councillor की हैसियत से समाज सेवा।

’सहयोग‘ बहुभाषीय साहित्यिक संस्था की सक्रिय सदस्या।

प्रकाशन .... विभिन्न पत्र पत्रिकाओं हँस, वनिता, सखी, तुलसी प्रभा, दैनिक जागरण, उदित वाणी, हिन्दुस्तान,

प्रभात-खबर , माधुरी इत्यादि में नियमित प्रकाशन। व्हील-जील पत्रिका का संपादन.

प्रसारण ... आकाशवाणी जमशेदपुर से नियमित रूप से लेख व कहानियों का प्रसारण।

‘’और बादल छँट गए” कहानी संग्रह सन 2010 में सहयोग प्रकाशन से प्रकाशित।

“ चूड़ी वाले हाथ” कहानी संग्रह सन 2017 में दिशा इंटरनेशनल पब्लिशिंग हाउस दिल्ली से प्रकाशित।

अनुवाद ........ लायन्स क्लब के शैक्षणिक कार्यक्रम की, Teen Ager समस्याओं से सम्बंधित अनेक पुस्तकों

का अँग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद.

सम्मान ...... 1. राजस्थानी साहित्य एवं सांस्कृतिक परिषद झारखण्ड द्वारा 2009 का साहित्य-सेवा पुरस्कार,

2. झारखण्ड मारवाड़ी महिला शाखा द्वारा 2010 का साहित्य-सेवा पुरस्कार.

3. समकालीन महिला साहित्य मंच मेरठ द्वारा 2018 का साहित्य सृजन सम्मान (चूड़ी वाले हाथ के लिए)

झारखंड लौह नगरी जमशेदपुर के “Jamshedpur Anthem”की लेखिका।

सम्पर्क ..... 3533 सतमला, विजया हेरिटेज,

फेज -7, कदमा, जमशेदपुर-831005

दूरभाष .... 09334040697

ई-मेल ….. goelsudha@gmail.com

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