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  • अनुराग शर्मा

गंधहीन

शरद ऋतु की अपनी ही सुन्दरता है. इस दुनिया की सारी रंगीनी श्वेत-श्याम हो जाती है. हिम की चांदनी दिन रात बिखरी रहती है. लेकिन जब बर्फ़ पिघलती है तब तो जैसे जीवन भड़क उठता है. ठूँठ से खड़े पेड़ नवपल्लवों द्वारा अपने जीवंत होने का अहसास दिलाते हैं. और साथ ही खिल उठते हैं, किस्म-किस्म के फूल. रातोंरात चहुँ ओर बिखरकर प्रकृति के रंग एक कलाकृति सी बना लेते हैं. और दृष्टिगत सौन्दर्य के साथ-साथ उसमें होती हैं विभिन्न प्रकार की वास. गंध के सभी नैसर्गिक रूप; फिर भी कभी वह एकदम जंगली लगती हैं और कभी परिष्कृत. मानव मन के साथ भी तो शायद ऐसा ही होता है. सुन्दर कपड़े, शानदार हेयरकट और विभिन्न प्रकार के शृंगार के नीचे कितना आदिम और क्रूर मन छिपा है, एक नज़र देखने पर पता ही नहीं लगता. “कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता ...” भारतीय रेस्त्राँ में नक़्श लायलपुरी के शब्द गूंज रहे हैं.

ठीक सामने बैठी रूपसी ने कितने दिल तोड़े हों, किसे पता. नित्य प्रातः नहा धोकर मन्दिर जाने वाला अपने दफ़्तर में कितनी रिश्वत लेता हो और कितने ग़बन कर चुका हो, किसे मालूम है. मौका मिलते ही दहेज़ मांगने, बहुएँ जलाने, लूट, बलात्कार, और ऑनर किलिंग करने वाले लोग क्या आसमान से टपकते हैं? क्या पाँच वक़्त की नमाज़ पढने वाले ग़ाज़ी बाबा ने दंगे के समय धर्मान्ध होकर किसी की जान ली होगी और फिर शव को रातों-रात नदी में बहा दिया होगा? मुझे नहीं पता. मैं तो इतना जानता हूँ कि इंसान, हैवान, शैतान, देवासुर सभी वेश बदलकर हमारे बीच घूमते रहते हैं. हम और आप देख ही नहीं पाते. देख भी लें तो पहचानेंगे कैसे? कभी उस दृष्टि से देखने की ज़रूरत ही नहीं समझते हम.

खैर, बात चल रही थी बहार, फूल, और सुगन्ध की. संत तुलसीदास ने कहा है "सकल पदारथ हैं जग माहीं कर्महीन नर पावत नाहीं. जीवन में सुगन्ध की केवल उपस्थिति काफी नहीं है. उसे अनुभव करने का भाग्य भी होना चाहिये. फूलों की नगरी में रहते हुए लोगों को फूलों के परागकणों या सुगन्ध से परहेज़ हो सकता है. मगर देबू को तो इन दोनों ही से गम्भीर एलर्जी थी. घर खरीदने के बाद पहला काम उसने यही किया कि लॉन के सारे पौधे उखड़वा डाले. पत्नी रीटा और बेटे विनय, दोनों ही फूलों और वनस्पतियों के शौकीन हैं, लेकिन अपने प्रियजन की तकलीफ़ किसे देखी जाती है. सो तय हुआ कि ऐसे पौधे लगाये जायें जो रंगीन हों, सुन्दर भी हों, परंतु हों गंधहीन. सूरजमुखी, गुड़हल, डेहलिया, ऐज़लीया, ट्यूलिप जैसे कितने ही पौधे. इन पौधों में भी लम्बी डंडियों वाले खूबसूरत आइरिस देबू की पहली पसन्द बने.

*** देबू आज सुबह काफ़ी जल्दी उठ गया था. दिन ही ऐसा खुशी का था. आज की प्रतीक्षा तो उसे कब से थी. रात में कई बार आँख खुल जा रही थी. समय देखता और फिर सोने की कोशिश करता मगर आँखों में नींद ही कहाँ थी. नहा धोकर फ़टाफ़ट तैयार हुआ और बाहर आकर अपनी रंग-बिरंगी बगिया पर एक भरपूर नज़र डाली. कुछ देर तक मन ही मन कुछ हिसाब सा लगाया और फिर आइरिस के एक दर्ज़न सबसे सुन्दर फूल लम्बी डंडियों समेत सफ़ाई से काट लिये. भीतर आकर बड़े मनोयोग से उनको जोड़कर एक मनोहर गुलदस्ता बनाया; पैसेंजर सीट पर रखकर गुनगुनाते हुए उसने अपनी गाड़ी बाहर निकाली. गराज का स्वचालित दरवाज़ा बन्द हुआ और कार फ़र्राटे से स्कूल की ओर भागने लगी. कार के स्वर-तंत्र से संत कबीर के धीर-गम्भीर शब्द बहने लगे, "दास कबीर जतन ते ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरिया."

स्कूल का पार्किंग स्थल खचाखच भरा हुआ था. यद्यपि देबू निर्धारित समय से कुछ पहले ही आ गया था परंतु फिर भी उसे मुख्य भवन से काफ़ी दूर कार खड़ी करने की जगह मिली. एक हाथ में गुलदस्ता और दूसरे में कैमरा लेकर देबू उछलता हुआ ऑडिटोरियम की ओर जा रहा था कि उसने एलेना को देखा. जैसी कि यहाँ परम्परा है - नज़र मिल जाने पर अजनबी भी मुस्करा देते हैं - उसे अपनी ओर देखते हुए वह मुस्कराया, हालांकि इस समय वह किसी से नज़र मिलाना नहीं चाहता था. "हाय रंजिश" एलेना ने मुस्कुराते हुए कहा. "हाय एलेना" कहकर वह चलने को हुआ मगर तब तक एलेना उसके करीब आई और बोली, "कितने साल बाद मिले हैं हम, फिर भी मुझे तुम्हारा नाम याद रहा." देबू अपनी हँसी रोक नहीं सका. वह समझ गया था कि चार साल पहले की नौकरी में उसकी सहकर्मी रही एलेना उसे दूसरा भारतीय सहकर्मी रजनीश समझ रही है. पर इस समय उसने अपने नाम के बारे में चुप रहना ही ठीक समझा और आगे बढ़ने को हुआ लेकिन अब एलेना उसके ठीक सामने खड़ी थी. "मैंने ठीक कहा न? आपका नाम रंजिश ही है?"

"नहीं! रंजिश किसी का नाम नहीं होता" कहकर उत्तर का इंतज़ार किये बिना वह मुख्य खण्ड की ओर बढ़ चला. ऑडिटोरियम काफ़ी बड़ा था लेकिन भीड़ भी कम नहीं थी. कुछ देर इधर-उधर देखने के बाद दूसरी पंक्ति में उसे किनारे की सीट खाली नज़र आई. वह फटाफट वहाँ जाकर जम गया. कुछ देर बाद ही हाल में शांति छा गयी और उद्घोषणाएँ शुरू हो गयीं. संगीत के कुछ कार्यक्रम होने के बाद भारतीय नृत्य-नाटिका का समय आया. गंगा के पृथ्वी पर अवतरण का दृश्य था. शंकर जी के गणों में से एक ने सबकी नज़र बचाकर हाथ हिलाकर देबू को विश किया. तुरंत ही दूसरी ओर देखकर हाथ नीचे कर लिया. दोनों की आँखों में चमक आ गई. देबू ने फ़टाफ़ट कई फ़ोटो खींचकर अपने स्वागत का उत्तर दिया और चोर नज़रों से शिवगण की नज़रों का पीछा किया. चेहरे पर एक मुस्कान आ गई. समारोह जारी रहा, कार्यक्रम चलते रहे लेकिन देबू की नज़रें कुछ खोजती सी इधर-उधर दौड़ती रहीं. उन एक जोड़ी नयनों को अधिक देर भटकना नहीं पड़ा. शिवजी का गण उसके सामने खड़ा था. दोनों ऐसे गले मिले जैसे कई जन्म बाद मिले हों. देबू ने गुलदस्ता शिवगण को पकड़ाया तो बदले में एक विनम्र मनाही मिली, "कितना मन है, लेकिन आपको तो पता ही है कि ये नहीं हो सकता." देबू ने अनमना सा होकर हाँ में सिर हिलाया. दोनों चौकन्ने थे. उनमें जल्दी-जल्दी कुछ बातें हुईं. एक दूसरे से फिर से गले मिले. देबू बाहर की ओर चल दिया और शिवगण वापस स्टेज की ओर.

***

घर आते समय गाड़ी चालू करते ही सीडी फिर बजने लगी. देबू ने फूलों का गुलदस्ता डैशबोर्ड पर रख लिया. उसकी भावनाओं को आसानी से कह पाना कठिन है. वह एक साथ खुश भी था और सामान्य भी. उसके दिमाग़ में बहुत सी बातें चल रही थीं. वह सोच नहीं रहा था बल्कि विचारों से जूझ रहा था. घर पहुँचने तक उसके जीवन के अनेक वर्ष किसी चित्रपट की तरह उसकी आँखों के सामने से गुज़र गये. कार में चल रहा कबीर का गीत "माया महाठगिनी हम जानी ..." उन उलझे हुए विचारों के लिये सटीक पृष्ठभूमि प्रदान कर रहा था. घर आ गया. गराज खुली, कार रुकी, गराज का दरवाज़ा बन्द हुआ. गायक व गीतकार वही थे, गीत बदल गया था. जब लग मनहि विकारा, तब लग नहिं छूटे संसारा. जब मन निर्मल करि जाना, तब निर्मल माहि समाना.. "पापा ... कहाँ हैं आप?" बन्द कार में चलते संगीत में विनय की आवाज़ बहुत मद्धम सी लगी. घर में किसी को होना नहीं चाहिये, शायद आवाज़ का भ्रम हुआ था. "जो चादर सुर नर मुनि ओढी, ओढि कै मैली कीन्ही चदरिया, झीनी रे झीनी ..." संतों की वाणी में कितना सार है! देशकाल के पार. बिना देखे भी सब देख सकते हैं. जो हो चुका है, और जो होना है, सब कुछ देख चुके हैं, कह चुके हैं. हर कविता पढी जा चुकी है और हर कहानी लिखी जा चुकी है. जो संसार में हो सकता है, वह सब भारत में हो चुका है. और जो भारत में सम्भावित है, वह सब महाभारत में लिख चुका है. द्रष्टा के लिये कुछ भी अदृश्य नहीं. "कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभू ..." संत बनने की ज़रूरत नहीं है, जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि. देबू तो खुद कवि है. क्या उसका मन वहाँ तक पहुँचता है जहाँ साधारण मानव का मन नहीं पहुँच सकता? क्या मन की गति सबसे तेज़ है? नहीं, सच्चाई यह है कि यक्षप्रश्न आज भी अनुत्तरित है. मन सबसे गतिमान नहीं हो सकता. मन का विस्थापन शून्य है, इसलिये उसकी गति भी शून्य ही है. "आता और न जाता है मन, यहीं खड़े इतराता है मन" देबू ने अपनी ताजातरीन काव्य पंक्ति को स्वगत ही उच्चारा और मन ही मन प्रसन्न हुआ. "कहाँ खड़े रह गये? हम इतनी देर से इंतज़ार कर रहे हैं, अब आयेंगे, अब आयेंगे!" इस बार रीटा की आवाज़ थी. "जो आयेगी सो रोयेगी, ऐसे परफ़ैक्शनिस्ट के पल्ले बन्ध के" माँ कहती थीं तो किशोर देबू हँसता था, "आप तो इतनी खुश हैं बाबूजी के साथ!" "किस्मत वाले हो जो रीटा जैसी पत्नी मिली है" जो भी देखता, अपने-अपने तरीके से यही बात कहता था. वह मुस्करा देता. लोग तो कुछ भी कह देते हैं, लेकिन देबू आज तक तय नहीं कर सका है कि वह पूर्णतावादी है या किस्मत वाला. हाँ वह यथास्थितिवादी अवश्य हो गया है, गीत भी अभी बदल गया है, "उज्जवल वरण दिये बगुलन को, कोयल कर दीन्ही कारी, संतों! करम की गति न्यारी ..." पहले तो चला जाता था. बिगड़कर भी तब कुछ टूटता नहीं था, बल्कि सुधरकर ठीक हो जाता था. लेकिन इस बार ... प्रारब्ध से कब तक लड़ेगा इंसान? वैसे भी ज़िन्दगी इतनी बड़ी नहीं कि इन सब संघर्षों में गँवाने के लिये छोड़ दी जाये. इस बार तो आने को भी नहीं कहा था. "आप चुपके से आ जाना. स्कूल में 12 बजे. किसी को पता नहीं लगेगा." आज पहली बार उसने जाते और आते दोनों समय गराज के स्वचालित द्वार की आवाज़ को महसूस करने का प्रयास किया था. "रोज़ शाम को ... गराज खुलने की आवाज़ से ही दिल दहल जाता है, ... आज न जाने कौन सी बिजली गिरने वाली है. जब होश ही ठिकाने न हों तो कुछ भी हो सकता है. नॉर्मल नहीं है यह आदमी." रीटा उसके बारे में ऐसा कहेगी, उसने सपने में भी नहीं सोचा था. आना-जाना लगा रहता था. अचानक रूठकर गई रीटा का सन्देश मिलते ही वह ससुराल चला जाता था. लाने के बाद सुनने में आता था, "हज़ार बार नाक रगड़ कर गया है, तब भेजा है हमने." इस बार का सन्देशा कुछ अलग था. इस बार रीटा का फ़ोन नहीं अदालत का नोटिस आया था. वापस बुलाने का नहीं, हर्ज़ा-खर्चा देने का नोटिस, "हम इस आदमी के साथ नहीं रह सकते. जान का खतरा है. इसके पागलपन का इलाज होना चाहिये. मेरा बच्चा और मैं उसके साथ एक ही घर में सुरक्षित नहीं है."

देबू कैसे सहता इतना बड़ा आरोप? एकदम झूठ है, वह तो मच्छर भी नहीं मारता. अदालत के आदेश पर वह अपने मानसिक-मूल्यांकन के लिये मनोचिकित्सक के सामने बैठा है. दीवार पर बड़ा सा पोस्टर लगा है, "घरेलू हिंसा से बचें. इस शख्स को ध्यान से देखिये. यह मक्खी भी नहीं मार सकता, लेकिन अपनी पत्नी को रोज़ पीटता है." उसे लगता है पोस्टर उसी के लिये खास ऑर्डर पर बनवाया गया है. उसे पोस्टर देखता देखकर मनोचिकित्सक अपनी डायरी में कुछ नोट करती है. जब से दोनों गये हैं, देबू अकसर घर आकर भी अन्दर नहीं आता. गराज में ही कार में सीट बिल्कुल पीछे धकेलकर अधलेटा सा पड़ा रहता है. "बिन घरनी घर भूत का डेरा" जिस तरह दोनों की अनुपस्थिति में भी उनकी आवाज़ें सुनाई देती रहती हैं, उसे लगता है कि वह सचमुच पागल हो गया है. यह नहीं समझ पाता कि अब हुआ है या पहले से ही था. शायद रीटा की बात ही सही हो. शायद माँ की बात भी सही हो. या शायद स्त्रियों का सोचने का तरीका ही भिन्न होता हो. नहीं, शायद वह खुद ही इन सबसे, सारी दुनिया से भिन्न है. लेकिन अगर ऐसा होता तो अपने स्कूल के वार्षिक समारोह के लिये विनय चुपके से फ़ोन करके उसे बुलाता नहीं. शायद बच्चा अपने पिता के मोह में कुछ देख नहीं पाता. "पापा, आप ज़रूर आना. आपको देखने का कितना मन करता है मेरा, लेकिन माँ और नानाजी लेकर ही नहीं आते." किसी चलचित्र सरीखे तेज़ी से दौड़ते जीवन के बीते पल दृष्टिपटल पर थमने से लगे हैं. "मामा, नानी आदि आपके बारे में कुछ भी कहते रहते हैं. माँ उन्हें टोकती भी नहीं है. मेरा मन करता है कि वहाँ से उसी वक्त भाग आऊँ."

*** "पापा, आप आ गये?" विनय कार का दरवाज़ा बाहर से खोलता है. निष्चेष्ट पड़ा देबू उठकर बेटे का माथा चूमता है. विनय उसकी बाहों में होते हुए भी वहाँ नहीं है. आइरिस के फूल सामने हैं मगर उनमें गन्ध नहीं है. देबू विनय से कहता है, "मैं तुम्हारा अहित सोच भी नहीं सकता बेटा. तुम्हारी माँ को कोई भारी ग़लतफ़हमी हुई है." "आप यहाँ क्यों सो रहे हैं? अन्दर आ जाइये" रीटा वापस आ गई क्या? लेकिन... वह तो कभी ऐसे मनुहार नहीं करती. "बहुत थक गया हूँ ... अभी उठ नहीं सकता" शब्द शायद मन में ही रह गये. बन्द गराज में कार के रंगहीन धुएँ के साथ तेज़ी से भरती हुई कार्बन मोनोऑक्साइड पूर्णतया गन्धहीन है, बिल्कुल आइरिस के फूलों की तरह ही. हाँ, आइरिस के फूल इस गन्धहीन गैस जैसे जानलेवा नहीं होते. सारा भ्रम रंगहीन गंधहीन धूम्र में घुल गया है, घर के अंदर कोई नहीं है. देबू बंद गराज में ड्राइवर सीट पर सो रहा है, कार का इंजन अभी भी चालू है पर गीत बदल गया है. जल में घट औ घट में जल है, बाहर-भीतर पानी. फूटा घट जल जलहि समाना, यह तथ कह्यौ ज्ञानी.. [समाप्त]

 

महात्मा गांधी संस्थान, मॉरिशस द्वारा स्थापित प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय द्वैवार्षिक पुरस्कार ‘आप्रवासी हिंदी साहित्य सृजन सम्मान’ के प्रथम विजेता अनुराग शर्मा एक लेखक, सम्पादक, किस्सागो, कवि और विचारक हैं। ‘आनंद ही आनंद’ संस्था द्वारा उन्हें 2015-16 का ‘राष्ट्रीय भाष्य गौरव सम्मान’ प्रदान किया गया था। विश्व हिंदी सचिवालय की एकांकी प्रतियोगिता में उन्हें पुरस्कार मिल चुका है। हिंदी लेखकों की वैश्विक ‘राही’ रैंकिंग में उनका चालीसवाँ स्थान है।

आईटी प्रबंधन में स्नातकोत्तर अनुराग पिट्सबर्ग के एक संस्थान में अहिंदीभाषी छात्रों को हिंदी का प्रशिक्षण देते हैं। वे हिंदी तथा अंग्रेज़ी में प्रकाशित मासिक पत्रिका सेतु (ISSN 2475-1359) के संस्थापक, प्रकाशक तथा प्रमुख सम्पादक हैं। वे रेडियो प्लेबैक इंडिया के सह संस्थापक, तथा पिटरेडियो के संस्थापक हैं।

प्रकाशित कृतियाँ

अनुरागी मन (कथा संग्रह); देशांतर (काव्य संकलन); एसर्बिक ऐंथॉलॉजी (अंग्रेज़ी काव्य संकलन); पतझड सावन वसंत बहार (काव्य संग्रह); इंडिया ऐज़ ऐन आय टी सुपरपॉवर (अध्ययन); विनोबा भावे के गीता प्रवचन की ऑडियोबुक; सुनो कहानी ऑडियोबुक (प्रेमचन्द की कहानियाँ); हिन्दी समय पर कहानियाँ; तकनीक सम्बन्धी शोधपत्र, कवितायें, कहानियाँ, साक्षात्कार, तथा आलेख अंतर्जाल पर, पत्रिकाओं व हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित

सम्पर्क - indiasmart@gmail.com

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