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  • डॉ. अनिल भदोरिया

माँ के दो आभूषण....

अस्पताल का प्रांगण -

दुखी, कष्टसाध्य और रुग्ण रोगी की लम्बी श्रंखला -

चिकित्सक कक्ष में जारी है जांच और सही जांच के द्वारा रोग की जड़ तक पहुँचने की जद्दोजहद.

तिस पर हरेक को शीघ्रता है कि जल्दी पाने डॉक्टर के पास पहुंचू. रोगी की शीघ्रता है कि तुरंत उपचार शुरू हो और मैं दौड़ता हुआ अस्पताल से बाहर निकलूं, भले चारपाई पर मुझे लाया गया हो. रोगी के निकट सम्बन्धी की इच्छा है कि जल्दी कारज निपटे तो अपने काम–धंधे पर जाऊ. अपने कम्फर्ट जोन में पुनःपहुंचू. चिकित्सकों की आकांक्षा है कि जल्द भीड़ निपटे तो अस्पताल के भरती मरीजों का राउंड लेकर आज का कार्य समाप्त हो.

और गोलाकार पृथ्वी की घडी अपनी तेज गति को निरंतर बनाये हुए सूर्य को अस्ताचल तक पहुँचाने में लगी हुई है. ऐसे में अम्बुलेंस सेवा से एक गंभीर महिला रोगी, भीड़ को धकियाते, सम्बन्धियों की सेना के साथ सीधे ओ. पी. डी. में ...

व्हील चेयर पर ६७ वर्ष की महिला रोगी -

"सीरियस हैं, हटो - हटो - डॉक्टर को तुरंत दिखाना है." कहते कहते नरमुंडों के सेना ओ. पी. डी. के कक्ष के अंदर. अडा दी व्हील चेयर, डॉक्टर की टेबल के सामने.

"कौन है सीरियस? ये तो भली हैं, बैठी है. सांस ले रही है, आराम से, इतनी जल्दी क्या है. क्यों है?" डॉक्टर गरजा.

"सर, जल्दी देख लीजिये , बहुत काम है."

डरता है डॉक्टर भी आजकल भीड़ तंत्र से. मरीज की जान बचाने का शुभ और धार्मिक कारज भी अपनी जान हथेली पर लेकर करता है. न जाने कब ये सामने खड़े याचक-नरमुंड, पिशाच-नरमुंड में बदल जायें, तो डॉक्टर पर दे धना-धन करे. एक भरे अनेक. तिस पर अस्पताल में अफरा तफरी और पीड़ित रोगी का श्रम-असाध्य कष्ट!

फिर तुर्रा ये कि सब सलाह, राय , परामर्श, मशविरा आदि डॉक्टर को ही देवे कि, डॉक्टर तुम तो समझदार थे, क्यों उलझे, बिना बात, पिटे भी और सब की समझाइश पर समझौता भी करना पडा.

अस्पताल सरकारी हो तो माहौल और ग़मगीन. न अपना उच्च-अधिकारी बचाने आयेगा और राजनैतिक मुद्दा बनेगा सो अलग. तिस पर सुबह के अखबार में फोटो नाम समेत डॉक्टर छपेगा. समाज और समुदाय की एक तरफ़ा समीक्षा होगी और सामूहिक छीछालेदर.

इन सबसे बचने के लिए एक उर्जावान डॉक्टर ने इन महिला रोगी को विधायक/ पार्षद जैसा अति-विशिस्ट नैतिक व्यव्हार देना उचित समझा. सारी जांचे, परिक्षण, पुराना इतिहास आदि आदि का कुल जमा निष्कर्ष ठीक न निकला.

"तुम, इन माताजी के बेटे हो?"

"हाँ, और ये भी ... हम दोनों."

"चलो ठीक. माताजी को टी. बी. का संक्रमण है वे पॉजिटिव भी हैं, दोनों फेफड़े खराब हो रहे हैं , तुरंत भरती कीजिये. यह सरकारी अस्पताल है, भोजन, दवाई, डॉक्टर की सलाह , नर्स की सेवा, चाय–नाश्ता, फल सब निशुल्क व्यवस्था है शासन की."

जैसे सन्निपात हुआ, बेटों पर.ओ पी डी में घुसते समय जो तोते जैसा तीव्र आर्तनाद था वह बगुले के धीर-गंभीर मूक भाव में बदल गया.

डॉक्टर ने भारती के सारे कागज़ ओउरे किये और भीतर वार्ड का रास्ता दिखा दिया. भीड़ कम हुई तो डॉक्टर राउंड लेने वार्ड में चले गए. एक वही उर्जावान डॉक्टर ओ पी डी में बने रहे, रोगी सेवा को. तभी उन वृद्ध महिला के दोनों बेटे दोकोत्र के सम्मुख आ खड़े हुए.

"सर, घर पर इलाज नहीं हो सकता है क्या?"

"नहीं, ६७ की उम्र है, ३४ किलो वजन है, समाप्त प्राय फेफड़े है, डिहाइड्रेशन अलग है दमा भी है यहाँ भरती रहेंगी तो जल्दी स्वस्थ्य लाभ कर लेंगी. बाकि तुम्हारी मर्जी."

एक सांस में बोल गया डॉक्टर जैसे रटा-रटाया संवाद हो.

"सर, यहाँ कौन देख पायेगा, आना-जाना, खाना-पैखाना सब कराने के लिए एक को रुकना पड़ेगा. काम–धंधा चौपट हो जायेगा. आप तो घर का ही इलाज लिख दें."

आवाज में निवेदन नहीं, आदेश था.

संवाद, विवाद में बदलता देख डॉक्टर ने उपचार लिख दिया और कागज थमाते थमाते कह दिया, "क्या ऐसी गर्मी, तुम लोग पुलिस के थाने में दिखा पाते?"

सन्नाटा.

"शासकीय कार्य में बाधा की एक धारा और जोड़ देता थानेदार. और एक तलवार की जब्ती भी तुम्हारे पल्ले से दिखा देता तो सब चुपचाप सह लेते. और यहाँ, डॉक्टर पर, जो आता है , अपनी सारी जवानी उड़ेल देता है."

खैर, दिन संपन्न हुआ सब अपने घर पहुँच खुश हुए.

आठ दिन बीतते बीतते दोनों भाई, अपनी माँ को लेकर फिर हाजिर.

"अब क्या हुआ?"

"सर, भरती करना है, खांसी रात भर चलती है और खून भी आता है खांसी में."

"समझ गया मैं, समझाया था न कि घर में भी यह बीमारी फैलती है ओर बच्चे अपनी दादी से खेलते हैं, लगा पीड़ित न हों, तब समझ न आया, अब जब आपकी पत्नियों ने कहा तो भरती करना है."

सन्नाटा.

"चलिए कर दीजिये भरती अस्पताल में. और हां, सेवा करना तुम सब अब."

समय बीता, डेढ़ महिना बीतते बीतते टी बी का संक्रमण नेगेटिव हो गया, वजन बढ़ गया, दमा सुधर गया, माताजी खुश. बेटों ने भी खूब सेवा की, कोई खर्च नहीं लगा और हर पक्ष खुश और शासकीय सेवा से हर पक्ष संतुष्ट.

जीवन की डगर पथरीली है, ऊँची नीची, धीरे चलो, तेज चलो, चलना तो संभल कर ही पड़ता है. ६ महीने तक माताजी निरंतर उपचार लेती रहीं, पूर्ण स्वस्थ हो, खूब आशीष बाँटे और प्रगाढ़ सम्बन्ध लिए घर वापसी हुई.

जाते जाते, बोल ही उठी कि, "डॉक्टर साब, तुमको आशीर्वाद है, मेरे आभूषण हैं ये दोनों लड़के, आपने समझाया तो ये बच्चे वापस मिल गए मुझे, नमस्कार."

समय बीतता गया. एक दिन वृद्ध माता जी की सगी बहन मेरी ड्यूटी के दिन आ गयीं, बताने लगी साल भर सब ठीक रहा, दीदी एक रात सोइ तो सुबह उठी ही नहीं, एक माह पहले परलोक सिधार गयीं. बोलती गयीं, वृद्ध माता जी की सगी बहन - "लेकिन अब लड़के लडे पड़े है आपस में, हुआ यूं की इलाज के दौरान मैंने कह दिया था की दीदी के २ आभूषण हैं, एक ९ तोले की सोने की कमर-धनी है और एक ढाई तोले की सोने की चेन है. इसीलिए लड़के सेवा करते रहे, उपचार के दौरान, दीदी भी कहती रहीं, मेरे २ आभूषण है ये २ लड़के. और लड़के सोने के आभूषण समझते रहे और अब जब आभूषण मिले नहीं तो बवाल हो गया है घर में. आभूषण होते तो मिलते. और अब आरोप लगे हैं की उनके साथ धोखा हुआ है."

जीवन के एक और सत्य से एक बार फिर साक्षात्कार. मौन का उत्तर और किन्कर्ताव्यविमूढ़ का मानस. मेरे ह्रदय तक को शूल की भांति बेध गया.

 

डॉ अनिल कुमार भदोरिया

9826044193

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