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  • मनोहर चमोली मनु

अलविदा

मोबाइल पर दोनों ओर से बात हो रही थी. दोनों ओर अपरिचित थे, लेकिन आकर्षण के साथ-साथ एक-दूजे को जानने-समझने की दबी इच्छा थी. तभी तो बात आगे बढ़ती गई.

हैलो.

हाँ हैलो? कौन?

आप कौन?

हद है! काॅल आपने की है. पहले आप बताइए कि आप कौन बोल रहे हैं?

मैं मानव बोल रहा हूँ.

मोबाइल पर मानव ही बोलेगा. कोई गधा नहीं. नाम बताइए.

कहा तो, मानव बोल रहा हूँ. अब आप बताइए.

क्या?

नाम.

पहले काम बताइए.

बताया तो.

क्या.

यही कि नाम बताइए.

वामा.

इस तरह अनजाने में ही मानव और वामा में बातचीत हुई. यह तकनीक अपने साथ संयोग की कई विधियाँ लेकर आई है. अपरिचित नंबर पर भी आप अनायास ही बातचीत कर सकते हैं. मानव और वामा के साथ ऐसा ही हुआ. फिर बातों का सिलसिला चल पड़ा. पहले दोनों एक-दूसरे को मोबाइल पर काॅल करने लगे. फिर मेल से बातों की प्रगाढ़ता बढ़ी. ज़ाहिर सी बात है कि बातों ही बातों में बातों का रस इतना था कि जीवन के और रस बेस्वाद हो गए. बातों में अपनत्व था या जो कुछ भी था, वो ऐसा था कि बात इतनी बढ़ गई कि वे घंटों फोन पर बतियाते. स्थिति यह हो गई कि दोनों एक-दूसरे के मनोभावों को, आदतों को, स्वभाव को और यहाँ तक कि दूर रहते हुए भी भीतर ही भीतर क्या चल रहा है, इसका भी अनायास आकलन कर लेते थे.

महानगर की अपनी जीवन शैली होती है. उस जीवन में सैकड़ों रंग होते हैं. जो समय के साथ तेज़ी से खिलते हैं और तेज़ी से उड़ते हैं. रंग ऐसे कि उनकी चमक देखते ही बनती है. लेकिन वह चमक पल भर में ऐसे स्वाहा भी हो जाती है, जैसे पटाखों में हज़ारों रुपये उड़ जाते हैं, मगर उनके उड़ने का अहसास धमाकों के पीछे छिप जाता है. महानगरों की जीवन शैली का लोक और लोकाचार भी ऐसी आदत में ढल जाता है. वामा कोलकाता में पली-बढ़ी. कोलकाता से बाहर कभी नहीं गई. माता-पिता की इकलौती संतान के पास सब कुछ है. मगर वे करीबी नाते-रिश्तों से अपरिचित है.

गाँव में अत्याधुनिक सुख-सुविधाएँ पसर जाएँ. खान-पान, रहन-सहन, बोली-भाषा, आचार-व्यवहार, रीति-रिवाज़ सब कुछ शहरों-सा हो जाए. तब भी, गाँव हमेशा गाँव ही रहते हैं. गाँव में ऐसा कुछ होता है, जो उन्हें शहर नहीं होने देता. मानव सुदूर गढ़वाल के सीमांत गाँव का रहने वाला है. मानव के गाँव को शहर से जोड़ने वाली एक ही सड़क है. उस सर्पीली सड़क पर सुदूर कस्बों से गिनी-चुनी बसें-मोटरें रेंगती हैं. वे घोंघे की तरह आती हैं और नागिन की तरह वापिस लौटती हैं. मगर गाड़ी आते समय लगभग खाली-सी आती हैं. अलबत्ता शहर को लौटते समय वे लबालब-सी रहती हैं.

मानव स्नातक हो चुका है. वह कुछ समझ नहीं पा रहा है कि अब आगे क्या करना है. चार बहिनों का इकलौता सबसे बड़ा भाई. पिताजी फ़ौज में देश सेवा के लिए कुर्बान हो गए. माँ ऐसी कि काम में खटती रहती है. समय ने कब उससे उसकी जवानी छीन ली, उसे भी पता नहीं चला. प्रौढ़ावस्था ऐसी कि जैसे ठिठक कर रुक गई हो. जैसा हर माँ के साथ होता है. मानव की माँ भी उस पर जान छिड़कती है. बहनें स्कूल जाती हैं. माँ ने कभी स्कूल का मुँह नहीं देखा. मगर पढ़ाई-लिखाई का महत्व जानती है. यही कारण है कि घर के काम वो खुद करना चाहती है. बेटियों से नहीं कराती, मानव से तो कदापि नहीं. वह एक ही बात कहती है -तुम बस पढ़ो. मुझे बोलो क्या करना है.

पहाड़ के गाँव और गाँव में महिलाओं के ज़िम्में कामों की सूची कभी खत्म नहीं होती. काम इतने कि सुबह होती नहीं कि काम मुँह के सामने खड़े हो जाते हैं. रात बुढ़ा जाती है, पर काम खत्म नहीं होते. मानव की माँ सुबह के अंधेरे में ही घास-लकड़ी के लिए चली जाती है. जब लौटती है तो सिर पर बड़ा भारी गट्ठा पालती मार कर डोलता हुआ घर में आता है. मवेशियों को उनके गोट से बाहर बांधती है. गोबर आदि साफ़ करती है. उन्हें चारा-पानी देती है. तब जाकर सूरज अलसाया हुआ-सा पूरब की पहाड़ियों पर दिखाई पड़ता है. चूल्हे पर आग जलाकर वह चाय की केतली चढ़ाती है. चाय के उबलने की कड़क खुशबू रजाई में घुसती है तब बच्चे उठते हैं. रजाई में बैठे-बैठे ही चाय पीने के बाद उनकी सुबह होती है. चूल्हे पर मोटा अनाज कब पक गया. किसी को पता ही नहीं चलता. बच्चे खा-पीकर स्कूल चले जाते हैं, तब जाकर माँ को मुँह-हाथ धोने की फ़ुरसत मिलती है.

धरे से कई गागर पानी लाना तो ऐसा काम है, जैसे साँस लेना आवश्यक है. रसोई और घर की साफ़-सफ़ाई से पहले मवेशियों के लिए साल भर का चारा बटोरना ऐसा काम है कि वह खत्म ही नहीं होता. सर्दियों के चार महीने बर्फ़ के चलते मवेशी सूखा घास खाने के लिए विवश होते हैं. मानव की माँ के पास दो भैंस, एक गाय, सात बकरियाँ, दो जोड़ी बैल, चार मुर्गियाँ हैं. बकरियाँ और मुर्गियाँ ऐसी सम्पत्ति हैं, जो घटती-बढ़ती रहती हैं. पानी वाले खेतों के अलावा बंजड़ खेतों में पेड़ भी ऐसी सम्पत्ति है, जो गाहे-बगाहे बेचे जाते हैं. दूध-घी बेचकर मानव की माँ घर की रोज़ी-रोटी चलाती है. दाल-रोटी के लिए दिन भर खेतों में खटती है. दो जोड़ी बैल दूसरों के खेतों में हल लगाते हैं. बदले में ले जाने वाले लोग उनके खेतों में हल लगा देते हैं.

गाँव में वस्तु विनिमय के अप्रत्यक्ष उदाहरण आज भी मिल जाते हैं. मानव की माँ ने भी गाँव में ऐसा तंत्रा विकसित किया हुआ है, जिससे उसके परिवार की गाड़ी खिंच रही है. मानव की माँ को आशा है कि उसका बेटा खूब पढ़-लिख कर एक सुंदर बहू लाएगा, जो उसके काम में हाथ बंटाएगी और मानव नौकरी करके अपनी बहिनों के हाथ पीले कर देगा. उसे घर के मुखिया के न होने का कोई मलाल नहीं है. उसे लगता है कि मानव आने वाले समय में सब कुछ संभाल लेगा.

कहाँ हो?

यहीं गांव में.

सो गए क्या?

तुमसे बात किये बिना ही?

बाकि लोग?

बहनें दूसरे कमरे में कब की सो चुकी हैं.

खर्राटें कौन ले रहा है?

माँ. मेरे नजदीक ही है. पर चिंता की कोई बात नहीं. उसे कान से कम सुनाई देता है. वैसे भी वो इतना थक जाती है कि इस समय ढोल भी बजे तो नहीं उठेगी.

मैंने मेल से फ़ोटो भेजी थीं. देखी क्या?

अभी कहाँ. कल बाज़ार जाऊँगा. बाज़ार यहाँ से छियालीस किलोमीटर है. फिर कई बार वहाँ कनेक्टीविटी नहीं होती.

किस सदी में रहते हैं तुम्हारे पहाड़ के लोग.

तुम्हें भी तो एक न एक दिन यहीं आना है. अभी से आदत डाल लो. अच्छा रहेगा.

मुझे नींद आ रही है. रात के बारह कब के बज चुके हैं. अच्छा लो आज की झप्पी.

एक मिनट. मैं मोबाइल को होंठों पर तो लगा लूँ ... अब दो.

... मिली?

हाँ ...एक और ... दो न ...

बस ...

सुनो.... हैलो!

हाँ ...बोलो. सुन रही हूूँ.

अब झप्पी से काम नहीं चलता. आगे ...

आगे क्या? फ़ोन पर और क्या हो सकता है?

कल्पना करने में क्या जाता है. चलो उतारो.

ओ.के ...बाय.

सुनो तो ...

...इस समय उपभोक्ता का मोबाइल स्विच आॅपफ है. कृपया थोड़ी देर बाद डाॅयल करे ...

वामा ने स्विच आफ़ कर दिया है. मानव बुदबुदाया. वह करवट बदल कर सोने की कोशिश करने लगा.

मानव ही नहीं वामा भी अब दूसरे लोक की बातों में मशगूल होने लगे थे. मानव ने ये पांचवीं कंपनी का सिम लिया था. दस पैसे की राष्ट्रीय काॅल ने उत्तराखंड और पश्चिमी बंगाल की दूरी को कम कर दिया था. अब आलम यह था कि रात के बारह बजे से सुबह चार बजे तक अनवरत् बात होने लगीं. मानव और वामा दोनों को लगता कि आशाएँ, इच्छाएँ, लालसाएँ, उम्मीदें और चाह दोनों ओर से ही हैं. मानव दिन भर सोता और शाम ढलते ही वामा से बात करने को आतुर रहता. बैटरी का झंझट न रहे, इसके लिए तीन-तीन मोबाइल रखना ज़रूरी हो गया था.

मानव बेटा. जब देखो तू मोबाइल पर ही चिपका रहता है. क्या बात है? एक दिन माँ ने पूछा. मानव को अपनी भोली माँ से ऐसे प्रश्न की उम्मीद नहीं थी. वह सकपका गया. कहने लगा - माँ. शहरों में नौकरी के लिए एप्लाई किया हुआ है. दोस्तों के साथ फ़ोन पर इंटरव्यू की तैयारी करता हूं. देख न. तीन-तीन मोबाइल लिए हुए हैं. आज के ज़माने में भगवान मिल जाएगा पर नौकरी नहीं.

हाँ बेटा. बस तू इंटरब्यू की तैयारी कर. मैं हूँ न. तूझे कुछ करने की ज़रूरत नहीं है. तू अपनी तैयारी में लगा रह. किसी तरह की कोई कसर मत छोड़ना. तेरी नौकरी लग जाए. यह कहकर वह अपने कामों में लग गईं.

मानव को लगा कि उसने कुछ ऐसा किया है, जो उसे नहीं करना चाहिए था. वह अभी इस बारे में सोच ही रहा था कि उसका मोबाइल घनघना उठा. वह पिफर गरदन टेढ़ी कर पफोन पर बतियाने लगा.

धन की कटाई का समय. ठंड ने अभी दस्तक ही दी थी. इस समय गांव में बहुत काम हो जाता है. सुबह से लेकर रात तक धन की मड़ाई में सिर खपाना होता है. इन दिनों न दिन का भोजन समय पर होता है न रात का. बारिश की आशंका के चलते हर कोई फसल काट कर सुरक्षित रखना चाहता है. धन अलग कर पराल को मवेशियों के लिए बचाना भी सबसे बड़ी चिंता होती है. ऐसे समय में हर कोई काम में जुटा होता है.

मानव ने कहा - माँ. शाम ढल चुकी है. खेतों में कितना काम बाकी है?

बस आज ही आज का है. मगर तू क्यों चिंता करता है. तू घर पर रह. तेरी बहनें लगीं तो हैं. क्या पता तेरा फोन कब आ जाए. खेतों में टाॅवर कहां हैं. बस आज की बात है. आसमान में बादल भी छाए हुए हैं. कहीं बारिश न आ जाए. माँ ने कहा और रस्सी लेकर खेतों की ओर चल पड़ी. मानव ने मोबाइल के स्क्रीन पर समय देखा. शाम के सात बज चुके थे. उसने वामा को मिस काॅल की. तुरंत वामा ने काॅल बैक की.

हाँ बोलो. मिस काॅल क्यों की?

तुम्हारी फोटो मिल गई. मैंने जो अपनी फोटो भेजी थीं, वह मिलीं?

मिल गईं.

अब क्या कहती हो?

अब क्या? पहले तुम बोलो.

मैं तुमसे शादी करना चाहता हूं. तुम नहीं तो कोई ओर नहीं.

मैं भी ... पर ...

पर क्या? वामा बोलो तो ...

मैं कोलकाता नहीं छोड़ सकती. मम्मी-पापा मेरा रिश्ता कोलकाता से बाहर कभी नहीं करेंगे. वे अकेले रह जाएँगे. कुछ समझ नहीं आ रहा है. कैसे होगा.

यदि मैं कोलकाता आ जाउफं तो ...वहीं रहने लगूँ तो?

तो सारी प्राब्लम साल्व. फिर क्या दिक्कत है. मम्मी-पापा को मनाने की जिम्मेदारी मेरी रहेगी. और सुनो ... क्या तुम एक बार कोलकाता नहीं आ सकते?

कोलकाता! यार. यहां पहाड़ से कोलकाता पता है कितना दूर है? फिर मेरे पास इतना किराया कहां से आएगा?

ये तुम मुझ पर छोड़ दो. मैं तुम्हें कल ही मनिआॅर्डर कर दूंगी. तुम अपना पोस्टल एड्रस एस.एम.एस. कर देना. सब कुछ अच्छा होगा. परेशान न हो.

ठीक है. मैं जल्दी ही कोलकाता आता हूं. थोड़ा समय लगेगा.

कितना? घर में कोई प्राब्ल्म है?

नहीं. कोई नहीं. कह दूँगा कि नौकरी के लिए जा रहा हूँ. मुझे कोलकाता में नौकरी तो मिल जाएगी न?

कैसी बात कर रहे हो? तुम्हें यहां नौकरी करने की क्या जरूरत? मेरे पापा के पास ही बहुत काम है. कल तुम्हें ही तो वह सब संभालना होगा. डोन्ट वरी. बस तुम जल्दी से आ जाओ. क्या पता. झप्पी से ज्यादा करने का मौका भी तुम्हें मिल जाए. ओ.के. बाय.

बाय.

मानव खुशी से उछल पड़ा. वह वामा से शादी की कल्पना की उड़ान भरने लगा. उसने आँखें मूँद लीं. उसकी आँख लग गई. वह सपनों में डूब गया. वहीं दूसरी ओर उसकी बहनें खेत में धन को पराल से अलग कर रही थीं. आज की रात गाँव में सबके लिए चुनौतीपूर्ण थी. धन और पराल समेटते-समेटते रात बहुत हो गई. आधी रात बीत चुकी थी. मानव की माँ और उसकी बहनें तब घर लौटीं.

माँ ने कहा - बच्चियों. तुम सब हाथ-मुँह धो लो. मैं जल्दी से खाना पकाती हूँ. मैं मानव को बाद में खुद जगाऊँगी. उसे अभी सोने दो. पहले तुम खा लो.

थकी-हारी माँ चूल्हे में झुक गई. माँ ने बेटियों को खिलाया. बेटियाँ खाकर सोने चली गईं. उसके बाद माँ ने मानव के माथे पर धीरे से हाथ रखते हुए कहा - बेटा मानव. उठ. चल हाथ धो ले. मैं तेरे लिए गरम-गरम रोटी बनाती हूँ.

मानव हड़बड़ा कर उठ बैठा. मोबाइल स्क्रीन पर समय देखा तो रात के ग्यारह बज चुके थे. मानव सपने में वामा के साथ सुहागरात मना चुका था. मन ही मन प्रफुल्लित मानव कमरे से ही चिल्लाया - माँ. खाना रहने देे. भूख नहीं है.

नहीं बेटा. भूखे नहीं सोते. खराब सपने आते हैं. सब्जी बनी हुई है. आटा गूंथा हुआ है. सात-आठ रोटी बनाने में कितना वक्त लगता है. चल. जल्दी से रसोई में आ जा. आग जल रही है. ले आ. पटरी पर बैठ जा. माँ ने रसोई से ही कहा.

मानव ने रजाई एक ओर फेंकी. मगर हवा के हल्के से झोंके ने उसे फिर से रजाई में दुबकने के लिए विवश कर दिया. दूर नदी कलकलाती हुई मीठा-सा शोर मचा रही थी. मानव को रोटी की थपथपाहट साफ़ सुनाई दे रही थी. वे आँखें मूंदकर लेटा ही रहा. तभी मोबाइल पर आ रही काॅल ने उसकी झपकी तोड़ दी. काॅल वामा की थी. मानव ने काॅल रिसीव करने की जगह उसे काटना उचित समझा. मोबाइल स्क्रीन पर साढ़े ग्यारह बज चुके थे. वामा लगातार काॅल कर रही थी. मानव ने रजाई छोड़ी और वह रसोई की ओर लपका.

रसोई का नजारा देखकर उसकी नींद गायब हो गई. चूल्हा जल रहा था. उसकी माँ चार-पाँच रोटियाँ बना चुकी थीं. उसके हाथ पर आटे की एक गोल लोई थी. तवे पर छोड़ी एक रोटी जल चुकी थी. वह चूल्हे के दायीं ओर बैठे-बैठे ही घुटनों पर सिर रख कर सो चुकी थी. मानव की आँखें भीग गई. वह फफक कर रो पड़ा. उसने थकी-हारी माँ को हल्के से जगाया. माँ हड़बड़ाहट में उठी और फिर से रोटी बनाने लग गई. मानव ने कहा - रहने दे न माँ. मुझे भूख नहीं है. ये जो तूने रोटियाँ बनाई हैं, उन्हें तू खा और जल्दी से सो जा. रात काफ़ी हो चुकी है.

माँ ने आँखों को झपझपाते हुए कहा - ऐसा कभी हुआ है कि मैं तूझे खिलाए बगैर सो जाऊँ? चल बैठ यहाँ. दोनों एक साथ खाते हैं. मुझे जोर से भूख लगी है.

अच्छा तू खा. तेरी कसम माँ. मुझे बिल्कुल भी भूख नहीं है. और हाँ. मेरी नौकरी जब लगेगी, तब लगेगी. तू सबसे पहले अपने लिए एक बहू ले आ.

यह कहकर मानव रसोई से चला आया और अपनी रजाई में घुस गया. उसने भीगती आँखों से वामा को एक संदेश लिखा.

उसने लिखा - माँ और बहिनों को छोड़कर कोलकाता नहीं आ रहा. कभी नहीं. अब अलविदा.

संदेश डिलीवर्ड होते ही उसने सिम निकाल कर तोड़ दिया.

 

श्री मनोहर चमोली मनु उत्तराखंड के शिक्षा विभाग में शिक्षक हैं. इनकी पुस्तकें, ऐसे बदली नाक की नथ और पूछेरी नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित हुई हैं. चाँद का स्वेटर और बादल क्यों बरसता है? पुस्तकें रूम टू रीड से प्रकाशित हुई हैं. बाल कहानियों का संग्रह अन्तरिक्ष से आगे बचपन उत्तराखण्ड बालसाहित्य संस्थान से पुरस्कृत. बाल साहित्य में वर्ष 2011 का पं॰प्रताप नारायण मिश्र सम्मान मिल चुका है. बाल कहानियों का दूसरा संग्रह जीवन में बचपन प्रकाशनाधीन है. पच्चीस से अधिक कहानियों की बाल पुस्तकों का मराठी में अनुवाद हो चुका है. उत्तराखण्ड में कहानी फूलों वाले बाबा कक्षा पाँच की पाठ्य पुस्तक बुराँश में शामिल. पाठ्य पुस्तक बातों की फुलवारी भाग 5 में नाटक मस्ती की पाठशाला शामिल

मनोहर चमोली मनु से सम्पर्क के लिये ई-मेल chamoli123456789@gmail.com

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