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  • मनीष कुमार सिंह

निर्गुण ब्रह्म

बचपन में हर चीज अच्छी लगती है. कोई एक टॉफी दे दे तो मजा आ जाता है. थोड़ी सी मिठाई मिल जाए तो क्या कहने. इसके लिए ललचाई आँखें कब से माँ को निहारती रहती हैं. चोरी से किसी के पेड़ के फल तोड़कर खाना भी सुहाना लगता था. खेत से गन्ने तोड़कर रस चूसना या पढ़ाई के समय दोस्तों के साथ बाहर उधम मचाना एक अलग आनंद देता था. बाद में चाहे डाँट पड़े या मार खाना पड़े लेकिन विशुद्ध तत्काल में जीने की बात कुछ और है. सौभाग्य से मुझे हमउम्र बच्चों का साथ मिला. गाँव में खेलने के लिए बेशुमार जगह और वक्त था. संयुक्त परिवार में चाचाजी लोगों के बच्चों को जोड़कर कोई दसेक लड़के थे. बहनें अलग. पाँच लड़के तो मेरी उम्र के थे. खेल-कूद से लेकर घूमने की योजना अक्सर साथ-साथ बनती. तब कार-स्कूटर की बात छोड़िए किसी के यहाँ साइकिल भी हो तो बड़ी बात मानी जाती थी. मुझे खूब याद है कि छोटे चाचा की साइकिल लेने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ती थी. मुझे साईकिल थमाने से पहले अपने दसियों काम गिना डालते जिन्‍हें संपन्न करने के पश्चात् ही मुझे चाबी मिलती. यदा-कदा कभी बिना लॉक की हुई साइकिल दिख जाए तो अपने किसी भाई को बिठाकर मैं रफूचक्कर हो जाता. फिर तो दस मील का चक्कर नापना भी मामूली बात थी. वापस लौटने पर डाँट की आशंका मन में समायी रहती. लेकिन एक बार छोटे चाचा ने यह देखा कि मैं साइकिल से तहसील तक रास्ता नापकर आया हूँ तो प्रशंसा भरे स्वर में बोलें, ''वाह पाजी कहीं का! इतनी हिम्‍मत तो हमारे गाँव के सरजू पहलवान में भी नहीं है.'' मैं इस तारीफ़ से फूला न समाया.

ऐसे ही एक दिन खेल-खेल वाले माहौल में हम लड़के गाँव के एक किनारे के टोले के समीप पहुँच गए. वहाँ कुछ मुर्गे-मुर्गियाँ बेखटके चुगने में मग्न थे. हमलोग उन्‍हें छूने के लिए पास आ गए. पर वे जीव क्या हमारे हाथ आने वाले थे. अपनी चिरपरिचित ध्‍वनियाँ निकालते हुए वे रफूचक्कर हो गए. एक छोटा मुर्गा पास में जमीन पर चोंच मार कर कुछ चुग रहा था. शायद अनाज के दाने या कीड़े-मकोड़े होगें. मेरे समूह के शोमू भईया ने हमारा ध्यान उसकी ओर आकृष्ट किया. ''देखो यह छोटा बच्चा है तुमलोग इसे प़कड सकते हो.'' हमारे निराश मन को नयी आशा की किरण दिखी. सबने उसे दौड़ाया. माना कि मुर्गा छोटा था लेकिन था तो उसी प्रजाति का. हमारे हाथ कहाँ आने वाला. सभी बेदम हो गए. मैं तो सुस्ताने के लिए धान के मचान के सहारे टिक गया. तभी वह मुर्गा पेड़ के एक कोटर में दुबक गया. इस पर शोमू भईया ने पास में पड़े एक बोरे को उठाया और हम सभी उनके नेतृत्व में बड़ी सावधानी से आगे बढ़े. बोरे को कोटर के हर तरफ लपेटकर पहले मुर्गे के भागने का मार्ग अवरुद्व किया और फिर उसे आसानी से प़कड लिया. हमारी खुशी का ठिकाना न था. हर्षातिरेक से सभी शोर कर रहे थे. ''अरे पागलों शोर न मचाओ.'' शोमू भईया ने विजय के उल्‍लास में भी विवेक नहीं खोया था. उन्‍हें डर था कि अतिरेक का प्रदर्शन कहीं मुर्गे के स्वामी को सचेत न कर दे. यह दरअसल रहीम अली के मुर्गे थे. वह उन्‍हें पालता और बेचता था. गाँव से ज़रा अलग एक छोर पर इन लोगों का टोला था. गाँव वालों के लिए उसकी छवि एक गुंड़े की थी. हाथ में सदैव दो हाथ का लठ्ठ लेकर चलता. कईयों से उसकी मारपीट हो चुकी थी. लोगबाग उससे कतराते. ज़बान से निहायत बद्तमीज़. हाथ-पाँव चलाने को हमेशा तैयार.

बात सबकी समझ में आ गयी.

मुर्गा कैसे बनेगा इस विषय पर गंभीर विचार-विमर्श प्रारंभ हो गया. मैंने इस कार्य को गौशाला के पीछे सम्पन्न करने का परामर्श दिया क्योंकि आमतौर पर उधर कोई नहीं आता था. यह तय हुआ कि प्रत्येक सदस्य इस गोपनीय भोज में किसी न किसी प्रकार से सहयोग देगा. कोई एक चम्मच सरसों का तेल लाने को तैयार हुआ तो कोई मिर्च-मसालों का प्रबंध अपने कंधों पर लेने को कटिबद्ध था. मेरे छोटे चाचा के लड़के पलटू का सुझाव था कि खलिहान के बाहर जो नीम का पेड़ है उसके नीचे सारा कार्य सम्पन्न हो. ''शोमू भईया उधर का फायदा यह है कि कोई देखेगा तो नज़दीक के खेत में छुप जाएँगे.''

''वहाँ जाकर मगजमारी करनी है ?'' वे भड़के. ''गौशाला के पीछे सारा इन्तज़ाम है.'' बाकी जनों ने भी इस बात को सर्वसम्‍मति से अनुमोदन किया. अपने प्रस्ताव को इस बेआबरु से गिरते देखकर पलटू क्षुब्‍ध हुआ लेकिन बहुमत के आगे विवश था. अधूरेपन से वह शेष योजना सुनने लगा.

अपने को अलग-थलग किए जाने से कुपित पलटू ने रहीम अली से हमारा भेद खोल दिया. वह गुस्सैल व्‍यक्ति हाथ में डंडा लेकर हमारे घर पर चढ़ आया. ''अरे दिनेसर ! बाहर आ देख जरा तेरे औलाद ने क्या गुल खिलाया है.'' वह मेरे पिता को संबोधित कर रहा था. उनका नाम दिनेश प्रसाद था. वह उनसे पूरे चार वर्ष बड़ा था. उसका लोगों से सामान्यत: बातचीत का तरीका ऐसा ही था. क्रोधित होने पर वह और अशिष्ट हो जाता था.

आज तो उसकी मुर्गे की चोरी का मामला था. ''क्या बात है भईया?'' मेरे शांत मिजाज पिता विषय को समझने के लिए उसे शांत करना आवश्यक समझते थे. स्थिति गाली-गलौज तक पहुँचे इससे पूर्व वे यह जानने में सफल रहे कि घर के लड़कों ने रहीम अली का मुर्गा चुराया है. वह एक गड़ढे में ईट से ढ़ककर छिपायी हुई मिल गयी. मुर्गे को सुरक्षित पाकर रहीम अली बड़बड़ाता हुआ चला गया.

हम सभी एक अंधेरे कमरे में शिलालेख पर उभरे शब्‍दों की तरह दीवाल से चिपक कर निशब्‍द दुबके हुए थे. मालूम होता था कि इस जगह की जानकारी भी उसी पलटू ने दी. पिताजी ने मुझे कसकर दो थप्पड जड़े. मैं धाड़े मारकर रोने लगा. बीच में माँ आ गयीं इसलिए बाकी सजा से बच गया. मेरे रोने-धोने का अनुकूल प्रभाव पड़ा. शोमू भईया को बड़े चाचा ने छड़ी से पीटा और शाम तक अकेले कमरे में बंद रखा. बाकी जनों को भी उनकी आयु, रोने-धोने में प्रवीणता और अपराध की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए दंड दिया गया.

आज जब मुड़कर बचपन के उन दिनों को याद करता हॅू तो ह्ँसी आती है. वह आजादी अब कहाँ. लेकिन पलटू के लिए मन में एक गाँठ रह गयी. कमबख्त चुप रह जाता तो क्या चला जाता.

कालान्तर में सब कुछ बदल गया. मुझे सरकारी नौकरी मिल गयी. पिताजी ने समय रहते पढ़ाई के लिए शहर भेज दिया था. भाईयों में कुछेक गाँव में रहकर खेती सम्भालने लगे. बाकी बाहर गए. लेकिन किसी की उन्‍नति मेरी जैसी नहीं हुई. पलटू पढ़ाई में शुरु से ही फिसड्डी था. दसवीं में दो बार फेल होने पर चाचा-चाची का भरोसा उसपर से पूर्णतया उठ गया. अब पहले वाला माहौल नहीं रहा. कुटुम्‍ब में खेत-खलिहान को लेकर अनेक विभाजन और उप-विभाजन हुए. खेती एक लाभदायक उपक्रम नहीं रही. खाने भर निकल आए तो गनीमत समझिए. छोटे चाचाजी के हिस्‍से में जो आया था उसका पलटू और उसके छोटे भाई में बँटवारा हुआ. इस अल्पांश से गृह्स्थी की गाड़ी जैसे-तैसे खींच रही थी. घर काफी बड़ा था लेकिन सारे की व्यवस्था कर पाना उसके सामर्थ्य से बाहर था. इसलिए दो कमरे और रसोई में वह अपनी गृह्स्थी किसी चिडि़या के घोंसले की तरह संजोए हुए था.

मैं शहर के सरकारी बँगले में सपरिवार निवास करता था. तीन-चार साल में बदली हो जाएगी तो अन्यत्र चला जाऊँगा. श्रीमतीजी ने अहाते में फल-सब्जियों की क्‍यारियाँ बड़े जतन से लगा रखी थीं. पति और बच्चों को ताज़ी गोभी-मटर मिल जाए तो अपना जीवन सफल मानतीं. ऐसे में वे कभी-कभी मेरी ग्रामीण पृष्ठभू्मि की याद दिलाती हुई कहतीं कि वहाँ तो इन चीज़ों की कोई कमी नहीं होगी ? गाँव से मेरा संबंध पूरी तरह से टूटा नहीं था. लेकिन वह सहज स्मृतियों को खँगालने एवं यदा-कदा आयोजनों में शामिल होने तक सीमित रह गया था. अपने हिस्‍से की खेती बँटाई पर दी थी. कभी-कभार गाँव से परिचित-रिश्तेदार आते. पके फल से लदे वृक्ष के पास क्षुधग्रस्त प्राणी मँडराते हैं. मेरे अंदर कुछ ऐसी ही धारणा इन लोगों के प्रति थी. यह धारणा निर्मूल न थी क्योंकि ज्यादातर लोग कोई न कोई अपेक्षा लेकर आते थे. आज अगर मैं एक क्‍लर्क के रुप में एक अदद किराए के कमरे में पत्नी और बच्चों के साथ रहता तो ये लोग फिर क्यो आते ? श्रीमतीजी भी मेरे इस विचार से सहमत थीं.

विपन्न पलटू ने मेरे खेत वाले कुछ हिस्‍से पर खेती करना शुरु कर दिया था. मुझे यह जानकारी सर्वप्रथम गाँव के ही एक दूर के रिश्तेदार ने दी. इतनी दूर से तुरंत जाकर मामला सुलझाना संभव न था. लेकिन बेहद क्रोध आया. खून का घूँट पीकर रह गया. इन्‍हीं लक्षणों के कारण तो भूखों मर रहा है. मैंने गाँव जाकर सर खपाने की बजाए इधर ही लोगों से सलाह-मशविरा किया. लोगों ने बताया कि चुप रहने पर उसका हौसला बढ़ेगा. उसकी नज़र एक अंश पर नहीं बल्कि सारी जायदाद पर होगी. फिर गाँव के लोगों ने भी चढ़ाया होगा. खुराफ़ात करने वालों की कमी थोड़े न है. मुझे यकीन नहीं आया कि पलटू इतना शातिर हो सकता है. उसे जब भी देखा, दीन-हीन पाया. लेकिन क्या पता. जंग लगी तलवार मुलायम टहनी नहीं काट पाती पर सान चढ़ाने पर आप की गर्दन आसानी से उड़ा सकती है. इन सब बातों से मन में ऐसा क्रोध जाग्रत हुआ कि जी में आया अभी मुकदमा ठोक दूँ. बच्चू को खाने का ठिकाना नहीं है वकील की फ़ीस कहाँ से भरेगें.

अपने भाईयों में मेरे पिताजी संतान को उचित शिक्षा दिलाने में सबसे जागरुक थे. इसका परिणाम था कि मैं किसी अच्छी जगह व्यवस्थित था. अब कोई और न पढ़े तो इसमें किसी का दोष थोड़े ना है. एक दिन शाम को घर आने पर श्रीमतीजी ने बताया कि आपके गाँव के किसी ने फ़ोन किया था. शहर में आ पहुँचे हैं. घर पर आना है इसलिए सही पता पूछ रहे थे. मुझे स्टेशन से यहाँ तक जितना रास्ता ख्याल में आया बता दिया. मैं सोचने लगा कि कौन हो सकता है. होगा कोई ज़रुरतमंद. खैर चाय-नाश्ता करेगा. हमारा क्या लेगा. आधे-एक घंटे में जब मैं चाय पीकर आराम फ़रमा रहा था तो नौकर ने सू्चित किया कि कोई आपसे मिलने आया है. मैंने बेफ़िक्री से कहा चलो आते हैं.

पंद्रह-सोलह साल का एक दुबला-पतला किशोर बैठा हुआ था. शर्ट-पैंट में होने के बावजूद उसका चेहरा-मोहरा ग्रामीण पृष्ठभू्मि के होने की पोल खोल रहे थे. मैं प्रथम दृष्टि में उसे पहचान नहीं पाया. मुखड़े पर अपरिचय का अहसास लिए कोई सामयिक प्रश्न करने वाला था कि गद्देदार सोफे पर सिकुडा लड़का उठकर बोला, ''चाचाजी प्रणाम.'' आगे बढ़कर जब मेरे चरण-स्पर्श किए तो यकीन हो गया कि यह गाँव-देहात का ही है. इसी ने घर में फ़ोन किया होगा. मुझे दुविधाग्रस्त देखकर उसने अपना परिचय दिया, ''चाचाजी मैं रामशरण हूँ.''

''अच्छा ... ओह हो.'' मैं अब समझा. वह पलटू का लड़का है. तीन लड़कों और एक लड़की में ज्येष्ठ. ''कहो भाई कैसे आना हुआ? सब कुशल है ना? खड़े क्यों हो?'' आतिथ्य का यथेष्ट प्रदर्शन करते हुए सोफ़े की तरफ संकेत किया. वह पहले वाली संकोचग्रस्त मुद्रा में बैठ गया.

यहाँ क्या लेने आया है. इतने दिनों बाद. सीखा-पढ़ा कर भेजा गया होगा. पर घर आया इंसान मेहमान होता है. सोच-विचार कर विदा करना होगा. ''कहाँ ठहरे हो?'' इस प्रश्न के माध्यम से मैंने बता दिया कि हमारे घर को धर्मशाला समझने की भूल न करे. ''अभी-अभी आया हूँ चाचाजी.'' वह बोला. वाणी में निर्दोष मन झलक रहा था. ''पिताजी ने घर के लिए कुछ सामान भेजा है.'' वह ज़मीन पर रखी अपनी पोटलीनुमा वस्तु को खोलकर कुछ निकालने लगा. घर की बनी मिठाई या खोआ जैसी कुछ चीज, आम का मुरब्‍बा टाइप वस्तु और बगीचे से तोड़े गए अमरुद थे. मैं उदासीनता से इन चीजों का देखता रहा. अमरुद से कुछ याद आया. बचपन में इसी के लिए बेताब रहता था. साथियों के साथ मिलकर बगीचे से चुपचाप तोड़ लेना और खलिहान में धान के बंडलों के पीछे जाकर उनका बँटवारा कर खाना बेहद आह्लादकारी था. घर के किसी बड़े-बुजुर्ग की नजर पर जाने पर डाँट भी खानी पड़ती थी. पर आज यह मुझे कुछ खास आकर्षि‍त नहीं कर रहा था. फिर भी पुरानी स्मृ्तियाँ कभी नहीं मिटती हैं. बस समय के साथ धू्मिल पड़ जाती हैं.

''चलते समय माँ ने कहा कि ले जाओ भईया को पसंद है.''

''हूँ.'' मेरे मँह से निकला. उसने सामान टेबल पर रख दिया. ''चलो अच्छा किया.'' मैंने कहा. ''पिताजी ने यह चिट्ठी आपके लिए भेजी है.'' उसने अपनी शर्ट की जेब से एक मुड़ा हुआ कागज़ प्रस्तुत किया. मैंने हाथ बढ़ाकर ले लिया. कुशलक्षेम के उपरांत आगे लिखा था कि भईया मैं कुछ वक्त से आपकी ज़मीन पर खेती कर रहा हूँ. मजबूरी न होती तो ऐसा हरगिज़ न करता. इसका हिस्‍सा देने को तैयार हूँ. हमारे घर की स्थिति आपसे छिपी नहीं है. बच्‍चे गाँव-देहात के पढ़े हैं. नौकरी वगैरह की उम्मीद कम है. यह ज़मीन हमेशा आपकी ही रहेगी. बस मेहरबानी करके हमें खेती करने दीजिए. अनाज बेचकर पैसा नियम से भिजवा दिया करूँगा.

पढ़कर मैंने भतीजे को अपनी उपेक्षा दिखाने के लिए पत्र को लगभग फेंककर टेबल पर रखा. अच्छा दांव खेला है. हमारी चीज बिना पूछे इस्तेमाल कर रहे हैं और अपनी मर्जी से हिस्‍सा लगाने चले हैं. एक दिन औने-पौने में हड़प लेगें और कहेगें कि हम गरीब हैं इसलिए हमपर दया कीजिए. प्रकट रूप में बोला, ''देखो बेटा, यह कोई ऐसा मामला नहीं है कि तुमसे बात करूँ. घर के बड़े इसे सुलझाएँगें. तुम्‍हारे पिताजी के साथ मिलबैठ कर सब तय होगा.'' उसे इस प्रक्रिया से जुदा करने के बाद भी मैंने उसे माध्यम बनाते हुए एक संदेश भेजना चाहा. ''बस खेत की बात नहीं है. गाँव के मकान का भी सवाल है.'' इसपर वह् शायद हतप्रभ रह गया. एक बार में सारा निपट जाए तो ठीक रहेगा. कमबख्त कौन इन लोगों से खिचखिच करे.

''चलो तुम तो पानी-वानी पीओ.'' ड्राइंग-रुम की विशालता व सजावट देखकर बच्चू को अपने औसारे और कोठरियों की औकात मालूम हो गयी होगी. बाहर खड़ी कार और नौकर को देखा ही है. लौटकर पलटू राम को ज़रूर बताएगा. मेरे मन में संतोष हुआ. ''समरेश भईया कहाँ पढ़ते हैं ?'' वह मेरे बेटे के विषय में पूछ रहा था. मैं प्रसन्न हुआ. चलो अच्छा हुआ खुद पूछ लिया. अगर स्वयं बताता तो शायद ठीक नहीं रहता. ''वह समविले पब्लिक स्कूल में है.''

''क्या ...?'' भतीजा कुछ समझ नहीं पाया. सत्यानाश ! अर्धशिक्षित है. इसे क्या पता कि शहर के नामी स्कूल की बात कर रहा हूँ. यहाँ शहर के हूज़-हू के चिरंजीव और कुलदीपक पढ़ते हैं. पढ़ने वालों में से ढेर सारे आला अफसर, बिज़नेसमेन, डॉक्टर, इंजीनियर बनते हैं. ''भईया शुरू से ही पढ़ाकू थे.'' वह ज्यादा न समझते हुए भी शायद यह जान गया कि किसी अच्छी जगह की बात कर रहे हैं. घर आए व्‍यक्ति का अनादर नहीं करना चाहिए. यह सोचकर मैंने उसे अच्छी तरह नाश्ता कराने का निश्चय किया. श्रीमतीजी सामने नहीं आयीं लेकिन नौकर के द्वारा बाजार से मिठाई-नमकीन मँगवाया. भतीजे ने ज्यादा कुछ नहीं लिया. ''बस चाचाजी अब और नहीं लिया जाएगा.'' संकोच कर रहा होगा. यात्रा करके आया है. भूख लगी होगी. मैंने सुसंस्कृत व्‍यक्ति की भाँति दो बार विधिवत अनुरोध किया.

रामशरण ने एक मुहल्‍ले का नाम लिया. ''यहाँ अपने एक जानकार के साथ ठहरा हूँ. एक कमरा है. शुरु में यहीं रहूँगा. फिर आगे देखते हैं.'' मेरे मन में एक खुशी प्रवेश कर गयी. चलो अपने यहाँ ठहराने का झंझट नहीं रहा. एक निम्न मध्यमवर्गीय मुहल्‍ला था. सस्ते में कमरा मिल गया होगा. उसे निपटने में अब और ज्यादा समय नहीं लगा. चरण-स्पर्श करके वह चला गया.

उसके जाने के बाद मैं पूर्व घटनाओं को क्रमानुसार रखने का उपक्रम करने लगा. रामशरण पलटू की बड़ी औलाद था. बाकी तो और भी गए-गुजरे थे. गाँव में पड़े हैं. यह बाहर आ गया. शायद कुछ बन जाएगा. छोटी-मोटी नौकरी पा सकता है. गाँव से इधर आने के बाद कुछ दिनों तक चिठ्ठी-पत्री का सिलसिला चला था. उसी से ज्ञात होता था कि कौन जनमा और किस ब़ूढे-बुजुर्ग की मौत हो गयी. रामशरण के जन्म-मुंडन वगैरह की जानकारी भी ऐसे ही मिली थी. जाने का वक्त किसे था. पिताजी थे तो कभी-कभार ही सही संपर्क बरकरार था.

आपसी बातचीत से तय करके मैं बरसों बाद एक बार अपने गाँव पहुँचा. वहाँ देखा कि समय के हिसाब से नाममात्र का परिवर्तन हुआ है. पता नहीं एकाध रोज भी कैसे टिक पाऊँगा. पहले की बात और थी. अब शहरी सु्विधाएँ हमारे जीवन में आत्मसात् हो चुकी हैं. गाँव में कहाँ लैट्रिन-बाथरूम मिलेगा.

हमारे संयुक्त परिवार का विखण्डन हुए अरसा बीत चुका था. सारे अणु, परमाणु छिटक कर इधर-उधर शहरों में जा बसे थे. बस पलटू का परिवार शेष था. बड़ी सी हवेलीनुमा मकान के पलस्तर के जगह-जगह उखड़ने से दीवालें बदरंग हो गयी थीं. छत की ओर जाने वाली बिना रेलिंग की सीढ़ी टूट चुकी थी. उसपर तेजी से चढ़ने पर बड़ों की मुद्रा चिंताजनक हो जाती थी. हममें से एकाध को जमकर झाड़ भी लगी थी. ऊपर चढ़ने के लिए अब बांस की सीढ़ी का इस्तेमाल होता था. यह मुझे जमीन पर लिटाकर रखी सीढ़ी को देखने से मालूम हुआ. आँगन में लगा हैंडपम्प अलबत्‍ता जरुर बदस्तूर विद्यमान था. अब मैं बाहर मिनरल वाटर के सिवा कोई और पानी नहीं पीता था. इतनी सारी बीमारियाँ चल पड़ी हैं. घर पर वाटर प्यूरीफायर लगा था. लेकिन तब खेलकूद कर आते ही हम मॅँह लगाकर चुल्‍लू से पानी पीने लगते. एक लड़का तेजी से हैंडपम्प चलाता.

पलटू मुझे कमरे में ले गया. चाय-पानी के साथ घर की बनी नमकीन, बेसन के लड्डू और पास की दूकान से लायी रबड़ी सामने रखी. उसे याद होगा कि मैं रबड़ी कितना पसंद करता था. छत पर लकड़ी की मोटी बल्लियाँ लगी हुई थीं. यहाँ बैठे अहाते में लगे पेड़ दिख रहे थे. मैंने गौर किया कि आम के दो पुराने पेड़ अब नहीं रहे. उस ज़मीन पर क्यारी लगाकर गेंदा और कुछ और फूलों वाले पौधे लगे हुए थे. हालचाल पूछने के बाद मैं मुद्दे पर आया. ''भई खेत के साथ इस मकान का भी बँटवारा कर लो ... मुझे यहाँ रहना नहीं है. तुम चाहे तो मकान रख लो. वाजिब दाम दे दो.'' इस पर पलटू अपने सुपुत्र की तरह सकपका गया. जो व्‍यक्ति मकान का रखरखाव करने में असमर्थ हो खरीदने का सामर्थ्य कहाँ से जुटाएगा. मेरे जहन में यह बात भी मंडरा रही थी कि गाँव में दूसरा ऐसा कौन होगा जो इसे आधे-अधूरे रूप में खरीदने को तैयार हो जाएगा. शिथिल होता पलटू आतिथ्य धर्म निबाहने वाले अंदाज में बोला, ''भईया आप जलपान कर लें. दोपहर में खाने पर बात होगी.''

आँगन में टहलते हुए मैं कुँए की मुंड़ेर पर बैठ गया. जगह-जगह से टूटी हुई होने के बाद भी अभी उसका पानी काम में लाया जाता था. गर्मियों में इसके ठंड़े पानी से नहाने के लिए हम बच्चों में होड़ मचती थी. अहाते के बाहर लगे नीम के पेड़ की पत्तियाँ आँगन में सर्वत्र बिखरी पड़ी थीं. पलटू की स्त्री घूँघट करके झाडू बुहारने लगी. मैं अनायास उन स्मृति चिन्‍हों को खोजने का कार्य करने लगा जो केवल इसी घर में मिल सकते थे. घूमते हुए मैं गौशाला और अंदर-बाहर सभी का चक्कर लगा आया. ऐसा लग रहा था मानो दशकों पूर्व अचार चूसते अपने घर में घूम रहा हूँ. छत के बराबर तक ऊँची अमरूद की टहनियाँ कभी फलों से युक्त होती थीं. मैं छत पर चढ़कर उन्‍हें तोड़ लेता था. अब उधर जाना संभव नहीं है क्योंकि वहाँ की कोठरी की छत टूटी हुई थी. शहर में छुट्टी के दिन बालकनी या लॉन में अलसाया पड़ा चाय-अखबार में डूबा रहता. यहाँ होता तो क्या करता यह सोचने लगा. रसोई के सामने की खाली जगह पर बर्तन धोये जाते थे. वहाँ थोड़ी देर तक मैं राख की गंध तलाशता रहा. महीने में एकाध दफा मांसाहारी भोजन पकता तो घर के सारे शौकीन पंगत में बैठकर जीमते. मांसाहार का सारा बर्तन चाहे खाने का हो या पकाने का, अलग रहता था. चूल्‍हा ईटों से अलग तैयार होता यानि मुख्य रसोई से दूर खुले में. लेकिन फिर भी दादी खाने वालों को देखकर मुँह-नाक पर पल्‍लू लपेटकर यह कहती हुई गुज़रती कि ये सब राक्षस वंश के हैं. सत्यानाश हो ...! वे ज्यादा कुछ नहीं बोलती लेकिन कई लोग बस उनके इस जुमले का सुनने के लिए कान लगाए रहते.

रसोई से आती दूध-दही, घी की मिली-जुली सुगंध पाने उधर बढ़ा तो देखा कि पलटू की स्त्री कड़ाही में कोई सब्‍जी बना रही है. मैं संकोच से पीछे हो गया. जब वह पर्दा करती है तो मुझे भी यहीं का वेश बनाना चाहिए. लेकिन गौर किया कि अब वो ठाट नहीं था. एक साधारण गृह्स्थ वाले रोटी-दाल का हिसाब भर था. माँ-पिताजी, चाचा-चाची सबके चेहरे न जाने क्यों हर तरफ मुझे दिखने लगें. गुज़रा हुआ कालखण्ड एक कोलाज की भाँति सामने उपस्थित था.

रामशरण कहीं से आकर मेरे पाँव छूकर कहने लगा, ''चाचाजी आपका बिस्तर अंदर लगा दिया है. बाबूजी कह रहे थे कि थोड़ा सुस्ता लें. इतना चलकर आए हैं.''

बिस्तर पर लेटकर कुछ विचार करने लगा. कब आँख लग गयी यह पता नहीं चला. रामशरण ने करीब दो बजे मुझे जगाया. ''चाचाजी खाना तैयार है. हाथ-मुँह धो लीजिए.'' मैंने अनुमान लगा लिया कि वह एक आज्ञाकारी पुत्र की भाँति लोटे में पानी लिए तत्पर होगा. खाने में दो तरह की सब्‍जी थी. एक बैंगन की और दूसरी तुरई की. बासमती चावल के ऊपर घी था. मुझे कहना पड़ा, ''भाई मैं घी नहीं लेता.'' वैसे एकदम परहेज़ नहीं करता था परंतु उनके साधनों पर अधिक जोर न पड़े यह सोच कर कुछ न कुछ ऐसा बोलना पड़ा. मेरे आने के उपलक्ष्य में खीर भी बनी थी. पलटू का प्रयास सराहनीय था. निश्चय ही यह उन लोगों के दैनिक भोजन का हिस्‍सा नहीं होगा.

मैंने खाने का स्वाद लेते हुए कहा, ''पलटू भाई यह घर तुम अपने पास रखो. इस खेत-खलिहान की उपज को बाँट लेगें ... अब देखो इतनी दूर से आना मु्श्किल होगा सो सारा प्रबंध तुम्‍हें करना होगा.'' एक बार तो मुझे लगा कि मैं उसे संबोधित नहीं करके स्वगत-भाषण में लीन हूँ. पिता-पुत्र मेरे कथन पर कोई प्रतिक्रिया न व्यक्त कर सके. वे किसी आपदा की आशंका से ग्रस्त थे. चावल में थोड़ी और दाल मिलाते हुए मैंने आगे कहा, ''हमारे यह पुरखों का घर टूट रहा है. हम लोग इसे बचाएँगें. थोड़े पैसे लगेंगे. तुम चाहो तो पहली उपज का एक हिस्‍सा इसके लिए लगा लेना ... मेरा हिस्‍सा इस्तेमाल कर लेना. लेकिन ज़रा यह ठीक कर देना.'' मैंने खाना रोक कर हाथ से यत्र-तत्र संकेत किया. पता नहीं उसमें क्या-क्या शामिल था. छत की मरम्मत, दीवालों का रख-रखाव, कुँए की मुंड़ेर बनवाना और अंदर वाली कोठरी का जीर्णोद्वार. यहीं कहीं बचपन में चुराई मुर्गी को छिपाकर रखा था. मेरी आकस्मिक उदारता से दोनों भ्रांत हो गए. लेकिन मेरा एक अंश यही निवास करता था. मेरी यह प्रकट उदारता दरअसल उदारता न होकर इस अंश के प्रति अर्पित नेह था. मुझे लगा कि गाँव के देहाती लोग इस नेह को समझने में विलम्‍ब नहीं करेगें.

मैंने निश्चय कर लिया कि नौकरी और गृह्स्थी की जिम्मेवारियों के बावजूद एक दिन यहाँ और रुकूँगा. बरसों पहले जिसे सगुण रुप में देखता और जीता था अब उसे ही निर्गुण रुप में देख रहा था.

 

लिखने की शुरुआत पढ़ने से होती है। मुझे पढ़ने का ऐसा शौक था कि बचपन में चाचाजी द्वारा खरीदी गई मॅूँगफली की पुड़िया को खोलकर पढ़ने लगता था। वह अक्‍सर किसी रोचक उपन्‍यास का एक पन्‍ना निकलता। उसे पढ़कर पूरी किताब पढ़ने की ललक उठती। खीझ और अफसोस दोनों एक साथ होता कि किसने इस किताब को कबाड़ी के हाथ बेच दिया जिसे चिथड़े-चिथड़े करके मूँगफली बेचने के लिए इस्‍तेमाल किया जा रहा है। विश्‍वविद्यालय के दिनों में लगा कि जो पढ़ता हूँ कुछ वैसा ही खुद लिख सकता हूँ। बल्कि कुछ अच्‍छा....।

विद्रुपता व तमाम वैमनस्‍य के बावजूद सौहार्द के बचे रेशे को दर्शाना मेरे लेखन का प्रमुख विषय है। शहरों के फ्लैटनुमा घरों का जीवन, बिना आँगन, छत व दालान के आवास मनुष्‍य को एक अलग किस्‍म का प्राणी बना रहे हैं। आत्‍मीयता विहीन माहौल में स्‍नायुओं को जैसे पर्याप्‍त ऑक्‍सीजन नहीं मिल पा रहा है। खुले जगह की कमी, गौरेयों का न दिखना, अजनबीपन, रिश्‍ते की शादी-ब्‍याह में जाने की परम्‍परा का खात्‍मा, बड़े सलीके से इंसानी रिश्‍ते के तार को खाता जा रहा है। ऐसे अनजाने माहौल में ऊपर से सामान्‍य दिखने वाला दरअसल इंसान अन्‍दर ही अन्‍दर रुआँसा हो जाता है। अब रहा सवाल अपनी लेखनी के द्वारा समाज को जगाने, शोषितों के पक्ष में आवाज उठाने आदि का तो, स्‍पष्‍ट कहूँ कि यह अनायास ही रचना में आ जाए तो ठीक। अन्‍यथा सुनियोजित ढंग से ऐसा करना मेरा उद्देश्‍य नहीं रहा। रचना में उपेक्षित व‍ तिरस्‍कृत पात्र मुख्‍य रुप से आए हैं। शोषण के विरुद्ध प्रतिवाद है परन्‍तु किसी नारे या वाद के तहत नहीं। लेखक एक ही समय में गुमनाम और मशहूर दोनों होता है। वह खुद को सिकंदर और हारा हुआ दोनों महसूस करता है। शोहरत पाकर शायद स्वयं को जमीन से चार अंगुल ऊँचा समझता है लेकिन दरअसल होता वह अज्ञात कुलशील का ही है। घर-समाज में इज्जत बहुत हद तक वित्तीय स्थिति और सम्पर्क-सम्पन्नता पर निर्भर करती है। कार्यस्थल पर पद आपके कद को निर्धारित करता है। घर-बाहर की जिम्‍मेवारियाँ निभाते और जीविकोपार्जन करता लेखक उतना ही साधारण और सामान्‍य होता है जितना कोई भी अपने लौकिक उपक्रमों में होता है। हाँ, लिखते वक्त उसकी मनस्थिति औरों से अलग एवं विशिष्‍ट अवश्य होती है। एक पल के लिए वह अपने लेखन पर गर्वित, प्रफुल्लित तो अगले पल कुंठा व अवसाद में डूब जाता है। ये विपरीत मनस्थितियाँ धूप-छाँव की तरह आती-जाती हैं। दुनिया भर की बातें देखने-निरखने-परखने, पढ़ने और चिन्तन-मनन के बाद भी लिखने के लिए भाव व विचार नहीं आ पाते। आ जाए तो लिखते वक्त साथ छोड़ देते हैं। किसी तरह लिखने के बाद प्रायः ऐसा लगता है कि पूरी तैयारी के साथ नहीं लिखा गया। कथानक स्पष्ट नहीं कर हुआ, पात्रों का चरित्र उभारने में कसर रह गयी है या बाकी सब तो ठीक है पर अंत रचना के विकास के अनुरूप नहीं हुआ। एक सीमा और समय के बाद रचना लेखक से स्वतंत्र हो जाती है। शायद बोल पाती तो कहती कि उसे किसी और के द्वारा बेहतर लिखा जा सकता था। मनीष कुमार सिंह एफ-2,/273,वैशाली,गाजियाबाद, उत्‍तर प्रदेश। पिन-201010 09868140022 ईमेल:manishkumarsingh513@gmail.com

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