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  • अशोक गौतम

बीजी यहीं है

बीजी के जाने से पहले हम छह सदस्य थे इस घर के। मैं, मेरी पत्नी, बाबूजी बीजी और दो बच्चे ,किट्टी और चीनू। यह घर बाबूजी ने ईंट ईंट सींच कर बनाया है, बीजी ने इस घर को बनाने के लिए पैसा पैसा दांत के नीचे दबा दबा कर जोड़ा है। घर बनाने के लिए दोनों ने पता नहीं अपने पेट को कितना मोसा होगा? डेढ़ साल पहले मैंने बीजी के हल्के से विरोध के बाद भी घर की छत पर चार कमरों का सेट बना दिया है। राजी के कहने पर मैं अपने बच्चों के साथ अब इसी सेट में रह रहा हूं।

मुझे तब बाबूजी बीजी को नीचे वाले घर में अकेले छोड़ते बहुत बुरा भी लगा था। पर राजी के समाने हथियार डालने पड़े थे। शायद इसके पीछे यह भी हो सकता है कि हर मर्द को चाहे अपने घर की तलाश न हो, पर हर औरत को जरूर होती होगी। हर मर्द कहीं अपने लिए स्पेस ढूंढे या न पर हर औरत को अपने लिए एक स्पेस चाहिए। जो केवल और केवल उसका हो।

बाबूजी तब माहौल ताड़ गए थे जब मैंने उनसे घर की छत पर सेट बनाने के बारे में बताया था। पर बीजी साफ मुकर गई थीं यह कहते हुए ,‘ क्या जरूरत है छत पर एक और घर बनाने की? ज्यादा ही पैसे हो गए हैं तो भागवत करवा लेते हैं। इसीमें जब सब ठीक चल रहा है तो और बेकार का खर्चा क्यों? जिसको तंगी हो रही हो वह बता दे। मैं बाहर के कमरे में सो जाया करूंगी। संकेत, क्या तुझे अच्छा नहीं लगता कि सारा परिवार एक छत के नीचे रहे ? एक चूल्हे पर बना सब एक साथ खाएं?’ कह बीजी को जैसे आभास हो गया था कि छत के ऊपर सेट बन जाने का सीधा सा मतलब है कि....बीजी के बाल धूप में सफेद न हुए थे, इस बात का पता मुझे बीच बीच में लगता रहा था।

‘सो तो ठीक है बीजी पर अब बच्चे भी बड़े हो रहे हैं और ऊपर से.......’राजी एकदम बोल पड़ी थीं तो मैं चौंका था । घर में कहीं अपने लिए स्पेस तलाशने निकली राजी कुछ और न कह जाए इसलिए उसे संभालने को मैंने खुद को एकदम तैयार कर लिया। पर थैंक गॉड! आगे कुछ कहने के बदले वह चुप हो गई। पर चुप होने के बाद भी जो वह कहना चाहती थी वह कह चुकी थी मेरे हिसाब से। उसके यह खुलकर कहने के बाद मैं कहीं से टूटा जरूर था। पर जब बाबूजी ने मेरी ओर शांत हो देखा तो मुझे लगा कि मैं इतनी जल्दी टूटने वाला नहीं। कोई साथ अभी भी है, बरगद की तरह। राजी को पता था कि अभी जो चुप रहा गया तो फिर बात कहना और आगे चला जाएगा। और वह नहीं चाहती थी कि उसकी स्वतंत्रता कुछ और आगे सरक जाए।

ऐसा नहीं कि बीजी ने कभी भी उसे कुछ करने से रोका टोका हो। बल्कि बीजी तो उसे अपने से भी अधिक मानती थी। जब देखो, पड़ोस में राजी की तारीफ करते नहीं थकती। मेरी राजी! वाह क्या कहने राजी के! मौका मिलते ही हर कहीं बखान करने लग जाती, बहू हो तो राजी जैसी। पता नहीं मैंने किस जन्म के कौन से पुण्य किए थे जो मुझे राजी जैसी बहू मिली। घर में मुझे कभी कुछ करने ही नहीं देती। सच कहूं! जब से राजी घर में आई है , मैं तो रसोई में जाना ही भूल गई हूं। भगवान करे , सबको राजी जैसी बहू मिले। राजी को लेकर बीजी इतनी संजीदा कि उतनी तो राजी अपने को लेकर भी कभी क्या ही रही होगी। राजी का ये करो, राजी का वो करो, राजी को ये लाओ , राजी को वो लाओ, राजी को ये पंसद है, राजी को वो पंसद है। राजी को ये पंसद नहीं, राजी को वो पसंद नहीं। बहुत दिन हो गए। राजी को मायके छोड़ आ। पर उसके बाद भी कुछ और भी था जो राजी एक ही छत के नीचे रहने की बाद भी उसे तलाशने निकल पड़ती यदा कदा।

राजी के आगे मैं विवश था, पता नहीं क्यों? मेरी विवशता को बाबूजी मुझसे अधिक जान गए थे। इसलिए जब उन्होंने जैसे कैसे बीजी को समझाया तो बीजी ने छत पर सेट बनाने का न तो विरोध किया और न ही हामी भरी। वह बस न्यूट्रल हो गई।

और मैंने लोन लेकर छत पर सेट बनाने का काम शुरू कर दिया। छत पर बन रहे सेट की दीवारें ज्यों ज्यों ऊपर उठ रही थीं, बीजी को लगता आपस में हम जैसे एक दूसरे से ओझल होते जा रहे हों। बीजी को लगता ज्यों मेरे और उसके बीच कोई दीवार पल पल बड़ी हो रही हो। इधर उधर से दीवारें हर रोज ज्यों कुछ ऊंची उठतीं, मुझे बीजी और बाबूजी को जैसे एक दूसरे को देखने में दिक्कत हो रही हो। पर राजी खुश थी। अंदर से या बाहर से या कि अंदर बाहर दोनों ही जगह से, वही जाने। पर इतना होने के बाद भी बीजी सारा दिन बाबूजी के साथ काम कर रहे मिस्त्रियों को देखती रहती, मजदूरों को वजह बेवजह टोकती रहती कि ये करो, वो करो। शाम को जब काम बंद कर मिस्त्री मजदूर चले जाते तो बिखरा रेत उनके द्वारा इकट्ठा हो जाने के बाद भी बीजी झाड़ू लेकर यों ही बिखरा रेत इकट्ठा करने लग जाती।

चार महीने में सेट बन कर तैयार हो गया तो राजी ने संकेत में वह सब कहा जिसका मुझे यकीन था, ‘संकेत! कैसा रहेगा जो हम यहां किचन में कुछ कुछ बनाना भी शुरू कर दें?’

‘पर नीचे भी तो किचन है। बीजी है , बाबूजी हैं। राजी एक ही किचन में सब एक साथ मिल बैठ कर खाएं तो तुम्हें नहीं लगता कि खाने का स्वाद कुछ और ही हो जाता है?’ मैंने पता नहीं कहां से हिम्मत जुटा कर कहा था। पर मुझे पता था कि मेरी ये हिम्मत अधिक दिन टिकने वाली नहीं। और हफ्ते बाद ही वह पस्त भी हो गई।

ऊपर वाले सेट में व्हाइट वाश हो चुकी थी। फर्नीचर भी खरीदा जा चुका था। पंडितजी से प्रवेश का शुभ मुहूर्त भी निकलवा लिया गया था।

राजी ये सब देख बहुत खुश थी तो बीजी उदास। बाबूजी न खुश थे, न उदास। शायद उन्हें सब पता था कि अब आगे क्या होने वाला है। घर के हर मौसम को वे बड़े बारीकी से पढ़ने में सिद्धहस्त तो थे ही।

पंडितजी आए।सेट में हवन पूजन हुआ।नई रसोई में खाना बना।बीजी ने पंडितजी के लिए अपने हाथों से खाना बनाया। पर उस वक्त बीजी खाना बनाते हुए पहले जैसी नहीं चिहुक रही थी। न ही कहीं वह पहले जैसा जोश, न ही कहीं वह पहले जैसा तड़का।

पंडितजी जब पूजा हवन कर चले गए तो हम सब रोटी खाने बैठे। बीच में पके खाने के बरतन और उसके इर्द गिर्द हम सब। खाना बने बरतनों के बिल्कुल नजदीक बीजी, हरबार की तरह। तब बीजी ने मेरी थाली में दाल डालते हुए मेरे भीतर झांकते पूछा,‘संकेत! ऊपर वाला सेट बन गया सो तो ठीक ,पर साफ कहे देती हूं , चूल्हा चलेगा एक ही जगह,’ मैं चुप! मेरे हाथ का ग्रास हाथ में तो मुंह का मुंह में। बाबूजी शायद सब जानते थे। इसलिए वे चुपचाप रोटी खाते रहे। उस वक्त वे बीजी के इस फैसले के न तो पक्ष में बोले न विपक्ष में। वैसे, पता नहीं उस वक्त मुझे ही कुछ ऐसा लगा था ज्यों वे कुछ कहने की हिम्मत कर रहे हों। पर ऐन मौके पर ज्यों वे चुप हो गए थे। दोनेां बच्चे नए लाए सोफों पर पलटियां खा रहे थे। हमें रोटी देती बीजी उन्हें कनखियों से घूरने लग गई थी। पर मैने उस वक्त खाना खाते हुए साफ महसूस किया था ज्यों आज बीजी के हाथ उदास हैं। उसके हाथों से खाना बनाने की वह मास्टरी कहीं समुद्रों दूर चली गई है या कि उसने कहने को ही आज खाना बनाया हो।

बीजी की बात जब मौन रहकर भी नकार दी गई या कि राजी द्वारा ऐसी परिस्तिथियां जन्मा दी गईं कि कुछ दिन तक तो राजी पहले नीचे सबको खाना बनाती तो बाद में ऊपर की रसोई में बच्चों के लिए स्कूल का लंच बना देती। फिर धीरे धीरे बच्चों के स्कूल से आने के बाद का भोजन भी ऊपर ही बनने लगा।

और एकदिन जब मैं और राजी नीचे बीजी वाले घर में गए थे कि बीजी ने खुद ही राजी से वह सब कह दिया जो राजी बीजी के मुंह से बहुत पहले सुनना चाहती थी, पर कम से कम बीजी से तो मुझे वह सब कहने की उम्मीद न थी। क्योंकि मैंने बीजी को चालीस साल से बहुत करीब से देखा है। इतना करीब से जितना बाबूजी ने भी बीजी को न देखा हो। बीजी ने उस दिन बिना किसी भूमिका के राजी से कहा था, ‘राजी , तू ऊपर नीचे दौड़ती थक जाती है। ऐसा कर, ऊपर की किचन में ही खाना बना लिया कर। मैं नीचे कर लिया करूंगी।’

‘ पर बीजी आप??’

‘हमारा क्या! सारा दिन मैं करती भी क्या हूं? इनके और अपने लिए मैं यहीं खाना बना लिया करूंगी। जिस दिन खाना न बने उस दिन ऊपर तो तू है ही,’ पता नहीं कैसे क्या सोच कर बीजी ने हसंते हुए राजी के स्पेस को और स्पेस दिया तो मैं हतप्रभ! आखिर बीजी भी समझौते करना सीख गई?

पर उस वक्त मैंने साफ महसूस किया था कि कल तक जो बीजी उम्र की ढलान पर बाबूजी से अधिक अपने को फिसलने से बचाए रखे थी, आज वही बीजी उम्र की ढलान से अधिक जज्बाती ढलान पर फिसल रही थी। जब आदमी समझौता करता है तो ढलानों पर ऐसे ही फिसलता होगा शायद!

इस निर्णय के बाद से बीजी के चेहरे पर से धीरे धीरे मुस्कुराहट गायब रहने लगी। यह बात दूसरी थी कि मैं और दोनों बच्चे सुबह शाम बीजी के पास जा आते। बच्चे तो कई बार वहीं से डिनर करके आते तो राजी तुनकती भी। पर मुझे अधिक देर तक बीजी बाबूजी के साथ बच्चों का रहना अच्छा लगता। उस वक्त कई बार तो मुझे ऐसा लगता काश ! मैं भी चीनू होता। काश! मैं भी किट्टी होता।

जिस बीजी के हाथों का बनाया खाने से रोगी भी ठीक हो जाते थे , धीरे धीरे वही बीजी अपने ही हाथ का बना खाने से बीमार होने लगी।

जब बीजी को अस्पताल ले जाने को कहता तो वह हंसते हुए टाल जाती, ‘अभी तेरे बाबूजी हैं न! वैसे भी अभी कौन सी मरी जा रही हूं। बूढ़ा शरीर है। कब तक इसे उठाए अस्पताल भागता रहेगा। जब लगेगा कि मुझे तेरे साथ अस्पताल जाना चाहिए, तुझे कह दूंगी,’ और बीजी बिस्तर पर पड़ी पता नहीं किस ओर देखने लग जाती? टूट तो तब मैं भी रहा होता पर बीजी से कम तेजी से। कई बार हम केवल अपने को टूटता देखते भर हैं। अपने टूटने को रोकना न अपने हाथ में होता है न किसी और के। कई बार टूटना हमारी नियति होती है केवल। और उसे चुपचाप भोगने के सिवाय हमारे पास दूसरा कोई और विकल्प होता ही नहीं। फिर हम चाहे कितने ही विकल्प खोजने के लिए सैंकड़ों सूरजों की रोशनी में कितने ही हाथ पांव मारते रहें तो मारते रहें।

दिसंबर का महीना था। आखिर वही हुआ! बीजी ने चारपाई पकड़ ली। बीजी को जो एक बार बुखार आया तो उसे साथ लेकर ही गया।

शायद सोमवार ही था उस दिन। सामने पेड़ के पत्ते पीले तो आसमान में सूरज पीला। एक ओर बीजी का चेहरा पीला तो दूसरी ओर बीजी को तापती धूप पीली। बीजी ने चारपाई पर लेटे लेटे पूछा,‘ राजी कहां है?’

‘बीजी ऊपर है, कोई गेस्ट आया है। उसे देख रही होगी। कुछ करना है क्या?’

‘नहीं। तू जो पास है तो लगता है मेरे पास मेरी पूरी दुनिया है,’ बीजी ने सूखे होंठों पर जीभ फेरते कहा। बाबूजी भीतर बीजी के लिए जूस बना रहे थे। मैंने बाबूजी को जूस बनाने को कहा था पर बाबूजी साफ मुकर गए थे ,‘ तेरी बीजी ने मेरा बहुत ख्याल रखा है सारी उम्र, मेरे बदले खुद मरती रही देवी सी। अब मैं भी चाहता हूं कि....’

‘ टाइम क्या हो गया है?’ बीजी ने पूछा तो मैंने मोबाइल में टाइम देख कर कहा,‘ बीजी, पांच बज रहे हैं।’

‘बड़ी देर नहीं कर दी आज इन्होंने बजने में?’ बीजी ने अपना दर्द अपने में छिपाते कहा था।

‘बीजी! रोज तो इसी वक्त पांच बजते हैं। हमारी जल्दी से तो समय नहीं चलेगा न?’ मैंने बीजी के अजीब से सवाल पर कहा तो वह बोली,‘ देख न! रोज पांच बजते रहते हैं और एक दिन हम ही नहीं होते, पर पांच फिर भी बजते हैं। हमारे जाने के बाद भी सब वैसा ही तो रहता है संकु! बस कोई एक नहीं रहता। एक समय के बाद उसे क्या, किसीको भी नहीं रहना चाहिए,’ कह बीजी ने पता नहीं क्यों दूसरी ओर मुंह फेर लिया था तब?

और बीजी चली गई। पंद्रह दिन तक उसके जाने के अनुष्ठान होते रहे। बाबूजी ने मुझसे मेरा काम भी न करने दिया। जब भी मैं कुछ कहता, वे मझे चुप रहने का इशारा करते रोक देते। तब पह्ली बार पता चला था कि बाबूजी बीजी को कितना चाहते थे? बीजी को कितनी गंभीरता से लेते थे। नहीं तो मैंने तो आज तक यही सोचा था कि बाबूजी ने बीजी को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं। बीजी ही बाबूजी की चिंता करती रही उम्र भर। और मरने के बाद भी करती रहेगी।

बीजी अपने रास्ते चली गई तो हम सबकी जिंदगी बीच बीच में बीजी को याद करते अपने रास्ते चलने लगी। पर मैं बहूदा महसूस करता कि बाबूजी को बीजी पहले से अधिक याद आ रही हो जैसे। जब भी मौका मिलता वे बीजी की बातें ले बैठते। बीजी के साथ के मेरे होने से पहले के किस्से तक मुझसे सांझा करने से नहीं हिचकते। बाबूजी को अपने साथ यों खुलते घुलते देख मैं हैरान था कि कहां वह बाबूजी का मेरे साथ रिजर्व से भी रिजर्व रहना और कहां आज इतना घुलमिल जाना कि... बाबूजी कभी देवानंद, कभी सुनील दत्त तो कभी किशोर कुमार भी रहे थे ,धीरे धीरे वे जब खुश होते तो मेरे पूछे बिना ही अपनी परतें यों खोलते ज्यों अब मैं उनका बेटा न होकर उनका दोस्त होऊं।

बीजी के जाने के बाद मैंने ही नहीं , राजी ने भी बाबूजी के चश्मे का नंबर चार महीने में चार बार बदलते देखा। हर बीस दिन बाद शिकायत, मेरी आंखें कुछ देख नहीं पा रहीं। तब राजी ने मन से बाबूजी से कहा भी कि वे हमारे साथ ही रहें। पहले तो बाबूजी माने नहीं, पर बाद में एक शर्त बीच में डाल मान गए। अवसर देख उन्होंने शर्त रखी,‘ तो शाम का भोजन सबके लिए नीचे की रसाई में ही बना करेगा। और... ’

‘और क्या बाबूजी?’ उस वक्त ऐसा लगा था मानों मेरे से अधिक राजी बाबूजी के करीब जा पहुंची हो।

‘ पर रात को मैं नीचे ही सोया करूंगा।’

‘ ये कैसे संभव है बाबूजी?’ राजी ने मुझसे पहले आपत्ति जताई तो वे बोले,‘ देखो राजी बेटा! वहां मेरा अतीत है, मेरा वर्तमान है। आदमी हर चीज से कट सकता है पर अपने अतीत , वर्तमान से नहीं। इसलिए.... क्या तुम चाहोगी कि मैं अपने अतीत, अपने वर्तमान से कट अपने आप से कट जाऊं, तुम सबसे कट जाऊं? कभी कभी तो आदमी को अपनी शर्तों पर जी लेना चाहिए । इससे संबंधों में गरमाहट बनी रहती है राजी,’ बाबूजी बाबूजी से दार्शनिक हुए तो मैं अवाक्! क्या ये वे ही बाबूजी हैं जो कभी कभी तो बाबूजी भी नहीं होते।

‘ ठीक है बाबूजी! जैसे आप चाहें,’ मैंने और राजी ने उनके आगे ज्यादा जिद्द नहीं की यह सोच कर कि जब दो दिन बाद ही अकेले वहां ऊब जाएंगे तो फिर जाएंगे कहां?

उस रोज मैं हाफ टाइम के बाद ही ऑफिस से घर आया तो बाबूजी को धूप में न बैठे देख अजीब सा लगा। क्योंकि अब उनको देखना मुझे पहले से भी जरूरी सा लगने लगा था। मन में यों ही बेतुका सा सवाल पैदा हुआ कि कहीं बाबूजी से राजी की कोई.... पर अब राजी और बाबूजी के रिश्ते को देखकर कहीं ऐसा लगता नहीं था जो , सो इस बेतुके सवाल को परे करते मैंने राजी से पूछा,‘ आज बाबूजी धूप में नहीं आए क्या?’

‘क्यों ?आए तो थे। पर तुम??’

‘तबीयत ढीली सी लग रही थी सो सोचा कि घर आकर आराम कर लूं । शायद तबीयत ठीक हो जाए। कहां गए हैं बाबूजी?’

‘कह गए थे जरा नीचे जा रहा हूं। कुछ देर बाद आ जाऊंगा। चाय बनाऊं क्या?’

‘हां, बना दो। उतने को मैं नीचे जा आता हूं बाबूजी के पास। देखूं तो सही वे...’ और मैं नीचे आ गया। जब बाहर नहीं दिखे तो यों ही खिड़की से भीतर झांका यह देखने के लिए कि भीतर बाबूजी क्या कर रहे होंगे ? भीतर देखा कि वे... बाबूजी ने पहले सोफों के कवर ठीक किए, फिर सामने बीजी की टंगी तस्वीर की धूल साफ की अपने कुरते से। उसके बाद बीजी की तरह ही टेबुल साफ करने लगे। टेबुल साफ कर हटे तो बीजी की तरह ही किचन के दरवाजे की जाली दरवाजे के पीछे रखे झाड़ू से साफ करने लगे। देख बड़ा अचंभा हुआ! जिन चीजों से बाबूजी को कभी दूर दूर तक का कोई वास्ता न होता था, इस वक्त वे चीजें बाबूजी के लिए इतनी अहम् हो जाएंगी, मैंने सपने में भी न सोचा था। मैंने तो सोचा था कि बीजी के जाने के बाद बाबूजी और भी बेपरवाह हो जाएंगे। बड़ी देर तक मैं यह सब फटी आंखों से देखता रहा। अचानक मेरी आंखों के गीलेपन के साथ मेरी खांसी निकल आई तो सुन बाबूजी चौंके,‘ कौन? कौन??’

‘मैं हूं बाबूजी संकु!’

‘ तू कब आया?’ बाबूजी ने अपने को सामान्य करते पूछा तो मैंने भी अपने को सामान्य करते कहा, ‘आज तबीयत ठीक नहीं थी, सो सोचा घर जाकर कुछ आराम कर लूं तो शायद.... पर आप यहां... राजी को कह देते, नहीं तो मैं कर देता ये सब....’

‘नहीं! अपने हिस्से के कई काम कई बार खुद करके मन को बहुत चैन मिलता है संकेत। तुम्हारी बीजी के जाने के इतने महीनों बाद भी जब भी यहां आता हूं तो लगता है कि तुम्हारी बीजी यहीं कहीं है। हम सब के साथ। वह शरीर से ही हमसे जुदा हुई है। तुझे ऐसा फील नहीं होता क्या??’ बाबूजी ने मुझसे पूछा और मुंह दूसरी ओर फेर लिया। पक्का था , उनकी आंखें भर आई थीं। सच पूछो तो उस वक्त मैंने भी बाबूजी के साथ बीजी का होना महसूस किया था पूरे घर में, हर जगह बीजी का होना महसूस किया था। सोफों पर, टीवी के पास, किचन में, पूजा के पास हर जगह। क्योंकि मैं जानता हूं कि जहां बीजी न हो, वहां बाबूजी एक पल भी नहीं टिकते, एक पल भी नहीं रूकते। कोई उन्हें रोकने की चाहे लाख कोशिश क्यों न कर ले, वे अपने आप ऐसी जगह रूकने की हजार कोशिश क्यों न कर लें। बाबूजी आज भी कुछ मामलों में बड़े स्वार्थी हैं। इस वक्त जो बीजी उनके साथ न होती तो भला वे जब धूप भी धूप तापने को धूप की तलाश में दर दर भटक रही हो, उसे छोड़ बीजी के बिना यहां होते ?

 

अशोक गौतम

गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड़

नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन-173212 हि.प्र


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