इस बार हम बिमल सहगल की कविता ‘लबादे’ और महावीर राजी की कहानी “उल्टी” प्रस्तुत कर रहे हैं.
जब गुटगुटिया साहब की पत्नी ने प्रैग्नेन्सी की नाज़ुक हालत में ऐन दुकान में उल्टी कर दी तो उसे साफ करने की नई समस्या खड़ी हो गई. "आप लोगों को क्या कभी उल्टी नहीं होती?" गुटगुटिया साहब आसपास करमचारियों से पूछते हैं. "चट में लपेटकर फेंक देने से इज्जत घट जाएगी?'
भारतीय शहरों में गंदगी एक श्राप है. मैंने ऐसी गंदगी किसी और देश में नहीं देखी है. बहुत समय तक तो मैं यही नहीं समझ पाई हम इससे जूझ क्यों नहीं पा रहे हैं. लेकिन अब मुझे मालूम चल गया है कि हम इससे जूझना ही नहीं चाहते हैं. अपने आसपास की गंदगी को साफ करने का काम हमने बस निचली श्रेणी के कुछ लोगों को ही दे रखा है. वो आएं, तो सफाई हो. हमारी अपनी गंदगी हमें साफ करना नहीं गंवारा है. हम 144 करोड़ लोगों की ये गंदगी, और वो 20 करोड़ साफ करने वाले. एकदम दिल्ली जीतने जैसा काम है यह. हो पाएगा या न हो पाएगा, कुछ समझ नहीं आ पाता है हमें. हमारे लिये तो ज्यादा आसान गंदगी को नजरंदाज कर देना है. लेकिन भगवान के लिये इन पिछड़े लोगों को पिछड़ा ही रहने दें. आधुनिक तकनीकों के होने के बावजूद, इन्हें हाथों से ही पखाना साफ करने दें. पहिये के आविष्कार को अरसा हो गया, लेकिन हमारा जो भार हैं, इन्हे अपने सरों पर ही ढोने दें. बचपन में स्कूलों में प्रतिदिन जो शब्द हमने कहे थे, कि भारत हमारा देश है और हम सब भारतवासी भाई-बहन हैं ... वगैरह ... वह प्रण के शब्द नहीं, बस प्रेरणात्मक शब्द थे – कर्णप्रिय थे, सुखदायक थे. बिमल सहगल की कविता में उल्लिखित ‘लबादे’ भर थे. ये 20 करोड़ इसी हाल में भले हैं, इन्हें यो हीं रहने दें.
यह अंक भी पाठक पसंद करेंगे, यही उम्मीद है.
सस्नेह
मुक्ता सिंह-ज़ौक्की
सम्पादक, ई-कल्पना
कहानी 5 की प्रतियाँ ऐमेजौन या गूगल प्ले पर खरीदी जा सकती हैं
Σχόλια