पद्दो उर्फ़ पुण्यपद पटनायक की बहन की शादी एक दिन बाद थी। वह उत्साहित था कि तमाम मेहमान घर आयेंगे। दोस्त आयेंगे। खूब खाने-पीने को मिलेगा। नये रिश्तेदार मिलेंगे। मगर उसकी ख़ुशियों पर तब पानी फिर गया, जब उसने स्कूल में जाकर पाया कि वह फिर फे़ल हो गया है, बारहवीं की परीक्षा में। यह दूसरी बार है जब वह फे़ल हुआ है। एक तो वह पहले ही अपनी क्लास में उम्र में सबसे बड़ा था, जिसको लेकर लोग मज़ाक़ उड़ाते थे। ऊपर से फिर फे़ल हो गया। पिछली बार पापा ने उसकी कस कर पिटाई की थी। दर्द से तो वह एक दिन रोया, किन्तु पीटे जाने के अपमान को याद कर-कर कई दिनों तक रोता रहा था। मोहल्ले में भी ख़ूब मज़ाक बना. उसके दोस्तों ने तो काफ़ी दिनों तक उसकी पिटाई को याद कर-कर के ताने दिये थे। इस बार का रिज़ल्ट आने की उसने अपने घर में किसी को कानो कान ख़बर नहीं दी थी। पापा अपनी दूसरी बेटी की शादी की तैयारियों में व्यस्त थे। इसलिए किसी को ध्यान नहीं था कि आज उसके परीक्षाफल घोषित होने हैं।
पद्दो का यूं भी पढ़ाई में मन कम ही लगता था। उसे सिनेमा देखना अच्छा लगता था। वह भी बांग्ला सिनेमा। क्या सेंटिमेंटर स्टोरी रहती है। वह सिनेमा देख-देख कर ख़ूब रोता मगर उसे यह रोना अच्छा लगता था। उसने अपनी ज़ुल्फ़ें भी बांग्ला के एक नामचीन अभिनेता की स्टाइल में कटा रखी थीं। उसके कुछेक दोस्त बंगाल के थे, जिससे वह बांग्ला में ही बात करता और कुछ न कुछ इस भाषा की विशेषता सीखता। काफ़ी कुछ तो वह बांग्ला फ़िल्में व सीरियल देख-देख कर सीख गया था। उसमें कलकत्ता का आकर्षण बहुत था। बंगाल की धरती का सौंदर्य उफ़ क्या कहने। वह बड़ा होकर बंगाली लड़की से ही शादी करेगा, यह अभी से सोच रखा था। हावड़ा ब्रिज को तो वह कई बार सपने में देख चुका था।
वह देर से सोकर उठता, जिसको लेकर भी उसे पापा की अक्सर झिड़कियां सुनने को मिलती रहती थीं। वह पढ़ने में तेज़ था लेकिन पढ़ाई में उसका मन ही नहीं लगता था। उसमें एकाग्रता की कमी थी। दिन-रात खेलना, मौज-मस्ती उसे आनंदित करती। कभी क्रिकेट तो कभी फुटबाल। कभी नाटक तो कभी गाना। कितनी ही चीज़ें उसका ध्यान अपनी ओर खींचतीं और वह इन सबमें मन को रमाता व भटकाता रहता।
उसके परीक्षा के नतीजों ने ख़ुद उसे भी निराश किया था। उसे स्वयं उम्मीद नहीं थी कि वह फिर फे़ल हो जायेगा। कम से कम पास होने की उम्मीद उसने पाल रखी थी। वह लगभग सदमे की हालत में था। पापा से उसने बार-बार वादा किया था कि नहीं खेलेगा। दिन भर किताबें पढ़ेगा। लेकिन वह अपने वादे पर अधिक दिन क़ायम नहीं रहा। अब परीक्षा के नतीजों से उस पर कई तरह की पाबंदियां लगनी तय थीं। मार पड़ेगी सो अलग। मोहल्ले में वह अलग तमाशा बनने जा रहा है। अभी दो-तीन दिन तक तो शादी की चर्चा रहेगी फिर जब सबका ध्यान उसके परीक्षा-फल पर जायेगा तो उसकी खाट खड़ी हो जायेगी।
वह इस आफ़त से बचाव का कोई रास्ता खोजने में लगा था और आख़िरकार उसने काट निकाल ली। उसने तय किया- उसे घर से एकाध सप्ताह के लिए भाग जाना चाहिए। इससे यह होगा कि मां रोयेगी व परेशान रहेगी तो पापा से उसका दुःख देखा नहीं जायेगा। फिर जब वह एकाध सप्ताह में घर लौट आयेगा तो लोग ख़ुश हो जायेंगे। उसे डांट नहीं पड़ेगी। उन्हें आशंका रहेगी कि कहीं वह फिर से न घर से भाग जाये। इस तरह उसका मान बना रहेगा। और अबकी बार वह ज़रूर अच्छी तरह पढ़ाई करके सबको ख़ुश कर देगा। आगे उसने सोचा क्यों न कोलकाता भागा जाये। इस तरह कोलकाता जाने का सपना भी पूरा हो जायेगा। एक पंथ दो काज। वरना किसी रिश्तेदार के यहां गये तो वे पापा को ख़बर दे देंगे। दूसरे यह भी संकट था कि सारे रिश्तेदार तो यहीं आये हुए हैं बहन की शादी में। उसने जोड़-घटा कर देखा कि कितनी भी कंजूसी से चले एक सप्ताह के लिए कम से कम एक हज़ार रुपये तो चाहिए ही। दोस्तों से पैसे उधार मांगे मगर कोई सौ-पचास देने को भी राज़ी नहीं हुआ। रुपये क्यों चाहिए, उसका असली कारण भी वह नहीं बता सकता था, वरना बात लीक हो जाने का ख़तरा था। कोई रुपये दे भी देगा तो वह उसे वापस कैसे करेगा, यह मुश्किल भी भविष्य में सामने आयेगी।
उसने तय किया कि वह अपने पापा की जेब से हज़ार रुपये निकालेगा। इससे फ़ायदा यह होगा कि मां अधिक दुःखी नहीं होगी। वह सोचेगी कि बेटा जहां भी है, भूखा-प्यासा नहीं है क्योंकि वह पैसे लेकर गया है। इससे यह भी संकेत जायेगा कि जब तक हज़ार रुपये हैं पद्दो बाहर रहेगा, फिर ख़र्च होते ही घर लौट आयेगा-लौट के बुद्धू घर को आये के तर्ज़ पर। मां को वापसी की आस रहेगी और वह अधिक दुःखी नहीं होगी। और उसे तो हफ़्ते भर में लौट ही आना है, तो इसका संकेत मिलना ही चाहिए।
वह शादी के दौरान पापा की जेब से पैसे निकालने के लिए मौके़ का इन्तज़ार करने लगा। पहले भी वह उनकी जेब से सौ-पचास कई बार निकाल चुका था। फिर भी उन्हें इसका पता नहीं चला था। या तो वे पैसे गिनकर नहीं रखते हैं और इस मामले में लापरवाह हैं या फिर मां अपनी ज़रूरतों के लिए उनकी जेब से पैसे निकालते रहती है, जिसके वे आदी हैं। पापा सख़्त स्वभाव के हैं, मगर मां के आगे जल्द ही नर्म पड़ जाते हैं। जब भी उसे व बहनों को किसी बात के लिए मनाना होता, वे मां को आगे करके अपनी बात मना लेते थे।
इस बार भी यहीं होगा। वह अपनी मां के बूते सारी समस्या का हल खोज लेगा, इसका भरोसा था।
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बहन की हल्दी की तैयारी चल रही थी। सभी व्यस्त थे। शादी होने का मुहूरत पास आ गया। वह पिता के कमरे में था। एक बैग में अपने दो जोड़ी कपड़े उसने रेडी करके रख दिये थे। टुथब्रश, साबुन तक रखकर वह तैयार था। शादी के लिए उसने नये कपड़े ख़रिदवाये थे। वह भी पहन लिया था। तभी पापा कमरे में आये और आलमारी में एक छोटे मनीबैग से उन्होंने दो हज़ार का एक नोट निकाला और दरवाज़े पर आये बैंडवाले को रुपये पकड़ा दिया। बैंडवाले ने एक हज़ार वापस किये क्योंकि बाकी की रक़म वह पहले ही एडवांस ले चुका था। पापा ने रुपये मनीबैग में रखे और आलमारी के कपाट लगाये। इससे पहले की वे चाबी लगाते मां ने उन्हें किसी काम से तत्काल बुलाया। जैसे ही वे कमरे से बाहर निकले पद्दो ने झट आलमारी खोली और मनीबैग निकाल लिया और आलमारी के कपाट बंद कर दिये। तभी पापा के लौटने की आहट आयी तो वह ड्रेसिंग टेबल में लगे आईने के सामने खड़ा हो कंघी करने लगा। पापा ने आकर आलमारी की चाबी लगायी और फिर आंगन में चले गये।
पद्दो ने मनीबैग को अपने कपड़ों वाले बैग में डालने से पहले उसकी चेन खोलकर देखा, पांच-पांच सौ के दो कड़क नोट थे। नया गमछा गले में लटकाया और उसकी ओट में बैग छुपाकर सावधानी व फुर्ती से घर से बाहर निकल आया। बाहर रिक्शे पर बैठा और सीधे स्टेशन। स्टेशन पर उसे अधिक देर ट्रेन का इन्तज़ार नहीं करना पड़ा।
जाने के थोड़ी देर पहले एक छोटा का पत्र पद्दो ने मां के नाम लिखा था, उसे टेबल पर रखकर पेपरवेट से दबा दिया था-'प्यारी मां। मैं फिर फे़ल हो गया है। पापा के डर से घर से जा रहा हूं। जल्द लौट आऊंगा। अपना ख़याल रखना। रोना मत। पापा को समझाना। मैं इस बार ज़रूर ठीक से पढ़ूंगा और अच्छे नम्बर से पास हो जाऊंगा। मैं लाटूंगा तो कोई मुझे डांटे नहीं। मुझे अपनी ग़लती समझ में आ गयी है।-पद्दो'
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हावड़ा स्टेशन पर ट्रेन रुकी। वह बाहर निकला। सामने हावड़ा ब्रिज देखकर लगा वह अभी स्वप्न में है। अगले दो दिन मस्ती में कटे। एक सस्ते से लॉज में वह ठहरा था। बांग्ला फ़िल्में देखीं धर्मतल्ला जाकर। विक्टोरिया मेमोरियल, बिड़ला तारामंडल, नेहरू म्यूज़ियम, अलीपुर चिड़ियाख़ाना देखा। पुचके खाये, चाऊमीन का लुत्फ़ उठाया। एगरोल खाया। बड़ाबाज़ार की गलियों में घूमते-घूमते वह सोनागाछी इलाके की ओर अनजाने ही निकल आया। एक गली में देखा दोनों ओर सज-धज कर लड़कियां खड़ी हैं। वह कुछ देर खड़ा हो भौंचक्का देखता रह गया। उसे अपनी ओर देखता पाकर लड़कियां पास आने का इशारा करने लगीं तो वह लगभग घबरा गया। तभी पास खड़े एक हाथरिक्शा वाले ने उससे पूछा-'कलकत्ता में नये आये हो?'
पद्दो ने झेंपते हुए 'हां' में सिर हिलाया।
-'चलो मैं तुम्हें घुमा देता हूं।'
वह ठीक-ठाक रिक्शावाले की बात समझा नहीं। उसने कहा-'रहने दो मैं ख़ुद घूम लूंगा।'
-'अरे सुन्दर-सुन्दर लड़कियों के पास ले चलूंगा। एक से बढ़कर एक।'
-बहुत पैसे लगते हैं ना?
-'हर तरह की होती हैं। अधिक वाली भी कम वाली भी।'
-'लेकिन मेरे पास बहुत पैसे नहीं है। और मैं उन्हें बस पास से देखना चाहता हूं। मैंने फ़िल्मों में देखा है मुजरा, कोठा और धंधेवाली बाई।'
-'तब तो चिन्ता की कोई बात नहीं। मैं तुम्हें एक ज़गह ले चलता हूं। जो भी लड़की तुम्हारे पास आये तुम कह देना मुझे पसंद नहीं है। बस। थोड़ी देर में लौट आना। पैसे नहीं लगेंगे। आओ बैठो।' रिक्शावाले ने उसके उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना अपना रिक्शा आगे बढ़ा दिया।
पद्दो असमंजस की स्थिति में रिक्शे पर बैठ गया।
तीन मिनट चलने के बाद अगली एक संकरी गली में उसने रिक्शा घुसा दिया और एक तीन मंज़िला पुरानी इमारत के दरवाज़े पर रिक्शा रोककर बोला-'आओ मेरे पीछे आओ।'
पद्दो जैसे यंत्रचालित सा उसके पीछे हो लिया। सीढ़िया चढ़ते हुए वे तीन मंज़िली इमारत की ऊपरी मंज़िल पर पहुंचे। रिक्शे वाले ने कहा-'जैसा कहा है वैसा ही करना।' फिर उसे एक हट्टे-कट्टे आदमी के हवाले करता हुआ बोला-'इन्हें घुमा लाओ।'
फिर वह पद्दो से बोला-'मुझे सौ रुपये दो।'
पद्दो ने बग़ैर कुछ समझे और बोले चुपचाप उसे सौ रुपये दे दिये। रिक्शावाला रुपये अपनी तहमद में लपेटता हुआ बोला-'मैं नीचे तुम्हारा इंतजार करता हूं।' वह तेजी से लपककर नीचे चला गया। पद्दो का कलेजा धक् धक् करने लगा। मगर वह एक नये अनुभव का मज़ा भी लेना चाहता था। सोचा जब वह यह किस्से दोस्तों को सुनायेगा तो वे हक्के-बक्के रह जायेंगे। हर ऐरे-गैरे को क्या पता, दुनिया में क्या-क्या होता है। अपनी आंखों से देखने का मज़ा ही कुछ और है।
पद्दो को वह व्यक्ति एक कमरे में ले गया। पद्दो ने ग़ौर से देखा। बस एक बिस्तर लगी चौकी है। एक छोटा सा टेबल. जिस पर पानी का जग रखा है और एक उल्टा स्टील का गिलास। दीवार पर राम तेरी गंगा मैली फि़ल्म की मंदाकिनी की अर्द्धनग्न फोटो का कैलेंडर।
कमरे में अपने-आप एक सांवली सी युवती आयी। पद्दो ने उसे एक बार ग़ौर से देखा। यह तो सचमुच ही सुंदर नहीं है। गाढ़ा मेकअप किया था जिसके कारण वह और बदसूरत लग रही थी। चेहरा सूखा था। युवती ने पान भी खाया था..यह उसके होठों और मुस्कान के दौरान झांकते दांतों से साफ़ पता चल रहा था। पद्दो ने एक ख़ूबसूरत युवती की कल्पना की थी लेकिन हुआ इसके विपरीत था।
पद्दो की इच्छा उससे एकदम बात करने की भी नहीं हुई, वरना कुछ पूछता।
जैसा कि पहले से तय था पद्दो ने ख़ुद ही साहस करके कहा-'मुझे तुम पसंद नहीं हो। किसी और को भेजो।'
जब दूसरी युवती से भी उसने यही कहा तो वह तिलमिला कर बाहर निकली और उसकी तीखी आवाज़ भीतर आयी-'दीदी, द्याखो की बोलछे..?'
किसी महिला ने उसका उत्तर दिया-'तुमी अन्नो कस्टमर के दैखो..आमी एटाके देखची की ब्यापार..शांतनू एकटू एशो..'
कमरे में एक प्रौढ़ महिला सीढ़ी पर मिले व्यक्ति के साथ कमरे में धड़धड़ाती हुई लगभग क्रोध की मुद्रा में घुसी और कहा-‘क्या हुआ। तुम यहां मज़ा करने आये हो कि मज़ाक करने। निकलो यहां से।’
जैसे ही पद्दो बाहर निकलने को हुआ, महिला ने कहा-‘ऐ। टाका देकर जाओ।’
पद्दो ने कहा-‘किस चीज़ का रुपया। मैंने तो कुछ किया नहीं।’
महिला-‘तो तुमको किसने मना किया कुछ करने से। आता है कुछ करना। तो करो। पर रुपया तो देना ही पड़ेगा।’
पद्दो ने सहमते हुए पूछा-‘कितना देना पड़ेगा?’
महिला ने कहा-‘नये आये हो लगता है। कहां से आये हो?’
पद्दो-‘उड़ीशा के बालांगीर से।’
महिला-‘तभी तो तुमको कुछ नहीं पता। रिक्शावाला कुछ बताया नहीं।’
पद्दो-‘नहीं। मैं तो बस देखने आया था। मुझे कुछ नहीं करना है।’
महिला-‘यहां तमाशा हो रहा है, जो देखने आये हो। कितना रुपया है तुम्हारे पास।’
पद्दो-‘छह सौ रुपये हैं।’
महिला-‘ठीक है दो। और निकलो यहां से।’
पद्दो-‘यह पूरे रुपये मैं आपको नहीं दे सकता। मैं दो-तीन सौ ही दे पाऊंगा। मुझे दो-तीन दिन और रहना है कोलकाता में। खर्चे के लिए चाहिए। फिर गांव भी वापस जाना है किराया लगेगा।’
महिला-‘क्या बकवास है! दो सौ रुपये में यहां चला आया फुर्ती करने। शांतनु, इसकी तलाशी लो। देखो कितना है इसके पास।’
शांतनु ने उसके पैंट, जेब तथा कमर की तलाशी ली कि कहीं रुपये तो नहीं छिपाये हैं। उसे कुछ नहीं मिला। फिर उसकी उस बैग पर नज़र पड़ी जिसे पद्दो अपने हाथों में मज़बूती से थामे हुए था। यह उसके पापा का मनीबैग था, जिसे लेकर वह घर से भाग आया था।
पद्दो के मना करने पर भी शांतनु ने बैग ले लिया और चेन खोली तो उसमें रुपये थे। गिनने पर पांच सौ नब्बे निकले। शांतनु ने कहा-‘यह ठीक बोल रहा था। छह सौ भी नहीं हैं।’
महिला ने कहा-‘अरे, दूसरा चैन भी खोलकर देखो।’
बैग में एक चैन और लगी थी जिसे पद्दो ने भी खोलकर नहीं देखा था और उसकी ओर उसका ध्यान भी नहीं गया था। अब सहसा पद्दो ने भगवान जगन्नाथ से मनाया-भगवान इसमें रुपये न निकलें।
सचमुच रुपये तो नहीं निकले लेकिन एक छोटी सी पोटली निकली। महिला ने शांतनु से पोटली लपक ली और उसकी गांठ खोलकर देखा तो उसकी आंखों की चमक जहां बढ़ गयी, वहीं पद्दों की आंखें फटी की फटी रह गयीं।
पोटली की चीज़ें महिला ने बिस्तर पर रख दिये। एक चैन, चार चूड़ियां, एक पुरुष व एक महिला की अंगूठी, एक जोड़ा कान की बालियां और माथे की झूमर। सब सोने के बने नये जे़वर।
पद्दो ने घिघियाते हुए कहा-‘यह सब मत छूना। यह मेरी बहन के हैं। उसकी शादी हुई है। मैं शादी से पहले लेकर भाग आया। उसे देने होंगे। मुझे पता नहीं था कि यह सब मनीबैग में हैं।’
महिला ने कहा-‘घर से जे़वर लेकर भाग आये। और कह रहे हो पता नहीं है। यहीं सब छोड़ जाओ और जितनी बार मजे़ करने हो आ जाना। तुमसे पैसे नहीं लेंगे।’
पद्दो-‘नहीं। मुझे यहां कभी नहीं आना। मैं बस देखने आया था। अब नहीं आऊंगा। मुझे घर जाना है। सब मुझे खोज रहे होंगे। बहन को शादी के गहने देने होंगे।’
महिला-‘मूर्ख। तुम्हारी बात पर मुझे विश्वास है मगर यह चैन मुझे पसंद आ गयी है। यह मैं रख लेती हूं। बाकी संभाल के रख लो। रात में ही अपने घर लौट जाओ। दो-तीन घंटे में तुम्हें ट्रेन मिल जायेगी। मैं हर साल पुरी जाती हूं, इसलिए पता है। घर जाकर कह देना चैन कोई चुरा ले गया। बाकी लौटा देना।’
पद्दो ने बाकी जे़वरों की वापसी की उम्मीद भी छोड़ी दी थी। इसलिए बाकी वापस पाकर संतोष की सांस ली। वह जे़वर की पोटली जल्दी से मनीबैग में रखकर लौटने को हुआ तो महिला ने सारे रुपये उसे लौटा दिये।
कहा-‘सारे रुपये रख लो और घर ज़रूर लौट जाना।’
पद्दो कमरे से तेज़ी से निकला और सीढ़ियां उतरकर एक बार उस हाथरिक्शा वाले को खोजने के लिए इधर-उधर देखा। वह नज़र नहीं आया। पद्दो ने सड़क से ऑटो पकड़ी। अपनी लॉज पहुंचा। कपड़े का बैग लेकर वह हावड़ा स्टेशन पहुंचा और बलांगीर जाने वाली ट्रेन पकड़ ली। वह सहज की कल्पना कर सकता था कि बहन के जे़वर नहीं मिलने पर उसके घर वालों की क्या दशा होगी। अब वह अपने को धिक्कार रहा था कोलकाता भागने की अपनी योजना के लिए। लेकिन उसने यह नहीं सोचा था कि वह अपनी बहन के शादी के जे़वर लेकर भागेगा। वह तो परीक्षा में अपना रिज़ल्ट ख़राब आने के कारण पड़ने वाली मार या डांट-फटकार से बचने के लिए कोलकाता आया था।
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बलांगीर स्टेशन पर उतर कर वह पैदल की घर की ओर चल पड़ा। वह अभी अपने घर की ओर मुड़ता तभी देखा कि उल्टी दिशा में एक शवयात्रा जा रही है, जो संभवतः उसी गली से निकली है, जो उसके घर तक जाती है। सड़क पर ‘राम नाम सत्य’ की रटन के साथ फेंके जाने वाले बतासे और खोई ज़मीन पर पड़े थे। उसका दिल धक्-धक् करने लगा। तो क्या पापा यह दुःख नहीं सह पाये..वह घर की ओर भारी क़दमों से बढ़ रहा था और उसकी नज़रें ज़मीन पर पड़ी खोई पर थीं, जो उसका घर तक पीछा कर रही थीं..लेकिन पापा तो स्वस्थ थे। कोई बीमारी भी नहीं थी, तो क्या मां..उसने तमाम आशंकाओं को दिल से निकाला और घर के दरवाज़े तक पहुंचा। मां की सिसकियों की आवाज़ आंगन से आ रही थी।
मां ने कुछ नहीं कहा। बस उसे देखा व रोती रही। बड़ी बहन ने बताया - ‘छोटी बहन की शादी जे़वर नहीं दिये जाने के कारण टूट गयी। विवाह के टूटने का दुःख वह बर्दाश्त नहीं कर पायी और आज सुबह जब सब सोकर उठे तो पाया उसने फांसी लगा ली है।'
बहन ने ही बताया - 'पापा ने मेरी शादी के लिए कर्ज़ लेकर मेरा विवाह जैसे-तैसे कर दिया था। अब छुटकी की शादी के लिए अचानक अच्छा रिश्ता मिल गया तो लालच में आ गये। यह घर बेच दिया और पिछला क़र्ज़ चुकता कर दिया और छुटकी के विवाह के लिए भी जे़वर बनवा लिए और विवाह के अन्य ख़र्चों के लिए भी रुपये बचा लिये। अब एक महीने में यह घर छोड़कर किराये के मकान में जाना पड़ेगा। अब इस मकान में वह रहेगा, जिसने इसे ख़रीदा है। यह सब छुटकी को पता था। उसे लगा कि पापा की दुर्दशा का कारण वही है।’
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पापा लौटे। पद्दो चाहता था पिता उसे डांटे, फटकारें, पीटें। सारी विपदा की जड़ वही था..नराधम। कुल का सर्वनाश करने वाला। लेकिन वे उसके प्रति सामान्य बने रहे। जैसे इन पूरे प्रकरण में उसकी कोई भूमिका न हो। तीसरे दिन उन्होंने कहा - ‘तुम अपने दिल पर मत लेना। यह मेरे किये का नतीजा है। मैं सबको डरा-धमका कर रखता था। यदि तुम मुझसे नहीं डरते तो घर से नहीं भागते। मेरी बेटी यदि मुझसे नहीं डरती और मुझसे फ़ासला नहीं रखती तो अपना दुःख हम बांट लेते। उसे दुनिया से जाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। मुझे माफ़ कर दो।’
और दोनों एक-दूसरे के गले लिपट कर रो पड़े। उनके गर्म आंसुओं ने एक-दूसरे के प्रति सारे गिले- शिकवे धो डाले थे।
परिचय - अभिज्ञात
डॉ.अभिज्ञात
जन्मः 1962। शिक्षा- कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिन्दी में पीएच.डी.।
प्रकाशित पुस्तकें- कविता संग्रहः एक अदहन हमारे अन्दर, भग्न नीड़ के आर-पार, सरापता हूं, आवारा हवाओं के ख़िलाफ़ चुपचाप, वह हथेली, दी हुई नींद, ख़ुशी ठहरती है कितनी देर, बीसवीं सदी की आख़िरी दहाई, कुछ दुःख कुछ चुप्पियां, ज़रा सा नास्टेल्जिया। उपन्यास- अनचाहे दरवाज़े पर, कला बाज़ार। कहानी संग्रहः तीसरी बीवी, मनुष्य और मत्स्यकन्या।
पुरस्कार/सम्मानः आकांक्षा संस्कृति सम्मान, कादम्बिनी लघुकथा पुरस्कार, क़ौमी एकता अवार्ड, अम्बेडकर उत्कृष्ट पत्रकारिता सम्मान, कबीर सम्मान, राजस्थान पत्रिका सृजनात्मक साहित्य सम्मान, पंथी सम्मान, अग्रसर पत्रकारिता सम्मान।
विशेष शौक़ः हिन्दी फ़ीचर फ़िल्म ‘चिपकू’, बांग्ला फ़ीचर फ़िल्मों ‘एक्सपोर्टः मिथ्ये किन्तु सत्ती’, ‘महामंत्र’, ‘एका एबोंग एका’, ‘जशोदा’, शार्ट फ़िल्म 'ईश्वर' व ‘नोमोफोबियाः एक यंत्र’ और धारावाहिक ‘प्रतिमा’ में अभिनय। पेंटिंग का भी शौक़। कुछेक कला प्रदर्शनियों में हिस्सेदारी।
पेशे से पत्रकार। सम्पर्कः फैंसी बाज़ार, तीसरा फ्लोर, 6 स्टेशन रोड, टीटागढ़, कोलकाता-700119 फ़ोन-9830277656 ईमेल abhigyat@gmail.com
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