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हरीश कुमार 'अमित'

अस्तित्व




सुबह नींद खुलते ही दिमाग़ में सबसे पहले यही बात आई कि आज 25 फरवरी है। इस तारीख़ की याद आते ही लगा जैसे मन किसी गहरे बोझ तले दब गया हो। दो साल पहले की  यही तारीख़ थी  जब मैँ आकृति के साथ प्रशांत मॉल  गया था और उसके लिए ख़रीदारी की थी। तब यह बात सपने में भी नहीं सोची थी कि कुछ महीने बाद ही वह हमें छोड़कर   इस दुनिया से  चली जाएगी।


  आकृति के अचानक  इस दुनिया से विदा हो  जाने का आघात इतना गहरा था कि दिल हमेशा रोता रहता। जब-तब आँखों से आँसुओं के झरने बहने लगते।  दिलोदिमाग़ पर हर वक़्त आकृति ही  छाई रहती। उसकी हर छोटी-बड़ी बात आँखों के आगे फ़िल्म की रील की तरह घूमती रहती। हमेशा यही  लगता रहता कि वह कहीं आसपास ही है।  यही ख़याल मन को मथता रहता  कि आकृति क्यो अचानक हमें छोड़कर चली गई। कैसे हम उसे बचा भी नहीं पाए।  आकृति  की याद में मैँ बहुत उदास और ग़मगीन रहा करता था, लेकिन आज की तारीख़ ने मुझे और भी ज़्यादा उदास कर दिया था।

 दो साल पहले तक जिस बीमारी का नाम तक नहीं सुना था, वही   हमारे घर पर चील की तरह झपटी और बीस वर्ष की मेरी इकलौती संतान को अपने चंगुल में दबोचकर ले गई।

 मन बहुत बेचैन होने लगा। दो बरस पहले की 25 फरवरी की यादें जैसे मेरे पूरे अस्तित्व पर छा गईं। अचानक दिल में  ख़याल आया कि क्यों न उसी मॉल में जाकर उन्हीं लम्हों को  जीने की कोशिश करूँ। वहाँ जाकर देखूँ कि  दूसरों  ने आकृति को कितना याद रखा है। 


 

  शाम के चार बजे मैं ऑटोरिक्शा में बैठा प्रशांत मॉल की तरफ़ जा रहा था। मन बहुत भारी था। दिमाग़ में वही दो साल पहले का वक़्त चक्कर काट रहा था। पूरे दो साल पहले इसी वक़्त ही तो आकृति के साथ इसी तरह ऑटोरिक्शा में बैठकर इसी माल की ओर जा रहा था।


 अचानक मेरा ध्यान ऑटोरिक्शा के ड्राइवर की ओर गया। न जाने  क्यों मुझे लगा कि यह तो वही ड्राइवर है जो दो साल पहले हमें प्रशांत मॉल  लेकर आया था। ज्यों-ज्यों मैँ इस बारे में सोचने लगा, मुझे लगने लगा कि यह वही ड्राइवर है। अचानक मेरी नज़र उसके दाएँ कान पर पड़ी तो मुझे पूरा विश्वास हो गया कि यह वही ड्राइवर है। इस ड्राइवर का दायाँ कान नीचे से थोड़ा-सा कटा हुआ था। मुझे अच्छी तरह याद आ गया कि दो साल पहलेवाले ड्राइवर का दायाँ कान भी ऐसे ही कटा हुआ था। मुझे यह भी याद आ गया कि ड्राइवर के कान के कटे होनेवाली बात पर आकृति का ध्यान भी गया था और उसने धीरे से मेरे कान में यह बात कही भी थी।


 यह सब मैँ सोच ही रहा  था कि तब तक प्रशांत मॉल आ गया। ऑटो ड्राइवर को किराए का भुगतान करते हुए मैंने उससे पूछ ही लिया,”भैया, आपको याद है आज से पूरे दो साल पहले आप ही मुझे इसी तरह मेरे घर से इसी मॉल तक लाए थे? मेरे साथ  मेरी बेटी भी थी।”  

मुझे लग रहा था कि उस ड्राइवर को भी सब कुछ याद आ जाएगा और फिर मैँ जब उससे आकृति के बारे में  बातचीत करूँगा तो मेरी उदासी कुछ  छंट जाएगी और मेरा मन कुछ हल्का हो जाएगा।


 लेकिन मेरी बात सुनते ही उस ड्राइवर ने रूखी-सी आवाज़ में कहा, ”नहीं, नहीं, मुझे तो कुछ याद नहीं।” और फिर किसी दूसरी सवारी की तलाश में ऑटो आगे बढ़ा ले गया।


मैँ ठगा-सा कुछ देर तक उस जाते हुए ऑटोरिक्शा को देखता रहा। फिर एक ठंडी उसाँस छोड़ते हुए मैंने मॉल की ओर देखा। पूरे दो साल बाद मैँ यहाँ आया था। मॉल वैसा ही दिख रहा था जैसा दो साल पहले था। कुछ लोग  मॉल के अंदर जा रहे थे तो कुछ उससे निकलकर बाहर आ रहे थे। चंद लोग इधर-उधर खड़े थे। दुनिया वैसे ही चल रही थी जैसे पहले चला करती थी।


 धीमे-धीमे क़दम बढ़ाते हुए मैं मॉल के अंदर जाने लगा। दो साल पहले का वक़्त मानो मुझे चीरे जा रहा था।  चलते-चलते मैं कपड़ों के उस शोरूम के सामने पहुँच गया जहाँ से आकृति ने दो साल पहले आज ही के दिन अपने लिए जींस-टॉप ख़रीदे थे। इस शोरूम पर आकृति के साथ मैँ उससे  पहले भी कई बार आ चुका था। दो सालों बाद इस शोरूम में दाख़िल होते ही दिल में जैसे हूँक-सी उठी। दो साल पहले के वक़्त का एक-एक लम्हा जैसे आँखों के आगे साकार होने लगा। ख़रीदना तो मुझे कुछ था नहीं। सरसरी निगाहों से शोरूम में पड़ा सामान देखने का अभिनय करने लगा।  सामान बेच रहे हर सेल्समेन और सेल्सगर्ल का चेहरा मुझे नया-सा लगा। दो साल पहले का कोई जाना-पहचाना चेहरा मुझे नज़र नहीं आया। अलबत्ता शोरुम के मालिक को मैंने पहचान लिया। यह वही  पहलेवाला आदमी था।

बुझे हुए क़दमों से मैँ  उसके क़रीब चला गया और उससे कहने लगा, “पूरे दो साल बाद आया हूँ आपके शोरूम  में।”

 “हाँ जी, बीच में  तो कुछ महीने  बंद भी रहा शोरूम।” दुकानदार ने कहा तो मुझे लगा कि अब बात कोरोना महामारी की चल पड़ेगी   और फिर मैँ आकृति के बारे में आसानी से बात छेड़ पाऊँगा।


 “बड़े भयानक वक़्त से निकलकर आए हैं।” मैंने बात बढ़ाने की गर्ज़ से कहा।


 “कहिए, क्या सेवा करूँ आपकी?” दुकानदार शायद धंधे  की बात ही करना चाहता था।


 मुझे लगा कि आकृति के बारे में बात करने का यही मौक़ा है। इसलिए मैँ तुरंत कह उठा, ”अब क्या खरीदूँ? वो तो चली गई जो खरीदा करती थी यहाँ से! दो साल पहले आज की ही तारीख में आया था उसके साथ  आपके यहाँ, जब उसने जींस और टॉप खरीदे थे!” कहते-कहते मेरी आवाज़ भर्रा गई, लेकिन उस दुकानदार के चेहरे पर ऐसे भाव आए जैसे कुछ हुआ ही न हो।

वह कहने लगा - ”ओहो! बड़ा बुरा हुआ।”

 

मैँ कुछ और कहता, इससे पहले ही एक सेल्समेन ने कुछ कपड़े लाकर उस दुकानदार के पास  काउंटर पर रख दिए। उसके पीछे-पीछे एक ग्राहक भी था जिसने वे कपड़े पसंद किए होंगे। मालिक उन कपड़ों का बिल बनाने में व्यस्त हो गया।  मैँ दो-चार पल उस दुकानदार को देखता रहा और फिर धीमे-धीमे क़दम उठाता हुआ उस शोरूम से बाहर निकल आया।

 

मेरे मन में घुमड़ रहे उदासी के बादल और भी गहरे हो गए थे। शायद दुनिया को इस बात की कोई परवाह ही नहीं थी कि मेरी इकलौती संतान इस दुनिया से जा चुकी है।

 

बुझे मन से मैँ यूँ ही निरुद्देश्य मॉल की दुकानों के सामने  घूमता रहा। फिर एस्केलेटर से मॉल की दूसरी  मंज़िल पर जा पहुँचा, जहाँ पर जूतों का वह शोरूम था जहाँ  से आकृति ने दो साल पहले आज के ही दिन जूते ख़रीदे थे।

शोरूम में मौजूद कुछ सेल्समेन पहचाने-से लगे। अलबत्ता शोरूम  का मालिक कोई नया व्यक्ति था। मेरी नज़रें उस सेल्समेन को  ढूँढ रही थीं जिसने दो साल पहले आकृति को जूते पसंद करवाए थे। शोरूम में ग्राहकों की भीड़ थी। सारे सेल्समेन ग्राहकों के साथ व्यस्त थे।  मैँ चाह रहा था कि दो साल पहलेवाला वही सेल्समेन कहीं नज़र आ जाए तो उससे आकृति के बारे में कुछ बात करूँ। उसके इंतज़ार में मैँ बेदिली से वहाँ सजे हुए जूतों को निहारता रहा, मगर काफ़ी देर तक   वह नहीं आया तो मुझे लगा कि या तो आज वह छुट्टी पर है या फिर यहॉं की नौकरी छोड़ गया है। मैँ  बड़ी हसरतभरी निगाहों से उस शोरूम में रखे सामान को देखने लगा। दो साल पहले आकृति यहीं थी -बिल्कुल ठीक-ठाक; और कितनी ख़ुशी-ख़ुशी जूते पसंद कर रही थी। तब क्या पता था कि वह अपनी  ज़िंदगी का आख़िरी जूता पसंद कर रही थी। मैँ भारी और उदास मन से उस शोरूम से बाहर निकल आया।

 

जूतों के शोरुम से बाहर आया तो सामने चमक रहे पिज़्ज़ा शॉप के साइनबोर्ड पर नज़र पड़ी। यहीं पर तो खाया था पिज़्ज़ा आकृति के साथ दो साल पहले आज ही के  दिन। आकृति की यादों में खोया हुआ मैँ पिज़्ज़ा शॉप के अंदर पहुँच गया। अंदर वैसी ही गहमागहमी थी जैसी दो बरस पहले थी। ज़्यादातर मेज़ें भरी हुई थीं। मेरी नज़रें उस मेज़ को ढूँढने लगीं जिसपर दो साल पहले मैँ और आकृति बैठे थे। यह देख मुझे बड़ा सुकून मिला कि वही मेज़ खाली थी। मैँ जल्दी से उस मेज़ की ओर लपका।

 

मेज़ पर मेरे बैठते ही एक वेटर हाथ में मेन्यु कार्ड लेकर आया और उसे मेरे आगे रख दिया। मैं ध्यान से वेटर के चेहरे को देखने लगा। मुझे लगा कि शायद यह वही वेटर है जिसने दो साल पहले मुझे और आकृति को पिज़्ज़ा सर्व किया था। वेटर ऑर्डर  लेने के इंतज़ार में खड़ा था, पर मैँ पिज़्ज़ा खाने के लिए कहाँ आया था। मैं तो दो साल पहले के लम्हों को महसूस करते हुए यह देखना चाहता था कि आकृति की कितनी याद लोगों को है।

 

 यह पक्का करने के लिए कि यह वही दो वर्ष पहलेवाला वेटर ही है, मैंने उससे पूछा, ”कब से काम कर रहे हो यहाँ?”

 

“तीन साल से, सर।“ उसने थोड़ी जल्दी में कहा। निश्चित ही उसे मेरा ऑर्डर सर्व करके कुछ दूसरे ग्राहकों को भी  पिज़्ज़ा सर्व करना था। मगर यहाँ आने का मेरा मक़सद दूसरा था। मैंने बात बढ़ाने के लिए उसे कहा,” क्या तुम्हें  याद है दो साल पहले आज के ही दिन मैँ यहाँ आया था अपनी बेटी के साथ? इसी टेबल पर हम लोग बैठे थे और तुमने ही हम दोनों को पिज़्ज़ा सर्व किया था? याद है?”

 

मेरी बात सुनकर वह हँसने लगा और फिर बोला,”सर, मुझे तो दो दिन पहले की बात भी याद नहीं रहती, दो साल पहले की क्या याद रहेगी! यहाँ तो हर दिन कितने ही लोग पिज़्ज़ा खाने आते हैं। हमें याद थोड़ा ही रहता है कि -कौन-कौन आया था!”

 

वेटर ने कुछ ग़लत नहीं कहा था, पर उसका कहा मेरे सीने में कटार की तरह चुभा। मैँ चुप-सा होकर मेज़ की ओर देखने लगा। उधर वेटर ऑर्डर लेने के लिए अधीर हो रहा था। मैंने इशारे से उसे बताया कि मैं कुछ देर बाद ऑर्डर दूँगा। फिर जब वह किसी दूसरी मेज़ पर जाकर ऑर्डर ले रहा था तो मैं चुपचाप उठकर  पिज़्ज़ा शॉप से बाहर आ गया।

 

दुनिया मुझे बड़ी वीरान-सी लग रही थी। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि लोग इस तरह हँस-खेल क्यों रहे हैं। क्या इन लोगों की ज़िंदगी में कोई दु:ख-दर्द है ही नहीं? मेरा मन और उचाट हो गया था। मेरा दिल चाहने लगा कि यहाँ से वापिस घर लौट चलूँ। मैँ बुझे मन से मॉल से बाहर आ गया।

 

बाहर आकर मुझे याद आया कि आकृति ने पटरी पर सामान बेचनेवाले एक दुकानदार से  अपने लिए कान में पहनने वाले बुंदे ख़रीदे थे। मैंने इधर-उधर नज़र दौड़ाई।  सड़क किनारे पटरी पर अपना सामान फैलाए कुछ   दुकानदार नज़र आए, मगर वह वाला दुकानदार    कहीं न दिखा। ‘जो हज़ारों-लाखों लोग कोरोना के बाद अपने -अपने गाँव वापस चले गए थे, हो सकता है यह दुकानदार भी उन्हीं में से एक हो’ -  मेरे दिमाग़ में आया। जब मैँ उसे  ढूँढ नहीं पाया तो जी में आया कि  घर लौट जाऊँ।

 

कोई ऑटोरिक्शा लेने के लिए इधर-उधर देख ही रहा था कि तभी मेरी नज़र सड़क के किनारे बैठे एक भिखारी पर पड़ी। उस भिखारी को देखते ही मैंने पहचान लिया। उसे पहचानना इसलिए भी आसान था क्योंकि उसकी एक टाँग घुटने तक कटी हुई थी। मुझे याद आया कि दो बरस पहले आज के ही दिन सब ख़रीदारी करके घर लौटने से पहले जब ऑटोरिक्शा ढूँढ रहे थे तो आकृति  ने मेरा ध्यान इसी भिखारी की तरफ़ दिलाया था और उसे कुछ दे देंने के लिए कहा था। उस भिखारी की हालत देखकर मैंने पर्स से दस रुपए का नोट निकालकर आकृति को देते हुए कहा था कि इसे उस भिखारी को दे दिया जाए।

 

दो साल बाद उसी भिखारी को फिर से देख मुझे उस पर दया आ गई और मैंने उसे दस रुपए देने की सोची। उसके पास पहुँचकर  मैँ जेब से पर्स निकाल  ही रहा था कि उसने जैसे मुझे पहचानते हुए पूछा,”और बाबूजी, कैसे हैं आप?”

 

“चल रहा है।“ मेरे मुँह से निकला।

 

“आपकी बिटिया कैसी है?” उस भिखारी ने बड़े अपनेपन से पूछा।

 

भिखारी का सवाल मेरे दिल में तीर की तरह चुभा। मैं क्या जवाब देता उसे, लेकिन तभी मुझे ख़याल आया कि आज शाम मिले लोगों में से सिर्फ़ इस भिखारी को ही आकृति  की याद है। बाकियों के लिए तो मानो आकृति का कोई अस्तित्व ही नहीं है।

 

यह सोचते ही मेरे दिल में एक ग़ुबार-सा उठा। मैंने पर्स से  सौ का नोट निकालकर बिना कुछ बोले उस भिखारी की तरफ़ बढ़ा दिया।

 

 भिखारी को नोट थमाकर जब तक मैँ तेज़ी से वापिस मुड़ा, मेरा चेहरा आँसुओं  से तरबतर हो चुका था।


 

लेखक परिचय - हरीश कुमार 'अमित'


नाम            हरीश कुमार ‘अमित’

 

जन्म           मार्च, 1958 को दिल्ली में

 

शिक्षा           बी.कॉम.; एम.ए.(हिन्दी); पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा

 

प्रकाशन         900 से अधिक रचनाएँ (कहानियाँ, कविताएँ/ग़ज़लें, व्यंग्य, लघुकथाएँ, बाल कहानियाँ/कविताएँ आदि) विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित

 

                              एक कविता संग्रह ‘अहसासों की परछाइयाँ’, एक कहानी संग्रह ‘खौलते पानी का भंवर’, एक ग़ज़ल संग्रह ‘ज़ख़्म दिल के’, एक लघुकथा संग्रह ‘ज़िंदगी ज़िंदगी’, दो बाल कथा संग्रह ‘ईमानदारी का स्वाद’ व ‘शहीद का बेटा’, बाल उपन्यास ‘दिल्ली से प्लूटो’ व ‘साधु और जादूगर’ तथा तीन बाल कविता संग्रह ‘गुब्बारे जी’, ‘चाबी वाला बन्दर’ व ‘मम्मी-पापा की लड़ाई’ प्रकाशित। बाल उपन्यास ‘ख़ुशियों की आहट’ तथा बाल विज्ञान उपन्यास ‘मेगा 325’ का ऑनलाइन प्रकाशन

 

                              30 विभिन्न संकलनों में रचनाएँ संकलित

 

प्रसारण         लगभग 200 रचनाओं का आकाशवाणी से प्रसारण. इनमें स्वयं के लिखे दो नाटक तथा विभिन्न उपन्यासों से रुपान्तरित पाँच नाटक भी शामिल.

 

पुरस्कार         (क)  चिल्ड्रन्स बुक ट्रस्ट की बाल-साहित्य लेखक प्रतियोगिता 1994,

                    2001, 2009 व 2016 में कहानियाँ पुरस्कृत

 

(ख)  ‘जाह्नवी-टी.टी.’ कहानी प्रतियोगिता, 1996 में कहानी पुरस्कृत

 

(ग)  ‘किरचें’ नाटक पर साहित्य कला परिषद (दिल्ली) का मोहन राकेश सम्मान 1997 में प्राप्त 

 

(घ)  ‘केक’ कहानी पर किताबघर प्रकाशन का आर्य स्मृति साहित्य सम्मान दिसम्बर 2002 में प्राप्त

 

(ड.)  दिल्ली प्रेस की कहानी प्रतियोगिता 2002 में कहानी पुरस्कृत

 

(च)  ‘गुब्बारे जी’ बाल कविता संग्रह भारतीय बाल व युवा कल्याण संस्थान, खण्डवा (म.प्र.) द्वारा पुरस्कृत

 

(छ)  ‘ईमानदारी का स्वाद’ बाल कथा संग्रह की पांडुलिपि पर भारत सरकार का भारतेन्दु हरिश्‍चन्द्र पुरस्कार, 2006 प्राप्त

 

(ज)  ‘कथादेश’ लघुकथा प्रतियोगिता, 2015 में लघुकथा पुरस्कृत

 

(झ)  ‘राष्‍ट्रधर्म’ की कहानी-व्यंग्य प्रतियोगिता, 2017 में व्यंग्य पुरस्कृत

 

(¥)    ‘राष्‍ट्रधर्म’ की कहानी प्रतियोगिता, 2018 में कहानी पुरस्कृत

 

(ट)  ‘ज़िंदगी ज़िंदगी’लघुकथा संग्रह की पांडुलिपि पर किताबघर प्रकाशन का आर्य स्मृति साहित्य सम्मान, 2018 प्राप्त

(ठ)  रचनाकार.ऑर्ग की नाटक लेखन प्रतियोगिता, 2020 में ‘गोरखधंधा’ नाटक  पर द्वितीय पुरस्कार प्राप्त

 

सम्प्रति         भारत सरकार में निदेशक के पद से सेवानिवृत्त

 

पता            304, एम.एस.4, केन्द्रीय विहार, सेक्टर 56, गुरूग्राम-122011 (हरियाणा)

 

दूरभाष          9899221107

 

ई-मेल          harishkumaramit@yahoo.co.in 

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