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  • डॉ रंजना जायसवाल

आख़िरी ख़त




अस्पताल के आगे बहुत गहमा-गहमी थी। मरीज और तीमारदारों के साथ-साथ मानो अस्पताल भी दर्द से छटपटा रहा था। हर घण्टे कभी एम्बुलेंस, कभी कोई गाड़ी तेजी के साथ अस्पताल के सामने रुकती और अस्पताल शोर से भर जाता।

"नर्स, डॉक्टर प्लीज़! मेरी दादी की तबीयत बहुत खराब है, प्लीज़ उन्हें बचा लीजिये।"

कोरोना की वजह से हर अस्पताल का यही हाल था। जिंदगी कभी ऐसा रूप भी दिखाएगी कभी सोचा न था।मनोज और पुनीत वही अस्पताल के बाहर बने पार्क में सो रहे थे। डॉक्टर, नर्स और वार्ड बॉय की ड्यूटी बदल रही थी। तभी सामने से श्रेया आती दिखी। बाएं हाथ में चाय का थर्मस, दाहिने में नाश्ते का थैला और कंधे पर पर्स …

पुनीत ने हाथ बढ़ाकर थैला पकड़ लिया।

"माँ! कैसी है?" श्रेया ने पूछा।

" कल रात तबीयत काफी खराब हो गई थी, रात में ही दवा का इंतजाम करना पड़ा था। ये तेरे हाथ पर पट्टी कैसी बंधी है?"

मनोज ने श्रेया के उंगली पर बंधी पट्टी को देखकर कहा।

"वो आलू काटते वक्त चाकू हाथ में लग गया था।"

श्रेया की आँखें डबडबा गई, मनोज ने श्रेया के सर पर हाथ फेरा।

"दर्द कर रहा है?"

"हम्म…" श्रेया ने सिर झुकाए झुकाए ही जवाब दिया।

"कुछ दिन सम्भाल ले, माँ जैसे ही ठीक हो जाएंगी सब ठीक हो जाएगा।"

श्रेया का मन छोटा हो गया था, माँ ने कभी चौके में जाने नहीं दिया था, "अभी तेरी पढ़ने-लिखने की उम्र है, उस पर ध्यान दे। बाकी उम्र तो यही सब तो करना है।"

पापा के जाने के बाद माँ ने माँ और पापा दोनों बनकर संभाला था। श्रेया सोच रही थी ईश्वर ने माँ को न जाने किस मिट्टी से बनाया होता है।माँ का प्रेम मौन होता है, अपने अंदर असंख्य दर्द को समेटे वह दूसरों की खातिर ख़ुद के वजूद से लड़ती रहती है। जब भी श्रेया उदास होती तो वह दोस्तों की तरह हमदर्द बन जाती, कभी कोई गलती करती तो पापा की तरह सख्त हो जाती। आज वही माँ एक-एक सांस के लिए जूझ रही थी और वह असहाय चुपचाप उनके लौट आने का इंतज़ार कर रही थी। उसने सामने अस्पताल की बिल्डिंग के तीसरी मंज़िल को बड़ी उम्मीद से देखा। माँ उसी मंज़िल के किसी कमरे में भर्ती थी। सारी खिड़किया बंद थी पर उम्मीद का रौशनदान अभी भी खुला था।

शायद अस्पताल में झाड़ू-पोंछा लग रहा था, तभी एक सफाई कर्मचारी ने एक बड़े से टोकरे को लाकर बिल्डिंग के बाहर कोने पर पलट दिया। चप्पल और जूतों का एक छोटा सा पहाड़ बन गया था। पुरुष, स्त्री,बच्चे हर उम्र, वैरायटी और ब्रांड की चप्पल और जूते थे उस ढेर में…

कहते है औरतों का सिक्स सेंस बहुत तेज़ काम करता है।श्रेया ने अपने भाइयों की ओर देखा। एक अनजाना भय उसके चेहरे पर पसर गया। बगल वाले शर्मा अंकल को कुछ दिनों पहले ही कोरोना हुआ। बड़ी मुश्किल से उनकी जान बची थी, उनके मुँह से ही सुना था। अस्पताल मरीजों से भरा हुआ था। कमरे की सफ़ाई भी नहीं हो पाती थी कि दूसरा मरीज भर्ती …जो ठीक हो कर घर पहुँच जा रहे हैं उनकी बात दूसरी है पर जिनकी हालत ख़राब है उन्हें भी परिवार से आख़िरी बार मिलने बात करने तक नहीं दिया जा रहा था। परिवार के लोगों द्वारा भेजा जरूरत का सामान तो पहुँचता पर मरीजों की खबर परिजनों तक बामुश्किल पहुँचती। उनके कमरे के मरीज की हालत काफी ख़राब हो गई थी, उसे आई सी यू में भर्ती करना पड़ा था। बेचारे उस व्यक्ति की घड़ी, मोबाइल, चप्पल सब कमरे में रह गए थे। ईश्वर जाने आख़िर उसका क्या हुआ, शर्मा अंकल दो दिन तक उस मरीज के साथ थे। एक आत्मीय संबंध दोनों के बीच पनप गया था। शायद इसीलिए दो दिन के संबंधों की खातिर उन्होंने अस्पताल के कर्मचारियों से उनकी ख़ोज-ख़बर लेने की कोशिश की पर किसी ने कुछ नही बताया। क्या पता उनके साथ कोई अनहोनी हो गई थी।

जब तक यह जीवन है शरीर में सांसे हैं सुख और दुख बराबर मिलता रहेगा जीवन में कुछ घटनाएं होती हैं, कुछ दुर्घटनाएं होती हैं। दुर्घटनाएं हमेशा दुखद होती हैं, मन में दर्द और छटपटाहट पैदा करती हैं। लेकिन कुछ लोगों को ऐसे श्राप भी मिले होते हैं जिन्हें उन दुर्घटनाओं का पूर्वाभास हो जाता है और यह पूर्वाभास उन्हें तब तक सोने नहीं देता जब तक वह घटनाएं घटित नहीं हो जाती। वह इंसान एक मानसिक संत्रास,एक ताड़ना, एक दीर्घ सफर से तब तक गुजरता रहता है जब तक वह दुर्घटना उनके सामने किसी न किसी रूप में आकर खड़ी नहीं हो जाती है। कहीं यह चप्पल और जूतों का ढेर भविष्य में होने वाली उस दुर्घटना के प्रतिकात्मक रूप में उनके सामने तो नहीं खड़ी थी।

पुनीत समझने का प्रयास कर रहा था। पुनीत की नजरें मनोज और श्रेया से टकरा गई। उनकी आँखों में न जाने कितने सवाल उग आए थे। पुनीत उन सवालों के जवाब ढूंढने में लग गया। उसकी निगाहें इस वक्त हाथ की उंगलियों का काम कर रही थी। जिस तरह उंगलियाँ ढेर में से सामान ढूंढ लेती हैं। वैसे ही उसने तेज़ी से अपनी आँखों से उस ढेर में कुछ ढूंढने का प्रयास किया। तनाव की वजह से चेहरे पर एक अजीब सा कसाव आ गया था पर धीरे-धीरे वह कसाव ढीला पड़ने लगा, उसकी परेशानी दूर होने लगी मन में जो डर था शायद वह दूर हो गया था। उन चप्पलों के ढेर में वह चप्पल नहीं थी।

सामने से आते किसी वार्डबॉय को देख पुनीत ने कहा, "एक मिनट रुको…लगता है ड्यूटी बदल रही। मैं अभी आता हूँ।"

पुनीत ने श्रेया की ओर पलट कर देखा, "तेरे पास कागज-पेन होगा।"

"होना तो चाहिए! मैं पर्स में हमेशा रखती हूँ।"

उसने यह आदत माँ से ही सीखी थी, माँ हमेशा अपने पर्स में पेन और कागज रखती थी। पता नहीं कब क्या जरूरत पड़ जाए। श्रेया ने पर्स को टटोला और एक बॉल पेन और कागज पुनीत को पकड़ा दिया। पुनीत ने जल्दी-जल्दी कुछ लिखा और पी पी किट पहनते हुए वार्ड बॉय के पास पहुँचा।

"भइया! मेरी मदद कर दीजिए, मेरी माँ तीसरी मंजिल पर किसी कमरे में भर्ती है। उन्हें ये चिट्ठी दे दीजिएगा।शकुंतला नाम है उनका… शकुंतला देवी उम्र लगभग पचपन साल।"

पुनीत ने चिट्ठी के साथ सौ रुपए का एक नोट भी वार्ड बॉय की कमीज की ऊपरी जेब मे सरका दिया।

"बहुत काम है हमें, हम कोई डाकिया थोड़ी हैं।" वार्डबॉय ने बड़े रूखे स्वर में कहा

"भइया प्लीज़ आपका बहुत उपकार होगा।" पुनीत ने लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा।

तब तक मनोज भी चला आया था। उसने सौ का नोट वार्ड बॉय की मुट्ठी में पकड़ाते हुए कहा। "भइया देख लो, हमारी माँ$$..." मनोज का गला रुँध आया, हमेशा चट्टान की तरह मजबूती से खड़े रहने वाले मनोज भइया अचानक से कमज़ोर लगने थे। पापा की मृत्यु ने उन्हें अचानक से बड़ा कर दिया था। आखिर उम्र ही क्या थी उनकी … वह सबका सहारा थे और माँ उनका सहारा …आज माँ को इस हालत में देख वह अंदर ही अंदर बिखर रहे थे, टूट रहे थे। उनकी चेहरे पर फैली बेचारगी से मन न जाने कैसा-कैसा हो गया। पुनीत और मनोज ने कल ही बैंक से पैसा निकलवाया था। भगवान जाने कब कितनी जरूरत पड़ जाए। किसी तरह से कह सुनकर माँ को बेड मिला था। पापा के दोस्त के बेटे बड़े पद पर थे, माँ के इलाज़ के लिए अस्पताल में भर्ती करवाने के लिए उनसे कितनी मिन्नतें और हाथ-पैर जोड़े थे उन दोनों ने … माँ दो दिन तक घर पर ही तड़पती रही, तब जाकर किसी तरह उन्हें बेड मिला था। माँ एक-एक सांस के लिए लड़ रही थी। सांस इतनी मंहगी होगी ये तो सपने में भी नहीं सोचा था। ऑक्सीजन सिलेंडर के लिए पुनीत भइया को रात भर जिले अस्पताल के बाहर लाइन लगानी पड़ी थी। इंसान जीवन में वैसे भी कितना अकेला है इस बीमारी ने उसे भरे-पूरे परिवार के रहते हुए भी बिल्कुल अकेला कर दिया

"देखता हूँ क्या हो सकता है।काम थोड़ा मुश्किल है ।खैर…"

श्रेया की आँखों से आँसू छलछला गए, जो माँ उनकी एक आवाज़ में दौड़ी चली आती थी ,आज उस तक अपनी बात पहुँचाना इतना कठिन होगा यह तो कभी सोचा भी न था। अचानक अस्पताल की दीवारें किसी के रुदन से थर्रा उठी शायद किसी ने किसी अपने को खो दिया था। मनोज ने मन को कड़ा किया और वार्डबॉय के सामने हाथ जोड़ते हुए कहा, "प्लीज!"

रोकते-रोकते भी मनोज की आँखों से आँसू ढलक आए, श्रेया और पुनीत ने कसकर अपने भाई का हाथ पकड़ लिया। मनोज के होंठ कुछ बुदबुदा रहे थे, शब्द अस्पष्ट थे पर पुनीत और श्रेया समझ गए थे कि भइया माँ के लम्बे जीवन के लिए ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं। श्रेया ने आँखें बंद की और मन ही मन कुछ बुदबुदाया।फिर धीरे से दुपट्टे के कोर में गाँठ बांध ली। माँ भी तो ऐसे ही करती थी जब उसका कोई काम नहीं बन रहा होता तो वह साड़ी के आँचल में विश्वास की एक गाँठ बांध लेती थी,वो हमेशा कहती यह विश्वास की गांठ है,मन्नत की गाँठ है। उनकी मन्नत जरूर पूरी होगी और श्रेया उनकी इस हरकत पर कितना हँसती थी।

"दुनियां इक्कीसवीं शताब्दी में जी रही है, मंगल ग्रह पर जा रही और ये गाँठ के भरोसे जी रही।"

आज पता नहीं क्यों श्रेया को माँ के इस भरोसे पर भरोसा करने का मन कर रहा था।वह सोच रही थी काश माँ का यह भरोसा बिल्कुल न टूटे। काश माँ ठीक होकर घर आ जाए।

वार्ड बॉय अस्पताल के अंदर घुस गया और भीड़ में खो गया।


वार्ड बॉय ईमानदार निकला, वह ईमानदारी से अपने काम में जुट गया। आखिर एक खत को पहुँचाने के लिए दो सौ रुपये मिले थे। वह मन ही मन सोच रहा था। आठ-दस मरीज रोज ऐसे मिल जाये तो मजा आ जाये। वह शकुंतला देवी को ढूंढते-ढूंढते तीसरी मंज़िल पर पहुँच गया पर वह तो वहाँ थी ही नहीं कहाँ गई वो…वार्ड बॉय ने सारे वार्ड और कमरे खंखाल डाले।तभी सामने से मोहन आता हुआ नजर आया।

"मोहन! तुम्हारी ड्यूटी तो तीसरी मंज़िल पर लगी थी न…तू अभी यही है।"

"हाँ वही है,बस घर जा ही रहा था, क्या हुआ?"

"तेरी मंज़िल पर कोई शकुंतला देवी नाम की मरीज थी? उनके घर वालों ने ये चिट्ठी दी है, उन्हें पहुँचाने के लिए…कहीं और शिफ्ट कर दिया क्या?"

"अरे यार मुझे भी शकुंतला देवी ने कल रात चिट्ठी दी थी। कल रात उनकी तबीयत बहुत खराब हो गई थी। कहाँ है उनके बच्चे?"

"वह हैं कहाँ?" उस वार्ड बॉय ने खीज कर कहा।

"शकुंतला देवी आज थोड़ी देर पहले ही इस दुनिया से कूच कर गई। अभी उन की बॉडी पीछे वाले गेट पर पहुँचाकर आ रहा हूँ, पता नहीं ये कोरोना कितनों की जान लेगा।"

वार्ड बॉय के माथे पर पसीने की बूंदे चुहचुहा गई, "जरा अपनी चिट्ठी तो दिखा?"

"मनोज, पुनीत, श्रेया मैं ठीक हूँ, तुम लोग मेरी चिंता मत करना।जल्दी ही घर साथ चलते हैं। तुम्हारी माँ…"

वार्ड बॉय ने काँपते हाथों से वो ख़त भी खोला जिस को पहुँचाने के लिए उसने दो सौ रुपये मिले थे।

"माँ आप चिंता न करो हम नीचे ही हैं।जल्दी से ठीक होकर आ जाओ।फिर हम सब साथ घर चलते हैं। तुम्हारे मनोज, पुनीत और श्रेया।"

"साथ चलते हैं?"

वार्ड बॉय सोच रहा था…


 

परिचय - डॉ रंजना जायसवाल



स्वतंत्र लेखन,राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में आपकी रचनाएँ नियमित रूप से प्रकाशित होती रहती हैं।

आपकी दो कहानी संग्रह,एक साझा उपन्यास,एक साझा बाल कहानी संग्रह,एक साझा कविता संग्रह,दो साझा लघुकथा संग्रह,दो साझा व्यंग्य संग्रह,सोलह साझा कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। लगभग 350 राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी,लेख,व्यंग्य,कविता,बाल कहानी,लघुकथा और संस्मरण प्रकाशित हो चुके हैं।

कई कहानियों का उर्दू,अंग्रेजी, उड़िया,नेपाली और पंजाबी में अनुवाद हो चुका है।

आकाशवाणी वाराणसी, दिल्ली एफएम गोल्ड, रेडियो जंक्शन ,मुंबई संवादिता,बिग एफ एम से नियमित रूप से कहानियों का प्रसारण

साहित्य सृजन,समाज सेवा और सांस्कृतिक क्षेत्रों में योगदान हेतु आपको कई मान- सम्मान और पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। भारत सरकार के सांस्कृतिक मंत्रालय, साहित्य अकादमी (आज़ादी का अमृत महोत्सव) द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में निर्णायक मंडल में निर्णायक के रूप में शामिल हैं। राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका गृह लक्ष्मी में कवर पेज पर आने का मौका प्राप्त हुआ है। अरुणोदय साहित्य मंच से प्रेमचंद पुरस्कार

साहित्यिक संघ वाराणसी द्वारा साहित्य सेवक श्री का सम्मान

अंतराष्ट्रीय संस्था ब्रह्मकुमारी द्वारा नारी भूषण से सम्मानित

अंतराष्ट्रीय संस्था इनर व्हील क्लब द्वारा साहित्य श्री से सम्मानित

लघुकथा साहित्य मंच द्वारा कमल कथा रत्न से सम्मानित


डॉ. रंजना जायसवाल

लाल बाग कॉलोनी

छोटी बसही

मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश

पिन कोड 231001

मोबाइल नंबर- 9415479796

Email address- ranjana1mzp@gmail.com




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