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  • महावीर राजी

एक और महाभिनिष्क्रमण



रात के आठ बजे होंगे। शिबू खाना खा कर बिछौने पर लेटा ही था कि बगल की खोली से जोर बातचीत की आवाजें आने लगीं। बातचीत में भय और चिंता की तासीर थी। शिबू और उसके साथी कुछ समझ पाते इसके पहले ही दरवाजा धड़ाक से खुल गया।

'सुना तुम लोगों ने ? कोरोना नाम का कोई बड़ा बीमारी फैल गया देश मे। कल से सब कुछ बंद.! बाजार, मार्किट, गाड़ी-घोड़ा, रेल-बस , फैक्ट्री सब ! फूल लॉक डाउन ! सरकारी फरमान है, पूरा देश मे लगातार कर्फ्यू रहेगा। जो जहां है वही रहे।'

'ले हलुआ ! काम बंद तो तनखा ..?' शिबू के मन मे सबसे पहले तनख्वाह की बात फूफकारी।

'तू भी न ! यहां जान आफत में पड़ गया, तुझे तनखा की पड़ी है, हंह !'

'ऊ भी कौनो गलत नहीं बोल रहा भैया। पेट के भट्टी में डालने को दू मुट्ठी ईंधन चाहिए। तनखा बिना कैसे जुटेगा ईंधन !'

दूसरे दिन शिबू ने खोली से बाहर झांक कर देखा , हर वक्त लोगों से गुलजार रहने वाला मैन बाजार और इससे सटा ब्यस्त चौराहा सूना पड़ा था। चौराहे पर पुलिस गश्त लगा रही थी। बेवजह बाहर निकलने वालों को धर पकड़ कर वापस 'बैक टु पैविलियन' ! स्टे होम, स्टे सेफ ! छूत की भयंकर बीमारी है। मास्क लगाइए और चार हाथ का दूरी भी ! 

शिबू का दिमाग सांय सांय करने लगा। ई का हो गया बाप ! गांव-जवार छोड़ कर परदेस में दू पैसा कमाने आये हैं। पराइभेट जॉब है। काम बंद होगा तो मालिक तनखा देगा ?

'अरे बुड़बक,  कोरोना एगो बड़ा छूतवा बेमारी है। सरकार को लौकडॉन मजबूरी में न करना पड़ा।' गिरधारी ने शिबू को समझाया -'सरकार ने मालिक लोग से कहा है कि किसी को भी काम से न निकाले और बंदी का पैसा दे।'

गिरधारी की बात पर सभी के चेहरे पर किंचित आश्वस्ति के भाव उभरे पर आशंका पूरी तरह गयी नहीं। दो दिन उहापोह में बीत गए। सुबह कुछ देर के लिए जरूरी सामान की दुकानें खुलतीं तो लोगों की अफरातफरी मच जाती। शिबू और उसके दो साथी खन्ना साहब के गारमेंट कारखाने में लेबर थे। कटाई, सिलाई, प्रेस, पैकिंग , डिलीवरी आदि का सुनियोजित नेटवर्क ! खूब चलता हुआ फैशन ब्रांड। हफ्ता भर पहले ही तनख्वाह मिली थी। थोड़े पैसे रख कर सभी ने शेष रकम गांव भेज दी थी। 

'एक बार फोन करें मालिक को ?' शिबू फनफनाया। उसके पास छोटा वाला मोबाईल था  -' मालिक खुद चल कर हालचाल पूछने तो आने से रहे !'

'फोन करना ठीक नहीं रहेगा। ऐसा करते हैं कि कल चलते हैं उनकी कोठी पर..।' गनेशी ने सुझाव दिया - 'पुराना स्टाफ हैं, आफत विपद में मालिक को देखना ही होगा।!'

दूसरे दिन बाजार खुलते ही वे लोग निकल पड़े। कोठी वहां से आठ दस किलोमीटर पर थी। मास्क के दाम लॉक डाउन लगते ही डबल हो गए थे। 'आपदा में अवसर' नारे से प्रेरित होकर ब्यापारी मौके को भुनाने को पिल पड़े। तीनों ने नाक मुंह गमछे से ढक लिया।

शानदार तिमंजिला कोठी ! बड़ा सा आहाता ! आहाते में दो कार व एक बाइक ! गार्ड ने गेट पर ही रोक लिया। धूप तेज थी। भीतर से कहकहों के साथ  'तू चीज बड़ी है मस्त मस्त ..' की मादक धुन आहाते में प्रेत-नाच कर रही थी। तीनों का नाच में मन नहीं रम रहा था। एक घंटे की प्रतीक्षा के बाद खन्ना साहब ने दर्शन दिए। दो टूक लहजे में तनख्वाह देने की बात फाख्ता की तरह उड़ा दी - 'कारखाना बंद है तो तनखा किस बात की ? पैसे पेड़ पर फलते हैं जो तोड़ कर बांट दें ! सरकार का क्या है। मुंह उठाया और मदद का ज्ञान बांट दिया। हमारा कितना लॉस हो रहा, वो भी देखो।'

'सर, तनख्वा नहीं तो कम से कम रहने-खाने लायक ही दे दें। परदेश में आपका सहारा नहीं मिलेगा तो भूखे मर जायेंगे। '

'हां सर, अपने गांव ज्वार से कोसों दूर हैं। लौटने का भी कोई उपाय नहीं।' गनेशी के लहजे में गिड़गिड़ाहट घुल गयी।

खन्ना साहब अटल रहे। कोई रियायत नहीं, कोई सहानुभूति नहीं ! सिर्फ सात आठ दिन के काम का जो बकाया था वही मिला। किसी को डेढ़ हजार तो किसी को दो। लटका मुंह लेकर लौट आये।

 रात बैचेनी में तड़पते बीती। किसी की आंखों में नींद नहीं थी। क्या करना चाहिए। ई लॉक डाउन का कोई ठीक नहीं है। जैसा आसार है , लंबा खिंचेगा। थोड़े से रुपये के बाद ?

दूसरे दिन चाल तीन चौथाई खाली ! अधिकांश लोग यूपी बिहार झारखंड के सुदूर प्रान्तों से रोजी रोटी की आस में आये मजदूर थे। जब भूखे ही मरना है तो गांव में परिवार के संग रह कर मरेंगे न। यहां न सरकार का सहारा है न मालिकों का ! लॉक डाउन के समय मज़दूरो को आर्थिक सहायता देने का सरकारी फरमान  खूबसूरत छलावे के सिवाय कुछ नही। जब तक स्वार्थ पूरता रहा..मालिक रखे रहे ! स्वार्थ टूटते ही चूतड़ पर लात मार कर बाहर ! अरे, आप लोग जो करोड़ो करोड़ कमा रहे हैं ब्यापार व कारखाना से , उसमें पूंजी का जितना जोगदान है, उससे कम जोगदान  हम मजदूरों के खून पसीना का नहीं है..!

शिबू ने बाबू को फोन लगाया - 'यहाँ कामधाम सब बंद हो गया बाबू। '

'अरे बिटवा, एहनियो पूरा बंद है। सोचना बूझना छोड़ो। ट्रेन बस जो मिले, जल्दी घरे लौट आओ। यहाँ मिलजुल कर हालात का सामना कर लेंगे।' बाबू की आवाज भर्राने लगी थी। 

शिबू की नजरें कोने में खड़ी साईकल पर पड़ी। सेकंड-हैंड 'हीरो' साईकल ! टायर पुराने हैं। सीट भी घिसी हुई। पर ठीक ठाक चल लेती है। साल भर पहले पड़ोस के जगदीश बाबू से खरीदी थी.. सोलह सौ में ! रुपये एक मुश्त कहाँ से जुटते ! चार सौ की माहवारी किश्ती बनी। अंतिम किश्त चुकने तक साईकल अपने पास ही रखे रहे जगदीश बाबू। 

 दरअसल साईकिल बाबू के लिए खरीदी थी। गांव में दू ठों भैंस पोसी हुई है। कैन में दूध लेकर बस्ती से छः किलोमीटर शहर जाने में बहुते परेशानी होती है बाबू को। बस में चढ़े तो भाड़ा बेहिसाब ! साईकल से आराम हो जाएगा। साईकल को गांव ले जाने का सपना पूरा हो रहा है। शिबू मन ही मन इस संकट की घड़ी में भी उत्साह से किलक गया।

'बस-ट्रैन में खुद के लिए जगह मिलना मुश्किल है रे। ई सायकिलवा कइसे ले जाएगा ?'

'कोई उपाय करेंगे भैया। यहाँ तो नहीं न छोड़ सकते।'

 घबड़ाहट से कलेजा मुंह को आ रहा था। तीनों जल्दी जल्दी कपड़े लत्ते की मोटरी बांधने लगे। राह के लिए सत्तू, चना चबैना , हरी मिर्च, प्याज आदि जोगाड़ा। बोतलों में पानी भर लिया। शिबू ने अपनी मोटरियाँ साईकिल के कैरियर, हैंडल तथा सीट वाली रॉड से बांध दी।

बस स्टैंड में तिल रखने की जगह नहीं थी ! गांव लौटने को व्यग्र प्रवासियों की भीड़ ! मजदूर ही मजदूर ! पहले गांव से विस्थापित हुए। शहर आये रोजगार की आशा में। अब फिर से विस्थापन का वज्रपात !  सिर, कंधों और पीठ पर बेताल की तरह लदी गठरी-झोले में ठुंसी गृहस्थी। किसी के साथ मेहरिया-बच्चे तो किसी के संग माँ बाबू ! आंखों में बैचेनी, भय और दुश्चिंता ! अंतिम बस जा चुकी थी ! अब बसों का परिचालन अनिश्चित काल के लिए बंद ! लोगों से पता चला , ट्रैन भी बंद है। स्टेशन से ढेर लोग लटका चेहरा लिए इधर ही आ रहे थे। रेल का कोई भी अधिकारी बताने को तैयार नहीं कि रेल कब चलेगी। चलेगी भी या नही। पुलिस सबको स्टेशन परिसर से बाहर खदेड़ रही थी। अब ?

अब क्या !! किसी भी तरह यहां से भागना ही है। गांव की ओर ! बारह पंद्रह सौ किलो मीटर दूर है तो क्या ! बस से, रेल से या पैदल.. कभी न कभी पहुंच ही जायेंगे। झुंड के झुंड लोग पैदल आगे बढ़ रहे थे। वे तीनों भी भीड़ के साथ हो लिए।

'शिबुआ रे, सायकिलवा तो पुष्पक विमान बन गया तेरे लिए।' गिरधारी ने चुटकी ली। शिबू सायकिल पर सवार हो गया। साईकिल कब्जे में आने के बाद भी ड्यूटी पर नहीं ले जाता था। बाबू के लिए थी। देख कर खुश हो जाएंगे। आज संकट की घड़ी में काम आयी। मानो साईकिल का रूप धर कर बाबू ही सहारा दे रहे हों। शिबू के खयाल में राजकपूर का गाना कौंध गया - निकल पड़े हैं खुली सड़क पर, अपना सीना ताने ! पर दूसरे ही पल होंठों पर रुलाई उभर आई कि फ़िल्म में तो गाने में उल्लास था जबकि यहां भय और दुश्चिन्ता ! सीना और सिर दोनों ही सिहर कर धुकधुका रहे थे। 

धूप तेज हो गयी थी। चारों ओर सन्नाटा फैला था। दोनो ओर पेड़ पौधों एवं घर-मकानों की श्रृंखला !  बीच में क्षितिज तक फैली कच्ची -पक्की सड़क ! सड़क की छाती पर  'कैट वाक' करते मजदूर ! एक के पीछे एक छोटे छोटे कतारबद्ध कारवां ! आगे और पीछे दूर तक नरमुंड ही नरमुंड ! हवाई जहाज से एरियल व्यू लिया जाय तो लगेगा मानो किसी विशाल पुरातात्विक कब्रगाह से प्रेतों की टोलियां बाहर निकलकर भरतनाट्यम कर रही हों। 

चार घंटे की अनवरत यात्रा ! नगर और बस्तियां एक एक करके पीछे छूटती गयीं। तिराहै- चौराहे पर कुछ नए लोग जुड़ कर साथ हो लेते तो कुछ पुराने रास्ता बदल कर जुदा। शिबू का बदन थक कर चूर हो गया। पांव पैडल मारने से इनकार करने लगे। पहली बार लगातार इतनी देर साईकिल चलाया था। आगे एक  मंदिर मिला। पट बंद थे पर खुले प्रांगण और कुंआ के पास अनेक लोग पड़ाव डाले पड़े थे। शिबू और उसके साथी वहीं रुक गए। कुएं का ठंडा पानी जलते हुए बदन पर डाला तो तनिक चैन आया। खाना पीना करने के बाद कुछ देर आराम। उसके बाद फिर से यात्रा शुरू ! इस बार शिबू ने आग्रह करके गनेशी की गठरियां अपने कंधे व हाथ मे थाम ली और उसे सायकिल पर बैठा दिया। माँ बाबू की शिद्दत से याद आ रही थी। कैसे संभाल रहे होंगे परिवार को ! दूध भी इस समय नहीं बिकता होगा। माई कुछ घरों में चौका बासन का काम करती थी, वह भी छूटना ही है।

वे देर रात तक चलते रहे। चारों ओर अंधकार ! झाड़ियो में छुपे झींगुरों की आवाज मन में आतंक घोल रही थी।। आकाश के बिस्तृत 'रनवे' पर बिखरे तारे उदास से हालात पर स्यापा कर रहे थे। तारों का सरदार 'चांद' मजदूरों की ऐसी करुण दशा पर शर्मसार होता अमावस की स्याह चादर में मुंह छुपा बैठा था। शिबू का समूह हाईवे छोड़ कर बस्ती की ओर मुड़ गया। बस्ती की सारी दुकानें, गुमटियां और ढाबे बंद ! उनके माथे पर बोड़ले की तरह टंगे साइनबोर्ड से ही उनके होने का संकेत मिल रहा था। आगे पेट्रोल पंप दिखा। वहां हैंडपम्प था। लोगों की जान में जान आयी। बंद पेट्रोलपंप के सामने की खुले फर्श पर अनेक लोग थे। तीनों ने यहीं पड़ाव डाल दिया। 

सुबह नींद जल्दी खुल गयी। बदन का पोर पोर टीस रहा था। पांव में थकान भरी थी। पेट्रोल पंप के पीछे जंगल मे दिशा मैदान हुआ। सत्तू के घोल को मिर्च के साथ उदर के हवाले कर और बोतलों में पानी भर कर यात्रा शुरू। चलना जरूरी था। चलते चलते दोपहर हो गयी। चिलचिलाती धूप पूरे शबाब के साथ आग बरसा रही थी। नीचे सड़क का तारकोल पिघल कर गर्म लावा बना हुआ था। ताप की इस दोहरी मार से सब पस्त हो गए। आगे छतनार बरगद दिखा तो छांव में सुस्ताने के लिए रुकना पड़ा। शिबू ने मोबाईल निकाल कर बाबू का नंबर लगाया। थोड़ी देर बात लायक रिचार्ज था अभी।

बाबू ने हिलकते हुए बताया - 'दुन्नो जन का काम बंद है रे बिटवा। फांकाकशी की नौबत आने लगा तो सब्जी लेकर बैइठ रहे हैं बाजार में। सुबह शाम दू घंटा मार्किट खुलता है। छोटू का स्कूल छूट गया। ऑनलाइन पढ़ाई के लिए बड़का वाला मोबाईल और डेटा चाहिए। कहवां से आएगा !' सुनकर शिबू बिलख पड़ा। छोटू आठ साल का बच्चा ! कड़ी धूप में दोनों कैसे सब्जी बेचने निकलते होंगे !

 आगे और पीछे दूर तक सिर्फ मजदूर ही मजदूर। सभी एक दूसरे से अपरिचित ! पर सब की मंजिल एक थी - अपना गांव ! किसी भी तरह बस गांव पहुंच जाएं। जाति, धर्म और सम्प्रदाय बेशक  भिन्न थे पर वर्ग एक था - मजदूर ! बातें कम हो रहीं थीं क्योंकि बात करने से मुंह सूखता। पानी सीमित था। भीड़ में एक महिला की गोद मे डेढ़ साल का बच्चा। देर से गोद में लिए चलने से थकान तो आनी ही थी। बच्चे को भरे मन से ट्रॉली सूटकेश पर औंधे लिटा दिया। सुटकेश धीरे धीरे घिसट रहा था। नन्ही मुट्ठियों से सूटकेश पकड़े बच्चे के मासूम चेहरे को देख कर कलेजा मुंह को आ गया। एक युवक बीमार बाप को कंधे पर उठाए हुए था। एक जवान औरत तीन माह के नवजात को छाती से चिपकाये दूध पिलाती चल रही थी। रुकना मुमकिन नहीं था न। 

रात को एक नगर से गुजरते हुए देखा कि बड़ी सी बिल्डिंग के सामने लोगों की कतार लगी थी। कोई धार्मिक संस्था खाने का पैकेट बांट रही थी। कतार में उनके जैसे प्रवासी मजदूर । भूखे प्यासे ! सूनी आंखों में चमक भर आयी। वे भी कतार से लग गए। देखते ही देखते शिबू के पीछे लाइन लंबी हो गयी। मन मे संशय रेंग गया कि उनकी बारी आने तक पैकेट बचेगा भी ? पर भाग्य ने साथ दिया और खाना हाथ आ गया। खिचड़ी और उसमें सब्जी के टुकड़े। काफी दिनों के बाद अनाज नसीब हुआ था। आंखें तृप्ति के मारे छलक गयीं।

कानपुर में गनेशी और गिरधारी का साथ खत्म हो गया। जुदा होते हुए तीनों गले लग कर जार जार रोये मानो सगे भाई हों। किसी तरह गिरधारी और गनेशी को अलविदा कह कर शिबू ने साईकिल आगे बढ़ा दी। कुछ ही दूरी पर थाना था। थाना से सटा चेकपोस्ट। वहां पुलिस और डॉक्टर-नर्सों का जमावड़ा था। लोगों को रोका जा रहा था। जिनके पास साइकिलें थी उन्हें थाने के आहाते में ले जाया गया। उनकी साइकिलें छीन कर एक ओर रख लीं गयीं और बदले में नाम-पता लिखा टोकन थमा दिया। जब कोरोना खत्म हो जाएगा तब आकर ले जाइयेगा अपनी साईकिल। 

'सर, साईकिल छीन लेंगे तो गांव कैसे जाएंगे ?'

'इतने लोग जा रहे हैं कि नहीं ?  पैदल ! आप ही को उड़नखटोला चाहिए महाराज ?' सिपाही व्यंग्य से हिनहिनाया। 

'सैकड़ों मिल दूर दूसरे प्रांत और गांव के मनई हैं हुजूर। ओतना दूर से सायकिल लेने कैसे आ सकेंगे ?' 

'ई तो सरकार बताएगी। तू लोग का गंदा-संदा देह से और अंजर-पंजर सायकिल से कोरोना  फैलने का डर है। जमा लेने का आर्डर है ऊपर से।'

'हमारे लिए ई सिरिफ सायकिल नहीं है सर। हमरा सपना और हमरा उम्मीद है। खून पसीने से कमाया पैसा लगा है इसमें।' पीछे से एक कातर किंकियाहट उछली। पर कोई सुनवाई नहीं। सायकिल से जुदा होते हुए शिबू का कलेजा तार तार हो रहा था। बार बार कभी हैंडल, कभी सीट तो कभी घंटी को बच्चे की तरह छूता दुलराता रहा। आंखें डबडबा आयीं। 

'कोरोना विदेश में बसे एनआरआई लोग फैला रहे है, मजदूर नहीं। ऊपर से तुर्रा देखिए कि इन बड़े लोगों की घर वापसी के लिए चार्टर प्लेन का इंतजाम कर रही सरकार जबकि खुद की पूंजी से जुगाड़ी  हमारी सायकलें जब्त की जा रही हैं।' पास खड़ा मजदुर तनिक शिक्षित था। उसकी गहरी बातें देर तक हवा में घुमेरे घालती रही। किसी ने शिबू के कान में फुसफुसाया कि बहस न करो और जल्दी से फूट लो यहां से। पकड़ कर क्वारेंटीन कर दिए तो पंद्रह बीस दिन की कैद पक्की समझो। 

शिबू ने टोकन को शर्ट की जेब मे रखा। भरी आंखों से थाने के आहाते को निहारा। आहाते के कोने में एक दूसरे पर गिरी पड़ी सैकड़ों साईकिलों की ढेरी ! ढेरी थी या कब्रगाह ! फिर भीड़ से तनिक हट कर तीन गठरियों के सामान की दो बड़ी गठरियाँ बनाई। एक गदा की तरह कंधे पर और दूसरी चमगादड़ की तरह हाथ मे ! तेज कदमों से रोड के पास की झाड़ियों में सुराख बनाता अंतर्ध्यान हो गया। झाड़ियों की दूसरी ओर रेलवे लाइन थी। लाइन पकड़ कर बढ़ता रहा। फिर बस्ती की ओर मुड़ गया।

रात उतर आई थी। भूख भी पूंछ फटकारने लगी। चौराहे के पास मस्जिद मिली। बाहर बड़े चबूतरे पर काफी लोग लेटे-बैठे थे। वह भी यहीं रुक गया। सत्तू सान कर नमक मिरचई के संग निगला ही था कि पास बैठी औरत पेट दर्द से चींखने लगी। पता चला पांच महीने का गर्भ है। लगातार चलने से भ्रूण आड़ा-तिरछा हो गया शायद। पति सोच में पड़ गया कि क्या किया जाय। हुजूम के दूसरे कोने में एक अधेड़ मुस्लिम दंपत्ति था। मूँछविहीन दाढ़ी और जालीदार टोपी। बुर्केदार महिला ! महिला उठ कर पास आयी -'फिकीर नाही करो दुल्हन। हमें जचगी आवे है। अभिये मालिश से बैठाय देत हैं।' मानो सगी बहू हो, गर्भिणी को प्यार से गोद मे लिटा कर देर तक मालिश करती रही।

कुछ देर विश्राम के बाद शिबू चल पड़ा। चौराहे के पास पीछे से आता हुआ एक ट्रक उसके समीप रूका। पगड़ी वाले सरदारजी ने खिड़की से मुंडी बाहर करके हाँक लगायी -'ओए मुंडे, चल अज्ज़ा गड्डी बीच। मुगलसराय छड्ड देंगे।' उसे तो जैसे मुंह मांगी मुराद मिल गयी हो, लपक कर केबिन में चढ़ गया। कालेजा धक धक कर रहा था कि पता नहीं कितना भाड़ा मांगेंगे। पूछने का साहस नहीं हुआ। सरदारजी मस्त तबियत के जीव थे। सारी राह होंठो पर कोई न गीत चढ़ा रहा - 'बारा बरस सी खटन गया सी खट के लियांदा की..' ! शिबू चकित था कि ऐसे भयावह हालात में भी कोई इतना खुश रह सकता है क्या। बीच बीच मे पड़ाव लेती गाड़ी हाईवे पर दौड़ती रही। हाईवे के दोनो ओर जीवन के कोई चीन्ह नहीं। सारा कुछ अहिल्या सा पथराया हुआ ! किनारे किनारे घर लौटते प्रवासियों का हुजूम। कई दिनों के बाद आखिर एक सुबह मुगलसराय आ गया। चौराहे पर समान सहित उतरा और डरे स्वर में भाड़ा के बारे में पूछा। सरदारजी खनखनाती आवाज में बोले -'ओए काके, भाड़े दे पैसे रख ले, आगे काम आएंगे..! बखत बड्डा खराब है। वाहे गुरुजी दा खालसा वाहे गुरुजी दी फतेह !' इस सहानुभूति से शिबू की आंखें छलछला गयीं। सभी अपरिचित थे । ये सरदारजी भी..  और मस्जिद के चबूतरे वाली मुस्लिम औरत भी। पर सभी का दुख एक था - विस्थापन और पलायन। दुख मनुष्य को किस कदर जोड़ता है एक दूसरे से !

आगे नए हुजूम का हिस्सा बन कर शिबू देर तक चलता रहा। आठ ही बजे थे पर सूरज की तपन तेज हो गयी। रोड का कोलतार पिघल कर चिपचिपाने लगा। गोड़ ( पांव ) में कपड़े वाले सस्ते केट्स थे। बहुत पहले दरियागंज के फुटपाथ से लिया था। तली घिस कर पहले ही पतली हो चुकी थी। कोलतार का ताप तलवे को झुलसा रहा था.. मानो अंगारों पर चल रहा हो। लगातार चलने से जूतों के सामने की सिलाई उघड़ गयी और अंगूठे बाहर झाँक कर कोलतार को छूने लगे थे। ऊफ, पूरा पांव टीस रहा था। दो बजे तक बिना रुके चलते रहा। फिर एक जगह सुस्ताने को रुका। पांव जूते से निकाले। अंगूठों पर जख्म बन गया था। दोनो तलवे लालछौंह ! वहां पानी डाला तो बहुत आराम मिला। जेहन में माँ बाबू और छोटू के चेहरे घुमेरे घालने लगे।  इतनी कड़ी धूप में बाबू कैसे सब्जी बेचता होगा !

हर शहर व कस्बा सूनेपन का कफ़न ओढ़े था। आगे रास्ता अनजाने ही रेलवे लाइन से जा मिला। कतारबद्ध लोग अपनी राय में लाइन के सहारे सहारे चलते रहे। चलते चलते रात के आठ बजे गए। दूर दूर तक कोई भी बस्ती नजर नहीं आ रही थी। सिर्फ पटरिया ही पटरियां ! सभी थक कर चूर ! एक जगह पटरी के किनारे  समतल जगह दिखी तो वहीं पड़ाव लग गया। 

खा पीकर किसी ने गमछा तो किसी ने लुंगी बिछाई और  ढह गए। तीन लड़के पटरियों के बीच मे चले आये। गर्दन को एक ओर की पटरी पर टिकाया और स्लीपर पर देह पसार दिया। थकान से बेदम पस्त बदन। भूख न जाने जूठा भात, नींद न जाने टूटी खाट ! पड़ते ही सब के सब गहरी नींद में उतर गए। नींद की मीठी थपकी मिली तो गहरे स्वप्न में उतरते देर नहीं लगी !

तभी ऐसी हृदयविदारक घटना घट गई जिसकी कल्पना भी रोंगटे खड़े कर देने के लिए काफी थी। लॉक डाउन में जबकि रेल सेवा बंद थी और देश की सारी पटरियां सूनी पड़ी थीं , आधी रात के समय जरूरी सामान से लदी एक स्पेशल ट्रेन यक्षिणी की तरह प्रकट हुई और पटरियों पर सोए युवकों के सर को धड़ से अलग करती अंतर्ध्यान हो गयी।

 पूर्णतः स्थायी विस्थापन ! नींद और सपने का घेल इतना सघन था कि किसी भी मनई को इंजिन की फूफकार और सिटी की गर्जना तनिक भी सुनाई नहीं पड़ी। अनजान-अपरिचित ही सही, थे तो हमसफर। साथियों की ऐसी करुण मौत पर सभी की आंखें जार जार बरस पड़ीं। शिबू इस घटना से बुरी तरह हदस गया। बार बार स्वयं को छूकर इत्मीनान कर रहा था कि जिंदा तो है। जेहन से वधस्थल का दृश्य ओझल नहीं हो रहा था। उसने समान उठाया और पांवों में पूरी ताकत भरते हुए तेज कदमों से आगे बढ़ गया। आगे नए लोग मिले तो नया कारवां बनते देर नहीं लगी।

 सुनसान निर्जन राह पर चलना निरंतर जारी रहा। रात और दिन सब समय ! बीच बीच मे कुछ देर का ठहराव व विश्राम ! यह क्षणिक विश्राम देह की थकान को बल्कि और सघन कर देता। पांव चलने से इनकार करने लगते। फिर भी दांत पर दांत जमा कर फीनिक्स की तरह उठ ही जाना होता।

अंततः गोविंदपुर आ गया। गांव के समीप का शहर ! ईंटभट्ठे और हार्ड कोक की हर समय विषाक्त धुआं उगलने वाली बड़ी बड़ी चिमनियां शापित यक्षों की तरह बेजान थीं। वाहनों का चलाचल बंद होने से परिवेश प्रदूषण मुक्त था। बड़, पीपल और नीम के पेड़ साफ और हरे दिख रहे थे। वह पूरी ऊर्जा संजो कर चलने लगा। 

सुबह के बारह बजे मैथान पहुंच गया। पता चला मैथान और बराकर चेकपोस्टों पर पुलिस की कड़ी नाकेबंदी थी। बाहर से लौटने वाले मजदूरों को स्कूल, धर्मशाला व परित्यक्त कोठरियों में जबरन क़्वेरेंटिन किया जा रहा था। खाने के नाम पर दिन भर में एक बार दाल भात ! उसमें भी कंकड़ और  पिल्लू रहते ! खानापूर्ति के लिए दो जन स्टेथेस्कोप लटकाए एक बार आते और दूर से झांक कर चल देते। बदइंतजामी के कारण कई स्वस्थ लोग कोरोनाग्रस्त हो गए थे। कई मौतें भी हो गयीं थीं। मौत की खबरों को प्रशासकीय स्तर पर दबाया जा रहा था।

बराकर के पास उसका गांव है.. कल्याणेश्वरी। गांव के इतने पास आकर सरकारी क्वारेंटिन में  नहीं जाना चाहता। घर पर मां बाबू की छांव में सब ठीक हो जाएगा। इलाका देखाभाला तो था ही। नीचे की बस्ती में उतर कर छोटी पगडंडी से दामोदर के किनारे जा पहुंचा। नदी में जल कम था। साफ व पारदर्शी..  कि तल के कंकड़ पत्थर और तैरती मछलियां स्पष्ट दिख रहीं थीं। हाथ के झोले को दूसरे कंधे पर रख कर जल में हेल गया। 

 उस पार सामने ही मेन मार्किट था। दो घंटे की छूट पर जरूरी जिंसों की दुकाने खुलीं थीं। लोगों में अफरातफरी थी। जल्द से जल्द खरीदारी करके घर लौट जाना चाहते सभी। 

 निरंतर चलते रहने से हालत एक दम खस्ता थी। पांव सूज गये थे और कंधे व हाथ बूरी तरह टीस रहे थे। पर दिल मे जोश खदबदा रहा था। कंधों पर बीस किलो वजन और घुटनों तक भींगी पतलून के वावजूद चाल में तेजी घुल गयी। मा बाबू से मिलने की उत्तेजना में शिबू लगभग दौड़ने ही लगा। एक किराना दुकान के सामने ठोकर लगी और वह भरभरा कर रोड पर ढह गया। रोड गर्म तवे सा दहक रहा था। दोनों गठरियां जमीन पर लुढ़क गयीं। झटका लगने से उनकी गांठें खुल गयीं और समान लावारिश सा जमीन पर छितरा गया। साईकिल का टोकन भी जेब से बाहर उछल आया।

 उस पर बेहोशी छाने लगी। चेहरे पर अद्भुत सुकून खिला आया था कि यातना के भयावह ढूहों को पार करता आखिरकार  गांव पहुंच ही गया। जोरों से चींखना चाहता था कि देखो देखो बाबू, हम हजारों मील की दांडी यात्रा करके लौट के आ ही गए। नुचे पंखों सी चींख कंठ में घुटी रह गयी। बेहोशी की घेल में मुंदी जा रहीं नजरों को टोकन दिख गया। हाथ में लेकर हवा में लहराते हुए बडबडाया - बाबू, तुमरे लिए साइकिल लिए रहे। पर नहीं ला सके हम।

फिर बड़बड़ाते हुए बेहोशी के अनंत तल में डूबता चला गया। 

उसको घेर कर राहगीरों की भीड़ जमा हो गयी थी। कोरोना के डर से सब दूर दूर खड़े थे। किसी ने थाने में फोन कर दिया। थोड़ी देर में एम्बुलेंस आयी  और शिबू को कोविड सेन्टर उठा ले गयी। कोविड सेन्टर की स्थिति बहुत हृदयविदारक थी। खत्म होते संसाधनों के रूबरू सेन्टर प्रशासन एक साथ कई मोर्चों पर युद्ध कर रहा था। जगह और बिस्तरों की कमी, मास्क व मूलभूत दवाओं की कमी, ऑक्सीजन कंसेंट्रेटर्स व वेंटिल्टर्स की कमी, टेस्टिंग साधनों की कमी..! हॉल व कॉरिडोर के अलावा चारों ओर फर्श पर भी मरीज लेटे हुए थे। उन्ही के संग एक ओर शिबू को भी लिटा दिया गया।

मित्रों, शिबू का क्या होगा भगवान जाने। इतना तय है कि शिबू मरेगा नहीं। वह  मजदूर प्रजाति का जीव है और मजदूर कभी नहीं मरते। एक शिबू मरेगा तो दूसरा शिबू पैदा हो जाएगा। मजदूर फीनिक्स की तरह अपनी जिजीविषा की राख से बार बार जीवित होते रहेंगे। गीता का  'नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः..' श्लोक शायद इन्हीं लोगों के लिए रचा गया है !!


 

लेखक परिचय - महावीर राजी



नाम :  महावीर राजी

जन्म: 31 जुलाई, ' 52, दक्षिणेश्वर ( कोलकाता )

शिक्षा : कोलकाता से एडवांस्ड एकाउंट्स में ऑनर्स ( प्रथम श्रेणी ), एल.एल.बी.( रांची ) ,

प्रकाशन : मुख्य धारा की राष्ट्रीय पत्रिकाओं ( हंस, कथादेश, वागर्थ, नया ज्ञानोदय , परिकथा, पाखी आदि )  में  कहानियाँ, लघुकथाएं व कविताएं प्रकाशित, कुछ  कहानियों व कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद,

सम्मान :  वर्तमान साहित्य द्वारा आयोजित 'कृष्ण प्रताप स्मृति कहानी प्रतियोगिता' में चतुर्थ पुरस्कार,

कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार,

कथादर्पण 'कमल चंद वर्मा स्मृति लघुकथा प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार,

कई सांझा कथा संग्रहों में कहानियां संकलित, आकाशवाणी कोलकाता से कहानियों का प्रसारण,  

 घासीराम अग्रवाल स्मृति साहित्य सम्मान, वाक् कथा सम्मान कोलकाता

कृतियां: कथा संग्रह - 'आपरेशन ब्लैकहोल' ( वाणी प्रकाशन, दिल्ली ) ),  'बीज और अन्य कहानियां' ( एपीएन पब्लिकेशन, दिल्ली ), 'ठाकुर का नया कुँआ' ( न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन ), 'शम्बूक, प्लेटफॉर्म और पिल्ला' ( शीघ्र प्रकाश्य)  

सम्प्रति:  स्वतंत्र लेखन

मोब. 098321 94614

संपर्क:  प्रिंस, केडिया मार्किट, मोहन फेमिली के पास, आसनसोल  713301 (प बंगाल )


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