सुबह के ठीक दस बजे मैं और जीजा जी यूनिवर्सिटी में घुसे तो बाहर निकलते हुए शाम के तीन बज गए. सुबह की चाय पी कर निकले थे; सोचा था जल्दी ही काम निपटा कर लौटेंगे तो ब्रेकफ़ास्ट कर लेंगे. क्या मालूम था कि ग्यारह बजे तक तो एम्प्लोय्ज ही नहीं पहुँचते ऑफिस में. गलती से कोई जल्दी ऑफिस पहुँच भी जाए तो वो अपने पारिवारिक काम निपटा रहा होता है सुबह-सुबह फोन पर, कभी इस से बात तो कभी उस से. उसके बाद उनकी चाय आएगी. कोई स्मोकिंग वाला होगा तो वो स्मोक करने जायेगा कहीं. कोई बेचारा काम के लिए कितनी दूर से आया है, कब चला है और कब शाम को वापस घर पहुँचेगा, किसी को क्या मतलब! कोई कुछ पूछे तो पूरी बात सुनेंगे नहीं. यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ भेज कर लोगों को नाहक ही परेशान करते रहेंगे. कुछ डिपार्टमेंट्स में तो झाडू-पोछा करने वाले ही दस बजे के बाद आते हैं. किसी को कोई कुछ कहे तो नेतागिरी. इस राजनीति ने बेड़ा गर्क कर के रख दिया है देश का.
हम पहले एग्जामिनेशन ब्रांच में गए. जीजा को एम.ए. का एग्जाम देना था और एग्जामिनेशन फॉर्म अभी तक सबमिट किया नहीं था. तीन दिन बाद एग्जाम है. आज ही एग्जामिनेशन फॉर्म भी सबमिट करना है और रोल नंबर भी लेना है. यानी चढ़ती को घोड़ी चाहिए !
पुलिसवालों को वैसे भी दिखाना होता है कि वे कैसे काम करवा लेते हैं जान-पहचान से नहीं तो डरा-धमका कर. हर जगह पुलिसगिरी ! जीजा जी ने आते हुए कहा था मुझसे “अभी देखना मैं कैसे रोल नंबर लेता हूँ और एग्जाम भी दूंगा. एग्जाम ही नहीं पास भी हो कर दिखाऊंगा.” उन्होंने मुझ पर व्यंग्य करते हुए कहा था “तुम लोग कॉलेज में सारा साल बर्बाद करते हो, माँ-बाप के पैसे भी और हम कुछ ही दिनों में एम.ए कर के दिखा देंगे.”
वे अंत में ये कहने में न चूके थे कि मेरी मदद कर देना बस.” मैंने भी साफ़ कह दिया था. “कैसी मदद? मुझ से ये उम्मीद मत रखना जीजा जी कि मैं आपको नकल करवाऊंगा. मैं उस कॉलेज का छात्र हूँ जहाँ आप एग्जाम देने जा रहे हो और अच्छे छात्रों में गिनती होती है मेरी. कभी आज तक एक नंबर की भी नकल नहीं की! आपको भी क्यों करवाऊंगा? पहली बात तो ये कि मुझे नकल करवानी या करनी आती ही नहीं तो करवाऊंगा भी कैसे! आप जानो और आपका पेपर!”
इस पर जीजा जी को गुस्सा आ गया था. आ गया तो आता रहे मुझे क्या! ऐसी एम.ए करने का क्या फायदा जिसे नकल मार कर पास करना पड़े. तभी तो लोग कहते हैं कि एवें कर रखी है. मैं तो पहले से ही नक़ल का विरोधी रहा हूँ. बचपन से ही.
मुझे आज भी ऐसे याद है जैसे अभी की बात हो. मेरा आठवीं कक्षा का एग्जाम था. उन दिनों आठवीं का बोर्ड हुआ करता था. मेरा रोल नंबर रूम नंबर तीन की रो नंबर दो में था और वह सबसे पीछे दीवार के साथ आ गया था. मेरे साथ वाली रो में एकदम मेरे दाहिने पहलू में विक्की बैठा था. वह दुनिया भर का शरारती था और कभी पढ़ता तो था ही नहीं. बड़ा भी था क्लास में, सब उस से डरते थे.
मैथ का पेपर था और मैं आराम से कर रहा था, हालाँकि मेरा मैथ शुरू से ही बहुत अच्छा नहीं रहा. बाकी विषयों की अपेक्षा. क्योंकि हमें मैथ के परमानेंट टीचर मिल ही नहीं पाए शुरू से ही. फिर भी मैं दूसरे विषयों में फर्स्ट होता तो मैथ में भी सम्मानजनक नंबर लेकर पास होता रहा.
मैं अपने सवाल हल करने में व्यस्त था उधर से विक्की मेरी नकल कर रहा था. अचानक द्वार पर केंद्र अधीक्षक महोदय पधारे. उन्होंने देख लिया कि विक्की मेरी नक़ल कर रहा है. हमारे पास आ कर उन्होंने हम दोनों को उठने के लिए कहा और हमारी आंसर शीट्स लेकर वहाँ ड्यूटी दे रहे अध्यापक को दे दीं. हालाँकि उन्होंने कुछ कहा नहीं, पर मुझे बहुत बुरा लगा. अभी एग्जाम शुरू हुए आधा समय भी नहीं हुआ था कि ये वाकया हो गया.
वे चले गए तो अध्यापक ने हमारी आंसर शीट्स वापस देनी चाही. विक्की ने तो ले ली लेकिन मैंने अपनी शीट वापस नहीं ली. मुझे लगा कि मेरी क्या गलती थी? वो नकल मार रहा था तो उसे सजा देते न ! मैं एग्जाम छोड़ कर चला आया. बेशक में पास हुआ, पास ही नहीं कक्षा में थर्ड आया भी था. मैथ में भी पैंतालिस नंबर आ गए. लेकिन नकल के लिए नफ़रत का भाव और गहरा हो गया मन में.
जीजा जी अंदर जा कर काम करवा रहे थे और मैं बाहर सीमेंट की बैंच पर बैठा उनका वेट करता रहा. करीब दो घंटे बाद जीजा जी अपना रोल नंबर लेकर बाहर आए. मुझे अपना रिजल्ट पता करना था तो वहां से हम इवैल्यूएशन ब्रांच में गए. मेरा तो अधिक काम नहीं था; बी.कॉम फर्स्ट इयर का रिजल्ट आर.एल. था. यूनिवर्सिटी में मेरी रजिस्ट्रेशन लेट हुई थी. बस रिजल्ट पता करना था.
उसके बाद जीजा जी को किसी की माइग्रेशन लेंती थी. इसी तरह हम लोग शाम तक वहीँ फँसे रहे.
शाम के लगभग साढ़े सात बजे होंगे जब हम टूटीकंडी वापस वहीँ पहुंचे जहाँ से सुबह जल्दी निकले थे चाय पी कर.
हम दोनों ने फटाफट अपने कपड़े, बैग वगैरह समेटा और बच्चों को पैसे देते हुए चलने लगे. इतने में भाभी चाय बना कर ले आए. उन्होंने देखा तो कहने लगे “भाई साहब कहाँ जा रहे हो इतनी लेट, रात होने को आई है! ऊपर से ठण्ड का मौसम. आप लोग रुक जाइये. चाहें तो सुबह जल्दी निकल जाना. रात को कहाँ परेशान होते फिरोगे. अब इतनी लेट मत जाओ, और स्कूटर पर तो ठण्ड भी बहुत लगती है!”
“नहीं -नहीं, भाभी, देखिये मैंने अपने आर्डर करवा लिए हैं और मुझे कल ही नए पुलिस स्टेशन पर ज्वाइन करना है.” जीजा जी ने अपनी बुआ के बेटे की वाइफ यानी उनकी भाभी से इतना कहा और हम लोग चल पड़े.
भाभी ने रोका तो नहीं, बस इतना कहा, “देखिये अगर जाना ही है तो कम से कम डिनर तो कर के जाइये! अब नाहन यहाँ तो है नहीं! कम से कम पांच घंटे तो लगेंगे न आप लोगों को! फिर डिनर कहाँ करोगे? होटल में खाने की क्या जरूरत है ! आप बैग रखिये, मैं डिनर तैयार करती हूँ. आप कर के जाइये आराम से. अब रात तो हो ही रही है. अभी आपके भाई साहब भी आने ही वाले हैं.”
जीजा जी के मन में न जाने क्या चल रहा थे. उन्हें न रुकना था और न रुके. मेरा क्या था मुझे तो स्कूटर के पीछे आराम से बैठना था. मैं क्या कहता ! उनके पीछे-पीछे चल दिया.
हम दोनों सीढियाँ चढ़ते हुए ऊपर गली में आ गए. भाभी और बच्चे देखते रह गए. जीजा जी ने गली में खड़े स्कूटर के पीछे लगे हैंडल में बैग बांधा और किक्क मार कर थोड़ी देर एक्सिलिटर दे कर रखा. स्कूटर बर्र-बर्र करने लगा फिर धीरे-धीरे उसकी आवाज साफ़ हो गई. उन्होंने जोर से एक्सिलिटर घुमाया, खें... की आवाज आते ही वे स्कूटर पर चढ़े और झटके से उसे स्टैंड से उतार दिया. ठण्ड में उसका गला बैठ गया था शायद, लेकिन अब वह ठीक आवाज कर रहा था. बुर्म-बुर्म ज्यों कई बार छोटे बच्चे करते हैं. इशारा पाते ही मैं पीछे बैठ गया.
हम शिमला की टेढ़ी-मेढ़ी, चढ़ाई-उतराई वाली तंग गलियों से होते हुए कुछ ही देर में मेन रोड़ पर आ गए. अब मैं आराम से बैठ गया था. कुछ देर शान्ति रही, न जीजा कुछ बोले और न मैं. मैं तो चाह रहा था कि आज की रात भी हम शिमला में ही ठहर जाते तो क्या था! सुबह से कुछ खाया-पिया नहीं था, भूख भी बहुत जोर की लगी हुई थी. पिछले कल भी मेरा तो व्रत था. आज भी व्रत हो गया. दिन मैं बस डीआईजी साहब को मिलने गए थे तो वहां चाय-बिस्कुट लिया था बस और अब ये इनकी भाभी के हाथ की लास्ट चाय. बाकी कुछ नहीं. पुलिसवाले किसी के कितने भी रिश्तेदार हों इन से कुछ खा लेना या इनकी जेब से पैसा निकलवाना तो सौभाग्यशाली को ही नसीब होता है.
खुद नहीं खिला सकते थे तो वहाँ तो खाने देते. वे बेचारे कितने प्यार से कह रहे थे. बच्चे भी जिद्द कर रहे थे कि रुक जाओ. पिछले दिन तो वैसे भी हम जीजा के एक अन्य भाई के वहाँ ठहरे थे. यहाँ तो हम आज सुबह ही आये थे. खैर मेरा क्या! इनके साथ आया हूँ तो वैसे ही चलना पड़ेगा जैसा ये चाहेंगे. मैं खुद ही खुद से सवाल कर रहा था और खुद ही जवाब दे रहा था. जीजा भी शायद ऐसा ही कुछ मन ही मन सोच रहे थे या फिर आगे की कोई प्लान बना रहे थे पता नहीं.
कुछ ही देर में हम लोग सुनसान रोड़ पर अकेले चले जा रहे थे. रात ने अँधेरे की काली शॉल ओढ़ ली थी. सड़क से दूर कहीं पहाड़ों पर टिम –टिम चमक रहे बिजली के बल्वों को देख कर लगता था मानो रात की शॉल पर किसी ने अनगिनत सितारे जड़ दिए हों.
“रहरास साहिब... हर जग- जुग पगत उपाया पेज रखदा आया ...” मधुर वाणी ने चुप्पी को तोड़ा. मैं गौर से सुनने लगा. जीजा जी ने रहरास साहिब का पाठ शुरू कर दिया था. मैं भी ध्यान से सुनते हुए साथ में पाठ करने लगा. मुझे पंजाबी अच्छी तरह समझ तो आती है, गुरुबाणी भी मैं बहुत सुनता था कॉलेज के दिनों में.
उस समय मेरे डेक पर सिर्फ दो चीजें बजती थीं एक तो गुरुबाणी व्याख्या सहित और एक ग़ज़लें. सुबह चार बजे से जपजी साहब का पाठ शुरू हो जाता और जब तक स्नान-ध्यान, नाश्ता, और कॉलेज के लिए तैयार न हो जाता तब तक चलता रहता रिमाउंड कर-कर के. दिन में ग़ज़लें और शाम के समय रहरास. ग़ज़लों में हालाँकि किसी विशेष गायक को नहीं सुनता था, बस कभी गुलाम अली तो कभी जगजीत, पंकज उदास या कोई और.
मेरे पास अपने रूम में अपना स्टीरिओ था और सबसे अधिक कैस्सेट्स गुरुबाणी की ही थीं. गुरबाणी के एक-एक प्रसंग में जो सीख मिलती थी, वह तथ्यपरक और उपयोगी होती थी मेरे लिए. खूब सुनता था सुबह शाम.
हम अपने-अपने में मग्न चले जा रहे थे. करीब एक घंटे बाद हम लोग चम्बाघाट के उसी होटल में आ कर रुके जहाँ पिछली रात हमने डिनर किया था.
जीजा जी ने स्कूटर साइड में लगाया. डिक्की से पिछली रात की बची बोटल निकाली, टेबल पर रख दी. हाथ मुंह धोया और बैठ गए. आज उन्होंने एक ही गिलास मंगवाया और एक प्लेट ऑमलेट. वे जान गए थे कि मेरे साथ बहस करने का कोई फायदा नहीं .
मुझे पिछली रात की घटना याद आ गई. सोमवार का दिन था और मेरा व्रत था. भोले शंकर के नाम का. छठी कक्षा से करता आया था मैं सोमवार के व्रत. नॉन स्टॉप . उस होटल में पहुँचते ही मैंने होटल वाले से थोड़ी चीनी ली थी और धूप जला कर व्रत खोला ही था कि टेबल पर आ कर देखा दो गिलास और ऑमलेट सजा था. जीजा जी मेरा इन्तजार कर रहे थे.
मुझे समझ नहीं आ रहा था वो क्या था ! जीजा जी ने मुझे पूछे बिना ही दो गिलास में पेग बना लिए थे. मुझे ऐसे लगा जैसे मुझे कोई गाली दी गई थी. मैंने गिलास को हाथ भी नहीं लगाया. उन्होंने बहुत कोशिश की लेकिन मुझे डिगा नहीं पाए. उन्होंने कहा “यार तुमने कॉलेज में जाकर किया क्या ? ये सब तो आम बात है.” जब मैं नहीं माना तो उन्होंने कहा “देखो आगे बहुत ठण्ड है, शिमला कहते हैं उसे! वहां बिना पिए रह नहीं सकते! थोड़ी तो पीनी पड़ेगी वर्ना ठण्ड में मर जाओगे.”
“मुझे मरना मंजूर है लेकिन शराब ! इम्पोसिबल, जीजा जी ये आपके लिए आम बात हो सकती है लेकिन मेरे अपने उसूल हैं. मुझे मेरे माता-पिता ने पढ़ने के लिए भेजा है कॉलेज ! मैं उनका अकेला पुत्र हूँ और चार बहनों का अकेला भाई.” इस पर वे नाराज तो बहुत हुए लेकिन कर क्या सकते थे ! मैंने डिनर लिया और हाथ धो लिये वे शिमला जाते हुए मुझे समझाते रहे थे शराब के फायदे , लेकिन मैं कहाँ फिसलने वाला था.
अपने हिसाब से वे मुझे समझा रहे थे लेकिन मैंने तो साफ़ कह दिया आप बहका रहे हो मुझे लेकिन मेरे संस्कारों की जड़ें इतनी गहरी हैं कि बड़े से बड़ा आंधी - तूफ़ान भी आ जाये न! तो हिला भी नहीं सकता.
आज उन्होंने चुपचाप बची हुई बोटल ख़त्म की और फिर हम दोनों ने डिनर लिया. डिनर में शाही पनीर, चावल, शिमला मिर्च और चपाती थी. हम दोनों का बिल हुआ था एक सो सत्तर रुपये. जीजा को बिल देना पड़ा क्योंकि उन्होंने ऑमलेट, फ़िश पकोड़ा और पता नहीं क्या-क्या और मंगवाया था अपने लिए.
अभी हम शहर से कुछ दूर ही पीछे थे. आराम से चल रहे थे. जीजा जी को सुरूर भी हो गया था. वे बोलते जा रहे थे. स्कूटर की स्पीड यही कोई तीस पैंतीस रही होगी. हम दोनों का ध्यान आगे था. एक स्थान एकदम सुनसान आया.
स्कूटर की लाइट पड़ी तो कुछ दूरी पर एक काली आकृति दिखाई दी. स्ट्रीट लाइट में वह किसी काली नागिन की तरह सड़क पर कलाबाजियां खा रही थी. जैसे ही जीजा जी ने स्कूटर की लाइट उस पर मारी. वह उठ खड़ी हुई थी तब तक. उफ़ ! हम दोनों के होश उड़ गए. जुबान बंद हो गई. आँखें खुली की खुली रह गईं.
जैसे अपने सामने कोई खतरा देख कर जंगली जानवर साही के शरीर पर लगे शूल खड़े हो जाते हैं. हमारे रोंगटे यूँ खड़े हो गए थे. मुझे लगा जैसे मेरे शरीर पर किसी ने पानी के असंख्य घड़े उड़ेल दिए हों. हमारे सामने एक काली, लम्बी-जवान औरत बिल्कुल नंगी औरत! ... बाप रे ... ज्यों ही उस पर लाइट पड़ी वह स्कूटर को पकड़ने के लिए बढ़ी. उसने अपनी काली लम्बी-लम्बी बाहें यूँ फैलाईं ज्यों वो पूरे रोड़ पर फ़ैल गई हो.
अब सोचता हूँ तो श्रीलंका जाते वक्त समंदर में हनुमान के सामने आई सिहिंका स्मरण हो आती है. उस समय तो मेरी आखें अचानक बंद हो गईं थीं. मुझे बस स्कूटर के गियर बदलने की कड़-कड़ की आवाज सुनाई दी थी उसके बाद, बाकी कुछ भी नहीं ! गनीमत ये रही कि जीजा ने स्कूटर से नियंत्रण नहीं खोया वरना आज ये कहानी सुनाने के लिए हम में से कोई न होता शायद. उफ्फ मैंने जीजा जी को कस के पकड़ लिया था. वहां से हम कैसे निकले नहीं मालूम.
कुछ देर और चलने के बाद जब थोड़ा होश आया, कुछ नार्मल हुआ तो मैंने जीजा से पूछा “जीजा जी क्या था ये?” उन्होंने बिना सोचे समझे तुरंत जवाब दिया “अरे यार पगली है, यहीं रहती है. मुझे तो कई बार मिल गई आते जाते. उनकी इस बात से मैं थोड़ा और नार्मल हो गया. मैंने कहा “अच्छा, पर ये तो बिल्कुल काली माता लग रही थी शायद उसकी जीभ भी निकली हुई थी! पगली होती तो यहाँ इतने सुनसान रोड़ पर रात के बारह बजे.. कैसे ? कहाँ से आई होगी ? और आज मंगलवार का दिन भी है ... ” जीजा जी फिर बोले “अरे नहीं, पगली ही है. कपड़े कहीं फैंक दिए होंगे या फिर किसी ड्राईवर ने ...” और वे चुप हो गए. मैं मन ही मन सोचने लगा शायद ऐसा ही हो.
कुछ ही देर में हम लोग पुलिस स्टेशन के पास थे. रात के ठीक साढ़े बारह बजे थे. जीजा जी ने स्कूटर साइड में लगा दिया. हम दोनों अंदर गए. बैरक में कुछ पुलिस वाले सिविल ड्रेस में बैठे ताश खेल रहे थे.
वे जीजा को जानते थे. एक ही डिपार्टमेंट के आदमी थे कहीं मिलते रहे होंगे पहले. जीजा ने उनसे कहा “हमारा बिस्तर भी कर दो. हम नी जाते यार आगे यार. सुबह जायेंगे.”
उन में से एक ने पूछा “क्या हुआ, डरे हुए क्यों लग रहे हो?” जीजा ने साफ़ कह दिया “यार पीछे चुड़ेल थी, डर लग रहा है अब आगे जाने में, अब नहीं जा सकते! अब तो सुबह ही जायेंगे.” मैंने व्यंग्य किया “जीजा जी आपको सुबह नए स्टेशन पर ज्वाइन करना है न, चलो! और वह तो वैसे भी पागल थी !” उन्होंने जवाब दिया “नहीं यार ! वो तो मैंने इस लिए कहा था कि कहीं तुम डर न जाओ, कहीं बेहोश हो जाते तो ? मैं कैसे लाता तुम्हें स्कूटर पर? रही बात जॉइनिंग की वह तो हो ही जाएगी कल नहीं तो परसों सही. पहले सही सलामत घर तो पहुंचें”
दूसरे दिन अखबार में खबर आई. ‘सड़क पर मिली एक पगली की खून से सनी लाश. बलात्कार करके फैंका गाड़ी से.’ “कितनी बार तो उसे होटल से छुड़ा कर लाए थे.” एक पुलिसवाला बोला तो दूसरे ने जोड़ा “हाँ यार होटल वालों के लिए टैक्सी और ट्रक ड्राईवर के लिए तो वो मुफ्त का माल थी.” तीसरा बोला “ देखने में बहुत सुंदर थी, वो तो अपने शरीर पर ग्रीस और कालस लगाती थी इन सबसे बचने के लिए पर ये साले ऐसे हरामी कि नदी में ले जाकर साबुन से मल-मल कर नहलाते थे उसे अपने इस्तेमाल के लिए.” मैं मन ही मन सोच रहा था “पता नहीं वो पगली थी या ये दुनियाँ पगली है. कोई नहीं कह सकता !”
लेखक - अनंत आलोक
नाम : अनन्त आलोक
जन्म : 28 अक्तूबर 1974 बायरी (सिरमौर ) हिमाचल प्रदेश
शिक्षा : वाणिज्य स्नातक , शिक्षा स्नातक , ग्रामीण विकास में स्नातकोत्तर डिप्लोमा |
पुस्तकें : तलाश (काव्य संग्रह) 2011 में , यादो रे दिवे (हाइकु अनुवाद) | मेरा शक चाँद पर साहिब (हिंदी ग़ज़ल संग्रह ) प्रकाशनाधीन |
प्रसारण : दूरदर्शन एवं आकाशवाणी से , साक्षात्कार , कवितायेँ , ग़ज़लें एवं आलेख एवं बातचीत प्रसारित |
प्रकाशन : विपाशा , हिमभारती , हिमप्रस्थ , गिरिराज , बाल हंस , बाल भारती , बया , सरस्वती सुमन , अभिनव प्रयास , अभिनव इमरोज , गर्भनाल , कथा समय , समहुत , कर्मनिष्ठा , द बूस्ट , सुसंभाव्य , नव निकष , पेन , हिमतरु, शैल सूत्र , पंजाब केसरी ,देशबंधु ,अमर उजाला , दिव्य हिमाचल , दैनिक भास्कर , दैनिक न्याय सेतु , राजस्थान पत्रिका आदि शताधिक पत्र पत्रिकाओं एवं ऑनलाइन पत्रिकाओं में कहानियां , कवितायेँ , ग़ज़लें , लघुकथाएं , बाल कथाएं ,आलेख एवं समीक्षाएं प्रकाशित एवं असंख्य संकलनों में संकलित |
विशेष : कवि सम्मेलनों ,मुशायरों एवं लघुकथा सम्मेलनों में निरंतर भागीदारी |
सम्मान : सिरमौर कला संगम ,हिमोत्कर्ष के प्रतिष्ठित पुरस्कार सहित दर्जनों सम्मान |
सम्प्रति : हिमाचल सरकार में अध्यापन |
ब्लॉग : http//sahityaalok.blogspot.com
संपर्क : ‘साहित्यलोक’ बायरी , डाकघर एवं तहसील ददाहू , जिला सिरमौर हिमाचल प्रदेश 173022 Mob: 9418740772 , Email : anantalok1@gmail.com
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