सम्पूर्ण वातावरण में देवीस्तोत्र मन्त्र गूंज रहा था। तन्त्र सिद्धि और रतजगे की रात थी। राघव की पत्नी सावित्री और बेटी शाम्भवी पूजा में लीन थी। ‘अखण्ड दीप’ जल रहा था। घर-परिवार में सुख-शांति-समृद्धि बनी रहे इसके लिए वे आज की रात देवी के कालिका रूप की पूजा कर रही थीं। राघव बेचैन था। थोड़ी देर तक वह उनके साथ बैठा रहा फिर चुपचाप वहां से उठा और अपने कमरे में चला आया। कुछ घाव जल्दी नहीं भर पाते। जब-तब रिसते रहते हैं। वह करे तो क्या करे? पिछले छह महीने में एक ऐसा नासूर उसके मन में पनप गया था, जो रह-रह कर टीसता रहता था। उसकी हालत इन दिनों मृगतृष्णा सी हो गयी थी। मन हर घड़ी भटकता रहता था। कहीं शान्ति या सुकून नहीं मिलता । बेटी के कॉलेज की पढाई खत्म होने को थी। उसका विवाह भी सर पर एक बड़ी जिम्मेदारी थी। कैसे होगा सब कुछ? जमा पूंजी का कोई आसरा नहीं था। वह सोच रहा था-'ऐसी जगह काम करके भी क्या हासिल, जहां से परिवार के लिए कुछ पैसे भी बचा नहीं पाए? इतने सालों से ऐसी कंपनी में काम करने का क्या फायदा जिसे अपने कर्मचारियों की फिक्र ही नहीं? 'माता रानी' को घर में न्योता तो दे दिया किन्तु उनके आगत में जो खर्च हुआ वह पैसा कहां से आया, ये उसके सिवा कोई नहीं जानता था। पिछले छह महीने से घर कैसे चल रहा यह सिर्फ उसे ही पता है।
छह महीने से राघव को वेतन नहीं मिला था। इसकी खबर उसने घर में किसी को नहीं होने दी। सालों से जितनी पूंजी जमा कर रखी थी, इन छह महीने में लगभग निकल चुकी थी। खर्च बढ़ता ही जा रहा था और आय का दूर-दूर तक कोई स्त्रोत नज़र नहीं आ रहा था। घर हो या दोस्त, वह हर किसी से अपना दुख साझा नहीं कर सकता था। अब तक पत्नी को भी इस समस्या की भनक उसने नहीं लगने दी थी। जैसे-जैसे घर में पैसे की किल्लत होने लगी, राघव मानसिक तनाव के चरम पर रहने लगा। बात-बात पर चिढ़ना, पत्नी की बेइज़्ज़ती कर देना-ये रोज़ की बातें हो गयी। शुरू में सावित्री चुप रह जाती, पर बाद में उसने भी पलटवार करना शुरू कर दिया। ज़रूरत पूरी नहीं होने पर अक्सर ताने मारने से वह नहीं चूकती। इस नवरात्रि पूजा में उसने सोचा था, चाहे कुछ भी हो जाए, घर में कोई आपसी वैमनस्य नहीं होने देगा। बिटिया के लिए बनवाए सोने के कुछ गहनों को उसने गिरवी रख दिया और पैसे ले आए।
अजीब है, एक ज़िन्दगी में मध्यम वर्गीय इंसान को जानें कितनी बार मरना पड़ता है, अपने आप से जूझना पड़ता है। यही सब सोच रहा था राघव। आज उसका मन कुछ ज़्यादा ही विचलित था । आंखें रह-रह कर सजल हो रहीं थीं। नींद कोसों दूर थी।
"या देवी सर्वभूतेषु माँ कालरात्रि रूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।"
राघव की पत्नी पूजा गृह में मां कालिका की अर्चना में लीन, परिवार में शांति और समृद्धि की तेज़ आवाज़ में गुहार लगा रही थी। बेटी भी माँ के साथ पूजा में लीन थी। इधर वह अपनी आँखों को हथेली से ढँक कर अपनी किस्मत को कोस रहा था। विगत सालों में वक़्त की रफ़्तार कुछ ज़्यादा तीव्र हो गयी थी पर वह कभी रुका नहीं। चाहे नभ छुए या ज़मीं पर गिरे उसने ज़िंदगी की पतंग को पूरी तरह से ढील देना शुरू कर दिया था। उसने मान लिया था कि अब बस जो होना है हो जाए। आधी ज़िन्दगी संघर्ष में निकल गयी,आधी भी गुज़र जाएगी। आज लेकिन कोई ढांढस काम नही आ रहा था। अजीब सी कसमसाहट थी।
छोटे से गांव में पढ़े-लिखे राघव को, कदम-कदम पर इम्तिहान का सामना करना पड़ा था। पहले नौकरी का इम्तिहान, फिर खुद को काबिल साबित करने का इम्तिहान, अपने पद के लायक होने का इम्तिहान...और अब...अब भी संतुष्टि नहीं। शहर को लेकर क्या-क्या ख्वाब थे। एक उम्र गुज़ार लेने के बाद आज ऐसा लग रहा है कि इतने सालों में क्या पाया... शून्य! ज़िन्दगी नर्क बन कर रह गयी। गांव में सब कुछ जमा जमाया था। कभी खाने की किल्लत नहीं ही होती। पहले गांव छोड़ा, फिर खेत बेचा...आज क्या है उसके पास? गांव का घर (जो आज के समय में खंडहर हो चुका है) और शहर के इस छोटे से फ्लैट के सिवाय उसके हाथ कुछ भी तो नहीं। इस पीड़ा को उसके सिवाय कोई और महसूस कर ही नहीं सकता था और किसी से साझा करने की उसकी हिम्मत भी नहीं होती।
अगले दिन भोर की पहली किरण के साथ कालरात्रि की पूजा सम्पन्न हुई। पूड़ी, हलवे की खुशबू पूरे घर में फ़ैल गयी। वैसे भी दो कमरे, हॉल और बालकनी के छोटे से क्षेत्रफल वाले घरों में सुगंध और दुर्गंध फैलते देर नहीं लगती। बातें भी यहां फुसफुसा कर करनी पड़ती हैं, क्योंकि यहां दीवारों के सचमुच कान होते हैं।
स्नान आदि से निपटने के बाद सावित्री ने देवी का भजन स्पीकर पर चला दिया। राघव रात भर सो नहीं पाया था। मन की टीस इन दिनों उसे सोने कहाँ दे रही थी ? वह पिछले कई रातों से जाग रहा था। उसे जगा हुआ देखते ही सावित्री ने मंदिर जाने के लिए झटपट तैयार होने का फरमान जारी कर दिया। राघव की आंखें सुर्ख हुई जा रही थीं। शरीर तप रहा था।
सुबह की धूप निकल आई थी। शहर भर में अष्टमी पूजन की रौनक थी। छोटी-छोटी बच्चियां देवी का रूप धरे हर घर में भोग लगाने जा रही थीं। उनकी खिलखिलाहट और बातचीत हर किसी का ध्यान खींच रही थी। पर राघव...! उसका तो मन ही उचाट हो रहा था। उसे कुछ भी रास नहीं आ रहा था... कुछ करने की इच्छा नहीं हो रही थी। वह शांति चाहता था...मन की शांति। राघव सावित्री के साथ मंदिर गया। पूजा-पाठ से निवृत्त होकर वह ऑफिस जाने की तैयारी करने लगा। राघव का शरीर अब भी तप रहा था। इसके बावजूद वह ऑफिस के लिए तैयार हो रहा था। उसकी तैयारी देख सावित्री असमंजस में पड़ गयी "आज के ऑफिस जाच्छो ?” राघव ने कोई जवाब नहीं दिया। “आपनी तो शप्तमी थेके दशमी पर्यंत छुटी नेननी ? " राघव ने जबरन मुस्कुराते हुए कहा “ज़्यादातर लोग इस बार छुट्टी पर हैं इसलिए…” कहते-कहते राघव घर से निकलने लगा। “अरे नैवेद्य तो लो! आज तो छुट्टी ले लेनी चाहिए थी। आमी की...?” कहते हुए सावित्री मायूस होकर बड़बड़ाने लगी. “ये क्या बात हुई, ऐसा लगता है जैसे दफ्तर का पूरा काम उन्हीं के जिम्मे है, तीन-चार दिनों की छुट्टी भी नहीं ले सकते, ज्वर आछे आर ऑफिस चले जाच्छे ...हुंह।” तभी शाम्भवी ने राघव को पुकारा और चहकते हुए कहा "डैडी सोसाइटी में आज ‘गरबा नाइट’ है।" "हम्म तो?" "तो मैंने इसके लिए एक डिज़ाइनर घाघरा का आर्डर दिया है, आप ऑफिस से आना तो लेते आना।" राघव के हाँ - ना करने से पहले ही उसने एक बिल राघव को थमा दिया। 14,000 की ड्रेस! बिल देखते ही राघव के माथे पर बल पड़ गए। उसे सब धुंधला सा दिखने लगा। उसने पूरी ताकत बटोर कर शाम्भवी को डांट लगाई "14,000? गरबा के लिए इतनी महंगी ड्रेस? आर्डर देने से पहले मुझसे पूछना तो चाहिए था? पैसे क्या पेड़ पर लगते हैं? कहाँ से आएंगे इतने पैसे? " शाम्भवी रुंआसी हो गई । "पहली बार तो मैंने बिना पूछे ऐसा कुछ आर्डर किया है। आमार भालो बाबा। " शाम्भवी जैसे ही बांग्ला बोलती थी राघव का मन प्रफुल्लित हो उठता। गाँव का सोंधापन नथुने में भर आता। ऐसा लगता मानो शाम्भवी के बांग्ला बोलने से ही तो उसकी संस्कृति सुरक्षित है। अब वह अपनी कमजोरी अपनी राजकुमारी के सामने कैसे जाहिर करे राघव? उसने शाम्भवी को प्यार से पुचकारा और घर से निकल पड़ा।
राघव उस दिन की छुट्टी ले सकता था, किन्तु मन में उम्मीद की किरण थी कि शायद कोई अच्छी खबर आज आ जाए। इसी आशा के साथ वह रोज़ नियत समय पर दफ्तर पहुँच जाता, हालांकि उसे भी पता था कि त्यौहार का मौसम है, इसलिए कुछ नहीं होगा, किन्तु मन कहाँ मानता है? जीने के लिए, नकारात्मक सोच से लड़ने के लिए, उम्मीद को ज़िंदा रखना ज़रूरी है। दफ्तर में पहुंचते ही बॉस का संदेश आया 'शीघ्र मिलो'। "छह महीने में यह पहली बार बॉस ने उसे मिलने के लिए कहा था। सम्भव है कुछ अच्छी खबर हो!" यह सोचते ही उसके होठों पर मुस्कान खेलने लगी। तनाव से थोड़ी राहत मिली। बुखार उतरता हुआ महसूस हो रहा था। उसने ईश्वर को धन्यवाद दिया। था। "अंदर आ जाऊं सर" उसने बॉस के केबिन का दरवाजा खटखटाया। "आ जाओ, आ जाओ।" बॉस की आज्ञा मिलते ही वह अंदर गया। "हम्म कितने साल हो गए यहां काम करते हुए राघव?" "सर लगभग 20 साल" "इतने अनुभव और उम्र के बाद ऐसी गलतियों की उम्मीद नहीं होती है। खत में सफेदी उतरने लगी है, पर काम के नाम पर ऐसी लापरवाही?" "सर क्या गलती हुई?" उसकी आंखें डबडबा गईं। "तुमने कोई फ़ाइल निकिता को दी थी?" "जी उन्होंने ज़िद कर के ली थी" "ज़िद कर के कोई आपसे इस्तीफा मांगेगा तो आप दे दोगे न?जाइये और इस फ़ाइल को अभी के अभी सही कर ले आइये।" बॉस ने गरजते हुए फ़ाइल को उसके मुंह पर दे मारा। राघव अवाक रह गया। वह कांप रहा था। वह चाहता था कि आज… अभी बस! ऐसा कुछ हो जाए कि वह इस दुनिया से गायब हो जाए। दुनिया का सामना करने की अब उसमें हिम्मत नहीं थी। उससे न वेतन की बात पूछते बनी, ना नौकरी की। "बेहतर होता कि वह दिहाड़ी मजदूरी कर लेता या रेहड़ी ही लगा लेता, सब्जी बेच लेता, जूते पोलिश कर लेता...कम से कम रोज़ की कमाई तो होती। घर और समाज में मुखौटे लगाकर तो नहीं घूमना पड़ता। अपने हक़ के पैसे के लिए वह आवाज़ तो उठा पाता। कहाँ से लाए चौदह हज़ार और पूरी करे बेटी के शौक? घर की ज़रूरतों को कैसे पूरा करे?" यह सब सोचते ही वह फफक पड़ा। महीनों से दिल में दबा सैलाब शरीर और मन के कमजोर होते हीं फूट पड़ा। जैसे हँसी संक्रामक होती है वैसे ही उदासी और दुःख भी। सहकर्मी उसे घेर कर खड़े हो गए। कुछ दिलासा देने लगे, तो कुछ आगे की योजना बनाने लगे। उन सब से राघव ने बीस हज़ार रुपये मांगे। देखते ही देखते वे सब ये गए और वो गए। अब वह वहां अकेला था। राघव के जी में आ रहा था ख़ूब चिल्लाए, ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाए, पर वह अपनी सीट पर बैठा उस फ़ाइल को घूर रहा था, जिसे अभी-अभी बॉस ने दुरुस्त कर लाने के लिए दिया था। वह सोच रहा था अगर गरीब होता तो भीख मांग लेता, अमीर होता तो करोड़ों का लोन ले लेता, लेकिन ये बीच का होना, लानत है...लानत है कहते हुए उसने अपने दोनों गालों पर चांटा मारना शुरू कर दिया। निकिता भागती हुई उसके पास आई और उसे ज़ोर से झकझोरा "क्या हुआ सर?" वह जैसे बेहोशी से जागा और भावशून्य नज़र से निकिता को देखने लगा। निकिता ने फिर पूछा "क्या हुआ सर?" " कुछ नहीं...कुछ भी तो नहीं। तुमने कुछ गलतियां कर दी थीं उसे सही कर के बॉस को अभी देना है" यह कह कर राघव ने एक गहरी सांस ली। उसकी आवाज़ में निराशा और उदासी थी। "मुझे पता है सर,एक्सट्रिमली सॉरी...पर आप अपने गालों पर अभी…" "क्या ? कुछ भी तो नहीं।" "सर ये मैंने कुछ रुपये निकाले थे महीने के खर्च के लिए, आप इसे रख लीजिए। सैलरी आ जाएगी तो दे दीजिएगा।" निकिता का यह कथन राघव के लिए बहुत बड़ी राहत थी, किन्तु वह उससे पैसे कैसे ले सकता था?
निकिता...पहली बार जब इस ऑफिस में नौकरी के लिए आवेदन देने आई थी, हर किसी से पूछ रही थी कि वह इस नौकरी के काबिल है भी या नहीं। उसे खुद पर भरोसा नहीं था। उस दिन उसकी आंखों में उदासी और अनिश्चितता का भाव था। उसने राघव से भी पूछा "सर, मेरा चयन हो पाएगा? ये देखिये ये मेरा रिज्यूमे है...सब ठीक है न? कहीं कोई कमी तो नहीं? सर, मुझे इस नौकरी की सख्त ज़रूरत है। पिताजी रिटायर हो चुके। यहां मैं और भाई रहते हैं। भाई छोटा है और प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहा है। ट्यूशन से थोड़ा बहुत कमा लेता है। सर ये नौकरी मिल जाएगी तो पिताजी का बोझ कम हो जाएगा।" उसकी बातों से राघव का मन पिघल गया था। उसने उसके माथे पर हाथ रखते हुए कहा "बेटे कर्म करना अपने हाथ में होता है। उसे ईमानदारी से करो। बाकी सबकुछ ऊपरवाले पर छोड़ दो। सब अच्छा होगा।" ऐसी जगहों पर इंटरव्यू तक पहुंचना ही टेढ़ी खीर होती है। निकिता को इंटरव्यू के लिए शॉर्टलिस्टेड करने वाला राघव ही था। निकिता ने इंटरव्यू क्लिक कर लिया हालांकि वेतन बहुत ज़्यादा नही था, पर इतना ज़रूर था कि उससे घर का किराया और महीने का खर्च आराम से निकल जाता था। ऑफिस जॉइन करने की बात निकिता ने सबसे पहले राघव को बताई थी। पहली बार जब वह ऑफिस आयी थी तो पूरे ऑफिस में काजू कतली बांटी थी। राघव और बड़े बॉस के लिए काजू कतली का एक-एक डब्बा अलग से था। राघव को निकिता में अपनी बेटी की झलक दिखती थी, इसलिए उसे लेकर वह कुछ ज़्यादा ही प्रोटेक्टिव हो जाता। उसे समझाता रहता। काम सीखाता रहता।
आज उसी निकिता से पैसे उधार लेने पड़ रहे हैं। मुश्किल से रुके हुए आँसू उसकी आंखों से फिर बह चले। राघव ने रुंधे गले से बोला "बेटा आप बहुत छोटी हैं, आपके पैसे मैं नहीं ले सकता" "सर! मान लीजिएगा बेटी ने दिए । पच्चीस हजार हैं गिन लीजिए।" निकिता ने एटीएम से निकाले नोट राघव की हाथों में पकड़ा दिए।
"पच्चीस हज़ार - इतने में शाम्भवी का मन भी रह जाएगा और पूजा भी ख़ुशी से संपन्न हो जाएगी।" राघव यही सोच रहा था। उसके हाथ काँप रहे थे, मन में एक बेचैनी थी कि यदि अगले कुछ और महीने तक यही हाल रहा तो ये रकम वह कैसे लौटाएगा। निकिता से पैसे लेना उसे बहुत अखर रहा था, किन्तु क्या करे आज यह ज़रूरी हो गया था। सोच की इस सुनामी में राघव इस कदर डूबने लगा कि घुटती साँसों और लड़खड़ाती ज़ुबान को निकिता को ‘धन्यवाद’ कहने का भी भान न रहा।
दशहरा गुज़र चुका था। अब तक वेतन की कोई खबर न थी। “तो क्या काली पूजा भी ऐसे ही बीतेगी!” यह सोच-सोच कर उसका कलेजा बैठा जा रहा था। परिस्थितियाँ अब नियंत्रण से बाहर हो रही थीं। पहले आस-पड़ोस में जाना बंद हुआ, फिर समाज में। सावित्री से झूठ पर झूठ बोलना उसे अखरता था, पर क्या करे? "आखिर कितने बहाने बनाए! क्या उसे ये बातें अपनी पत्नी से साझा करनी चाहिए, क्या बेटी को भी कह दे कि अब उसका बाप उसके शौक पूरा करने के काबिल न रहा?" बस यहीं आकर उसकी हिम्मत जवाब दे जा रही थी। ये बातें वह उनसे नहीं साझा कर सकता, बिलकुल नहीं। तो क्या ताज़िन्दगी यूँ ही घुटता रहे... या खुद को खत्म कर ले! उसके साथ ही उसकी सारी परेशानियां-दुःख-चिंता-फ़िक्र- जिम्मेदारियां सब खत्म हो जाएँगी। हाँ...ये सबसे कारगर उपाय होगा। कल ही तो आर्थिक तंगी से जूझ रहे उसके एक सहयोगी ने सपरिवार आत्महत्या कर ली। परसों तक जो रोज़ उसके साथ हँसी-मज़ाक का सहभागी था, उसका 'चाय पार्टनर' था, आज वह कहीं नहीं है। उसकी आत्महत्या महज़ एक खबर बनकर अखबारों की सुर्खियों में है। मरने के बाद व्यक्ति की वे सभी परेशानियां नजर में आने लगती हैं, जीते जी जिन्हें वह छिपाए फिरता रहा होगा। ऑफिस में दबे छिपे उसकी चर्चा हो रही थी।"कायर निकला" "आत्महत्या तो कोई विकल्प ही नहीं होता। कोई कैसे यह कदम उठा लेता है?" "अरे भई आज के समय में लोगों में पेशेंस नहीं रहा। कई बार परिस्थितियां ऐसी बन जाती हैं कि व्यक्ति असहाय हो जाता है।" "आज के समय मे जीने की कला सीखना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है। स्कूल में इसकी भी कक्षाएं होनी चाहिए।" अच्छी बुरी सभी चर्चा में व्यस्त थे। सच तो यही है कि सबकी ज़िन्दगी में जटिल परिस्थितियां आती हैं। आत्महत्या हमेशा आखिरी विकल्प ही होता है। विपरीत परिस्थितियों को झेलना...अवसाद से लड़ना...रोज़ की भागदौड़ भरी ज़िन्दगी में अपने हिस्से की ज़िंदगी जीने की जद्दोजहज़ में इंसान कब कमज़ोर पड़ने लगता है उसे यह एहसास तब होता है जब ज़िन्दगी में बड़ी चुनौतियों से सामना होता है...रोज़ का संघर्ष उससे सहने की शक्ति छीन ही लेता है। किस्तों पे घर, किस्तों पे गाड़ी...दरअसल मध्यमवर्गीयों की ज़िंदगी ही किस्तों पर चलती है। एक महीने भी वेतन नहीं आए तो जीवन की नैया डगमगाने लगती है। यहां तो छह महीने हो गए थे। परसों वह मायूस था पर ठठाकर हँसने की उसकी आदत से सभी धोखे में रहे। एकबारगी भी यह एहसास नहीं हुआ कि वह इतना बड़ा कदम उठाने जा रहा।
राघव सोच रहा था- “तो क्या उसे भी ऐसा ही कुछ कर लेना चाहिए...सपरिवार…?” उसका दिल बैठने लगा। पीठ में झुरझुरी का एहसास हुआ, जैसे सैंकड़ों चींटियां एक साथ पीठ पर कदमताल कर रही हों... और वह पसीने से तर-बतर हो गया...वह बुदबुदाया "नहीं..सपरिवार तो हरगिज़ नहीं। अपनी पत्नी और बेटी को वह मरते हुए सोच भी सके, इतना वह मजबूत नहीं।"
उस दिन राघव ने तय कर लिया था कि वह खुद को हमेशा के लिए खत्म कर लेगा। उसने सोच रखा था सबके सोने के बाद रॉयल चैलेन्ज की पूरी बोतल गटक जाएगा। इससे ज़्यादा की तो इन दिनों उसकी औकात भी नही थी, असल में तो औकात इसकी भी नहीं थी, पर बहाना के लिए ज़रूरी था। पूरी बोतल गटक कर अपार्टमेंट की आठवीं मंजिल से छलांग लगा देगा। किसी को आत्महत्या का शक भी नहीं होगा…! सब यही समझेंगे नशे में गिर पड़ा। कुछ घूंट हलक से उतरते ही उसकी सोच इस बात पर अटक गई कि उसके बाद सावित्री और शाम्भवी का क्या होगा...कदम खुद ब खुद थम गए। वह चुपचाप बिस्तर पर आकर लेट गया। सावित्री गहरी नींद में थी। वह उसके शांत चेहरे को देख रहा था। उसने कभी यह नापने की कोशिश नहीं की थी कि वह अपनी पत्नी से कितना प्यार करता है? आज उसे एहसास हो रहा था कि वह उससे इतना प्यार करता है कि उसकी खुशियों के लिए वह घुटन में भी जी सकता है। बिटिया शाम्भवी में तो उसकी जान बसती है। बहुत लाड़ से पाला है उसे, कभी किसी चीज़ की कमी नही होने दी। वह नही रहेगा तो वे कैसे जियेंगी?
आत्महत्या पाप है। उसने स्वयं को समझाया। वह कैसे इस बारे में सोच सकता है? मन तो भटकाता ही है, पर मस्तिष्क समझाता है। मन नकारात्मक वृत्तियों को बढ़ावा देता है और मस्तिष्क उनसे लड़ने का रास्ता बताता है। राघव का दिमाग अभी ज़रूरत से ज़्यादा सक्रिय था। वह बुदबुदाया- "कितना लड़ूं खुद से और कब तक? झूठ...और कितना झूठ...कितने बहाने बनाऊं? अब दम घुटने लगा है।" सावित्री की नींद टूटी -"क्या हुआ? किससे लड़ रहे? ऑफिस में कुछ हुआ क्या?" "अरे नहीं। इस उम्र में अब क्या सबसे लड़ाई करता फिरूँगा?सो जाओ कुछ नही हुआ। तुमने ज़रूर कोई सपना देखा होगा।" कहता हुआ राघव सोने की कोशिश करने लगा।
इन दिनों ऑफिस में वक़्त गुज़ारना मुश्किल हो गया था। दिनोंदिन कार्यालय का दबाव बढ़ता जा रहा था। बॉस भी चिड़चिड़ा हो गया था। रोज़ किसी न किसी विषय को निकाल कर उन सभी को डांटने का उपक्रम करता, जैसे कि यह भी रोज़मर्रा के काम का हिस्सा हो गया हो। ऑफिस जाने और काम करने के लिए कोई ‘मोटिवेशनल फैक्टर’ नहीं था। न पहले से कहकहे गूंजते, न कोई बातें बनाता। सबके चेहरे पर मुर्दाघाटी सन्नाटा रहने लगा था, जैसे कि घर में किसी की मौत हो गयी हो। वेतन नहीं पाने वालों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही थी। रोज़ नया शिगूफा...आज सैलरी सबके एकाउंट में आ जाएगी, फ़ाइल भेज दी गयी है। आज नहीं आएगी तो कल शाम तक तो पक्का आ जाएगी!" और फिर हर दिन "ढाक के तीन पात" वाली स्थिति हो जाती। लोगों का तनाव अब अपने चरम पर रहने लगा था। सन्नाटा अब झगड़ों में तब्दील हो गया था। हर रोज़ कोई न कोई आपस मे उलझता।
धन रिश्ते जोड़ता है तो वही रिश्ते तोड़ता भी है। ये बात सोलह आने सच साबित हो रही थी। धीरे-धीरे राघव घर-परिवार फिर समाज के हर आयोजनों में जाने से कन्नी कटाने लगा। हर बार व्यस्तता का बहाना बना देता। पहले अक्सर सावित्री इस बात पर उससे लड़ लेती, रूठ जाती। परिजनों के ताने और उलाहने की बात करती। राघव यह सब जान कर भी क्या करता? आखिर खर्च तो उसे ही करना था। जब तक सम्भव था सावित्री अपनी जमापूंजी से आयोजनों में जाती रही और रिश्ते की डोर को थामे रखा किन्तु धीरे-धीरे वह भी समाज से कटने लगी। पुरुष ऑफ़िस में रहकर सारा दिन व्यस्त रह सकता है लेकिन एक घरेलू स्त्री के लिए समाज से कटकर समय गुज़ारना बहुत मुश्किल है।
छह महीना सातवें में बदलने वाला था कि उसी दिन ऑफिस में शोर मचा "सैलरी आ गई।" सभी अपने-अपने अकाउंट चेक करने लगे। कोई मोबाइल पर आए संदेशों को खंगाल रहा था, तो कोई बैंक के एप्स खोल रहा था। राघव अपना अकाउंट चेक करने लगा। सचमुच पैसे आ गए थे, किन्तु यह क्या सिर्फ तीन महीने का ? कायदे से छह महीने की आनी चाहिए थी। सबकी इतनी ही सैलरी आई थी। फिर भी राहत देने वाली बात तो थी ही। कर्ज़ चुकाने लायक तो रकम आ ही गयी थी। हफ्ते भर बाद बचे हुए तीन महीने की सैलरी भी आ गई और साथ ही यह नोटिस भी आया कि जिन लोगों की उम्र पचपन से ज़्यादा है उन सभी को अगले महीने से नौकरी से हटाया जाता है। वेतन मिलने की खुशी नोटिस के साथ मातम में बदल गयी। भारी मन और भारी कदमों से राघव ऑफ़िस से निकला। उस शाम उसने शाम्भवी के पसंद की ढेर सारी मिठाईयां खरीदी। सावित्री के पसंद की कचौरियां भी खरीदी। दोनों के लिए उनकी पसंद के कपड़े खरीदे। बेटी ये सब देखकर चहक उठी। सावित्री को महसूस हुआ कि कुछ तो बात है, जो राघव की आंखें कह रही हैं, पर ज़ुबान पर कुछ और है! सावित्री ने सबके लिए कचौरियां और मिठाई प्लेट में डालते हुए कहा "आज इ शब? जामा, मिष्टी, कचुरी… की ?" "कुछ नहीं।" राघव ने कहा। उसके बाद घर में चुप्पी छा गयी। चुप्पी को तोड़ते हुए राघव ने कहा "ए बारेर दीवाली अमादेर एखनकार शेष दीवाली।" शाम्भवी और सावित्री दोनों ने चौंक कर सवालिया नज़रों से उसे देखा। "हं, ए माशेर शेषे आमरा ग्रामे फिरे जाच्छी ।" शाम्भवी ठुनककर बोली "आमि ग्रामे फिरे जाबो ना, तोमरा चोले जाओ । मेरा वहां बिल्कुल मन नहीं लगता। मैं यहीं रहूंगी।" राघव ने कलेजा कड़ा करते हुए बोला "बेटा हमें हमेशा के लिए गांव जाना है।" आश्चर्य से शाम्भवी की आंखें फैल गयी। सावित्री ने राघव की ओर देखा और आंखों-आंखों में पूछा 'माजरा क्या है?' "हम्म, मेरी यह नौकरी बस एक महीने और है। इस बीच शाम्भवी ने कहीं नौकरी कर ली तो यहां रह पाएगी, नहीं तो हम सब साथ गांव जाएंगे। इस फ्लैट को बेचकर जो पैसे आएंगे, उन्हीं से वहां कुछ करना होगा। शाम्भवी की शादी के लिए भी यही हमारी जमापूंजी है।" पूरे कमरे में सन्नाटा छा गया। राघव ने आगे कहा - "इतने दिनों से तुम सबसे मैंने ये बातें छिपाई थी। इस इंतेज़ार में था कि सब ठीक हो जाए तब मैं बता दूंगा, लेकिन स्थिति और बदतर होती चली गयी। छह महीने बाद हमें आज वेतन मिला है साथ ही यह अल्टीमेटम भी। ये छह महीने किस घुटन में गुज़ारे बता नहीं सकता, अब और सहन नहीं होता। मुझे बस तुम दोनों से मतलब है, बाकी दुनिया जो समझे। अब तुमलोग बताओ क्या करना चाहिए?" सावित्री की आंखें सजल थी। "आपने छह महीने तक यह बात मुझसे छिपाए रखी। मुझे अफसोस है कि शादी के इतने साल बाद भी मैं आपका भरोसा नहीं जीत पायी, तभी तो मुझसे भी आपने यह सब छिपाए रखा। पुरुष सबकुछ पचा सकता है। उसमें बड़ी क्षमता होती है। मुझसे तो छोटी सी बात भी नहीं पचती।" इतना कहते ही सावित्री का गला रुंध गया- "आप जो करेंगे मैं हमेशा आपके साथ हूँ। आपने मुझसे इतनी बड़ी बात क्यों छिपाई...और मैं मूर्ख समझ भी नहीं पाई। अब इस आत्मग्लानि का बोझ मैं कैसे उठाऊं?" राघव उसे चुप कराने लगा। राघव को महसूस हुआ कि आज जो उसने किया वह छह महीने पहले कर दिया होता तो इतनी घुटन नहीं होती। आज वह अपने खोल से बाहर आकर सुकून महसूस कर रहा था। छह महीने से चेहरे पर चढ़ा मुखौटा हटाते ही आज उसका मन एक नई ऊर्जा से भर गया था।
शाम्भवी अवाक थी। वह अभी भी इस शॉक से नहीं निकल पा रही थी कि उसे इस नगर से दूर उस पिछड़े गांव में जाकर बसना है! उस गांव में जो किसी तरीके से उसके लायक नहीं। उसे अपने पिता पर गुस्सा आ रहा था । मायूस शाम्भवी पैर पटकती अपने कमरे में चली गयी। सावित्री बर्तन समेटने लगी।
राघव सोचने लगा जिनका गांव से जुड़ाव खत्म हो चुका है, जिनके पास शहर के किस्तों वाले मकान के सिवाय और कोई विकल्प नहीं वह ऐसी परिस्थिति में क्या करेंगे? उसकी आँखों के सामने ऑफिस वाले चाय पार्टनर का चेहरा घुमने लगा, जिसने परिवार सहित आत्महत्या कर ली थी। उसकी बेलौस हँसी राघव के कानों को उद्वेलित करने लगी। उसकी आँखों के आगे अंधेरा छाने लगा। "उफ़ ! हम सब ही तो मुखौटा लगाए घूमते हैं।" वह बड़बड़ा रहा था। न लगाएं तो छोटी-छोटी खुशियां भी छीन जाए। कितना जरूरी है यह मुखौटा। उसने अपनी हथेलियों से अपने चेहरे को ढँक लिया। उसे फिर एक मुखौटा पहनना था खुश रहने का।
लेखक परिचय - प्रियम्बरा
पत्रकारिता से जुड़ी हुई । दस सालों तक साहित्य-संस्कृति एवं हिंदी को समर्पित कार्यक्रम बनाया। इस दौरान साहित्यिक वृत्तचित्र के साथ सुप्रसिद्ध साहित्यकारों का साक्षात्कार एवं उनका जीवन वृत्त भी बनाया। देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं और ई पत्रिकाओं में अब तक दस से ज़्यादा कहानियाँ और तीन लघु कथाएं, हाइकु एवं कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं । विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सामयिक एवं साहित्यिक विषयों पर आधारित आलेख प्रकाशित होते रहे हैं। वर्ष 2018 में साहित्य के लिए काका कालेलकर प्रोत्साहन सम्मान से सम्मानित किया गया। वर्ष 2019 में कहानी संग्रह 'बारिश के अक्षर' प्रकाशित। शीर्षक कहानी ‘बारिश के अक्षर’ पर हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा नाटक प्रस्तुत किया गया। पत्रकारिता में अब तक बीस साल गुज़ार चुकी।
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