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डॉ लता अग्रवाल

कोरोना आतो रहिबे



गाँव के चुनिन्दा लड़कों में था राधे; जिन्होंने बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की थी इसलिए गाँव के सम्मानित युवाओं में उसका नाम भी बड़े सम्मान से लिया जाता था. अपने होनहार बेटे से राघव और बसंती की भी उम्मीदें बंधी थी.


“अ हओ ! जी अपनका राधे कउनु बड़ा काम करिल बा , एही गाँव में उसका बहुत बड़ा खेती बाड़ी होगा ....”


“तू सही कहती है राधे की माँ , बहुत दिमाग पाया है लरके ने, चलो उसकी बदौलत हमऊ का भी मान - सम्मान बढेगा गाँव में. मालिक करे तीन से तीस एकड़ का मालिक बने हमार राधे.”

मगर अप्सरा सी पत्नी मिलते ही राधे के सपनों के रंग कुछ अधिक गाढे होने लगे. उसकी कल्पना का फलक विस्तार पाने लगा ...इतना विस्तार कि उसे यह गाँव अब अपने लिए छोटा लगने लगा.


“बब्बा ! हम और तोहार बहू शहर जा कर रहना चाहन्वे हैं ....” एक दिन सहमते हुए राधे ने अपने बब्बा से कहा.

“आ हो ! ससुर के नाती, शहर जाएल बा ...अरे ! बुरबक ! एही खातिर हम तोहका पढ़ाये लिखाये ...यहाँ जो हम इतना बसेरा खड़ा किये हैं वो कौउन खातिर हाँ.... ! कौन कमी लगी है तुमको हाँ ...हम इस वजह से नाही पढ़ाये तुमको कि उठाये डेरा चल दें शहर ...बकलोली कर रए.” बब्बा ने पहली ही बार में राधे के प्रस्ताव को सिरे से ख़ारिज कर दिया.


“बब्बा ! ये 3 एकड़ खेत का तुमको बहुत बड़ी विरासत लग रए ....जानत हो दुनिया बहुत आगे निकर गई है. हम भी दुनिया के साथ चलना चाहते हैं बस कह दिया ...” अभी राधे की बात पूरी भी न हो पाई थी कि बब्बा ने तैश में आकर पाँव का एक जूता निकलकर राधे पर दे मारा.


“सारे ! बात बनाउत है. तोह्राखे ये 3 एकड़ जमीन कम लगयल बा , अरे अपने दम पे कच्छू करके बता तब मून्छन पर ताव देवो ...बात करता है.” कहते हुए बब्बा ताव में घर से बहर निकल गये. जवान खून था और भड़क गया. भौतिक चकाचौंध की गिरफ्त में जकड़ा था कहाँ किसी की सुनने वाला था.


“हम कहे दे रहे अम्मा ...हमने सोच लिया है हम शहर जायेंगे ...कुछ बड़ा करना चाहते हैं हम.” बेटे के दो टूक निर्णय के साथ परदे की ओट से झांकती बहु को देख बसंती ने समझ लिया जब बहू की रजामंदी है तो बेटे को कुछ कहना ठीक नहीं. उलटे उसने रात पति को ही समझाया ...,


“जाने दीजिये ...वो नहीं रुकेगा. आज कल की हवा ही ऐसी है...किसे दोष दिया जाय ....”


“बिटवा ! हम छट मैय्या से प्रार्थना करेंगे वो तोहार कमाई में खूब बरक्कत दे ....अभी ये हजार रुप्प्या हमारा आसीस समझ धर लेओ, बखत बे बखत काम आयेल बा.” माँ ने जाते हुए आशीष दिया.

धीरे-धीरे गाँव ही पीछे नहीं छूटा राधे ने उन स्मृतियों को भी पीछे छोड़ दिया जो उसके अब तक के जीवन से जुडी थी. शहर के तौर - तरीके में जीने का अभ्यास कर लिया था क्षमा और राधे. शुरू में कुछ दिक्कतें अवश्य लगी किन्तु गले तक शहर का मोह भरा हो, आँखों में तथाकथित सभ्यता का चश्मा चढ़ा हो तो ये दिक्कतें छोटी लगीं. एक कारखाने में सुपरवाईर का काम मिल गया , शहर में रहने को जमीन मिल जाए बहुत है, सो फिलहाल एक कमरा और रसोई ही राधे को ढाई हजार किराये पर मिली ,जिस पर शौचालय चार लोगों से साझा करना होता है. कहाँ आधे एकड़ के बाड़े में फैला घर जहाँ चाहो रहो ...कहाँ यह डेढ़ कमरे का घर ...मगर क्या हो जब विवेक पर फालिस मार जाए तो चाहकर भी कोई किसी को नहीं चला सकता.

पांच साल में राधे की तनख्वाह आठ हजार से बढ़कर साढ़े दस हजार हुई तो परिवार में दो ठो बच्चे भी आ गये खर्चा बांटने. मकान किराया मालिक ने अब चार हजार कर दिया. बब्बा की नाराजगी के रहते आफत –गुरबत में भी राधे ने कभी अपनी तंगहाली का जिक्र गाँव में नहीं किया ,यही दिखाया वह अपने फैसले पर बहुत खुश है. जबकि बच्चों की पढ़ाई उसके कंधों को हलाल कर रही थी. वह चाहकर भी अपने लिए कोई बड़ा मकान नहीं ले पाया ...मन में यह भरोसा लेकर चला था कि एक दिन कामयाब इन्सान बनेगा तब बब्बा और अम्मा को लाएगा , फिर तो बब्बा की नाराजगी दूर हो जायेगी. मगर ये आसान नहीं है यह बात मन ही मन समझ आ गई राधे को.

कितना बदलना पड़ा खुद को ,गाँव में शहंशाह बना फिरता था शहर में जी हुजूरी ने उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व को ही बदलकर रख दिया। राधे को याद है जब कारखाने में नया-नया नौकरी लगा था तब उसकी आवाज कितनी कड़क थी , मालिक से भी बात करता तो अपने उसी अंदाज से , जैसे गाँव में हाली पारख्या को आदेश देता था ...आखिर मालिक था उनका , तब मालिक ने डांटा था ,


“अबे ! तू नौकर है नौकर सा रह....तू तो मालिकों सी ठसक दिखा रहा है।“


“वो.. वो क्या है न मालिक, आदत थी गाँव में हाली, बरसोदया पर हुक्म चलने की.” झेंपता हुआ राधे बोला.


“अब तू शहर में है समझे और वह भी नौकर....आदत डाल ले जी हुजूरी की.”

और वाकई उसे आदत हो गई जी हुजूरी की. और इसी जी हुजूरी ने उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व को ही बदलकर रख दिया. शहर ने मालिकाना अंदाज छीन दासत्व का भाव भर दिया उसके भीतर. उसे इन पांच सालों में अच्छे से समझ आ गया था यह शहर है ...किसी से समझौता नहीं करता, अच्छे –अच्छों की रीढ़ तोड़ दी है इसने. मगर भीतर का पौरुष हार मानने को तैयार नहीं.


गांवों में रहकर वक्त का पता चलता था। आज गांव में घुड़ दौड़ है, कल कल्लू के घर ब्याह है, परसों फलां के यहां लरका- लरकी भएल बा.... मगर शहर में तो सुबह होती है उसके बाद सीधे रात होती है। सारा दिन कारखाने की खटरपटर में निकल जाता, धीरे-धीरे शाम से उसका ताल्लुक मिटता जा रहा था. समझ रहा था इन पांच सालों में राधे ने मानो 15 साल का सफर पूरा कर लिया जो उसके चेहरे पर दिखाई दे रहा था। गांव में तो माँ भूरी गैय्या का दूध तैयार रखती थी उसके वास्ते मगर शहर में बच्चों को दूध नसीब हो जाय वही बहुत है।

कारखाने से लौटकर राधे टेलीविजन पर ख़बरें देख–सुन रहा था. कोरोना नामक एक बीमारी के बारे में भी यहीं सुना, कैसे यह बीमारी तेजी से अपना संक्रमण फैला रही है. पहले जनता कर्फ्यू फिर अचानक इक्कीस मार्च से देश भर में लॉकडाउन हो गया. किन्तु यह सूचना थोड़ी राहत दे गई कि प्रधानमन्त्री के आदेश से मालिकों द्वारा किसी प्रकार तनख्वाह में कटौती नहीं होगी. मकान मालिक भी किरायेदारों से किराया नहीं मांगेंगे.


मगर यह लॉकडाउन था कि ससुर द्रोपदी का चीर ... ? बढ़ता ही जा रहा था। इस बार तो कारखाने के मालिक ने भी हाथ ऊंचे कर दिए,

“भई ! मेरे पास कोई गढ़ा खजाना तो है नहीं जो तुम्हें घर बैठे तनख्वाह दूंगा ...तुम सभी अपना ठिकाना देख लो ....” अभी तो उसका अपना संघर्ष ही चल रहा था, जैसे –तैसे बेमन से ही सही वह इस नौकरी से संतोष कर रहा था मगर ऐसी स्थिति आएगी इसकी तो कल्पना भी नहीं की थी उसने. जैसे तैसे क्षमा के बचाये पैसे से इन इक्कीस दिनों में घर खर्च चल रहा था. आशा की एक किरण बाकी थी कि इन पन्द्रह दिनों में अगर लॉकडाउन ख़त्म होता है तो फिर से काम शुरू हो जायेगा. राधे रोज टेलीविजन पर आँखें गढ़ाए बैठा रहता. मगर स्थिति बदतर होती चली गई.


“रानू के पापा ! अब तो हमाये पास के सबरे पैसे खर्च हो रए । बच्चन की फ़िक्र हो रई है.

मन बहुत बुझ गया था उसका खुद से सवाल कर रहा था ,


“क्या बुरा किया उसने जो अपनी काबिलियत के आधार पर कोई सपना आँखों में पाल लिया ,...अरे जी-जान से मेहनत की है ....मगर अफ़सोस जब से शहर आया है बस जिन्दगी ही जी ...कुछ पाया नहीं ...जो पाया वह भी अपने आत्म सम्मान , स्वाभिमान को खोकर ...धिक्कार है.”

उस दिन भी शाम को वाह टेलीविजन पर न्यूज ही देख रहा था कि अचानक क्षमा दोनों बच्चों का हाथ पकड़े रसोई से भागती हुई निकली. उसे देख ठिठककर रुक गई ,

“अरे इहाँ बैठे-बैठे कच्छू पता है भूकम्प आया है , निकरो बाहर .....” मगर वह न जाने किन ख्यालों में खोया था कि उसे क्षमा की आवाज भी सुनाई नहीं पड़ी. तब क्षमा ने उसे झंझोड़कर सचेत किया.

“कहाँ ध्यान है तुम्हारा ...भूकम्प आया है , घर हिल गया और तुमको पता ही नहीं चला ?”

“ क्षमा मैं तो पिछले कई दिनों से भूकम्प से हिला हुआ हूँ.”

“कई दिनों से ...? कहा मतरब है तुम्हारा ?”

“ क्षमा ! बच्चे जब –जब खाना माँगते हैं न तो मुझे भूकम्प सा झटका लगता.”

“अभी इ बखत ये सोचने का टेम नाही है , निकरो बाहर.” क्षमा ने उसका हाथ खींचकर उसे बाहर की ओर धकेला. ये किस मोड़ पर ले आई है जिन्दगी ...न खाने को अनाज है , न बच्चों को पीने के लिए दूध. गाँव में गाय का खूंटा बब्बा ने कभी टूटने न दिया इस उम्मीद से कि यह गाय मेरे बाल बच्चों को पालेगी. घर में धान की बंडी भरी रहती है और वह उन सबको ठुकरा कर आ गया ...किस लिए फकत शहर की चकाचौंध के मोह में ...परिणाम !!! शायद बब्बा की गाली लग गई उसे ..., अम्मा !! ने विरोध तो नहीं किया मगर उसकी आँखों की नमी देखी थी उसने जिसे जवानी के गरूर में वो अनदेखा कर गया. उधर टेलीवजन कोरोना के दिन दूनी गति से बढ़ रहे प्रभाव उसे डरा रहा था ,अभी लोकडाउन खुलने के कोई आसार नजर नहीं हैं. राधे एक लम्बी गहरी साँस भरकर क्षमा से बोला ,

“क्षमा अब न बनने की , हमें तो अब अपने गांव जाने हैं ।“ राधे लगभग निर्णय भरे स्वर में बोला.

“इ का कह रहे हैं आप ...!”

“सही कह रहे हैं हम , लगता है शहर ने हमें नहीं अपनाया ....”


“पर ..ऐसे.. कैसे ..!!!” क्षमा हैरान हो बोली.


“अब बस कुछ नहीं सोचना है हमें तो बस अपने गाँव जाना है।“


“मगर कुछ ह्माई भी तो सुनिए , न ट्रेन, न बस कैसे जायेंगे ?”

“हम पैदल निकल लेंगे , देखेंगे कभी कोई साधन तो मिलेगा .... तू बस अपनी गृहस्थी समेट ले.” राधे ने मानो अपना फैसला सुना दिया. एक कमरे की गृहस्थी एक पोटली में समेट, जितना भी राशन पानी, पैसा -धेला बचा संग ले राधे और क्षमा अपनी इस कर्मभूमि को नमन कर निकल पड़े गांव की ओर। जिन्दगी भी अजीब पहेली है , पहले तो मोह-माया के प्रपंच में फंसाकर खूब मकड़ जाल बुनवा देती है और फिर ऐसा जोर का झटका देती है कि इन्सान को तमाम माया मोह के बंधन छोड़कर खाली हाथ निकल जाना पड़ता है.

ऊपर सूर्य देव का प्रकोप, नीचे धरती मैय्या का कोप , छोटे-छोटे बच्चों का साथ जिन्दगी में ऐसे कठोर समय का भी सामना करना पड़ेगा सोचा नहीं था कभी. किसी ने सच कहा है बुरे वक्त में इन्सान को किसी पर मिथ्या दोष मढ़ने के बजाय सबसे पहले आत्म मूल्यांकन करना चाहिए. दुखों का कारण स्पष्ट हो जाता है. कोरोना भी खुद से चलकर नहीं आया हमारे गले लगने ...हमने ही तो प्रकृति की बार-बार उपेक्षा कर उसे आमन्त्रण दिया है ...फिर हा-हाकार कैसा ...?

दस दिन हो गये चलते - चलते ,

“मम्मी भूख लगी है.”

“क्षमा इन्हें खाना खिला दे , आखिर पेट है वह क्यों कर लोकडाउन होने से रहा.

“अब बस ये एक रोटी बची है जी.”

“खिला बच्चियों को ...ईश्वर बड़ा कृपालु है वह बच्चों को भूखा नहीं रहने देगा...करेगा कुछ व्यवस्था.” क्षमा ने पास रखी एक रोटी के दो टुकड़े कर पानी में भिगो बेटियों को खिलाने लगी. यह आज का अंतिम अनाज था उनके पास. रोटी को पानी में डुबोते हुए क्षमा का दिल भी पसीज गया. आखिर वह भी तो उतनी ही दोषी है राधे के फैसले में उसकी भी तो स्वीकृति थी. एक सम्मान जनक जीवन छोड़कर आज जिन्दगी की हकीकत से उसका सामना हुआ है. दोनों ने पानी पीकर अपनी भूख को विदा किया मगर कब तक आखिर शाम हुए तक क्षमा को भूख के मारे चक्कर आ गए। मरता क्या न करता। शाम को हाइवे पर अन्नदाताओं द्वारा भोजन की व्यवस्था दिखी.

खुद्दार राधे आज भिखारी की तरह खाना लेने लाइन में लगा है. मन खिन्न हो रहा था. अपनी जड़ से जुदा होकर कोई पेड़ फलित हुआ है कभी ...? कहीं भूले भटके कोई साधन मिल गया , तो अधिकतर पैदल चलकर अठारह दिन का महाभारत समाप्त हुआ. वह जैसे-जैसे अपने गाँव के करीब पहुँचता जाता , उसके क़दमों को उर्जा मिल रही थी , वो सारे नज़ारे जिन्हें उसने भुला दिया था ...रोज सामना होता था, आज वे सभी उसे अपने लग रहे थे , हवा पहचानी सी , दरख्त बतियाते से लग रहे थे. गांव की सरहद आते ही सबसे पहले उसने गांव की मिट्टी को झुककर नमन किया। मानो माफ़ी मांग रहा हो , उसे त्यागने का गुनाह जो किया था कभी ,


“माँ सुबह का भुला यदि शाम को घर लौट आये तो उसे माफ कर देना। तेरी गोद में इतना स्नेह मिला फिर भी तेरा मर्म न जान सका। अब तो तेरा यह बेटा शहर के थपेड़े खा चुका है। अब तुझे छोड़कर कभी नहीं जाऊंगा। यहीं रहकर अपनी जननी और जन्म भूमि की छत्र छाया में अपना जीवन गुजार दूँगा.


घर पहुँचते ही अम्मा और बब्बा मानो आँखें बिछाए बैठे थे. सोशल डिस्टेंसिंग के बाद भी अम्मा ने लपककर चारों को गले लगा लिया. हमार बचुआ आ गएल बा ...हमार बहुरिया , नौनी बिटिया ...हमार घर फिर आबाद हुइ गएल बा.” कहते-कहते अम्मा की आँखें बरस पड़ी. आज सारा विश्व कोरोना को कोस रहा था मगर बसंती की आँखों में उसके प्रति कृतज्ञता दिखाई दे रही थी.



 



डॉ.लता अग्रवाल ‘तुलजा’ , 30, अप्सरा कोम्प्लेक्स , इन्द्रपुरी, भेल क्षेत्र भोपाल , 462021

मो. ९९२६४८१८७८


परिचय

नाम- डॉ लता अग्रवाल ‘तुलजा’ (वरिष्ठ साहित्यकार एवं शिक्षाविद)

शिक्षा - एम ए अर्थशास्त्र., एम ए हिन्दी, एम एड., पी एच डी हिन्दी.

जन्म – शोलापुर महाराष्ट्र

अनुभव- महाविद्यालय में प्राचार्य ।

आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर सक्रियता, राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका में रचनाएँ प्रकाशित.

मो – 9926481878




निवास - डॉ. लता अग्रवाल ‘तुलजा’, 30 सीनियर एम् आई जी , अप्सरा कोम्प्लेक्स A सेक्टर, इंद्रपुरी भेल क्षेत्र भोपाल -462022


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