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प्रभाकर गोस्वामी

पासवर्ड


तिथियों के बदलने के साथ ही कृष्णपक्ष की हर रात कुछ अधिक काली और डरावनी सी बनती जा रही थी । आकाश में चंद्रमा हर दिन छोटा होता जा रहा था । अच्छी बात ये थी कि अब भी कुछ तारे अधिक चमक ले कर अपनी पहचान का बोध करा रहे थे । इन्हें लॉक-डाउन में ट्रेफ़िक के प्रदूषण और शहर में निकलते चिमनियों के धुएँ की ललकार अब नहीं थी । अंधेरा शुरू होने के बाद भी कुछ पक्षी बेझिझक अपनी मंज़िल तक पहुँचने मे शायद डर महसूस नहीं कर रहे थे । बेमौसम बरसात के बाद लाइट से आकर्षित कुछ पंखी कीड़े अब भी भुनभुनाते नज़र आ रहे थे और एक छिपकली उन पर घात लगाये बैठी कोई मौक़ा नहीं छोड़ना चाह रही थी ।

प्रोफ़ेसर कुलश्रेष्ठ इन दिनों पूरे दिन भर व्यस्त और थके हो कर भी शाम अपनी लॉन पर ही गुज़ारते हैं । दिन भर उनका व्यस्त प्रोग्राम पत्नी की रसोई मे मदद करने और घर की साफ़ सफ़ाई मे बीत जाता है । पहले वे रोज़ लॉन पर एक घंटे की वाक हेडफ़ोन पर पसंद की सामग्री सुन कर या अपने प्रिय मित्रों के साथ फ़ोन पर बात कर गुज़ारते हैं । इन फ़ोन वार्ताओं में कोरोना के क़हर, आज के नए कर्फ़्यू केंद्र, पोज़िटिव की संख्या, मृत्यु के आँकड़े और टीके पर नयी शोध, आध्यात्मिक सामग्री आदि पर सूचनाओं का आदान प्रदान हो जाता था । उसके बाद कहने को शांति के साथ पर हक़ीक़त में एक अदृश्य भय और जीवन के अस्तित्व विश्लेषण मे ही वे व्यतीत करते हैं । आज भी इसी बेचैनी जड़ी शाम में कोई सुकून का रास्ता तलाशने का काम कर रहे थे पर सभी रास्ते अंतत: कोरोना के तांडव के आसपास ही उनके मूक दर्शक बन कर तक सिमट रहे थे ।

वे सोच भी नहीं सकते थे कि बदला हुआ संसार परिदृश्य इतना बीभत्स और डरावना हो जाएगा । बेटा विदेश में ही किसी ‘गोरी मैम’ के साथ शादी कर वहीं रच बस गया था । बेटी को पढ़ा लिखा कर ब्याह दिया था । दोनों अपने अपने अपने में ख़ुश थे । रोज़ बेटी और नातिन से फोन पर एक बार बात हो जाती थी । रिटायरमेंट के बाद वे ख़ुद भी रिलेक्स रहकर योग, दोस्तों से मेल मिलाप, और अपने पुस्तक-लेखन का कार्य करके आनंद अनुभव कर रहे थे । पत्नी अभी भी सक्रिय है । उसके रोज़ हॉस्पिटल जाने के बाद सर्वेंट के साथ रहने और काम करने में उन्हें खीज सी होती थी। इसका समाधान दोनों ने मिल कर निकाल लिया था कि जोशी जी के कोचिंग सेंटर में जा कर दो घंटे समाज-सेवा करेंगे । इस जुड़ाव के बाद उनको एक नयी ताजगी, ऊर्जा और आनंद अनुभव होता था । लेकिन कोविड-19 के बाद तो न सर्वेंट हैं और न ही वे सेंटर ही जा पा रहे हैं...लॉक-डाउन के नागपाश में जकड़े घर में ही जैसे किसी गरुड़ का इंतज़ार कर रहे थे । इस साँप की जकड़ और उसका कष्ट तब अधिक हो जाता है जब ये विचारते हैं कि कोरोना जैसा एकाकीपन का एक और कोरोना कीट न जाने कब से उनके दिमाग़ पर कुंडली मार कर बैठा हुआ है । वे अक्सर सोचा करते हैं उनमें से कोई एक भी इस भँवर में फँस गया तो उनकी नैया कैसे सम्भलेगी? वे इस एकाकीपन के चक्रव्यूह में फँस कर हर बार अपनी हालत अभिमन्यु जैसी ही पाते थे । कई बार चर्चा-चक्र में पत्नी चंचला ख़ुद भी इसका कोई समाधान प्रस्तुत नहीं कर सकी थी ।

बिजली के बल्ब के नीचे उस शैतान छिपकली को आख़िर एक शिकार हाथ लग ही गया है... एक कीड़ा उसके मुंह में आधा दबा फड़फड़ा रहा था । अंदर से आती आवाज़ ’ज़रा सुनिए तो ’ का अनुगमन कर वे रसोईघर में पहुँचते हैं ।

चंचला अंतिम चपाती तवे से उतार रही थी जोकि अपेक्षाकृत मोटी, पर ख़स्ता थी । शायद वह चपाती उनकी थकान और सीमा का अनुभव करा रही थी । देखते ही वह बोलीं- मैं अभी आयी । आप ज़रा खाना लगा लो । वे नहीं बोलतीं तब भी उनको तो यही करना था- एक मौन अंडरस्टैंडिंग जो बनी हुई थी । रसोई से जुड़े भोजनकक्ष की टेबल पर कुलश्रेष्ठ जी ने आधी अधूरी क्रॉकरी के साथ पूरा खाना सज़ा दिया था... टीवी पर कोरोना समाचार आग के गोले की तरह बरस रहे थे जैसे युद्ध के समय देखे जाते थे । वे समाचार चैनल बदल कर शतुर्मुर्ग की तरह रेगिस्तान में अपनी गर्दन छुपाने की चेष्टा करते हैं ।

चंचला आयी तो सीधा एक ही सवाल दागा- न्यूज़ क्यों हटा दी?

- बस वैसे ही । वे अनमने से बोले ।

-अरे यार ! हमारे हॉस्पिटल के कुछ स्टाफ़ भी पोज़िटिव आए हैं । नीना का फ़ोन आया था । कोई न्यूज़ थी क्या ? वे खाना सर्व करते करते बोलीं ।

- नहीं । । वैसे कोई भी पॉज़िटिव आ सकता है । वे आज कुछ निराश और हारे से नज़र आ रहे थे । उनके कान के ऊपर एक गहरी सफ़ेद लम्बी लट उनको अधिक चिंतित और गम्भीर दिखा रही थी । वे बोले- लाइफ़ इज अनसरटेन!

- वो तो हमेशा से ही रही है । इसमें नया क्या है ? डॉक्टर चंचला बोलीं ।

- फ़र्क़ है । तुमने डॉक्टर तरुण के पिता जी के बारे में सुना ? पॉज़िटिव आए हैं । कोविड सेंटर ले गए हैं सीधे । पुलिस ने उनकी कॉलोनी में कर्फ़्यू लगा दिया है । उसके परिवार और सभी किराएदार बीस लोगों को क्वॉरंटीन के लिए बस में बैठा कर किसी और हॉस्पिटल ले गए हैं । वे खाने के अंतिम कोर को मुश्किल से नीचे उतारते हुए बोल रहे थे ।

फिर चंचला की ओर मुख़ातिब हो कर एक लम्बी साँस छोड़ते हुए बोले- सब घर पर ही धरा रह गया- प्रेक्टिस और पैसा । अभी तो आपस में बोलने और हालचाल जानने का ज़रिया भी उनके पास नहीं है । इसलिए पिटी... । वे तो फिर भी भरे पूरे परिवार के हैं । हमारी सोचो ! मात्र दो निरीह प्राणी ।

शायद चंचला उनको अधिक भावुक नहीं बनाना चाहती थी इसलिए हाथ धोते हुए बोली टीवी पर महाभारत का समय हो गया है । मैं तो चली । तब तक आप अपने बुक राइटिंग प्रोजेक्ट को आगे बढ़ा लो !

स्टडी रूम में जा कर प्रोफ़ेसर कुलश्रेष्ठ ने ब्रीफ़केस खोला । पैन लेने के लिए दराज़ खोली तो देखा पाँच सौ वाले नोट की वह गड्डी लगभग यथावत् बनी हुई लॉक-डाउन का एहसास करा रही है । मुश्किल से दो चार ही नोट निकल पाए होंगे । वे सोच रहे थे हमारी ज़रूरतें कितनी छोटी हैं । सारा खेल दिखावे का है । दो कुर्ते पायजामे के सैट से साठ दिन निकल गए वरना अब तक तो धोबी कितनी गाँठें ले जाता और कितनी ही छोड़ जाता ।

ब्रीफ़केस से अपने और चंचला के बैंक खातों की पासबुक, चैकबुक, एफ डी, और पता नहीं सब का ‘एट ए ग्लान्स स्टेट्मेंट’, अपनी विल, और बहुत सारे दस्तावेज़ों पर एक बार निगाह डाल कर वे बैडरूम में आ गए । ब्रीफ़केस को पलंग के नीचे सरका के पलंग पर लेटे हुए विचार करने लगे थे । वे पूरा हिसाब किताब फलाते हुए सोच रहे थे कि चंचला तो बेवक़ूफ़ ही रही । कभी किसी हिसाब-किताब को समझने का उसका मन कभी नहीं हुआ । कभी कहा- इस चैक पर दस्तखत कर दो या यह एफ डी बढ़ानी हो तो बस दस्तखत कर दिए । बस इतना ही । वैसे उनके द्वारा भी उसे इस से ज़्यादा स्पेस कब दी गयी थी । उनके मन में यह हीनता उन्हें कचोटती उस से पहले ही यह तर्क मिल गया- भाई सा’ब भाभीजी और कई कुलीग्स की भी यही तो प्रैक्टिस है। पर अब उनको लग रहा था एक पारदर्शी पुस्तक की तरह उसे यह सब दिखाना ही ठीक रहेगा । कल को मुझे कुछ हो गया तो ? यह सब वह कैसे जानेगी ! अकेली इस लड़ाई को कैसे लड़ेगी । तब कोई उसे चिमटी से भी नहीं छूना चाहेगा !

चंचला टीवी देख कर उनके समानांतर ही पलंग पर आ कर लेट गयी थी । बच्ची के साथ फ़ोन सम्बंधी नियमित वार्ता और बेटे की तटस्थता का विश्लेषण किया फिर दोनों के बीच चुप्पी छा गयी । प्रोफ़ेसर कुलश्रेष्ठ तय नहीं कर पा रहे थे, कैसे शुरुआत करें ।

-सुनो! वे धीरे से उस मद्धिम रोशनी का लाभ उठाते हुए बोले । उनका उसकी ओर बढ़ा हाथ फिर से लौट गया ।

- हूँsss । वह जवाब में इतना ही बोली । फिर चुप्पी हो गयी । बाहर से झींगुरों की आवाज़ उनकी चुप्पी तोड़ रही थी ।

प्रोफ़ेसर साहब कुछ समझ नहीं पा रहे थे कि कैसे अपनी चिंता और भय को अभिव्यक्त करें ताकि बरसों से चल रहा उनका दबदबा भी क़ायम रह सके ।

-सुनो ! उनके द्वारा उठा एक हाथ इस बार उसके कंधे पर जा टिका था ।

चंचला ने हाथ को कंधे पर से धीरे से सरकाते हुए कहा-

-हाँ ।

- कुछ कहना चाह ...

वाक्य पूरा होने से पहले ही वह बोली- इस उम्र में अब क्या कहना बाक़ी रह गया है । चंचला के प्रश्न में एक अजीब अन्दाज़ था जिसे प्रोफ़ेसर साहब ख़ूब समझते थे ।

बोले- नहीं ऐसा कुछ नहीं । वो क्या है मैं कुछ सीरियस बात करना चाह रहा था । उन्होंने कमरे की लाइट बढ़ा दी थी । ताकि पत्नी के चेहरे के बदलते भावों को पढ़ा जा सके ।

फिर बोले- यू नो कोरोना काफ़ी फैल रहा है । लैट अस बी प्रिपेर्ड फ़ॉर इट ।

- क्या आप डर रहे हैं ?

-नहीं मैं ऐक्चूली रेशनल हो रहा हूँ । उन्होंने रेशनलिटी का आवरण पहना तो था पर वे ख़ुद भी इस में अपने को फ़िट नहीं पा रहे थे इसलिए कुछ हड़बड़ा से गए थे ।

-फिर भी कुछ सच्चाई को तो पहचान ही लेना चाहिए ।

-देखो ! डोंट माइंड । कल को तुमको या मुझको कुछ हो गया तो कुछ बातें आपस में पता रहना ज़रूरी है । और मैं आज ...

प्रोफ़ेसर साब की बात पूरी होने से पहले ही वह बोल गयी-

-अगर कुछ हुआ तो मुझे ही होगा आप चिंता नहीं करें और मुझे आपको कुछ कहना और बताना बाक़ी नहीं है । ...

तब प्रोफ़ेसर साहब चंचला के मत को बिना समझे पलंग के नीचे झुके और ब्रीफ़केस खोल कर एक एक दस्तावेज़ खोल कर बताने लगे । एक क़ागज़ पर लिखा ‘ऐट ग्लान्स स्टेट्मेंट’ भी उसके हाथ में रख दिया जिसे वे इन दिनों चुपचाप तब बनाया करते थे जब चंचला घर से बाहर हॉस्पिटल ड्यूटी पर गयी होती थी । चंचला समझ नहीं पा रही थी कि इन सारी बातों को वह कैसे रिएक्ट करे । वह चुपचाप एक अप्रत्याशित परिस्थिति का सामना करने के लिए धकेल दी गयी थी ।

वे बोले- तुम सुन लो इस बैंक एकाउंट का पासवर्ड तुम्हारी हमारी शादी की तारीख़ है और दूसरी का पिंकी की शादी वाली तारीख । वैसे इस स्टेट्मेंट में सब लिखा हुआ है । विल मैंने लिखी है तुम को चेंज करने का अधिकार है । एक कॉपी प्रोफ़ेसर वर्मा के पास भी है इसकी । वे विट्नेस भी हैं इस में । वर्मा जी उनके ख़ास मित्र हैं और अच्छे सलाहकार और शुभचिंतक भी यह चंचला न केवल जानती थी बल्कि ख़ुद भी इस रिश्ते की पौध को मौक़ा मिलने पर सींचती रहती थी ।

अचानक उनके चेहरे से रेशनल पैरडायम और लॉजिकल प्रोपोज़िशंज़ की चमक पूरी तरह से लुप्त हो गयी और वे एक शस्त्रविहीन सैनिक की तरह बोले- मुझे कुछ हो जाए तो वर्मा जी को ही सबसे पहले फ़ोन करना । एक क़ागज़ दे कर धीरे से बोले- ये कुछ नाम और फ़ोन नम्बर लिखे हैं, इन को बताना भर काफ़ी होगा । इस लॉक-डाउन में कोई बेटा-बेटी नहीं आ पाएगा । बेटा तो लॉक-डाउन न हो तो भी में भी नहीं आ पाएगा । एक पराजित टीस के साथ वे यह सब कहे जा रहे थे । चंचला बिना क़ागज़ को पढ़े उन्हें पकड़ती जा रही थी ।

- आप पूरे बुद्धू हैं । प्रोफ़ेसर सा’ब । चलिए अब सो जाइए । सुबह मुझे भी हॉस्पिटल जाना होगा । कहते हुए एक गहरी उदासी पर छोटी मुस्कान का पैबंद लगा कर उसने कमरे में उन्हें छोड़ दिया था ।

हर दिन की तरह आज भी सुबह वैसी ही हुई । पक्षियों की चहचाहट और पड़ौसी की रसोई से अदरक कूटने की आवाज़ के साथ । चंचला तैयार होते हुए प्रोफ़ेसर सा’ब के हालात को परखने के अन्दाज़ से ड्रेसिंगरूम से बोली- सुनो ! आप मुझे छोड़ेंगे या मैं ख़ुद ड्राइव करूँ ।

उधर से आवाज़ आयी- हम साथ ही चलेंगे । एक अलग आत्मविश्वास और आवाज़ में दमक देख कर चंचला बाहर आयी तो देखा प्रोफ़ेसर सा’ब अपनी टाई की गाँठ को सहेज रहे थे । बोले- जोशी जी का फ़ोन था । अब सेंटर भी खुलेगा । आज एक स्मॉल ग्रूप में स्ट्रैटेजी डिस्कस होगी इसलिए मुझे भी पहुँचना है । फिर बारह बजे बोर्ड ऑफ़ स्टडीज़ की ज़ूम मीटिंग है तो सोचा टाई भी लगा ही लूँ ।

उनकी गाड़ी मास्क पहने कई चेहरों के सवार वाहनों को चीरती हुई जूना अस्पताल की ओर दौड़ रही थी तभी चंचला चुटकी काटते हुए बोली

- सुनो ! अपने उस बैंक एकाउंट का पासवर्ड ये ही है न ?

प्रोफ़ेसर ने एक ठहाका लगाया तो चंचला ने भी साथ दिया । गाड़ी लगातार आगे बढ़ ही नहीं, रफ़्तार भी पकड़ रही थी ।


 

लेखक परिचय


प्रभाकर गोस्वामी

जन्म - जयपुर, २८ मार्च, १९५५

शिक्षा - बी ए आनर्स अर्थशास्त्र

एम ए समाजशास्त्र - स्वर्णपदक विजेता

एम फ़िल. समाजशास्त्र

राजस्थान में पंचायती राज व्यवस्था - एक समाजशास्त्रीय मूल्यांकन ( स्वतंत्र शोध कार्य )

सभी उपाधियाँ राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर से।

राजस्थान के कॉलेज शिक्षा निदेशालय के अधीन विभिन्न राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालयों में समाजशास्त्र का अध्यापन कार्य किया।

राज्य के प्रौढ़ एवं सतत शिक्षा विभाग में सात वर्ष तक राज्य में चल रहे सम्पूर्ण साक्षरता अभियान के प्रभारी उप निदेशक पद पर कार्य किया।

जन संचार और पत्रकारिता के क्षेत्र में अनुभव के तौर पर निदेशक, पत्रिका शोध प्रतिष्ठान और पत्रिका टीवी में कार्य किया और अनेक विषयों पर शोध शृंखलाएँ प्रकाशित हुईं।

लेखन की प्रेरणा और वातावरण स्कूल के समय में ही मिल गए तो कहानी, कविताएँ, वार्ताएँ और लेख आदि प्रकाशित और प्रसारित होना १९७२ से शुरू हो गए।

"सारिका" के विश्व की चुनी हुयी लघु कथा विशेषांक में पहली लघु कथा - श्वेत क्रांति

१९७२ में छपी।

इसके अलावा धर्मयुग, नंदन, पत्रिका, जनयुग, राष्ट्रदूत और दैनिक नवज्योति में भी अनेक रचनाएँ प्रकाशित हुईं।

आकाशवाणी जयपुर से निरंतर वार्ताएँ और कहानियाँ प्रसारित हुईं।

दूरदर्शन उपग्रह केंद्र दिल्ली एवं दूरदर्शन केंद्र जयपुर से लगभग एक सौ लाइव और रिकॉर्डेड कार्यक्रम प्रस्तुत किए और विशेषज्ञ वार्ताएँ प्रसारित की गयीं।

राज्य में साक्षरता की पत्रिका – "आखर जोत" का सात वर्ष तक सम्पादन कार्य किया।

यूनिसेफ़ और आई इंडिया नेटवर्क की ओर से पाँच वर्ष तक "टाबर" पत्रिका का सम्पादन किया।

गत बीस वर्ष से बाल संरक्षण और अधिकार के लिए कार्यरत हैं। बाल हितों के लिए "आई इंडिया" संस्था की स्थापना कर वर्तमान में बेसहारा और बी पी एल बच्चों को आश्रय, संरक्षण, शिक्षा और भविष्य प्रदान करने के लिए कार्यरत हैं।


सम्प्रति - संस्थापक एवं निदेशक , आई इंडिया , जयपुर।

सम्पर्क - रत्न गंगा

२३ महात्मा गांधी नगर,

डीसीएम, अजमेर रोड,

जयपुर -३०२०२१

फ़ोन - 0141-2353317

मोबाइल -9414048817

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