रास्ता ... बस, कार, ट्रेन, प्लेन ... और भी तरीकें हो सकते हैं यात्रा के। प्रेम, संगीत, और हाँ संगीत में भी ग़ज़ल, वो भी नुसरत फतेह अली खान की क्योंकि उनके गले से सच में इत्र बरसता है। और इन सबसे बढ़कर सहयात्रियों का एक सा मिज़ाज और अनूठे दृश्य यह सब मिल जाये तो आँखों के कैमरे का शटर ऑन हो जाता है। फिर क्या? बस क्लिक-क्लिक-क्लिक। दृश्यों की बारिश आँखों के कांच पर कितनी ही आकृतियाँ बना डालती है। अहा!
वह दस दिन की रोज़ाना की यात्रा। एक सेमिनार। और लाल धारियों वाली पीली बस।
जगह? जगह को छोड़िए भी। क्या फ़र्क़ पड़ता है मेरठ हो, गाज़ियाबाद, दिल्ली या फिर मुंबई। यात्रा तो यात्रा है। बस। पर यहाँ कुछ ख़ास था। हाँ, कुछ-कुछ कॉकटेल सा, मॉकटेल भी कह सकते हैं इसे। तो रहेंगे आप इनमें से कुछ ख़ास यात्रियों के साथ। बस, आपका किसी नदी के घाट की सबसे निचली सीढ़ी पर पानी में भीगे पैरों जितना समय, बस। तो आइए मिलाती हूँ आपको ...
यात्री नं.एक - उसकी आँखें शबनमी थीं, होंठ थोड़े मोटे, बाल निहायत ही मुलायम, काजल की एक गाढ़ी रेखा उसकी आँखों में ठहरे पानी से फैल गई थी, ठीक चौड़े पाट वाली नदी की तरह। वह न जाने कितनी ही बार डूबा था उसमें। उसे उस नदी से बाहर निकलने की कोई ज़िद नहीं थी। वैसे भी वह अब हर ज़िद से मचलना छोड़ चुका था। लाल धारियों वाली पीली बस में बैठी हुई वह रोते हुए भी हँस रही थी। सर्द दिनों के गुनगुने आँसू गालों पर चलते-चलते ठिठक गये थे। ये दस दिन ... हाँ ये दस दिन। हमेशा के लिए उसके ज़ेहन से जैसे चिपक गए थे।
वह सब समझ रहा था - उसके आँसुओं की परिभाषा को, पिछले दस दिनों को और अपने बीस वर्षों के विवाहित जीवन को भी। अभी वह बारहवीं कक्षा में पढ़ रही अपनी बेटी की छोटी-छोटी परेशानियों को एक जिम्मेदार पिता की तरह बाँटकर ख़ुद पर ही थोड़ी देर के लिए मुग्ध सा हो गया था।
उचित और अनुचित की दुनिया से वह स्वयं को बहुत पहले ही मुक्त कर चुका था। बस जानता था कि एक दरिया है जो उसे अपने साथ बहाये लिए जा रहा है। कहाँ और किधर? वह ये समझना नहीं चाहता था। कोई समझाये तो भी नहीं।
बस में उसके डमरू जैसे स्पीकर से तेज़ आवाज़ में नुसरत अली खान के गले से इत्र बरस रहा था। चल मेरे दिल सजा है मयखाना …
लाल धारियों वाली पीली बस के सभी यात्री कृपया ध्यान दें! काले चश्मे के पीछे छिपी आँखों की सीलन को चाहें तो अपनी आँखों की नरमाई से पकड़ लें या फिर शर्मो-हया की लानत सलामत से नवाज़ दें। दो भटकते हुए इंसान कभी-कभी किसी-किसी छोर पर मिल जाते हैं हाथ बढ़ाकर वह बस एक दूसरे को छूते भर हैं कि सफर ख़त्म हो जाता है पीली बस से उतरना ही होगा अब।
फ़स्ले गुल है …
हथेली की रेखाओं में कैद अपने-अपने नीड़ में लौटना ही होगा। गहरी लाल लिपस्टिक से लकदक होंठ चाहकर भी मुस्कुरा नहीं पा रहे हैं। वह बस में बैठे रहना चाहती है हमेशा के लिए और वह खिड़की से सटा उसे देखते रहना। पर अब उतरना होगा। हाँ! ज़िंदगी का मयखाना यही है। नुसरत अली खान के किसी समंदर की पछाड़ की तरह उठते स्वर को वह बंद कर देता है। एक हवा उसके भीतर की खाली जगह को सहला रही है। वह रोना नहीं चाहता, पर न जाने क्यों रोता जा रहा है।
यात्री नं. दो- बिल्लौरी आँखें पीली बस की खिड़की से उचकी और नंगे पांव सड़क पर उतर गई। सड़क पर कोहरा पेट के बल लेटा हुआ है। बिल्लौरी आँखें आहिस्ता से कोहरे की पीठ पर अपना माथा सटाकर जैसे प्रार्थना में सिक्त मंत्र को बुदबुदाने लगी थी।
दिसंबर का सबसे ठंडा दिन, सिर पर हल्के भूरे रंग का शॉल, ठंड लगती है भई उसे। पतले फ्रेम का चश्मा उसकी बिल्लौरी आँखों से गुप्तगू करता हुआ।
'हमारे यहाँ ऐसा नहीं होता, सबको साथ लेकर चलना होता है'।
हमारे यहाँ ऐसा नहीं होता - इस बात की प्रतिध्वनि बस की दीवारों में फँस गई है।
'ऐ औरत, ध्यान से सुन! हमारे यहां ऐसा नहीं होता, फिर कैसा होता है? हमारे यहां औरत के कान होते हैं, जीभ नहीं होती, ना खाने में स्वाद ढूंढने के लिए और ना बोलने के लिए। सुनो, बस सुनो! फिर उस पर अमल करो। हमारे यहां औरत की गलतियाँ बर्दाश्त नहीं की जाती।’ वैसे औरत को गलतियाँ क्यों करनी चाहिए? सोचते-सोचते उसका सिर पीली बस की खिड़की से जा टकराया। वह चौकन्नी गिलहरी की तरह जाग गई। एकबारगी उसे लगा जैसे वह घर में है। सामने उसके पति और सास बैठे हैं।
पीली बस के यात्री नुसरत अली खान की ग़ज़ल पर झूम रहे थे …
फ़स्ले गुल है सजा है मयखाना चल मेरे दिल खुला है मयखाना…..
बस के पुरुष यात्री इसे पीली बस की संध्या आरती कहते हैं।
यह नौकरी ना होती तो थोड़ी बहुत जो खुलकर साँस ले पा रही है वह भी नहीं ले पाती। सास की सेवा तन मन धन से, पति की सेवा तन मन धन से, फिर बच्चों की सेवा तन मन धन से ... और गाँव से कोई मेहमान आ जाये तो उसकी भी सेवा तन मन धन से। पिछले पन्द्रह वर्षों से यही क्रम। वह विरोध नहीं जता पाती, किसी से भी नहीं। जब दुखी होती है तो एकदम शांत हो जाती है ठीक एक ठंडी शिला की तरह। उसकी पगार पर भी उसका हक़ कम पूरे ससुराल भर का ज्यादा है। बस नौकरी में उसका हिस्सा दिन के सात घंटे की खुली और बेझिझक साँसे हैं। एक बंदी के लिए सात घंटे की आज़ादी पर्याप्त हैं। अब बेटी बड़ी हो रही है कभी-कभी उसकी बिल्लौरी आंखों के सपनों का व्याकरण समझ लेती है। एक दिन उसने इन सपनों में उपसर्ग प्रत्यय लगाकर थोड़ी कच्ची, थोड़ी पक्की कविता लिख डाली।
द्वार पर सांकल से टँगे हैं सपने
सपनीली आँखें भोर के उजास में
खटखटाती हैं हर उस घर का द्वार
जहाँ सपनों को फाड़कर
गलियों में बिखेरा नहीं जाता।
यात्री नं. तीन- जब वह बोलना शुरू करती तो पुराने कुकर की सीटी की तरह बजती रहती। मन करता कि उसके होठों पर अपनी हथेली कस कर दबा दूँ। एक इंसिडेंट बताते-बताते वह ना जाने इसी तरह कितने ही इंसीडेंट बता देती। उस दिन मैंने उसके अंतस की तिजोरी पर जैसे ही एन्टर मारा वह खुलती गयी।
'हाँ यार दूसरी शादी है मेरी।'
'और पहली शादी?' मैं उत्सुकता की दीवार पर पीठ सटाकर बैठ गयी।
'पहली शादी ...’ वह जैसे किसी घुप्प अँधेरे में कुछ टटोलने लगी थी।
'बहुत मारता था वह मुझे। रात भर ब्लू फिल्म देखता और शराब पीता रहता। मैं जैसे थी ही नहीं कहीं, कुछ बोलती तो वह पगलाए कुत्ते की तरह मुझ पर झपट पड़ता। मेरा शरीर किरचियों की तरह बिखर जाता। एक दिन वह हमेशा की तरह शराब पीते हुए ब्लू फिल्म देख रहा था। वह जैसे देखता वैसे करता भी। उस दिन मेरे भीतर न जाने कहाँ से ताकत भर आयी थी। मैंने कस कर उसकी जांघों के बीच में लात मारी, वह लड़खड़ाकर पलंग के नीचे जा गिरा। मैं उसे वहीं छोड़ तेज़ी से दरवाजा खोल कर बाहर आ गई और पूरी ताकत लगाकर चीखने लगी। घर के सभी लोग इकट्ठा हो गए। मेरी सास ने मेरे पास आकर धीरे से कहा,
'क्यों शोर मचा रही अंदर चल।'
पर मैं चीखती रही मेरे पेट में जैसे कोई बूढ़ी नदी हरहरा रही थी जिसने बहुत समय से अपने वेग को रोका हुआ था पर आज वह अपने सारे बंध खोल देना चाहती थी। मेरे कंठ से सैकड़ों शिशु के रोने की आवाज़ें आ रही थी। सब समझ गये थे अब बाँध टूट गया है। अगले दिन मेरी मम्मी पापा मुझे ले गये वहाँ से। फिर वही कोर्ट कचहरी।
मैं मुक्त थी, पर मन बीमार। मन की हर भित्ति को उदासी ने अपनी उंगलियों से खुरच दिया था। इलाज चला बहुत लंबा। भय मेरी पीठ पर ऐसी लटका कि तेरह साल तक में उन्हीं भयावह स्मृतियों की कटीली झाड़ियों में उलझी रही। मम्मी-पापा की गिरती सेहत, मम्मी का मुझे यूँ छिपती-छिपाती भीगी निगाहों से देखना, पापा की तनी हुई कमर में अचानक एक अर्द्धविराम का आ जाना, ये सब देख मैं शादी के लिए तैयार हो गयी।
‘अब सब ठीक है?’
मैं उसके चेहरे पर अधूरे सपनों को लट्टू की तरह घूमते हुए देख रही थी।
'मेरी बेटी है ना तीन साल की बस अब मेरे लिए।'
'और पति!'
'दूर रहते हैं। बस बेटी मिल गई मुझे लगता है सब कुछ मिल गया।'
वह बहुत कुछ मेरी निगाहों से बचाते हुए अपनी गर्दन घड़ी की सुई की तरह हिला रही थी।
एक सामान्य जीवन किस कदर असामान्य हो जाता है। उसका पल-पल बदलता व्यवहार, खुद पर कभी भी नियंत्रण खो देना, कांच की तरह पारदर्शी उसका अंतस सब कुछ जता देना चाहता है। मैं उसके किसी छोटी बच्ची की तरह फूले गाल और उछलकर चलने के अंदाज में उसके बीते बरसों की आवाजाही को देख रही हूँ। पीली बस की खिड़की पर उसका सिर टिका है। नींद के वक्षःस्थल पर उसकी गहरी साँसें ओस की बूंदों की तरह गिर रही हैं।
फस्ले गुल है खुला है मयखाना
चल मेरे दिल….
नुसरत अली खान की खनकती बुलंद आवाज़ पीली बस के जेहन में किसी पुरानी शराब की तरह घुल रही है।
यात्री नं. चार- उसने अपनी पतली कमर को बस की सबसे पिछली सीट पर लगभग चिपका दिया था। अब यहीं से देख रहा था वह उन दस दिनों से सभी को। सब अपने में मस्त कोई किसी को ठीक से नहीं जानता, मैं भी तो नहीं जानता, जानकर करूँगा भी क्या? समाज के इस चौखटे में उसने हमेशा खुद को अनफिट ही पाया है।
किसी ने कहा था कि अगली बार जब प्राचार्य की पोस्ट के लिए इंटरव्यू देने जाओ तो चश्मा लगा लेना। वह एकदम से बिफर गया था। स्वर में उत्तेजना आ गई थी जो हमेशा ही ऐसे वक़्त पर आ जाया करती थी। उसको हमेशा लगता था कि समाज का ये तानाबाना उसको कुतरकर कई इंच छोटा कर देना चाहता है। वह जैसा है वैसा ही दिखना चाहता है जिसे स्वीकार करना है करे, किसी के अस्वीकार की उसे परवाह नहीं। क्या सच में उसे परवाह नहीं थी? बचपन से ही सबकी आँखों के बस्ते में जब भी हाथ डाला, उपेक्षा और तिरस्कार ही तो मिला। पर इस उपेक्षा और तिरस्कार को ही बड़े होते-होते उसने अपनी प्रेरणा बना लिया और किताबों की दुनिया को हथियार।
बचपन में वह जब भी आईना देखता तो अपनी एक आँख को देख थोड़ा सहम जाता पर धीरे-धीरे वह ख़ुद का सामना करने लगा था। लोगों की आँखों में उसकी आँख को देखकर उठते भय और तिरस्कार के बादलों से टकराकर वह उपेक्षा की बारिश में न जाने कितनी ही बार भीगा था। यही कारण था कि उसके गले में आक्रोश ने कब अपना स्थायी डेरा बना लिया, उसे अहसास ही नहीं हुआ पर वह भी लोगों की नज़रों की तरह ही हठी था। अपनी इसी आँख के साथ लोगों की आँखों में देखूँगा और डरूंगा नहीं, बिल्कुल भी नहीं। उसकी कक्षाओं में बच्चे कितनी सहजता से उसको देखते हैं पर समस्या तो एक ख़ास पैटर्न की अभ्यस्त वयस्क आँखों की है।
बस की सबसे पिछली सीट पर बैठे-बैठे वह किताब के खुरदुरे हो चुके पृष्ठ पर अपनी तर्जनी का पोर फिराने लगा।
अक्षर-अक्षर मैं बिखरता गया
काश! शब्द-शब्द तुम समेट लेते।
शाम के वक़्त बैठने के लिए सबसे अच्छी जगह है मयखाना। नुसरत अली खान का ऊँचा होता स्वर उसके भीतर फैले अंधकार-प्रकाश में जैसे घुल रहा था। ये दुनिया भी ना! कमबख़्त अपनी उँगली हर जगह टिकाती है। उसके भीतर आज कुछ गीलापन था। बाहर की दिसंबरी ठिठुरती हवा खिड़की पर अपनी हथेलियों को थपथपा रही थी। उसने अपने चेहरे और सिर पर कसकर मफ़लर लपेट लिया पर उसकी आँखें अभी भी चश्मे की ज़द से बाहर थी।
ग़ज़लें मुझे भी पसंद है पर इसका मतलब यह नहीं है कि मेरी खिड़की, दरवाजों का भी ख्याल ना रखा जाए और ड्राइवर को तो सोच ही लेते कि कैसे चलाता होगा यह बस। खैर! नुसरत अली भी ना … गाता तो मस्त है। कभी-कभी मुझे उसे सुनकर मस्ती आ जाती है पर मेरे झूमने को कोई समझ नहीं पाता। पहले तो ये शोर मुझे अच्छा नहीं लगा था पर अब अच्छा लगता है। सबके हंसते खिलखिलाते चेहरे देखकर। मुझे जितने भी यात्री हैं उनका नाम नहीं पता मुझे जानने की जरूरत भी नहीं है। बस कुछ औरतें हैं, कुछ आदमी। कुछ आदमी, औरतें ख़ूब बकर-बकर करते हैं, तो कुछ सोते ही रहते हैं। ना जाने कहां की नींद है? सब स्कूल में पढ़ाते हैं। पता है भई मुझे। सब बच्चों की तरह चहकते रहते हैं बस में। अच्छा लगता है ये सब। रोते और उदास चेहरे मुझे अच्छे नहीं लगते। ऐसा नहीं है कि जो यहां बच्चों की तरह उछल रहे हैं, घर में भी ऐसा ही करते होंगे। ना ... ना। घर में तो दूसरे चेहरे लगा कर रखे होंगे। असल तो यहां है। मैं इनके असल की गवाह हूँ।
एक-एक दिन जैसे-जैसे गुजर रहा है ये अपने असल में बदलते जा रहे हैं। दस दिन के बाद ये फिर अपने-अपने खोल में लौट जाएंगे। मुझे खूब याद आयेगी इनकी। मेरी दीवारें, मेरी सीटें, खिड़कियाँ, दरवाजे़ सब इनके रहस्य को दबाकर रख लेंगे। ये कितना बड़ा सच है ना कि हम जो होते हैं वैसे हमें कोई देखना नहीं चाहता। सब अपनी-अपनी सोच के हिसाब से काट छांट कर देखना चाहते हैं। मैं जानती हूँ कि ये इन दिनों को कभी नहीं भूलेंगे। मैं भी तो कहाँ भूल पाऊँगी इन्हें।
मौसम आजकल बहुत सर्द है। बेहद ठंडा। मेरी खिड़कियों पर दिसंबर अपनी अनाम प्रेमिका के नाम सर्दी में ठिठुरती कुछ चिट्ठियाँ लिख रहा है। अभी जो सबसे आगे की सीट पर बैठा खर्राटों की कुछ खरखरी सी आवाज़ें कर रहा है उसके सिर ने मेरी खिड़की को लगभग झकझोर ही दिया है।
इतनी सर्दी में मुझे सुबह-सुबह जगा दिया जाता है। कोहरे में कभी-कभी सड़क भी नहीं दिखती मुझे पर मेरा ड्राइवर भला है। बहुत सावधानी से चलाता है बस ईश्वर उसको ऐसे ही बनाए रखे। आजकल मेरा मन उचाट रहता है। सब जैसे कहीं गुम होता जा रहा है। सबको एक दिन राजनीति खा जायेगी। जाति, धर्म, क्षेत्रवाद, भाषा पर मचा ये घमासान! हमारा क्या कुसूर होता है जो सारी भड़ास हम पर निकाली जाती है। उस दिन ... उस दिन मेरे साथ की सफेद बस को जला दिया गया। अच्छा है मैं बस हूँ, इंसान होती तो इन सबकी तरह ख़ुद से भी टकराती और दूसरों को भी नुकसान पहुँचाती। पर चलो छोड़ो ये सब। मुझे अपना पीला रंग और उस पर करीने से रखी लाल धारियाँ बहुत पसंद है और ये इस तरह के लोग जो ख़ुद को ढूँढते हुए मेरे पास तक पहुँच जाते हैं। ये नुसरत भी ना! मुझे कभी-कभी बहुत मस्त कर देता है। अभी-अभी देखो ना, मैं खोती जा रही हूँ…
फस्लें दिल है खुला है मयखाना…
ग़ज़ल अहा ... मेरा दिल जैसे बहकता जा रहा है।
लेखक परिचय - डा.ऋतु त्यागी
नाम- डा.ऋतु त्यागी
जन्म-1 फरवरी
शिक्षा-बी.एस.सी,एम.ए(हिन्दी,इतिहास),नेट(हिन्दी,इतिहास),पी.एच.डी
सम्प्रति-पी.जी.टी हिंदी केंद्रीय विद्यालय सिख लाईंस मेरठ
रचनाएँ-कुछ पत्रिकाओं में कविताएँ तथा कहानियाँ प्रकाशित
पुस्तक- कुछ लापता ख़्वाबों की वापसी, समय की धुन पर(काव्य संग्रह)
पता-45,ग्रेटर गंगा, गंगानगर, मेरठ
मो.9411904088
बहुत सुंदर !
सुंदर रचना
-हुस्न तबस्सुम निहाँ
nihan073@gmail.com
ह्रदयस्पर्शी और मार्मिक चित्रण। सुंदर अभिव्यक्ति। भाषा रुचिकर, आलंकारिक और सटीक । चरित्र और घटनाएं स्वाभाविक और दुनियादार। बहुत खूब ऋतु जी