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प्रभाकर गोस्वामी

पाँचवीं कक्षा



एक सपना था जो वह हर दिन बुना करती थी। नए-नए रंगों के धागे से। नयी-नयी डिज़ाइनों और आसपास के कितने कितने अनुकरणीय पात्रों और चरित्रों के माध्यम से। माँ कहती थी- अभी तू छोटी है, तेरा भाई तो पाँचवी में पढ़ता है। उसकी जैसी होगी तो तुझे तेरा अलग से टिफ़िन दूँगी। अभी तू उसे कहाँ सम्भाल पाएगी? टिफ़िन ही खो देगी। तब वह एक बार अपने भाई को देखती, फिर उसका टिफ़िन निहारती और एक टीस लेकर सोचती, काश! वह भी पाँचवीं कक्षा में होती!

हर दिन चंचला स्कूल जाती तो उसे पाँचवी कक्षा के सामने से ही गुज़रना होता था तो पैर अपने आप ठिठक जाते थे। खुले दरवाज़े और खिड़कियों से वह जी भर निगाह डालती तो कक्षा की दीवारों पर भगतसिंह और चंद्रशेखर आज़ाद जैसे राष्ट्र भक्तों के चित्र टंगे होते थे। देश के दूसरे बड़े नेताओं और वैज्ञानिकों के भी पोर्ट्रेट थे।

बैठने की मेज़ और टेबल उसकी कक्षा की तरह जुड़ी हुई नहीं थी बल्कि हर बच्चे को अलग-अलग कुर्सी और टेबल दी गयी थी जिस पर बैठकर बच्चे आनंदित और ‘बड़े हो गए’ अनुभव करते थे। प्रार्थना-सभा में भी इस कक्षा के दो बच्चे गायक-दल के साथ ड्रम बजाने का सुख लेते थे। पूरा स्कूल जानता था उनके नाम दीपक और नगमा थे । ये लोग ऑफ़िस जा कर नयी चौक ला कर सर को दे सकते थे। ज़रूरत पड़ने पर ब्लैक बोर्ड साफ़ भी कर सकते थे।

कई बार चौक के पाउडर में सने हाथ बच्चे एक दूसरे गाल में पोंछ देते थे जिसके बाद लगे ठहाके और लड़ाई झगड़े उसकी अपनी कक्षा तक सुनायी देते थे! जब स्पोर्ट्स का पीरियड होता तो चंचला जैसी छोटी कक्षा के बच्चे अपने टॉयरूम में ही खेलते या फिर सख़्त तीजाबाई की निगरानी में फिसलनी और झूला-गार्डन तक जा कर या पैल-दूज खेल कर फिर उसी कक्षा तक लौट आते थे जहां पाँचवी कक्षा जैसा खुलापन और आज़ादी नहीं थी। वह अपनी कक्षा की खिड़की से मैदान की ओर झांकती तो नगमा और दीपक बैडमिन्टन खेलते हुए नज़र आते थे। पिछली बार हुए कबड्डी के मैच में भी पाँचवीं कक्षा ने सातवीं कक्षा को हरा दिया था तब कविता ने एक साथ पाँच बच्चियों को आउट कर अपनी जीत पक्की कर ली थी। जीत तो पाँचवीं कक्षा की बोर्ड की परीक्षा में भी हुई थी जब तरुण के पूरी तहसील में सबसे अधिक नम्बर आए थे। प्रार्थना-सभा में जब प्रिन्सिपल साब ने जब तरुण की पीठ थपथपाई तो सभी बच्चे उसे ही निहार रहे थे। वह भी उस दिन पाँचवीं कक्षा में गयी, तरुण के हाथ को छुआ और भाग गयी। सच! कक्षा पाँच तो सबसे निराली थी और उसका एक-एक बच्चा चंचला के लिए हीरा था, जिसकी चमक और दमक में वह हमेशा खोयी खोयी रहती थी। पर इन हीरों की खदानों में ऐसी नज़र लगी कि कुछ ही दिनों बाद पूरे देश के स्कूल क्या, सब कुछ ही बंद हो गया। पूरे देश में था कोरोना का क़हर। वह लहर क्या एक ज़लज़ला था जिसमें स्कूल, बाज़ार- दुकान, दफ़्तर, शादी ब्याह, समारोह, सैर सपाटे, मंदिर मस्जिद सब समाते जा रहे थे। स्कूल जाते और लौटते बच्चे लोगों की निगाह से ओझल हो गए थे। स्कूल आने जाने की बात ही मानो एक बदरंग सपना बन कर जाने कहाँ खो गई थी।

घर और स्कूल के बीच ऑनलाइन कक्षाएँ शुरू हो रही थीं। ऐसे में गाँव के कई बच्चों के पास फ़ोन कहाँ थे तो उनका इस नयी शिक्षा-व्यवस्था से जुड़ाव कम ही हो पा रहा था। एक फ़ोन सैट पर चार-चार बच्चे साथ-साथ काम कर रहे थे। अधिकतर बच्चे अपने माँ बाप के फ़ोन पर निर्भर थे पर नेटवर्क नहीं मिलने से ऐसी कक्षाएँ भी जल्दी ही करोना की भेंट चढ़ गयीं।

तब एक दिन सीताराम सर घर-घर आकर कह गए- कल से व्हट्सअप पर ही पढ़ाई होगी- होमवर्क देंगे और चैक करेंगे। मैडम सचित्र पाठ प्रतिदिन भेजेंगी। पर फ़ोन तो मम्मी पापा के ही थे और वे ही काम पर चले जाते तो बच्चों की छुट्टी।

हाँ, बाहर के काम धंधे बंद थे। घर के अपने ही काम धंधे बहुत ज़रूरी होने पर चल रहे थे। गाँव के बच्चों को घरेलू काम से जोड़ने का उनके अभिभावकों के लिए एक अवसर था जिसे कम ही लोग खोना चाहते थे।

नगमा बकरी चराने जा रही थी। दीपक अपने कुम्हार पिता के साथ मटके बनाने का काम सीख रहा था अब उसके हाथ, चौक से नहीं मिट्टी से सने रहते थे। कविता माँ के साथ खेत पर निराई-गुड़ाई के लिए जाया करती थी।

कबड्डी जैसा खेल सामाजिक-दूरी के सिद्धांत के कारण उसके अतीत की बात हो गयी थी। न कोई किसी को पकड़ सकता था और न ही छू सकता था। मास्क लगाकर एक दूरी के साथ बातचीत होती थी।

चंचला को माँ ने घर में बंधे जानवरों की एर और छाणे (गोबर के कंडे ) थापने के नए काम में लगा दिया था। कंडों के ढेर की लम्बाई, ऊँचाई और फैलाव से वह गणित के सवाल हल नहीं करती थी बल्कि तारीख़ों महीनों और साल के गुज़रने का एहसास करती रहती।

ऐसे ही दो कठिन बरस बीतने को हो गये। वह तीसरी से चौथी और चौथी से पाँचवीं में प्रमोट कर दी गयी थी। प्रमोट तो सभी हो रहे थे पर उसकी ख़ुशी कुछ अलग थी।

अब से वह उसी ‘पाँचवीं की छात्रा’ कहलाएगी जिसके छात्र एक ज़माने में दीपक, नगमा और कविता भी हुआ करते थे। पाँचवीं के ‘पर’ लगते ही वह तो उड़ने लगी थी और सीधे पहुँच गयी तालाब वाले माताजी के मंदिर, जहां वह मनौती माँग चुकी थी कि वह जल्दी से जल्दी पाँचवीं क्लास में आ जाए। घर से लाए बताशे और नारियल रखा और फिर देवी को धन्यवाद देते हुए दीन शब्दों में बोली – हे! माँ! अब तो स्कूल जल्दी खुलवा देना।

वह लौटने लगी तो पीछे से महाराजजी की आवाज़ आयी - अरे बावली! यो प्रसाद तो लेती जा! अबार करोना में म्हे कोनी राखां। ओठोई ले जा ईंने।

फिर उन्होंने पूछा – बाई...कशी कक्षा पास कर ली?

वह यही तो बतलाने का मौक़ा तलाश कर रही थी। तन कर गर्व से बोली- काका! पाँचवीं में आगी ...

-बिना स्कूल गया ई? काका के व्यंग्य से शोधित शूल ने उसके हवा भरे ग़ुब्बारे को एक ही छेद में फुस्स कर दिया और वह निढाल हो घर जा कर माचे पर गिर गयी।

पुजारी काका चाहे उसके पांचवीं में पहुँच जाने से ख़ुश नहीं हो पर तालाब वाले मंदिर की माताजी तो ख़ुश थीं ।

अगले ही दिन समाचार पत्रों और टीवी पर यह समाचार था कि सब कुछ खुल रहा है। बाज़ार, दुकान और स्कूल सभी चरणबद्ध तरीक़े से खोले जा रहे हैं। समाचार से मिली यह ख़ुशी अगली पंक्ति पढ़ते ही नदारद हो गयी कि पहले चरण में पहली तारीख़ से केवल नवीं से बारहवीं तक की कक्षाएँ ही शुरू होंगी!

दूसरा चरण भी हफ़्ते भर घोषित हुआ तो वह निराश ही हुई कि अगले शनिवार से छठी से आठवीं क्लास तक की लड़कियां स्कूल जा पाएँगी। चंचला सोच रही थी, काश अखबार में पाँचवीं तक लिखा होता।

पर तीसरा चरण भी बुधवार से शुरू करने की घोषणा हो गयी! अब चौथी और पाँचवीं को बुलाया गया सुन कर वह उछल पड़ी थी। तब ही पास ही रह रहे स्कूल की घंटी बजाने वाले भूरा काका ने बताया कि नियम सख़्त हैं। एक दिन लड़के और दूसरे दिन लड़कियाँ स्कूल जाएँगी। तेरा नम्बर तो बुधवार को नहीं गुरुवार को आएगा।

वह सोचने लगी कि काश वह भी भाई की तरह ब्राइटलेंड अंग्रेज़ी स्कूल में होती जहां ‘ए’ से ‘के’ नाम के पहले दिन और ‘एल’ से ‘जेड’ तक के बच्चे अगले दिन बुलाए जा रहे थे। उसका चंचला का ‘सी’ तो पहली खेप में ही आ जाता! एक ठंडी साँस छोड़ कर वह स्कूल से लौटे अपने भाई से चिपक गयी।

रात नींद नहीं आयी थी। सुबह जल्दी ही उठ कर जानवरों का चारा पानी कर दिया था। पुरानी यूनिफोर्म को माँ के बक्से से निकाल कर पहना और स्कूल की राह चलने को ही थी कि भाई ने टोका- ‘मास्क ले जा वरना स्कूल में घुसने भी नहीं देंगे।’

लक्ष्य की प्राप्ति के साथ भारी उत्साह और प्रफुल्ल मुद्रा में वह स्कूल पहुँची तो सारा नज़ारा बदला हुआ था। मुख्य दरवाज़े पर ही लाइन लगा कर बच्चे दूर दूर खड़े थे। मास्क के कारण उन को तो पहचानना भी मुश्किल था। हरेक को सेनेटाइज़र के एक छोटे दरवाज़े से हो कर गुज़रना होता था। इस से निकल कर आगे चलो तो पी टी आई सर सब को स्केन कर टेम्प्रेचर ले रहे थे। दो तीन बच्चे तो गेट से ही घर के लिए बिदा कर दिए गए थे। पर चंचला के लिए यह बड़ी तसल्ली की बात थी उनमें पाँचवीं का एक भी बच्चा नहीं था।

कक्षाएँ भी उजड़ी और उखड़ी सी नज़र आ रही थीं। देशनायकों के सभी आकर्षक पोस्टर्ज़ की जगह कोरोना से बचाव के उपाय के अब नए नए पोस्टर चिपक गए थे। ‘दो गज की दूरी, मास्क है ज़रूरी’। और भी पता नहीं बहुत सी बातें। कुर्सी और टेबल की दूरी बढ़ा दी गयी थी- यह जान कर वह ख़ुश थी कि अब अचला उसकी नक़ल नहीं मार पाएगी। आज अधिकांश बच्चे भोजन का टिफ़िन नहीं लाए थे। जो ले आए थे उनके टिफ़िन तीजाबाई उठा कर जमा कराने ले गयी थी। ये सख़्त निर्देश थे कि कोई भी टिफ़िन ले कर नहीं आएगा और न ही स्कूल में मिड डे मील मिला करेगा। जिस टिफ़िन के लिए चंचला अपनी माँ से दो बरस से ज़िद कर रही थी उस पर करोना का ग्रहण लग गया था। बंदिशें और बदलाव कई और थे।

महेश सर अनाउन्स्मेंट कर रहे थे कि फ़िलहाल रोज़ वाली असेम्बली अब नहीं होगी।

-नहीं सर प्लीज़! एक साथ कई बच्चे बोले।

-कब शुरू होगी?

इस का जवाब भी उन्होंने ‘कुछ पता नहीं’ कह कर दे दिया।

-सर! वो प्रार्थना में ड्रम बजाने …’ चंचला अपना वाक्य पूरा करती तब तक सर ने उसे झिड़क दिया जब असेम्बली नहीं तो तुम्हारा ड्रम कैसे बजेगा। कोई ड्रम-व्रम नहीं होगा। …घर पर ही तैयारी करो!!

जिस हसरत को लेकर वह दो साल से जी रही थी महेश जी सर की एक झिड़की ने उसे भी दफ़न कर दिया था। पूरे दो साल वह दो पीपों और डंडे से घर पर ही ड्रम बजाने की प्रेक्टिस करती रही थी। वह ड्रम के इसी चक्कर में कई बार नगमा और दीपक के घर भी गयी थी।

ओह…खिड़की से झांक कर उसने बेडमिन्टन कोर्ट देखा था तो वहाँ कोई नहीं था। नैट की एक तरफ़ की रस्सी टूट कर लटक रही थी। दो कमेड़ियाँ वहाँ आपस में झगड़ती नज़र आ रही थीं। कबड्डी का मैदान भी सुनसान पड़ा था। अभी उसे ‘दादी की ढाणी’ वाली सहेली ने बताया कि कोरोना के बंद के दौरान ही घर वालों ने उस कबड्डी चैम्पियन कविता की शादी कर दी थी। पुलिस भी आयी ज़रूर थी पर बाल-विवाह नहीं रुका!

पी टी आई सर ने साफ़ कर दिया था- नो स्पोर्ट्स। सभी इनडोर और आउटडोर गेम्स बंद। ये सरकारी आदेश है।

ऐसी ही खबरों और बंदिशों के बीच शुरू हुई कक्षा पाँच की शुरुआत का मज़ा कोरोना लूट चुका था। खबर तो यह भी थी कि स्कूल फिर से कुछ दिन बंद हो सकता है। स्कूल आने जाने का सिलसिला कुछ ही दिन चला होगा कि एक दिन अख़बार में आ गयी ये खबर- कोरोना के नए वेरियंट डेल्टा ने राज्य में पैर पसारे। सभी स्कूल कल से फिर बंद। अख़बार और टीवी से यह विचार पनप रहा था कि कोरोना के साथ जीना सीखना पड़ेगा। फिर ऑन लाइन कक्षाएँ शुरू हो चुकी थीं। वहीं जानवरों की देखभाल कर के कंडे थापने का क्रम चंचला की ज़िंदगी का हिस्सा बन गया था। कंडों के ढेर से पापा ने से एक छोटी सी टापरीनुमा ‘पराउंडा’ बना दिया था। उसे ही चंचला ने अपनी ऑनलाइन कक्षा का केंद्र बना लिया।

कंडे थापते थापते ही एक कंडे पर ‘कक्षा पाँच’ उकेर कर पराउंडा के दरवाज़े के ऊपर चिपका दिया।

माँ-बापू को बुला कर दिखाने लायी तो वे ये सब देख कर दोनों ख़ूब हंसे।

चंचला शरमा कर भागी और गोबर के इकट्ठे ढेर को वह बजा-बजा कर कूटने पीटने लगी।

अचानक उसे असेम्बली में बजने वाले रहे ड्रम बजाने सरीखा आनंद आने लगा-

ताक! तक! तक! ताक! धिन! धिन!


 

लेखक परिचय - प्रभाकर गोस्वामी





जन्म - जयपुर, २८ मार्च, १९५५


शिक्षा - बी ए आनर्स अर्थशास्त्र


एम ए समाजशास्त्र - स्वर्णपदक विजेता


एम फ़िल. समाजशास्त्र


राजस्थान में पंचायती राज व्यवस्था - एक समाजशास्त्रीय मूल्यांकन ( स्वतंत्र शोध कार्य )


सभी उपाधियाँ राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर से।


राजस्थान के कॉलेज शिक्षा निदेशालय के अधीन विभिन्न राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालयों में समाजशास्त्र का अध्यापन कार्य किया।


राज्य के प्रौढ़ एवं सतत शिक्षा विभाग में सात वर्ष तक राज्य में चल रहे सम्पूर्ण साक्षरता अभियान के प्रभारी उप निदेशक पद पर कार्य किया।


जन संचार और पत्रकारिता के क्षेत्र में अनुभव के तौर पर निदेशक, पत्रिका शोध प्रतिष्ठान और पत्रिका टीवी में कार्य किया और अनेक विषयों पर शोध शृंखलाएँ प्रकाशित हुईं।


लेखन की प्रेरणा और वातावरण स्कूल के समय में ही मिल गए तो कहानी, कविताएँ, वार्ताएँ और लेख आदि प्रकाशित और प्रसारित होना १९७२ से शुरू हो गए।


"सारिका" के विश्व की चुनी हुयी लघु कथा विशेषांक में पहली लघु कथा - श्वेत क्रांति


१९७२ में छपी।


इसके अलावा धर्मयुग, नंदन, पत्रिका, जनयुग, राष्ट्रदूत और दैनिक नवज्योति में भी अनेक रचनाएँ प्रकाशित हुईं।


आकाशवाणी जयपुर से निरंतर वार्ताएँ और कहानियाँ प्रसारित हुईं।


दूरदर्शन उपग्रह केंद्र दिल्ली एवं दूरदर्शन केंद्र जयपुर से लगभग एक सौ लाइव और रिकॉर्डेड कार्यक्रम प्रस्तुत किए और विशेषज्ञ वार्ताएँ प्रसारित की गयीं।


राज्य में साक्षरता की पत्रिका – "आखर जोत" का सात वर्ष तक सम्पादन कार्य किया।


यूनिसेफ़ और आई इंडिया नेटवर्क की ओर से पाँच वर्ष तक "टाबर" पत्रिका का सम्पादन किया।


गत बीस वर्ष से बाल संरक्षण और अधिकार के लिए कार्यरत हैं। बाल हितों के लिए "आई इंडिया" संस्था की स्थापना कर वर्तमान में बेसहारा और बी पी एल बच्चों को आश्रय, संरक्षण, शिक्षा और भविष्य प्रदान करने के लिए कार्यरत हैं।




सम्प्रति - संस्थापक एवं निदेशक , आई इंडिया , जयपुर।


सम्पर्क - रत्न गंगा


२३ महात्मा गांधी नगर,


डीसीएम, अजमेर रोड,


जयपुर -३०२०२१


फ़ोन - 0141-2353317


मोबाइल -9414048817

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