top of page
  • सुषमा मुनीन्द्र

स्कूल चलें हम




माह अगस्त


इस जनपद की कुण्डली के किस घर में कैसा दुष्ट ग्रह बैठ गया है कि शिक्षा के मंदिरों में सन्नाटा और सनसनी व्याप्त है. प्रदेश की राजधानी से पधारे प्रभारी सचिव दो दिवसीय तूफानी दौरा कर ‘स्कूल चलें हम’ अभियान की गतिविधियों का नजारा कर रहे हैं. सचिव समूह के साथ प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में जैसे ही धरपकड़ करने के से अंदाज में पहुँचते हैं शिक्षकों के मुख ऐसे हो जाते हैं मानो घर से चार पनही खाकर आये हैं. सचिव कार्बन डाइ ऑक्साइड बाद में विसर्जित करते हैं, शैक्षणिक गतिविधियों, गणवेश, पाठ्य पुस्तक का वितरण, नव प्रवेशी विद्यार्थियों, मध्यान्ह भोजन, विद्यार्थी-शिक्षक उपस्थिति जैसे अनवार्य शिक्षा अधिनियम की जानकारी पहले लेते हैं. जानते हैं अधिकतर विद्यालय घपलेबाजी में लिप्त हैं फिर भी वे घपलेबाजी पर भ्रमित हो जाते हैं. भ्रम में डूब कर एक साथ कई प्रश्न पूछते हैं - विद्यालयों में शैक्षणिक अराजकता क्यों बढ़ती जा रही है? दो माह से विद्यार्थियों की हाजिरी दर्ज क्यों नहीं की गई? मासिक मूल्यांकन क्यों नहीं हुआ? जुलाई माह का रजिस्टर क्यों नहीं है? कादौं-कीचड़ भरे गाँवों में अपनी युवावस्था को गारद कर रहे गुरुजन ऐसे गरिष्ठ प्रश्नों को सुनकर साइलेन्ट मोड में चले जाते हैं. उनकी बहकी-बहकी नजर सचिव पर टिकी होती है - धमका ऐसे रहे हैं मानो शिक्षा जगत के घपले खत्म करके ही सेवानिवृत्त होंगे.

तूफानी दौरे पहले भी हुए हैं पर उन विद्यालयों में हुए हैं जहाँ हुक्मरानों के वाहन निर्बाध चले जाते हैं. दौरे के वक्त कादौं-कीचड़ जैसे पथ वाले विद्यालयों के गुरुजनों को असुविधाओं में फायदा नजर आने लगता है क्योंकि कादौं-कीचड़ में हुक्मराम अपने बूट खराब करने नहीं आएंगे. यदि आएंगे बूट पंक में पंकगत हो जाएंगे. पर अंधेर इसी धरा पर घटित होता है. अंधेर ने घटित होने के लिये ग्राम पंचायत नागौर की शासकीय शाला को चुना. प्रभारी सचिव के साथ दो वाहनों में आसीन होकर जिलाधीश, मुख्य कार्यपालन अधिकारी जिला पंचायत, एस.डी.एम. आरोही चतुर्वेदी, जिला शिक्षा अधिकारी, सर्वशिक्षा अभियान के अधिकारी-कर्मचारी आदि सम्भ्रान्त सा समूह बनाकर नागौर की जानिब चले. कीचड़, खर-पतवार, बेशरम की झाड़ियों जैसी पग बाधा को ध्यान में रखते हुए वाहनों ने विद्यालय तक जाने में असमर्थता निवेदित कर दी. समूह को विद्यालय से कम से कम आधा किलो मीटर की दूरी पर वाहनों का त्याग करना पड़ा. विवेक जागृत न होता था किस विध शाला तक पहुँचे. ’हम होंगे कामयाब’ जैसे प्रेरक गीत पर आस्था रखते हुए समूह शाला की ओर बढ़ चला. सचिव हाथ फटकारते हुए इस तेजी से चल रहे थे जैसे जाहिर करना चाहते हों जो उनके हाथों की जद में आयेगा भूलुंठित होकर रहेगा. उनके द्रुत पद चिन्हों का अनुसरण करने में समूह को डकारें आ रही थीं. किसी तरह शाला पहुँचे. घुटनों तक खड़ी घास बताती थी यहाँ दिनों से चहलकदमी नहीं हुई है. शाला के प्रवेश द्वार पर मुस्तैद ताले ने पुष्टि कर दी. सचिव उचक गये –

‘‘यह स्कूल बंद कर दिया गया है क्या?’’

डी.ई.ओ. ने सूचित किया ‘‘अस्तित्व में है सर.’’

‘‘उफ.’’

सचिव के मुख से उफ अलग किस्म से निकलता है. उनका मोटा मुख वैसे भी सुडौल नहीं है. उफ उच्चारते हुए पूरी तरह बेडौल हो जाता है. वे दूर तक देखने लगे. जैसे शाला के अस्तित्व में होने का सत्यापन करना चाहते हों. शाला के पीछे वाले खेत में एक किसान काम कर रहा था. डी.ई.ओ. ने उसे संकेत से बुलाया. वह इस तत्परता से आया मानो एक सदी से चाह रहा था उसे संकेत से बुलाया जाये. उसकी तम्बाकू-सिक्त खुली बत्तीसी बताती थी समूह को देखना उसे भला लग रहा है. सचिव मुख्य वक्ता हैं. बाकी लोग जरूरत मुताबिक बोलते हैं. सचिव ने किसान से पूछा -

‘‘स्कूल क्यों बंद है?’’

‘‘कबहूं-कबहूं खुलता है.’’

‘‘विद्यार्थी नहीं आते?’’

‘‘सिरिफ एक विद्यार्थी है.’’

‘‘एक?’’

‘‘हौ.’’

‘‘स्कूल नहीं आता?’’

‘‘कबहूं-कबहूं आता है. गुरूजी सेंत-मेंत (बिना पढ़े) में पास कर देते हैं.’’

‘‘किस क्लास में पढ़ता है?’’

‘‘नहीं जानते.’’

‘‘शिक्षक कितने हैं?’’

‘‘चार-पाँच हैं.’’

‘‘चार-पाँच?’’

‘‘हौ.’’

‘‘स्कूल आते हैं?’’

‘‘कबहूं-कबहूं हॅंसी-ठट्टा करने आते हैं.’’

सचिव ने जिलाधीश को खतावार की तरह देखा. जिलाधीश का दैदीप्यमान गेहुंआ मुख निर्जल हो गया. नहीं सोचा था जिस जनपद का सौन्दर्यीकरण कराने के लिये लालायित हैं वहाँ के शिक्षा के मंदिरों की स्थिति इतनी कमजोर होगी. जिलाधीश की ओर से मुख फेर कर सचिव ने डी.ई.ओ. को मानसिक प्रताड़ना दी –

‘‘यह क्या है? जानते हैं न आर.टी.ई. के नियम के अनुसार जिन प्राथमिक शालाओं में चालीस से कम, माध्यमिक शालाओं में बारह से कम विद्यार्थी हों उन शालाओं का युक्तियुक्तकरण कर उन्हें ऐसी बसाहटों में संचालित करना है जहाँ विद्यार्थी संख्या अधिक हो?’’

डी.ई.ओ. ने अपनी प्रलम्ब-पतली देह को खींच कर सक्रिय किया -

‘‘जी सर. कुछ विद्यालयों में विद्यार्थी संख्या मापदण्ड से कम है. जब से आर.टी.ई. के अन्तर्गत निजी विद्यालयों में पच्चीस प्रतिशत सीट गरीब परिवार के विद्यार्थियों के लिये आरक्षित हुई है जनपद से लगे गाँवों के विद्यार्थी उन विद्यालयों में पढ़ने लगे हैं. इसलिये यहाँ एक विद्यार्थी ...”

सचिव को स्पष्टीकरण अक्षमता छिपाने की तरह लगा.

‘‘आपकी लापरवाही साफ दिख रही है. पिछले शैक्षणिक सत्र में नवाचार के अन्तर्गत इस जनपद में माध्यमिक स्तर के सरकारी अंग्रेजी माध्यम स्कूल खोले गये हैं. मुझे बताया गया वहाँ अब भी हिंदी माध्यम से पढ़ाया जाता है. साल भर बाद भी आप अंग्रेजी माध्यम के शिक्षकों का प्रबंध नहीं कर सके.’’

डी.ई.ओ. की इच्छा हुई कहें - तो आप मानते हैं हिंदी और हिंदी दिवस में कुछ नहीं रखा? शिक्षा का योगक्षेम अंग्रेजी से होगा? मंद स्वर में बोले -

‘‘इस सिलसिले में मीटिंग हुई है. सभी संकुल प्राचार्यों को नोटिस देकर अंग्रेजी माध्यम के शिक्षकों का ब्योरा माँगा गया है. जल्दी ही समस्या का हल निकाल लिया जायेगा.”

‘‘उफ.’’

समूह न समझ पाया इस उफ में थकान है या खिन्नता. रवैया किसान की समझ में नहीं आ रहा था अलबत्ता बत्तीसी निपोरे हुए वह समूह को तब तक आदर से देखता रहा जब तक समूह रुखसत न हो गया.

पगबाधाओं में पग धरते हुए सचिव जब वाहन में आसीन हुए, एक बार फिर उफ कहा. उन्हें जनपद के विकासखण्ड सोहावल के छोटे गाँव बूटी की प्राथमिक शाला पहुँचना है. बूटी की शाला की रूपरेखा जर्जर है. काफी लम्बाई वाला आयाताकार एक जर्जर कक्ष है जिसे भवन कहा जाता है. भवन में खिड़की बनाना मिस्त्री भूल गया है. दो द्वार हैं जिनके पल्ले कोई जरूरतमंद चुरा ले गया है. शिक्षकों के लिये मेज-कुर्सी नहीं है वरना वह भी जरूरतमंदों के काम आती. शिक्षकों को वसुन्धरा की गोद में बैठने पर अवनति का बोध होता है पर वे निहत्थे हैं. विद्यार्थी बैठने के लिये घर से बोरी-फट्टा लाते हैं. पल्ले न होने का समाचार मवेशियों को ज्ञात है. वर्षा से बचने के लिये वे भवन में घुस आते हैं. गोबर से वायुमण्डल शुद्ध करते हैं. दीवारों की दरारों में साँप-बिच्छू का वास है. बिच्छू अब तक चार विद्यार्थियों को डंक मार चुके हैं. दो विद्यार्थी बच गये. दो को बचाया नहीं जा सका. शिक्षकों ने इन विषैले जीवों को पनाह नहीं दी है पर मृत विद्यार्थियों के अभिभावकों को लगता था बिच्छू ने शिक्षकों की शह पर डंक मारा है. उन्होंने शाला आकर खूब उपद्रव किया. विद्यार्थियों की मृत्यु पर शोक सभा कर छुट्टी कर दी गयी जिसका असर विद्यार्थियों पर नहीं देखा गया. विद्यार्थी छुट्टी के इतने आदी हैं कि उन्हें आकस्मिक छुट्टी का इंतजार नहीं रहता. वे बूँदे पड़ते ही समझ जाते हैं आज स्कूल नहीं लगेगा. घर से ठीक वक्त पर निकल कर एक स्थान में जमा होकर गुल्ली-डंडा का अभ्यास करने लगते हैं. इस जनपद में कई पाठशालाएं हैं जहाँ बादल तय करते हैं आज स्कूल लगेगा अथवा नहीं. बूटी की शाला में कुल जमा दो शिक्षक हैं. दोनों में गजब की मिलीभगत है. बारी-बारी से शाला आते हैं. एहतियात के तौर पर दोनों अपनी-अपनी एप्लीकेशन स्थाई रूप से रखे गये आवेदन मुलाजिमान रजिस्टर के साथ रख देते हैं. आज तक जरूरत नहीं पड़ी लेकिन पड़ जाये तो मौजूद शिक्षक प्रार्थना पत्र दिखा सकता है कि अनुपस्थित शिक्षक पाबंद हैं. आज ही अनुपस्थित हुए हैं.

वाहन को मुख्य पथ के आसरे छोड़ कर समूह अपने बूट खराब करता हुआ पाठशाला पहुँचा. सचिव के भाल पर पसीना है -

‘‘कीचड़, खर-पतवार के बिना एक भी स्कूल नहीं है क्यों?’’

जिलाधीश ने सचिव को कनखी से देखा - आप पर कर्तव्य सवार है. बुद्धिमान होते तो कागज में दौरे दर्शा कर जनपद के धार्मिक स्थलों के दर्शन कर मोद और मोदक हासिल करते.

सचिव ने भाल का पसीना पोंछते हुए देखा चार छात्राएं भवन के बाहर झाड़ू लगा रही हैं. छात्राएं इतनी अज्ञानी थीं कि समूह का वहाँ होना उन्हें अनोखी बात नहीं लगी. वे अपने काम में मुब्तिला रहीं. समूह भवन में दाखिल हुआ. कक्षा से गोबर हटा दिया गया था. बास को नहीं हटाया जा सकता था. खिड़की होती तो फरर-फरर आती ताजी हवा बास को अपदस्थ कर सकती थी. गोबर की तीक्ष्ण गंध ने समूह की घ्राण शक्ति को किस कदर चुनौती दी है यह जेब से निकल कर नासिका पर लिपट गये उजले रूमालों से ज्ञात होता था. दीवार से पीठ टिका कर शिक्षक फुरसतहे अंदाज में झपक रहा था. दस-पन्द्रह विद्यार्थी मौजूद थे जो अपनी जगह पर नहीं थे. शिक्षक की मीठी नींद सचिव से न सही गई -

‘‘पंचनामा बनाइये.’’

सचिव की टंकार भरी आवाज से शिक्षक समझ गया निरीक्षण की जद में आ गया है. हा देव. ये कौन बुद्धिमान हैं जो बूट खराब करने चले आये हैं? वह उछल कर खड़ा हो गया. स्थिति इतनी आकस्मिक थी कि उसकी रसना तालू से चिपक गई. जोर लगाने पर मुख से ऐसी महीन वाणी निकली जैसे महीन छिद्र से वायु धीरे-धीरे निकल रही हो. उसने भरपूर झुकते हुए सभी का अभिवादन किया ‘‘नमस्कार सर ... नमस्कार सर ... नमस्कार सर ...’’

नींद ले रहे शिक्षक को देख कर सचिव भूल गये इस देश में गुरुवै नमः का प्रताप रहा है. गुरु का आदर करना चाहिये. वे आदर क्या करते? शिक्षक के अभिवादन तक का जवाब नहीं दिया. शिक्षक ने सचिव की हरकत का बिल्कुल बुरा नहीं माना. दोनों हाथों को लहरा कर मौजूद विद्यार्थियों को खड़े होने का संकेत देने लगा. अर्थ ग्रहण कर विद्यार्थी खड़े हो गये. सचिव ने करबद्ध खड़े शिक्षक से सीधे संवाद स्थापित किया -

‘‘यहाँ कितने शिक्षक पदस्थ हैं?’’

‘‘सर, दो.’’

‘‘एक आप?’’

‘‘जी.’’

‘‘दूसरे?’’

‘‘आज छुट्टी पर हैं. एप्लीकेशन भेजी है.’’

‘‘उफ. मैं जहाँ भी जाता हूँ शिक्षक छुट्टी पर होते हैं. आप लोग इतनी छुट्टी क्यों लेते हैं?’’

शिक्षक की मासूमियत ‘‘अपरिहार्य कारणों से.’’

‘‘कितने विद्यार्थी हैं?’’

‘‘छात्र पचास, छात्राएं इक्कीस.’’

‘‘बहुत कम दिख रहे हैं.’’

‘‘निवेदन करता हूँ, नहीं आते.’’

‘‘प्राथमिक शाला है?’’

‘‘जी.’’

‘‘पाँच कक्षाओं को दो शिक्षक कैसे पढ़ाते हैं?’’

‘‘इसी भवन में. कक्षा के अनुसार पाँच कतारें बनती हैं.’’

‘‘यह कैसे सम्भव है? संबंधित विभाग को सूचित किया?’’

शिक्षक समझ गया आक्षेप उस पर नहीं विभाग पर आ रहा है. उसका स्वर तंत्र इस तरह खुल गया जैसे एक वही काबिल है -

‘‘जी सर. विभागीय अधिकारियों और क्षेत्र के जन प्रतिनिधियों से निवेदन किया है. विधायक, सरपंच और भी साहबों को बताया पर कुछ नहीं हुआ. शौचालय नहीं है. पानी नहीं है. पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को हम दोनों शिक्षक चंदा कर बच्चों को बूँदी बाँटते हैं.’’

‘‘बहुत लापरवाही है.’’

सचिव की भंगिमा से ज्ञात न हुआ लापरवाही शिक्षक की है अथवा समूह की. शिक्षक कातरता बताता रहा -

‘‘बहुत असुविधा है सर. भवन की छत टपकती है. दरारों से सपोले, बीछी निकलती हैं. कुछ बच्चों को बीछी काट चुकी है. झाड़-फूँक हुई पर दो बच्चों को नहीं बचाया जा सका.’’

‘‘शिक्षा का खराब स्तर रहा तो गाँव वाले झाड़-फूँक जैसे अंधविश्वास से बाहर नहीं निकलेंगे.’’

शिक्षक ने माना सचिव उसका अवमूल्यन कर रहे हैं.

‘‘मैं मेहनत से पढ़ाता हूँ सर.’’

‘‘पाँच कक्षाओं को एक साथ पढ़ाते हैं तो मेहनत से ही पढ़ाते होंगे. तुम्हें पढ़ना अच्छा लगता है?’’

शिक्षक की मेहनत को परखने के लिये सचिव ने समीप खड़ी अचम्भित छात्रा से पूछ लिया. छात्रा सकुचा गई लेकिन बोली -

‘‘अच्छा लगता है. पढ़ने से खाना, ड्रेस, किताबें मिलती हैं. खूब पढ़ूँगी तो साइकिल भी मिलेगी.’’

विद्यार्थी पढ़ने नहीं सुविधा बटोरने आते हैं.

‘‘उफ. ग्रामीण इलाके में विद्यार्थियों को उचित शिक्षा नहीं मिल रही है. शहरों का यह हाल है लोग दो - ढाई साल के बच्चों को प्ले स्कूल में डाल कर उनका बचपन छीन रहे हैं.’’

सचिव के संवाद सुनते हुए आरोही चतुर्वेदी ऐसा कर्तव्यनिष्ठ मुख बनाये थी जैसे देश उसी के कंधे पर टिका है. वह सदैव पढ़ाई में अव्वल रही है. यह मौका था शिक्षा के नफे-नुकसान पर प्रकाश डालने का. कहने लगी -

‘‘जी सर. जबकि पाँच साल तक के बच्चों में बायनरी विजन का पूरा विकास नहीं होता. उन्हें कम्प्यूटर और पुस्तक देना स्वास्थ्य के लिये सही नहीं है लेकिन कक्षा एक से ही क्लास वर्क बुक, होम वर्क बुक, प्रैक्टिस बुक, प्रोजेक्ट बुक्स सहित बीस-बाईस कॉपी-किताबें हो जाती हैं.’’

‘‘यही है.’’ कह कर सचिव अपने समीप निवेदित भाव में खड़े पुरुष को बहुत धीमे स्वर में निर्देश देने लगे. धन्य है पुरुष कि धीमा स्वर सुन लिया और गजब की गति से कलम चला कर डायरी में निर्देश को नोट करने लगा. उसे निर्देश, नोट कराने के उपरांत सचिव, डी.ई.ओ. से ऊॅंचे स्वर में बोलने लगे -

‘‘आपके जनपद में स्कूलों की स्थिति शर्मनाक है. नागौर के शिक्षकों को यहाँ भेजना होगा. नागौर में चूंकि एक ही छात्र है उसके पढ़ने की व्यवस्था ऐसे स्कूल में करानी होगी जहाँ वह सरलता से नियमित जा सके.’’

सार्वजनिक तौर पर की गई निंदा का असर डी.ई.ओ. के मुख पर साफ देखा जा सकता था. उनके भाल की नसें चटकने लगीं - सचिव महोदय, आप शर्म करें या खेद व्यक्त करें पर स्थितियों को सुधारा नहीं जा सकता. सुधारा जा सकता तो अब तक सुधार लिया जाता. ऊॅंचाडीह के एक विद्यालय में एक भी विद्यार्थी नहीं है पर पदस्थ शिक्षक वेतन ले रहे हैं. तुर्की के विद्यालय में नौ कमरे, तीन शिक्षक, तीन विद्यार्थी हैं. अधिक शिक्षकों वाले विद्यालय के शिक्षकों को बंधक बना कर उन विद्यालयों में नहीं ले जाया जा सकता जहाँ कम शिक्षक हैं. बहुत से काम राजनीतिक दबाव के कारण नहीं हो पाते, आप जानते हैं. अधिक कमरों वाले विद्यालयों के कुछ कमरों को हनुमान जी की तरह हथेली पर रख कर उन विद्यालयों की भूमि में स्थापित नहीं किया जा सकता जहाँ कम कमरे हैं. शिक्षा का कमरों से क्या प्रयोजन. यदि होता तो शहरों में उन लोगों को रजिस्ट्रेशन नम्बर न मिलता जो दो कमरों में प्ले स्कूल चलाने लगते हैं और पर्याप्त विद्यार्थी भी कबाड़ लेते हैं. मेरे जनपद के आदिवासी छात्रों के छात्रावास की स्थित यदि आप देख लें शर्तिया मूर्छना की चपेट में आ जाएंगे. कमिश्नर का स्पष्ट निर्देश है छात्रावास के अधीक्षक, छात्रावास के आवास में रहें पर वे अपने घर में आराम फरमाते हैं. कहने को अधीक्षक, रसोइया, लिपिक, चैकीदार हैं पर काम काज प्रमुख रूप से चैकीदार देखता है. पचास सीटर छात्रावास में अट्ठाईस छात्र रहते हैं. उपस्थिति पचास की दर्ज है. नजराना लेकर सम्बन्धित अधिकारी इस किस्म की लापरवाहियों से अनभिज्ञ बने रहते हैं. ये तथ्य आप निश्चित तौर पर जानते होंगे. हमारे देश का असल बचपन यही है. उफ कह कर आप इसे समृद्धि प्रदान नहीं कर देंगे. इसलिये निरीक्षण को भ्रमण की तरह सम्पादित कर राजधानी की ट्रेन पकड़ लें.

जिलाधीश की नजर निरंतर डी.ई.ओ. के मुरझाये मुख पर रेंग रही थी. उन्हें डी.ई.ओ. चिंतन में डूबे हुए लगे. लगा, इन्हें रहम की जरूरत है. सचिव से बोले -

‘‘मैं और मेरे विभाग के लोग समय-समय पर निरीक्षण करते हैं. चतुर्वेदी मैडम तो मिड डे मील को स्वयं चख कर देखती हैं. क्वालिटी ठीक न हो तो कार्यरत स्व सहायता समूह को हटा कर अन्य समूह को दायित्व देने के निर्देश देती हैं.’’

सचिव ने आरोही चतुर्वेदी को भरपूर निहारा - सुंदर हैं, युवा हैं, दिलेर हैं. हम लोग आर.ओ. पानी और शुद्ध शक्तिवर्धक भोजन के इतने अभ्यासी हैं कि मिड डे मील को चखना तो क्या स्पर्श नहीं करना चाहते, लेकिन यह लेडी आफीसर चखती हैं. बोले -

‘‘हमें चतुर्वेदी जी जैसे कर्तव्य करने वाले अधिकारियों की जरूरत है.’’ इतना कह कर वे शिक्षक की ओर मुड़े ‘‘आपकी जो भी समस्याएं हैं, लिखित में दें. कार्यवाही की जायेगी.’’

‘‘जी.’’

फटकन उसे नहीं अधिकारियों को पड़ी है इस बोध ने उसे इतना उत्फुल्ल बना दिया कि समूह के प्रस्थान करते ही उसने विद्यार्थियों की छुट्टी कर दी.

शिक्षा के मंदिरों की दुरावस्था देख कर सचिव का मस्तक तापमापी की तरह गरमा रहा था. मस्तक तप रहा हो तो मनुष्य हाँफने लगता है. विद्यालय में एक भी कुर्सी नहीं थी जिस पर देह टिका कर वे श्वसन तंत्र को थोड़ा सुचारू कर लेते. वाहन तक पहुँचते हुए हाँफ गये. वाहन की आगे वाली प्रतिष्ठित सीट पर बैठ कर श्वसन तंत्र को आराम देने का उपक्रम किया. आर.ओ. पानी पीकर खिन्नता कम की. हथेली फैला कर चालक को बरबसपुर चलने का संकेत दिया.

बरबसपुर.

सुगम पथ होने से वाहन विद्यालय तक सुगमता से पहुँच गया. बरबसपुर का विद्यालय बूटी की भगिनी शाला की तरह जान पड़ता था. एक कमरे में दो कक्षाएं चल रही थी. युवा शिक्षक नर्मदा हिंदी पढ़ा रही थी. युवा शिक्षक दुष्यंत गणित पढ़ा रहा था. दुष्यन्त विवाहित है तथापि संतुलन खोकर नजर नर्मदा जैसी लावण्यमयी कुमारिका पर टिक जाती है. नर्मदा इस टिकने को महत्व नहीं देती. इसके प्रेमी के परिजन विजातीय विवाह के लिये तत्पर नहीं हैं. ‘बरौं सम्भु न त रहौं कुँआरी’ जैसा असाधारण संकल्प कर नर्मदा खुद को विश्वसनीय प्रेमिका बनाये हुए है. दुष्यन्त जब घुसपैठ की चेष्टा करता है, कह देती है ‘‘बच्चो शांत रहो.’’ दुष्यन्त समझ लेता है शांति की बात दरअसल उसके लिये है. वह अपनी जन्मजात तेज आवाज को तेज कर इस तरह गणित पढ़ाने लगता है कि हिंदी के विद्यार्थी इमला लिखते-लिखते अंक लिखने लगते हैं. नर्मदा हिंदी वालों से प्रश्न पूछती है, गणित वाले जवाब देने लगते है. गणित और हिंदी के बीच गजब का घालमेल है. घालमेल में दत्त नर्मदा और दुष्यन्त को कक्षा के द्वार में हलचल होती प्रतीत हुई. देखा घुसपैठिये की तरह आ पहुँचा समूह विस्मित है. समूह के मध्य खड़ी प्राचार्या पिटे हुए प्यादे की तरह लग रही हैं. सचिव समूह से थोड़ा आगे बढ़ आये -

‘‘एक रूम. क्लास दो. शिक्षक दो. विषय दो. गणित और हिंदी. यह हाई स्कूल की स्थिति है मैडम?’’