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  • सुषमा मुनीन्द्र

किसी शख्स का तस्‍वीर बन जाना



कुल दो दिन का उपचार और किसी का व्यक्ति से बॉडी बन जाना, कितनी अजीब बात है न।

घर की इन तीन कमाऊ मूर्तियों ने मिथिला के प्रति न कभी चिंता जाहिर की न आशंका। अब गहरे अचरज बल्कि सदमें में भर कर सोच रहे हैं वह व्यक्ति से बॉडी कैसे बन गई? ठीक अड़तालीस घंटे पहले तक मजबूत चाल से चहुँ ओर चलते हुए घर को सुरक्षा दे रही थी, चीजों को नुकसान से बचा रही थी, दायित्वों को सही वक्त पर सही तरीके से सम्पन्न कर रही थी। यह भी हो सकता है मजबूत चाल से नहीं चल रही थी जिस तरह चला करती थी। कमाऊ मूर्तियों को बिल्कुल जानकारी नहीं है वह कब से उस तरह नहीं चल रही थी, जिस तरह चला करती थी। रात का जब एक बज रहा था वह छाती में दबाव और घबराहट की सघनता झेल रही थी। नींद में किसी किस्म की खुराफात पसंद न करने वाले तीन कमाऊ मूर्तियों में प्रमुख मूर्ति मरूधर की नींद, मिथिला के बार-बार उठने-बैठने से भंग हो गई। नींद आये, न आये मरूधर आमतौर पर रात दस बजे बिछावन पर काबिज हो जाते हैं और सुबह आठ बजे बिछावन से रिहा होते हैं। मिथिला उनके सोने के बाद सोती थी। जागने से पहले जाग जाती थी। सोने से पहले तांबे के जग में एक लीटर पानी भर उसमें चार रुद्राक्ष डाल देती थी कि मरूधर सुबह की शुरुआत इस स्वास्थ्य वर्धक पानी के साथ करते हैं। उनके जागने से पहले चाय तैयार कर लेती थी कि उनकी चाय की तलब रोके नहीं रुकती है। मरूधर उसका सोना और उठना न जान लें इस मुद्दे पर वह भारी सतर्कता रखती। जब कभी जान जाते इल्जाम तैयार -

‘‘इतनी सुबह क्यों उठती हो ? तुम्हारे उठने से मेरी नींद चैपट हो जाती है। मुझे पूरी नींद चाहिये। दिन भर चैम्बर में साँस लेने की फुर्सत नहीं मिलती। तुम दिन में सो लेती होगी।’’

उन दिनों मिथिला ने खुद को घर-बार से इतना न्यूट्रल नहीं किया था कि अपने पक्ष में जरूरी दलील न दे।‘‘देखा है मुझे दिन में सोते हुए ? घरेलू काम में इतनी मेहनत और प्रेशर है कि मुझे भी साँस लेने की फुर्सत नहीं मिलती।’’

‘‘तुम्हारे शरीर को कम नींद की जरूरत होगी मेरे शरीर को अधिक है, यह बात दिमाक में बैठा लो।’’

कई-कई बातों की तरह उसने यह बात भी जेहन में बैठा ली थी। बिना आहट किये बिछावन पर आती, बिना आहट किये उठ जाती। छाती में अफरा-तफरी के बावजूद उसने आहट न होने देने की कोशिश की पर कुछ कोशिशें कामयाब नहीं होतीं। भंग नींद का रोष लिये मरूधर ने करवट बदली। मिथिला को आरोपी बनाते किंतु मामला गम्भीर लगा। उन्होंने ऊपरी हिस्से में सो रहे दूसरी कमाऊ मूर्ति विशेषण के सेल फोन पर कॉल किया। इस दो मंजिले घर का यही चलन है। मरूधर और मिथिला नीचे, विशेषण, तीसरी कमाऊ मूर्ति निष्पति, बंटी और बबल ऊपर सोते हैं। जरूरत पड़ने पर बेल का बटन दबा कर विशेषण को हाजिर किया जा सके इस निहितार्थ पहली सीढ़ी के पास कॉल बेल लगाई गई थी। एक बार मिथिला ने प्रातः सात बजे बटन दबा दी। भंग नींद की आक्रामकता लिये विशेषण ने तत्काल प्रभाव से बेल उखाड़ फेंकी। नीचे आकर गरजा ‘‘अम्मा, मुझे ये तानाशाही नहीं जमेगी। सात बजे उठने का मतलब है दिन भर झपकना और मुंह फाड़ना। आज मैं कार चलाते जुये सड़क पर सो जाऊॅंगा।’’

तब से सेल फोन पर खोज खबर दी और ली जाती है। निष्पति और विशेषण इस तरह चेहरा बनाये हुए आये मानो रात में तबियत बिगाड़ कर मिथिला ने जुर्म किया है। मिथिला थकी-बहकी सी लगी वरना विशेषण कहता - यह वक्त है तबियत बिगाड़ने का ? उसे देखते ही मरूधर बोले -

‘‘कार निकालो, अस्पताल चलना है।’’

मरूधर और विशेषण ने मिथिला को अगल-बगल थाम लिया। मिथिला को न मरूधर के स्पर्श की आदत थी न विशेषण के। मरूधर ने उसे सम्पूर्ण संवेदना के साथ कभी स्पर्श नहीं किया। जब से निष्पत्ति का पदार्पण हुआ विशेषण ने भी अपना स्पर्श समेट लिया। शिथिलता के बावजूद मिथिला दोनों मूर्तियों के स्पर्श से स्वयं को भरसक बचाते हुए अपने ही स्पर्श के बल पर खुद को साधने की चेष्टा कर रही थी। उसे आई0सी0यू0 में भर्ती कर चिकित्सक ने-

‘‘मरीज की स्थिति अच्छी नहीं है। चैबीस घंटे तक कुछ कहा नहीं जा सकता।’’

चैबीस घंटे बीतने पर बोले ‘‘मरीज का विल पावर पुअर है। दवाईयाँ कितना रेसपाण्ड करेंगी कहा नहीं जा सकता।’’

अड़तालिस घंटों की मियाद में मिथिला व्यक्ति से बॉडी बन रही थी, उधर मुँह औंधाये समीप बैठे पिता-पुत्र एक-दूसरे पर अभियोग लगा रहे थे। इन दोनों ने मिथिला पर इतने आरोप लगाये हैं कि खुद को सही और समझदार और सामने वाले को अल्प बुद्धि साबित करने की इन्हें आदत हो चुकी है -

‘‘पापा, अम्मा इतनी बीमार है लेकिन आपको मालूम नहीं। आप उनको इतना नेगलेक्ट क्यों करते हो ?’’

‘‘तुमने उन्हें कौन सा सम्मान दिया? हर बात में जाँच बैठा देते हो यह नहीं किया, यह किया तो उस तरह नहीं किया जिस तरह करना चाहिये। तुमने और निष्पत्ति ने उन्हें एक फिलर मान लिया है कि जो काम कोई न करना चाहे, उन पर थोप दो।’’

विशेषण ने वेधक दृष्टि से मरूधर को विलोका। वह निष्पति को इस तरह सिया सुकुमारी बनाये रहता है कि उसकेा तर्जनी दिखाने का मिथिला साहस न करती थी। पापा इल्जाम लगा कर मान हानि किये दे रहे हैं -

‘‘निष्पति को बीच में मत लाओ पापा। आप सुबह ठीक नौ बजे इस तरह चैम्बर के लिये भागते हो जैसे घर में रात नहीं सजा काटी है। दस मिनिट इधर-उधर हो जाये तो अम्मा दोषी। अब चैम्बर कर्मचारियों के आसरे छोड़ कर अस्पताल में बैठे हो कि नहीं?’’

‘‘क्लाइन्ट आने लगते हैं। ठीक वक्त पर चैम्बर जाना पड़ता है। तुम्हें इस सिद्धान्त को समझना चाहिये पर तुम और निष्पत्ति जोड़ी बना कर ग्यारह के बाद चैम्बर आते हो। निष्पत्ति को सजने में वक्त लगता है, तुम्हें उसके इंतजार में।’’

यही कहते थे -निष्पत्ति योग्य है, चैम्बर का माहौल अच्छा बना देती है, इलेक्ट्रिक कैटल में ग्रीन टी बना कर थकान दूर कर देती है। अब निष्पति दुर्गुणों का भंडार हो गई।

‘‘निष्पति को बीच में मत लाओ पापा।’’

‘‘विशेषण, तुम्हें सुनना पड़ेगा। घर एक है पर तुमने अपना अलग परिवार बना लिया है। मिथिला का दुःख-दर्द कभी नहीं पूँछते थे इसीलिये उनका विल पावर कमजोर होता गया।’’

इधर आरोप-प्रत्यारोप।

उधर मिथिला की सांसें खारिज।

मरूधर और विशेषण फक्क हो गये। लगा एक किस्म की असुविधा में डाल दिये गये हैं। एम्बुलेंस में बॉडी लेकर घर आये। बाहरी बरामदे का ग्रिल गेट खुला था। पाँच साल का बंटी व तीन साल की बबल लॉन में लगे चैड़े पटरे वाले झूले में चिलचिलाते घाम में लावारित बने झूल रहे थे। बच्चे वक्त-बेवक्त झूला झूलने चल देते थे इस फिक्र में मिथिला दिन में भी ग्रिल गेट में ताला लगाती थी। विशेषण ने मरूधर पर जो आरोप लगाये उसका धनात्मक असर है या महज अनुमान लेकिन उनको लगा अब बहुत कुछ सुचारू न रह जायेगा। मरूधर ने विशेषण पर जो आरोप लगाये उसका धनात्मक असर है या खुला गेट खतरे की सूचना देता हुआ लगा कि उसे पहली बार निष्पत्ति अव्वल दर्जे की मंद बुद्धि लगी। सेल फोन पर बता दिया था अस्पताल से आ रहे हैं फिर भी घर खुला छोड़ कर भीतर घुसी पता नहीं कौन सा हुनर सम्पन्न कर रही है। जरा होश नहीं बच्चे झूले से गिर सकते हैं, धूप में बीमार हो सकते हैं, अपहरण हो सकता है। इस अनआर्गेनाइज्ड कालोनी का यह सबसे उत्तम घर है। औसत कद वाले मर्द के बराबर ऊॅंचाई वाली मजबूत चैहद्दी से घिरे रहीस परिवार से हर कोई अपनापा जोड़ने की जुगत में है। बंटी और बबल के लिये एम्बुलेंस कौतुक का विषय थी। दोनों झूले से कूद कर दौड़ पड़े। हल चल का आभास पाकर निष्पत्ति ऐसे हाव-भाव में बाहर नमूदार हुई मानो सप्ताह भर से व्यस्त थी। क्रंदन नहीं हुआ लेकिन ताजा मौत की अपनी एक ध्वनि और गंध होती है। समूह भर मोहल्ले वाले जिनमें महिलायें अधिक थीं जुहा गये। मामूली वित्त वाले मोहल्ले का व्यवहार मिथिला निभाती थी। मरूधर का मेल-मिलाप शहर के बिग शाट्स से, विशेषण और निष्पत्ति का साइबर एज वाले युव जन से है। मोहल्ले की महिलायें मिथिला के माध्यम से इस परिवार को जानती-पहचानती हैं पर ये तीन मूर्तियाँ नहीं जान रही थीं शोक व्यक्त करने आये ये लोग किस घर में रहते हैं और किस नाम-उपनाम से जाने जाते हैं। अच्छी बात यह थी शोक अवसर पर संवाद नगण्य होते हैं। लोग दो शब्द कह कर लौट गये। जीवन फिर भी थोड़ी फुर्सत और इत्मीनान दे देता है, मौत नहीं देती। विद्युत जैसी त्वरा से संस्कार करने होते हैं। मिथिला को मुखाग्नि देते हुए मरूधर ने माना मिथिला को खारिज करते रहे हैं पर कुछ तारीखों को खारिज नहीं कर पाये हैं। एक वह तिथि थी जब उच्च कुलीन ब्राम्हण की संस्कृत से बी0ए0 कन्या मिथिला का प्रस्ताव आते ही बाबूजी ने लपक लिया था -

‘‘हम अच्छे ब्राम्हण नहीं हैं। ऊॅंचे ब्राम्हण की लड़की हमारे घर आये इसमें हमारी शोभा है। ............ खूबसूरत नहीं है तो बदसूरत भी नहीं है ............ संस्कृत पढ़ी है मतलब बेल बाटम वाली नहीं होगी। मतलब लिहाज-कायदा जानती होगी।’’

मरूधर सर्वनाश से गुजरे थे। अपने साथ विज्ञान स्नातक कर रही बेल बाटम वाली चाँद सी महबूबा से चाहतें चला रहे थे। स्नातक के बाद ये एल0एल0बी0 वह एम0ए0 करने लगी, क्योंकि विज्ञान दोनों से नहीं सम्भल रहा था लेकिन मामला रद्द न हुआ था। जो कि अपनी ब्राम्हणी सुधारने में मुब्तिला बाबूजी ने रद्द कर दिया। उन्होंने अम्मा के माध्यम से कहलाया - मिथिला पसंद नहीं है। जवाब में बाबूजी ने वाया अम्मा नहीं डायरेक्ट उनसे कहा ‘‘टैक्सेशन की यह जो विचित्र वकालत शुरू किये हो, जिसका हम नाम तक नहीं सुने हैं कि यह कउने अदालत में होती है, से रोटी-नोन का इंतिजाम नहीं कर पा रहे हो लेकिन चाहिये मोगरा का फूल। मैं सब तय तमान (विवाह पक्का) कर चुका हूँ।’’

याद आई पहली रात। वे अपनी चाँद सी मेहबूबा को लाल साड़ी से जोड़ कर देखा करते थे जबकि मिथिला पीली साड़ी पहने थी। उसके पतले-सरल चेहरे में अब तक गृहस्थी के नाना जंजाल से बेफिक्र रहने की ताजगी थी। उन्हें ताजगी दिखाई नहीं दी क्योंकि वे उसकी ओर नहीं देख रहे थे। दिनों तक उससे छिटके हुए चिड्डे से कूदते फिरे। लेकिन दैहिक संवेग जबर होता है। नयेपन में कुछ न कुछ आकर्षण होता है। बाबूजी ने अलग लतियाया यूँ चिड्डे जैसे कूदते फिरोगे तो दुलहिन तुम्हें बौड़म समझ लेगी। मिथिला की जरूरत न बताने, शिकायत न करने जैसी शालीनता ने बहुत नहीं पर इतना असर तो बना ही लिया जब वे कभी-कभी उसे अपनी कृपा देने लगे। वे शब्द, वाक्य, संकेत कभी नहीं दिये जो भावनाओं-सम्भावनाओं को मजबूती देते हैं। मिथिला ने इस ओर ध्यान न दे तकदीर से तादात्म्य बना लिया। इन्होंने चैन की बंसी बजाई कि इसको लेकर कुछ खास सोचना-विचारना न पड़ेगा।

दाह संस्कार कर मरूधर और विशेषण घर आये।

घर, घर नहीं लग रहा है। यदि लग रहा है तो मिथिला की तरह चुप लग रहा है। इतना चुप कि रुदन के स्वर भी नहीं हैं। लोक लाज के लेखे पत्नी के लिये खुले आम रोना लज्जाजनक माना जाता है। सच कहें तो मरूधर को रोना आया भी नहीं। विशेषण नहीं रोया। जिस तरह तल्ख होकर मिथिला से बहस करता था, रोना आडम्बर की तरह लगता। निष्पति को भी रोना नहीं आया लेकिन स्त्रियों में पता नहीं कौन सी क्षमता होती है, यदि प्रयास कर लें तो चार-छः औपचारिक आँसू निकाल ही लेती हैं। निष्पत्ति के नयन में थोड़ा नीर आ ही गया। बैठक का फर्नीचर हटा कर गद्दे-दरियाँ बिछवा कर शोक व्यक्त करने आने वालों के बैठने की व्यवस्था बना दी गई। मरूधर ने चूँकि अग्नि दी है, शुद्ध (दश गात्र) तक उन्हें अलग-थलग समय बिताना होगा। विशेषण से बोले -

‘‘अपनी अम्मा की कोई तस्वीर फ्रेम करवा कर बैठक में रख दो।’’

तस्वीरें कहाँ रखी होंगी जैसी सम्यक जानकारी विशेषण को नहीं है ‘‘पापा कुछ आइडिया है, अम्मा तस्वीरें कहाँ रखती थीं ?’’

मरूधर की जानकारी विशेषण से कम है।

‘‘मैंने ध्यान नहीं दिया।’’

विशेषण आरोप पर उतरा ‘‘अपने बेडरूम का आपको मालूम होना चाहिये पापा।’’

मरूधर का जवाबी हमला ‘‘तुम्हें मालूम क्यों नहीं होना चाहिये ?’’

‘‘आप यह भी नहीं बता पाओगे बैंक लॉकर की चावी कहाँ रखी है और लॉकर नम्बर क्या है।’’

जब मिथिला इतनी चुप नहीं हुई थी, मरूधर को बताती थी पुरानी अलमारी के सीक्रेट चैम्बर में जरूरी कागजात और लॉकर की चाबी रखी रहती है। उन्होंने उसकी तमाम बातों की तरह इस बात को भी नहीं सुना था।

‘‘लॉकर की चिंता छोड़ो। तस्वीर ढूँढ़ो। निष्पत्ति से पूछो।’’

विशेषण, रसोई में चाय खौला रही निष्पति के पास आया ‘‘निष्पति अम्मा की तस्वीर कहाँ रखी है ?’’

सी0ए0 (चार्टर्ड एकाउण्टेन्ट) होने का गौरव प्राप्त, सैण्डिल चढ़ाकर चैम्बर जाने को उद्धत निष्पति रसोई से तादात्म्य कम ही बनाती थी। छुट्टी-छपाटी को बनाती तो मिथिला स्टोर से चावल, दाल निकाल देती थी कि यह बनना है, इतनी मात्रा में बनना है। इस वक्त उसका मुख खिसियाये रसोइये की तरह लग रहा था।

‘‘अम्मा अपनी चीजों का सुराग नहीं लगने देती थीं। मुझसे रसोई का काम ही नहीं सम्भल रहा है।’’

यह ऐसी अशिष्ट टोन में बात नहीं करती थी।

‘‘देख रहा हूँ, नहीं सम्भल रहा है।’’

यह उसी तरह आरोप लगाना चाहता है जिस तरह अम्मा पर लगाता था।

‘‘देख रहे हो तो तस्वीर के बारे में मुझसे क्यों पूछ रहे हो?’’

‘‘बेवकूफ जो हूँ।’’

कह कर विशेषण, मिथिला के शयन कक्ष में चला आया। उसे थोड़ा अनुमान है मिथिला शयन कक्ष से लगे छोटे बॉक्‍स रूम में जरूरी चीजें रखती थी। अंक सूचियों की जरूरत पड़ने पर वह कुछ बार मिथिला के साथ यहाँ आया है। मरूधर इस कमरे में नहीं आते थे। ये लोग घर के उन हिस्सों में आते-जाते हैं जहाँ इनकी जरूरतें पूरी होती हैं। मिथिला, आकांक्षा, आवश्यकता या यूँ ही घर के प्रत्येक हिस्से से जान-पहचान बनाये रखती थी। बॉक्‍स रूम की चैड़ाई वाली दीवार से लगे तीन रैक जो चैम्बर में अनुपयोगी हो जाने से घर ले आये गये थे, रखे हैं। अलमारियों में मिथिला की साड़ियाँ, कीमती कागजात, अंक सूचियाँ, तस्वीरें हैं। रैक में तरतीब से किताबें लगी हैं। विस्मित विशेषण। कितनी किताबें। क्या अम्मा घर के पते पर डाक से मॅंगवाती थीं ? विशेषण ने कुछ किताबों के आरम्भिक पन्ने पलटे। एक किताब के दूसरे पन्ने पर शीर्षक के ठीक नीचे मिथिला की हस्तलिपि में लिखा था - पहले भरोसा टूटता है, फिर उम्मीद टूटती है, फिर रिश्ते में कुछ नहीं बचता।’ एक और किताब में लिखा था - संयुक्त परिवार एक अर्थ में अच्छे होते हैं पर एक साथ रह कर भी कई धड़े बन जायें तो संयुक्त परिवार अपना अर्थ खो देते हैं।

विस्मित विशेषण। अम्मा ने अपनी वेदना लिखी है या किताब के किसी अंदरूनी पन्ने की ये पंक्तियाँ उनके मर्म को यूँ छू गई कि उन्होंने उद्धरण के तौर पर लिख लिया। ओह ........ अकेलेपन को सार्थक बनाने के लिये अम्मा, प्रकाशकों से किताबें मॅंगवाती रही होंगी। जो भाव उन्हें घर के सदस्यों से नहीं मिले, या बाद में मिलना बंद हो गये, उन्हें किताबों में ढूँढ़ती होंगी। किताबों की मदद से अपना एक व्यक्तिगत संसार रच लिया होगा। सीख रही थीं जीवन को कैसे विश्लेषित करें, कैसे व्याख्यापित कि जीने के लिये किसी के सहारे की जरूरत न पड़े। अब तो चुप रहने लगी थीं लेकिन पहले कभी-कभी, औचक ऐसे वाक्य बोल देती थीं जिनमें मर्म होता था। वह खीझ जाता -

‘‘अम्मा तुम बात को पता नहीं क्या बना देती हो। न तुम्हारा इनटेन्शन सही होता है न इन्टरप्रेटेशन। तुम घर सम्भालती हो तो हम तीनों चैम्बर सम्भालते हैं। अपना-अपना काम कर रहे हैं पर तुम्हारी तरह शाबासी या सहानुभूति पाने के लिये नहीं। ड्यूटी समझ कर करते हैं। पॉजीटिव एप्रोच रखो।’’

निष्पति के सम्मुख तौहीन होते देख मिथिला का मुख फक्क हो जाता।

‘‘तुम क्यों नहीं रखते ? सरल बात को मुद्दा बना देते हो। बेटा जिस पर बीतती है उसकी इन्टेनसिटी वही समझ पाता है। दूसरे सिर्फ महसूस कर सकते हैं तुम वह भी नहीं करते।’’

अम्मा की हस्तलिपि देख विशेषण का दिल वाष्प की तरह हो गया। वाष्प को देख कर नहीं छूकर ज्ञात होता है गीलापन भले ही दिखाई नहीं देता पर वाष्प गीली होती है। ‘सीधे का मुँह कूकुर चाटे’ जैसी कहावत को सत्यापित कर वह सरल अम्मा पर दोष थोप खुद को बरी कर लेता था। कोने को छू रहे तीसरे रैक में चिकित्सक के दो-तीन पर्चे और दवाइयाँ मिली। विस्मित विशेषण। अम्मा चिकित्सक के पास जाती थीं? दवाइयाँ खाती थीं ? उसने आँखों में भर आई वाष्प को पोंछा और तस्वीर ढूँढ़ने लगा। गत्ते के बड़े चैकोर डिब्बे में रखी कुछ तस्वीरें मिल गईं। कई पारिवारिक तस्वीरें। मिथिला कुल पाँच तस्वीरों में अकेली है। एक में दिल खोल कर हॅंस रही है। विशेषण याद न कर पाया मिथिला को अंतिम बार हॅंसते कब देखा था। शायद इस तस्वीर में अंतिम बार हॅंसी हो। वे पुराने अच्छे दिन थे। विशेषण से बड़ी बहन विवेकी, छोटी बहन विशाखा, विशेषण स्कूल से लौट कर दैनिक वृतांत सुनाते थे। मिथिला खूब हॅंसती थी। विशेषण तस्वीर लेकर मरूधर के पास आया -

‘‘पापा, अम्मा कभी इस तरह हॅंसती थीं ?’’

मरूधर नहीं जानते वह कब हॅंसती थी, कब उदास होती थी।

‘‘हॅंसती थीं, तभी तो यह तस्वीर है।’’

विशेषण की इच्छा हुई कहे - प्रामाणिक तौर पर बताओ पापां आप उनके पति थे।

‘‘अम्म