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  • सुदर्शन वशिष्ठ

चतुर्भुज

लगा, जैसे मैं जा रहा हूं ... वही कद ,वही काठी, चालढाल; सब वही. टेढ़ी गर्दन, उलझे बाल, लटके गाल, खुली पेंट, ढीला कोट, बढ़ा पेट, कन्धे पर लटका ख़ाली झोला, चाल वही मस्तमौला. उंगलियों पर कुछ गिनना, गर्दन का पैण्डुलम की तरह हिलना, उचक-उचक कर चलना, बार-बार हाथ मलना ... अरे! मैं ही तो हूँ.

कई बार वह अपने को राह में चलते हुए इमेजिन करता है. कैसे आ रहा है ...अब रुका, अब किसी से मिला, हाथ मिलाया, आगे बढ़ा. किसी समारोह या आयोजन में जाने से पहले अपने को देखता ... ऐसे उठ रहा है, धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है. अब स्टेज पर चढ़ा है, उपस्थित लोगों को दोनों हाथ जोड़ नमस्कार की मुद्रा बनाई. एकाउंटेंट-जनरल को नमस्कार किया, हाथ मिलाया ...आॅडिट पार्टी का मुखिया बना है. सभी उसे रिसीव कर रहे हैं. किसी से हाथ न मिला कर सीधा आगे बढ़ता हुआ फायलें बिल्ली की तरह दबोच रहा है, किसी बिल पर पेंसिल से बड़ा सा लाल गोला बना कर घूर रहा है ... अरे! वह तो हिमबाला के साथ चला जा रहा है, एकदम मस्त. देखो तो सही ...आदि आदि आदि.

अपने को, अपने से देखने में उसे बड़ा मजा आता. सोचता, कोई उसका चलचित्र न सही, वीडियो ही बनाए तो अपनी सब भाव-भंगिमाएं, मुद्राएं देखे. सम्भव हो तो अपने पोस्चर और पोज़ में सुधार करे. जब कभी राह में चला हो, अपने को जैसे देखता हुआ चलता.

बिना आइने के कोई अपने को देखता है! ... हां, वह देखता है. बाहर से भी देखता है, भीतर से भी देखता है. आइना साफ़-साफ़ नहीं दिखा पाता. आइना जैसा है, वैसा ही तो दिखाएगा. कभी एकदम तेजस्वी, कभी मटमैला. बहुत बार आइना सच नहीं बोलता. यह आइने की मैल और देखने वाले की दृष्टि पर भी निर्भर करता है.

आगे जाने वाला अपने में मगन जा रहा था कि सामने से एक सज्जन ने उसे रोक कर हाथ मिलाया, अरे! चतुर्भुज जी आप! बहुत दिनों बाद दिखे ... कहीं गए थे क्या!

अरे! ये तो मैं ही हूं ... मेरा ही नाम है चतुर्भज. मति भ्रष्ट हो गई है मेरी. अपने को ही नहीं पहचाना ... शायद इसीलिए संत लोग बार बार कहते हैं, अपने को जानो, अपने को पहचानो. एकाएक जोर से हंस दिया चतुर्भुज.

चलते-चलते थोड़ी चढ़ाई के बाद हिमाचल निर्माता डाॅ. परमार के बुत के पास आ गया. जिस पार्क में यह बुत लगा था उसके दोनों ओर चिनार के पेड़ थे. इस ओर का पेड़ ऊँचा और पुराना था. दूसरी ओर भी दो नये पेड़ उगाए गए थे.

डाॅ. परमार के बुत के साथ कलाकार एम.सी.सक्सेना द्वारा निर्मित हिमबाला हाल ही में स्थापित की गई थी. इससे पहले, भले दिनों में, वह आशियाना रेस्तरां के दूसरी ओर खड़ी रहती थी. वहाँ से हटा दिए जाने पर पर कुछ दिन गायब रही. अब यहाँ पुनः साक्षात् प्रकट हुई. हिमबाला के घड़े से जब चाहो पानी पी लो, जब चाहो फोटो खिंचवा लो. सैलानी पैर से हैण्डल दबाते और पानी का फुहारा सा निकल पड़ता. मूर्तिकार सक्सेना दूर खड़े मुस्काते. रोज़ शाम वे मूर्ति को देखते हुए वहाँ से गुज़रते.

आजकल, अक्तूबर के बाद चिनार से चौड़े पत्ते पीले हो कर झड़ने लग जाते. इधर के पत्ते माॅल-रोड की सड़क में और उधर के आशियाना रेस्तरां तक उड़ते जाते. चिनार का एक पीले रंग का पंचमुखी चौड़ा पत्ता चतुर्भुज के पाँवों में आ गिरा. तभी जैसे लताजी गा उठीं:

खिजां के भेस में गिरते हैं अब पत्ते चिनारों से

ये राहें याद करती हैं,ये गुलशन याद करता है.

अचानक हिमबाला मूर्ति से बाहर निकली. डाॅक्टर परमार बुत बने खड़े रहे. मूर्तिकार सक्सेना आशियाना रेस्तरां से निकल कर सामने खड़े थे. हिमबाला ने उनकी तरफ नहीं देखा. चतुर्भुज भी अवाक् खड़ा था. हिमबाला ने उसकी तरफ भी नहीं देखा. आरज़ू का बेदर्दी बालमा गाना बेकग्राउंड में बजता रहा और देखते-देखते हिमबाला साधना की तरह आँखों में आँसू लिए सीरियस और उदास पोज़ में जाखू के जंगल की ओर चली गई.

तभी ज़ोर की हवा चली और चिनार के कई सूखे पत्ते सड़क में दूर-दूर तक बिखर गए.

यह दृश्य वैसा ही था जैसे कई बार चतुर्भुज को लगता, उसके शरीर से चतुर्भुज निकल कर आगे-आगे चला जा रहा है और जिसे वह आगे जाते देख भी रहा है.

हिमबाला चली गई. जंगल में आरे की खोज में या पता नहीं कहाँ. जिसने जाने की ठान ली है, वह तो जाएगा ही. जाने वाले को कौन रोक सकता है! आगे आ कर रेलिंग के सहारे खड़ा हो गया चतुर्भज.

लिफ़्ट के पास देवदार की चोटी पर दो बड़े जानवर बैठे थे. पहले बंदर से दिखे. इतनी ऊंचाई पर बंदर कैसे पहुंच सकते हैं! वे काफी देर बिना हिले-डुले बैठे रहे. एकाएक उनमें से एक उड़ा और अपने लम्बे चौड़े डैने फैलाए लिफ्ट के नीचे गहरे नाले में मंडराने लगा. इतने बड़े आकार के पक्षी पर उसकी नज़र पहली बार पड़ी. ये बाज नहीं थे. बाज तो बहुत स्मार्ट होता है. बड़ी फुर्ती से उड़ता है. ज़िंदा पक्षी को एकदम दबोच लेता है. ये गिद्ध भी नहीं है. गिद्ध नीचे-नीचे नहीं उड़ते. वे तो मरे हुए जानवर को खा कर एकदम गोलाकार घूमते हुए आकाश में बहुत ऊपर उड़ जाते हैं और अंत में दिखना बंद हो जाते हैं.

ये चील प्रजाति के बड़े-बड़े पक्षी हैं. उसे ध्यान आया, लिफ्ट के नीचे इसी नाले में बाईपास के साथ शहर का सारा कूड़ा-कर्कट फेंका जाता है. यह नाला सीधा श्मशान में जा कर, पवित्र हो कर प्रकट होता है जहाँ सड़क से नीचे कूड़े के भण्डार हैं. यहाँ भी दिल्ली की तरह बाईपास के साथ कूड़े के पहाड़ों के निकट गाड़ी के शीशे बंद कर नाक में रूमाल रखे गुजरना पड़ता है. गर्मियों में कूड़े की दुर्गन्ध नाले से होती हुई लिफ़्ट और माल-रोड़ तक जा पहुँचती है.

अब दोनों पक्षी नाले में नीचे-नीचे मंडराने लगे थे. कभी ऊपर आ जाते. कभी नीचे चले जाते. इन पर दुर्गन्धभरी हवा का कोई असर नहीं था. ये गंदगी पर ही बैठते हैं.

लिफ़्ट के नीचे नाले के ऊपर लेंटर डाल कर पार्किंग बनाई हुई थी. सड़क और पार्किंग के बीच खाली जगह छूट गई थी जिससे कई लोग नीचे गिर गए. कुछ समय तक यह स्थान आत्महत्या के लिए भी प्रयोग में लाया जाता रहा. ज्यादा हादसे होने पर और हो-हल्ला मचने पर इस खाली जगह को बंद किया गया. सड़क की दूसरी ओर ऊंचा जंगला लगाया गया ताकि वहाँ से कोई कूद न सके.

इस गहरे नाले को देख उसे याद आता वह रेलवे-स्टेशन जो दो पहाडि़यों के बीच गहरी खंदक में बना था. ऊपर से कोई अंदाजा नहीं लगा सकता था कि नीचे कोई स्टेशन भी रहा होगा. रेल भी इन पहाड़ियों से छिप छिप कर निकलती. हांलाकि पहाड़ी के ऊपर जा रही सड़क पर एक जगह ऐरो की शेप में पट्टी लगवाई गई थी: बड़ोग रेलवे स्टेशन.

जिस आदमी ने होणा-जीणा हो, वह गहन घाटियों के भीतर से भी जी उठेगा. जिसने मरणा-खपणा हो, वह शिखर से भी लुढ़क जाएगा, वह विचारता.

हिमबाला तक जाने के लिए इसी सोच-विचार में बस के इंतजार में खड़ा था कि लगा वह धस्स से गिर गया. ज़ोर की आवाज़ भी नहीं हुई. जैसे कोई सूखा लट्ठ या ठूंठ गिरता है जंगल में. तूफानों में जड़ से उखड़ने पर पुराने ठेले या ठूंठ पानी में, धूप में भीगते-सूखते खोखले हो जाते हैं. इन्हें न तो जंगलात महकमे वाले उठाते हैं और न ही ग्रामवासी. जो तने कभी लोहे से मजबूत होते थे, गल जाने पर न तो उनका शहतीर बनता है, न ही जलाने के काम आते हैं. यदि इन्हें उठा कर गिराया जाए तो धस्स सी आवाज होती है, अजीब सी.

ठीक ऐसी ही आवाज हुई. उसके गिरते ही बस के इंतजार मे खड़े लोग दौड़े. एक नेगी ने उसकी बाँह को सहारा दिया: क्या हुआ जी! कैसे गिर गए!

धीरे-धीरे लगभग घसीटते हुए उसे किनारे तक ले आए.

अभी-अभी एक बाईक गुज़री थी. लगा, बाईक ने धक्के से गिरा दिया बीच सड़क में. पहाड़ी सड़क में भी बाईक वाले लड़के बिना कुछ देखे तेजी से आगे निकलना चाहते हैं. बस-स्टाॅप पर दोनों ओर विपरीत दिशा में सवारियों के इंतजार में बसें खड़ी थीं. बाईक ठीक से बीच से तीर सा गुजरी थी.

पता चला, वह बाईक धक्के से नहीं, सड़क पार करते हुए अचानक खुद ही गिर गया.

अकसर बच्चे गिरने पर कहते हैं, मैं खुद ही गिरा. चाहे चोट लगी हो तब भी सब के सामने तुरंत खड़े हो जाएँगे और दौड़ने लगेंगे. या एक बार पुनः वैसे ही गिर कर दिखाएँगे. बड़े भी गिरने पर एक बार तो तुरंत खड़े हो जाते हैं. सहने योग्य चोट लगी हो तो ऐसा शो करते हैं कि लगी ही नहीं. बाद में चाहे रात भर कराहते रहें. ज्यादा लगी हो तो भी एक बार तो खड़े हो ही जाएंगे, फिर चाहे निढाल हो जाएँ.

चलते-हण्डते गिर जाने पर इकबाल का एक शेअर है:

गिरते हैं शहसवार ही मैदाने-जंग में

वो तिफ्ल क्या गिरे जो घुटनों के बल चले.

आज के जमाने को देखते हुए चतुर्भुज ने इस का एक रूपांतर कर लिया:

गिरते हैं राहगीर ही चलते सड़क में

वो बदनसीब क्या गिरे जो सिटी हौंडा में चले.

शेअर गुनगुनाते हुए उसे लगा, यह और कोई नहीं, वही गिरा है. उसे काॅलेज के समारोहोें मे पुरस्कार देने के समय या किसी महत्चपूर्ण व्यक्ति को स्टेज पर बुलाते हुए एनाउंसर के रटे-रटाए शब्द याद हो आएः नन अदर दैन ...

उसे लगा, यह नन अंदर दैन चतुर्भुज ही है.

पता नहीं चला, वह सड़क के बीचोंबीच गिर कैसे गया! सड़क में कोई ठोकर नहीं, कोई गतिरोध नहीं, अवरोध नहीं. यह तो गनीमत थी कि शहर में अभी उतना ट्रेफिक नहीं है कि गिरे हुओं को उठाया नहीं जा सके. जब उसे किनारे जा कर सीधा खड़ा करने की कोशिश की गई तो पीठ में कड़ाके के साथ असहनीय पीड़ा हुई ... लगता है रीढ़ की हड्डी टूट गई या स्पाइन में कोई एल-वन या एल-टू खिसक गई ... वह निढाल हो धस्स से पुनः नीचे गिर गया.

होश आया तो लगा, सरकारी अस्पताल के सख्त बेड पर सीधा लेटा है. डाॅक्टर कह रहे हैं, स्पाइनल इंजरी है. एक्स-रे करवा लीजिए. ठीक होने में वक्त लग सकता है. ओल्ड एज में ज्यादा वक्त लगता है.

लम्बी दूरी तय करने में वक्त तो लगता है!

प्यार का पहला ख़त लिखने में वक्त तो लगता है!

वह दर्द में भी जैसे गुनगुनाने लगता है.

घर से पत्नी जैसी आ गई है. उसकी सूरत रोने जैसी है. बेटा जैसा आ गया है. वह एक्स-रे फार्म लिए पैसे जमा करवाने जा रहा है. सभी मायूस हैं. माहौल ग़मगीन है. ये तो बुरा हुआ, किसी की रीढ़ की हड्डी न टूटे, कोई बोला.

अरे! वह तो ठीक है. यह क्या ऊटपटांग सोचने लगा. वह जो गिरा था बीच सड़क में, वह कोई और होगा साला. वह तो रिज पर हिमबाला के ठीक सामने खड़ा है. कई लोग गिरते रहते हैं. घर में चैन से नहीं बैठते, बस चले रहते हैं, चले रहते हैं. अब किस-किस की गिरावट वह अपने सिर ले.

ऐसे ही गिरे थे भाई. वे ठेले पर जाया करते थे, रेलवे-लाइन की मरम्मत करने. तब नहीं गिरे. एक आदमी लाल झण्डी लगे ठेले को धकेलता हुआ पटरी पर दौड़ता, बाकि आराम से बैठ जाते. वह आदमी और कोई नहीं, बहुत बार भाई होते. कुछ दूरी तक धकेलते हुए दौड़ने के साथ वे भी फुर्ती से ऊपर चढ़ जाते. चलती रेल से उतर जाते, चलती रेल पर चढ़ जाते. तब भी नहीं गिरे.

लाइन में रोड़ी बिछाने, हथौड़े से लाइन में ठोकपीट करने के कुछ समय बाद वे रेलवे-फाटक पर सिगनल-मैन लग गए. ड्यूटी खतम होने पर वे फाटक में ही लपक कर ट्रेन पर सवार हो जाते और सुरंग के ठीक बाद बने क्वार्टरों पर उतर जाते.

भाई मोरध्वज जब जामुन के पेड़ से गिरे थे, तब भी धस्स की आवाज हुई थी खेत में.

घर के साथ नीचे को ढलानदार खेत थे जिनमें आम, बेर, जामुन, कचनार के पेड़ थे. माँ और भाभी सुबह-सुबह रसोई में थीं. वह बरामदे में बैठा था. किसी को पता नहीं चला हांलाकि जामुन का पेड़ बरामदे से दिखता था. देर बाद माँ रसोई से निकली तो उसने नीचे देखा. पेड़ पर किसी टहनी के कटने की आवाज़ नहीं आ रही थी. मोरध्वज को गए काफी समय बीत चुका था. माँ और वह आँगन में आ खड़े हुए और नीचे देखने लगे. पेड़ के नीचे कुछ टहनियाँ बिखरी पड़ीं थीं. थोड़ी देर बाद बहुत गहरे में किसी के कराहने की आवाज आई तो माँ के चीखने के साथ ही वह नीचे भागा.

भाई बड़ी ऊँचाई से गिरे थे. शायद गिरते ही बेहोश हो गए थे. तीन दिन तक हाथ-पाँव मारते रहे, सुध नहीं लौटी. सिर में या कहीं और अंदरूनी चोट लगी थी. अंततः चौथे दिन सदा के लिए बेसुध हो गए.

मोरध्वज और चतुर्भुज जुड़वा थे. मोरध्वज कुछ क्षण पहले आया था इसलिए बड़ा माना जाता था. थे दोनों एक से. जैसे रामायण के बाली और सुग्रीव. भगवान भी न पहचान सके कि कौन मोरध्वज है और कौन चतुर्भुज. मोरध्वज का विवाह हुआ तो सभी हँसते कि भाभी के पास न चले जाना, वह पहचान नहीं पाएगी.

बड़े भाई का फर्ज़ निभाते हुए मोरध्वज रेलवे में दिहाड़ीदार हो गया. चतुर्भुज की पढ़ाई में लगन को देखते उसे सीनियर-सैकेण्डरी के बाद बी.ए. में दाखिल करवा दिया.

सिगनल-मेन बनने पर मोरध्वज को घर से दूर शहर में जाना पड़ा. अभी हफ़्ते भर कर छट्टी ले कर आया था कि दूसरे ही दिन यह हादसा पेश आ गया.

भाई के क्रिया-कर्म पर सब रिश्तेदार आए. चतुर्भुज की बदकिस्मती और मोरध्वज की पत्नी के भाग्य को कोसने के साथ दस-तेरह दिन गुज़रे. इस बीच किसी ने दबे स्वर में मज़ाक किया कि क्यों न चतुर्भुज भाई की जगह नौकरी पर चला जाए, कोई पहचान तो पाएगा नहीं. मज़ाक में की गई यह बात हकीकत बन गई ... अभी भाई की जगह लगने में ही भलाई है, आगे तुम्हारी मेहनत और किस्मत.

भाई के पुराने कपड़े पहन वह ड्यूटी पर गया तो बहुत बुरा लगा. कहाँ काॅलेज का मस्त माहौल और कहाँ सिगनल-मेन की नौकरी. घर के सामने खेतों से साल का गुजारा नहीं हो पाता था, छः महीने में ही अनाज चुक जाता. अब कम से कम परिवार का खर्चा तो निकलता रहेगा.

तब अच्छा ज़माना था. भले लोग थे. कुछ को पता भी चल गया कि यह मोरध्वज नहीं है, किसी ने आवाज नहीं उठाई. हमें क्या है, दो रोटी कमा कर खा रहा है तो खाता रहे. ठगीठोरी या चोरीचकारी तो नहीं कर रहा.

छोटा सा वह रेलवे-स्टेशन दो पहाडि़यों के बीच जैसे किसी खोह में बना था. इसी स्टेशन पर सिगनल देने की ड्यूटी थी. सिगनल से पहले एक लम्बी सुरंग थी. वहां से रेल निकलती तो लगता पहाड़ी के सुराख से कोई घोंघा निकल रहा धीरे-धीरे नासिकाओं से धुआं निकालता हुआ.

स्टेशन में न कोई सवारी चढ़ती थी न उतरती थी. वैसे भी सीज़न को छोड़ रेल में सवारियाँ बहुत कम होतीं. सीज़न में शौकीन सैलानी शौकिया रेल में बैठ पहाड़ जाते. नीचे जाने वाली शाम की रेल तो पूरी की पूरी ख़ाली होती. इक्का-दुक्का सवारी किसी डिब्बे में नज़र आती वरना शाम को मद्धम रोशनी में डिब्बे खटर-पटर करते सरकते जाते. रेल के जाने के बाद स्टेशन एकदम सुनसान हो जाता. न चाय-वाला, न पकौड़े-वाला, न कुली न कबाड़ी. सर्दियों में तो स्टेशन जैसे धुंध में डूबा रहता. पहाड़ की चोटी बर्फ ओढ़ लेती. बर्फ के फाहे ऊपर से उड़ते हुए स्टेशन में ठहरने के लिए मचल उठते. नीचे उन्हें जिंदा रहने के लिए उपयुक्त तापमान नहीं मिला पाता, इसलिए टिक नहीं पाते. पहाड़ की धुंध जैसे भारी हो कर स्टेशन पर पसर जाती तो रेल की लाइट भी मद्धम सी नजर आती.

रेल की सूचना आते ही वह तुरंत सिगनल डाउन कर देता. यह काम कभी कोई दूसरा कर देता तो वह लालटेन लिए स्टेशन के मुहाने पर इंजन-ड्राईवर को रोशनी दिखाता. स्टेशन कुल जमा तीन कर्मचारी थे. आसपास दूर तक कोई आबादी नहीं. ऊपर, घने जंगल ओढ़े पहाड़ियाँ. अन्धेरी पहाड़ियों पर ज़ोर लगा कर रेंगती बसों और ट्रकों की आवाज़ें दूर होतीं सुनाई पड़तीं. इन की रौशनियाँ जंगल में काँपती हुई लहरातीं जैसे कोई टाॅर्च से किसी को अन्धेरे में खोज रहा हो.

ऐसे में, जब भी मौका मिलता, वह शहर की ओर आने वाली रोज़ की रेल से क्वार्टर आ जाता. भाई ने यह अकलमंदी की थी कि क्वार्टर शहर के स्टेशन के पास ले रखा था. मुख्य स्टेशन के पास एक दोमंज़िली धज्जी दीवार की पुरानी बारग सी थी जिसकी निचली मंजिल में भाई का कमरा था. भाई ने जरूरत की सारी चीजें संजोई हुई थीं. पहली रात भाई के बिस्तर में सोने पर उसे सारी रात नींद नहीं आई. लगता, भाई ठेले को धकियाते हुए लोहे की सख़्त पटरी पर गिर गए. ठेला दूर निकल गया और वे वहीं पटरी के बीच पत्थरों पर पड़े रहे. या चलती रेल पर चढ़ते हुए पाँव फिसला और रेल के नीचे आ गए. कभी लगता, भाई गुमसुम से बाहर खड़े धीमे से दरवाज़ा खटखटा रहे हैं. जब रेल गुज़रती तो लगता एक दरवाज़े को फाड़ घुसेगी और दूसरे से निकल जाएगी.

उस समय भाप के ईंजन हाँफते-हाँफते चलते थे. रेल गुज़रती तो कमरे में धुआँ भर जाता. छुक-छुक की आवाज बहुत दूर से आनी शुरू हो जाती. यह फ़ायदा तो था कि कहीं भी चलती रेल से उतर जाओ और कहीं भी आराम से चढ़ जाओ. वह अपने क्वार्टर के पास उतर जाता. खाना पकाने व सेंकने के लिए इंजन के बुझे कोयले काम आते. हाँ, रात को सोने से पहले खिड़की व दरवाजे एक बार ज़रूर खोलने पड़ते.

भाई के कमरे में रहते हुए, भाई का अवतार बनते हुए महीना भर ही बीता था कि घर जाने पर माँ ने उसे भाभी की वेदना सुनाई. अब यह क्या करेगी. जवान औरत, हर समय डर लगा रहता है. आजकल तो पड़ौसी और रिश्तेदारों का भी भरोसा नहीं. इसे मायके भी नहीं भेज सकते. हमारे पास कुछ दाना-पानी तो है उनके पास तो वह भी नहीं.

हूं-हाँ की उसने, कुछ समझा नहीं.

दूसरी बार घर गया तो दूर के रिश्ते की बहन आई हुई थी. उसने ज़रा खुल कर बात की. अभी बाली उमर है इसकी, क्या पता इधर-उधर मुँह मारे. तेरे से आठ साल छोटी तो होगी ही. चार-पाँच जमात पढ़ी भी है. तू इसे ‘चादर’ डाल दे. ऐसा तो होता रहा है. घर की इज्जत घर में ही रहेगी. इसे और क्या चाहिए, रोटी के दो टिक्कड़ और मोटा-सोटा कपड़ा, बस्स. पूरा घर और बाहर का काम सम्भाल रखा है इसने.

अब उसकी समझ में बात आई. उसने भाभी को भाई के पुराने कपड़ों की तरह ओढ़ा, बिछाया. कभी उसे ग्लानि होती, कभी घिन आती तो कभी दया. वह पेट से थी. भाई की मौत के सात महीने बाद उसने एक लड़के को जन्म दिया. वह किसका है, यह कोई खुल कर पूछ नहीं पाया. सभी उसकी शक्ल चतुर्भज से मिलाने लगे. चतुर्भुज को लगता, भाई की आत्मा जो कभी उसकी देह में घुसी थी, अब इस बच्चे में आ गई है.

गहरी घाटी में वास करते हुए, मोरध्वज बनते हुए लग रहा था कि वह निरंतर डूबता जा रहा है. उसे वहाँ से निकल भागने की, अपना नाम पाने की चाह थी. स्टेशन में कुछ काम तो था नहीं, सिवाय दिन में चार-छः बार सिगनल खींचने के. पत्राचार से दाखिला ले कर उसने बी.ए. पूरा करने की ठान ली.

अपने बुते पर बुलंदियाँ छूना चाहता था चतुर्भुज. मन में पढ़ने की, कुछ बनने की चाह थी. काम करने की लगन थी. स्टेशन में आने वाले अखबार में रिक्त स्थान का काॅलम देखता रहता और फट से अर्ज़ी भेज देता. बी.ए. पूरा होने से पहले ही वह ए.जी. आॅफिस में क्लर्क सेलेक्ट हो गया.

ए.जी. आॅफिस में आने पर उसे अपना काम मिला, अपना नाम मिला. उसने भाई की आत्मा को अपने में सहेजते हुए भाई का चोला उतार फेंका. वह मोरध्वज से चतुर्भुज बन गया.

नयी नौकरी मिलने के तुरंत बाद उसने घर में विवाह का प्रस्ताव रखा. वह अपना, खुद का विवाह करेगा. अच्छी सरकारी नौकरी होने से तुरंत विवाह भी हो गया.

बिमला भाभी से हमेशा दूध और गोबर की गन्ध आती रहती. वह पशुओं के काम में जुटी रहती. खेतों का काम भी उसने सम्भाल रखा था, नई बहु सुलेखा को रोटी-रसोई का, भीतर का काम दिया हुआ था. वैसे भी बिमला भाभी तगड़ी थी और काम में जट्टी. बिल्ली की तरह पेड़ पर चढ़ जाती और पशुओं को चारे का भारी भारा उठा लाती. वह न बारिश से डरती थी, न रीछ से, न बाघ से. माँ के साथ रहने से उसकी आदतें भी माँ सी हो गईं थीं. चतुर्भुज से भी वह माँ की तरह व्यवहार करती. नई बहु दसवीं पास थी. उसने अंदर का, चौके-चूल्हे का काम सम्भाल लिया. माँ को आराम मिला और वह घर की ओर से बिल्कुल फ्री हो गया.

बिमला, घर में गोबर लिपे फर्श की तरह थी, गेरू लिपे गवाक्ष की तरह थी तो सुलेखा सफ़ेदी की दीवार या शीशे लगी खिड़की. बिमला में स्नेह था तो सुलेखा में दुलार.

भाई की ब्याहता से उसने दुलार किया एक बच्चे की तरह, डर-डर कर. अपनी ब्याहता से लाड़ किया, सम्भल-सम्भल कर, एक बड़े की तरह.

प्यार-व्यार का पता उसे पैंतीस के बाद चला. प्यार-व्यार कुछ तो होता भई. यह बिल्कुल बेकार की चीज नहीं है. आदमी खुल कर जीना चाहता है, जब प्यार हो. एक अजब स्फूर्ति से भर जाता है, एकाएक एक्टिव और रिएक्टिव हो जाता है. रोज नहा कर अच्छे कपड़े पहनना चाहता है, यदि प्यार हो. बनना-सँवरना चाहता है, यदि प्यार हो. इत्र-फुलेल, सेंट और डियो तक लगाना चाहता है, यदि यह प्यार हो. उसके मन में स्फूर्ति और चाल में तेज़ी आ जाती है, यदि प्यार हो. गुनगुनाता है, प्रफ़ुल्लित और प्रसन्न रहता है, चहक-चहक कर बात करता है, यदि प्यार हो. कई कुछ ऊटपटांग भी करता है, यदि प्यार हो और जो कभी नहीं करना चाहिए, करता है वह भी, यदि प्यार हो.

कभी लगता, उसने प्यार नहीं किया, जैसे गुनाह किया. मन में हमेशा डर सा बैठा रहता.

उसे पता चला क्यों चतुर्भुज होने की कल्पना की जाती है. आज उसे महसूस हुआ उसकी दो भुजाएं कम हैं. उसके पास तो चार से ज्यादा भुजाएं होनी चाहिएँ. जैसे एक योद्धा की हजार भुजाएं होने पर उसे सहस्रबाहो कहा गया. वह अपनी हजार भुजाओं से लड़ता था. बाणासुर की भी तो अनेक भुजाएं थीं. विष्णु की चार भुजाएं हैं तो वे जिसे मारना चाहें, उसका मरना तय है और जिसे जिलाना चाहें, उसका जीना तय है. कई काम एक साथ करने हैं तो बहुत सी भुजाएँ चाहिएँ. केवल चतुर्भुज नाम होने से काम नहीं चलता. लोग उसे चतुर्भज न कह कर चत्तरभुज पुकारते हैं.

चतुर्भुज हो कर वह तीन साल में आॅडिटर हो गया. फिर एस.ए.एस. की परीक्षा भी पास कर ली और ए.जी. आॅफिस में अनुभाग अधिकारी (आॅडिट) हो गया. कमरे के बाहर नेम-प्लेट लग गई: सी. वर्मा अनुभाग अधिकारी. कई परीक्षाएँ पास कर इस नेम प्लेट में वह हर साल कुछ और जोड़ना चाहता था. चाहता था कि रिटायरमेंट तक कम से कम डिप्टी एकाउंटेंट जनरल तो बन ही जाए.

जीवन स्तर बदला, साथी बदले. इस उम्र में इतना मैच्यूर होने जाने पर भी उसे पता नहीं चला कि कब वह आॅफिस की स्टेनो हिमबाला के साथ उठने-बैठने लग गया और इतना ज्यादा कि किसी दूसरे का साथ उसे बुरा लगने लगा. कब वे आॅफिस एक साथ आने-जाने लगे, कब वे पहाड़ की सुनसान सड़कों में अकेले घूमने लगे, कब रेस्तरां में पर्दे लगा कर बैठने लग गए, उसे पता ही नहीं चला. हिमबाला के साथ मिलने पर ही उसे लगा कि उसकी दो भुजाएँ कम हैं. आॅफिस में वह अपने काम के साथ उसका काम भी मिनटों में निपटा देता. अब उसे पता चला कि अच्छा साथी होने के लिए स्टेटस के साथ मेंटल लेवल भी एक सा होना चाहिए.

प्यार में गहरे उतरने में उसे वक्त तो लगा, वक्त का पता नहीं चला. यह गँवई अल्हड़ मूर्खता की तरह नहीं, शहरी और संभ्रान्त बुद्धिमता की तरह था. यह दिल से तो था ही, दिमाग से भी था.

इस पहाड़ी शहर में बहुतेरे ऐसे शख्स थे जिन्हें ‘सेल्फ मेड मेन’ के नाम से जाना जाता था. इन की प्रसिद्धि शहर तथा गाँव में बराबर थी. बल्कि गाँव में ज्यादा थी. चतुर्भुज भी अब उनमें एक था. ये लोग अपने बुते पर बुलंदियाँ छुए हुए थे. इन सब के गाँव में, बचपन में ही अनपढ़-गँवार लड़कियों से ब्याह हो गए थे और एकाध या अधिक संतानें भी थीं. अच्छी नौकरियाँ पाने पर और ओहदों पर पहुँचने के बाद इन्होंने गाँव से घरवालियों सहित नाता तोड़ दिया और शहरों में नए घर बसाने में पीछे नहीं रहे. गाँव में तो प्यार-व्यार होता नहीं. सीधे ब्याह होता है जिसमें ब्याह के बाद कर्ज़ चुकाने होते हैं. इसे एक ढोए हुए दायित्व की तरह लिया जाता है जिसे कम अधिक पूरा करने के बाद वे अपना स्वतन्त्र जीवन जीना चाहते हैं. गाँव से कोई अपवाद नहीं करता और शहर में कोई माइंड नहीं करता.

भई, इसमें सेल्फ मेड मेन का ही कसूर नहीं है, प्यार-व्यार का कसूर भी कम नहीं. ये कमवख़्त जब होता है तो हो ही जाता है. दायाँ-बायाँ, आगा-पीछा नहीं देखता. यह सब किसी के बस में थोड़े ही होता है.

हिमबाला, हिमबाला ही थी - गोरी-चिट्टी, किसी पहाड़ से झरने की तरह उतरी हुई. बर्फ सी सफेद और नर्म, हाथ लगाते ही पिघल जाए. पहाड़ में लहराते बादलों की तरह कन्धों तक फैले खुले बाल. वैसी सुंदर भी नहीं थी कि आदमी एकदम फ़्लैट हो जाए. सुंदर होना ही सब कुछ नहीं होता. सुंदर तो पत्नी भी कम नहीं है. सुंदर होने से ज्यादा महत्वपूर्ण है, सुंदर दिखना. सुंदरता एक सलीका होती है. ढंग के कपड़े पहनना, शालीनता से उठना-बैठना, अदा से बात करना आदि कुछ ऐसी बातें हैं जो साधारण आदमी को भी असाधारण बना देती हैं. शहर में लड़कियाँ सुदर नहीं हैं, अपने बालों को सैट करवा कर, फ़ेर्शियल करवा कर, नाप के कपड़े पहन कर बेहद आकर्षक हो गई हैं. वे चब्बर-चब्बर कर मुँह चलाते हुए नहीं खातीं, बड़े से बड़ा कौर डालने पर भी उनकी मुख-मुद्रा नहीं बिगड़ती. सुड़प-सुड़प कर आवाज़ करती हुई नहीं पीतीं. पता नहीं चलता कब गिलास मुंह से लगाया और ख़ाली भी कर दिया. वे चलती हैं तो जैसे चिनार का रंगीन पत्ता हवा में तैरता है धीरे - धीरे - धीरे. बोलती हैं तो हवा गुनगुनाती है. पास से गुजरती हैं तो वातावरण में नरगिस महकती रहती है देर तक.

ऐसे ही धीमे-धीमे कब आकर्षित हुआ सी.वर्मा, कब उसके इर्द-गिर्द भँवरे सा चक्कर काटने लगा, उसे खुद पता नहीं चला. एक समय ऐसा भी आ गया कि वे साथ-साथ रहने लगे. वर्मा ने एक फ़्लैट बुक करवाया था जो रिटायरमेंट के पहले ही उसे अलाॅट हो गया. फ़्लैट में गृह-प्रवेश पर हिमबाला जो एक बार आई, वहीं की हो कर रह गई. उसका पति कभी था या नहीं, यह कभी नहीं पूछा वर्मा ने. वह कब उसके साथ आ कर रहने लगी और वहीं रच बस गयी, ये पता ही नहीं चला. कभी-कभी हिमबाला का एक भाई आता और किसी न किसी रूप में विरोध जता जाता. इस बीच चतुर्भज ने गांव रूपये पैसे भेजने बंद नहीं किए. बीच-बीच में चोरी-छिपे गांव जा भी आता. भाभी का लड़का जवान हो गया था और काॅलेज में पढ़ रहा था. वही बेटा, जिसमें उसकी आत्मा भाई से होती हुई घुसी थी.

रिटायरमेंट के बाद बीमार रहने लगा वर्मा. पहले शूगर हो गई. फिर वीपी बढ़ने-घटने लगा. एकाएक टाँगें जबाब दे गईं. एक बार उसे अस्पताल में एडमिट होना पड़ा. हिमबाला रोज देखने आती रही. धीरे-धीरे उसका आना कम होते-होेते बंद हो गया. वह जैसे पहाड़ों में गायब हो गई.

शूगर लेवल गिर जाने से एक बार अस्पताल में बेहोश सा हो गया तो लगा, सिरहाने माँ या भाभी जैसी बैठी है. माँ तो बहुत पहले गुज़र गई है, यह भाभी जैसी ही है. स्टूल पर पत्नी जैसी बैठी है. पायताने बेटा जैसा खड़ा है. वह अपनी बैंक की कापियां, एफ.डी. और जमापूंजी के बारे में बताना चाहता है. बताना चाहता है कि अपनी ब्याहता पत्नी को उसने पेंशन में नाॅमिनी बनाया है ... तुम लोगों का दायित्व मैं नहीं निभा पाया ... मेरे लिए तुम सब एक न हटने वाली आॅडिट आपत्ति की तरह ही रहे ... बैंक लोन की तरह तुम्हारा बकाया मेरे ऊपर रह गया ... वह कहना चाहता है.

आज फिर कोई बीच सड़क में ख़ाली लिफाफे सा छड़प्प से गिरा हुआ था. चारों ओर लोगों की भीड़ जमा थी.

अरे! यह तो वही है जो हिमबाला के साथ रहता था. किसी ने कहा.

कौन! दूसरा चौंका.

अरे! जो ए.जी. आफिस में काम करता था. एक बोला.

हिमबाला को तो उसका ज़िद्दी भाई ले गया. इसका सारा सामान भी लेता गया.

ए.जी. आफिस वाला चतुर्भुज!

अच्छा!

हाँ, हाँ वही, चतुर्भुज.

चतुर्भुज के नाम पर वह चौंका. उसे लगा, वह देवदार की ऊंची शाख पर बैठा है, उस बड़े आकार के पक्षी की तरह ... नहीं वह पक्षी ही है. दूसरा पक्षी कहीं उड़ कर दूर चला गया है. उसने उचक कर नीचे देखा.

एक आदमी सड़क के बीचोंबीच गिरा पड़ा था. उसके चारों ओर भीड़ जमा थी. किसी ने, शायद हिमबाला ने, जंगल से उतर कर उस पर सफेद चादर ओढ़ा दी है.

वह जैसे भीड़ के ऊपर उड़ा और पुनः शाख पर बैठ गया. देवदार की शाख पकड़ते हुए उसने नीचे देखा और बोला, अरे! ये चतुर्भज नहीं है ...ये कोई और होगा साला!

वह उड़ा और लिफ़्ट वाले नाले के ऊपर चक्कर लगाता हुआ बहुत नीचे उतर गया.

कहानीकार, कवि, नाटककार, सम्पादक – शिमला-निवासी श्री सुदर्शन वशिष्ठ साहित्यिक लेखन का सम्पूर्ण विस्तार नाप चुके हैं, ये कहने के लिये इनके रिकॉर्ड को देखना ज़रूरी नहीं है. इनकी कोई रचना उठा लें, पढ़ कर यही निष्कर्श निकलेगा. इनकी उपलब्धियों में अनेकों कहानी संग्रह, उपन्यास, काव्य संकलन, यात्रा और व्यंग्य संग्रह और नाटक हैं और सम्मानों में साहित्य कला परिषद दिल्ली, जम्मू अकादमी और हिमाचल अकादमी के विभिन्न पुरस्कार. इनकी अनेकों रचनाओं का भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. कुछ चुनिंदा कृतियाँ: आतंक (उपन्यास), नदी और रेत (नाटक), जो देख रहा हूँ (काव्य संकलन)

लेखक से सम्पर्क के लिये ई-मेल - vashishthasudarshan@yahoo.com

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