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  • प्रत्यूष गुलेरी

हम भी छड़े ही हैं

वो सोच रहा है जिस प्रेम गाथा का वो साक्षी रहा है उसे सार्वजनिक करने का सही समय आ गया है. यह कथा कोई चालीस वर्ष पश्चात् फिर जगमगा आई है. हुआ यों कि डाकिया एक ख़त दे गया है जिसका मजमून इस तरह से है -

परम प्रिय मृदुल कविराज,

यह ख़त मैं तुम्हें जर्मनी के शहर बर्लिन से मंजुला शेखर लिख रही हूँ. यह जानना चाह रही हूँ कि क्या तुम वह मृदुल तो नहीं जिसके साथ मैंने सन् उन्नीस सौ सतहत्तर में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), जम्मू की शाखा से एक महीने का वैकल्पिक भारतीय चिकित्सा पद्धतियों का सर्टीफिकेट कोर्स किया था. मैंने तुम्हारा पता मैकलोडगंज, धर्मशाला से छपने वाली इंडो-तिब्बतियन पत्रिका से प्राप्त किया है. आयुर्वेद पंचकर्म पर छपे लेख को पढ़ने लगी तो अंत में तुम्हारा नाम पढ़कर अपने आपको रोक नहीं पाई और यह पत्र लिख दिया. कुछ दिन के लिए दिल्ली आने वाली हूँ. शेष फिर कभी.

मंजुला.

ख़त मिलते मृदुल को तो पंख लग गए. ”चालीस साल के बाद उस कम्बख्त ने पुराने जख्म हरे कर दिए.“

खुद से बुदबुदाया, ”क्या दिल्ली छोड़ दी होगी उसने? हो सकता है, जर्मनी में अस्पताल खोल लिया हो या कहीं नौकरी भी तो कर सकती है?“

मृदुल ने कोई दस बार चिट्ठी को पढ़ लिया. चिट्ठी के एक कोने पर दिल्ली का फ़ोन नंबर भी था. मृदुल ने सोचा - इन पंद्रह दिनों में हो सकता है, वह दिल्ली आ गई हो और फ़ोन मिला दिया तत्काल दिल्ली.

”कौन?“ किसी महिला का पुरूष जैसा स्वर था.

”मैं मृदुल!“ वह बोला.

”लगता है तुम्हें मेरा पत्र मिल गया. मैं कन्फर्म्ड होना चाह रही थी कि तुम्हीं मृदुल हो. अरसा भी इतना हो गया कि चार दशक गिनते-गिनते भी समय लगे. मैं तो इस बीच में शहर बदलती रही और देश भी. तुम बताओ, इस बीच में अकेले से दुकेला हुए या नहीं? या अभी पसंद की खोज में ही हो.“ वह निश्चिंत हो गया यह मंजुला शेखर ही है. फ़ोन किसी और ने नहीं उठाया.

मृदुल ने जवाब दिया, ”हम तो छड़े के छड़े ही हैं अब भी.“

मंजुला ने भी यह कहते देर नहीं लगाई -”हम भी, छड़े ही हैं.“

”हैं! यह मैं क्या सुन रहा हूँ मंजुला? मोनिका कहती थी- तुम एम्स में नौकरी करती हो और वहीं किसी को पसंद कर लिया है.“

”कौन मोनिका? मैं किसी भी मोनिका को नहीं जानती. किसने तुम से क्या कह दिया नहीं मालूम. हाँ, इतना मालूम है कि अब भी छड़ी ही हूँ. ही! ही! ही! हैलो! हैलो! हैलो!“ थोड़ा रुककर - ”मैं योग के षट्कर्म और आयुर्वेद के पंचकर्म सीखने के लिए, तुम्हारे पास आना चाहती हूँ मनाली! सिखाओगे न! जम्मू में क्या खूब की प्रैजेंटेशन थी.“

”पहले तुम यह बताओ कि इन्स्ट्रक्टर जनेजा ने अपने पेपर में तुम्हें कितने अंक दिए थे?“ उसने पूछा. ”मुझे तो सुसरा फेल कर देता, सिर्फ़ पास मार्क्स दिए थे?“

मंजुला बोली - ”मृदुल, मैंने यह कोर्स कोई फर्स्ट या सैकेंड आने के लिए नहीं किया था. वह बात छोड़ो. जनेजा तुम्हारी योग्यता से खीझता था. फिलहाल मैं तुमसे नेती-धोती, जलनेति, सूत्रनेति के साथ-साथ आयुर्वेद के पंचकर्मों में पारंगत होना चाहती हूँ. बोलो - सिखाओगे जब भी आऊँ? हैलो! हैलो! हैलो! ...सुन रहे हो ........“

वह बोलती रही और बोलती रही. पर मृदुल चुप्पिया गया था तब तक जब तक ठक की आवाज़ लैंडलाइन सैट से नहीं आ गई.

इसके बाद मृदुल का मन निःशुल्क खोले आँखों के योग और आयुर्वेद पद्धति के क्लीनिक में नहीं लगा. यह क्लीनिक मनाली के मालरोड के पिछले तंग बाज़ार की एक नुक्कड़ पर था. उसने सोचा माँ हिडिम्बा के दर्शन ही कर आऊँ. उसके मन में आया कृष्णकाँत को साथ क्यों न ले लूँ. कृष्णकाँत को वह दोस्त ही नहीं अपने बड़े भाई जैसा सम्मान देता था. अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर के पद से सेवानिवृत्त था वह. जून के आखिरी सप्ताह में दोपहर के समय भी आकाश में कुहरा छाया था. कार निकाल कर मृदुल हिडिम्बा मंदिर की ओर निकल पड़ा. मन में यह ख्याल करते हुए कि भास वर्णित ‘मध्यम व्यायोग’ का हिडिंबा-भीम और घटोत्कच प्रसंग क्या यहीं घटा होगा? उसे मालूम है कि कुल्लू के राजवंश में हिडिम्बा को कुलदेवी का दर्ज़ा प्राप्त है.

”ओह! मैं तो पहुँच भी गया.“ अपने आप से बोलते हुए कार एक तरफ खुली जगह खड़ी कर दी.

कुलवी पोशाक लिए महिला बोल पड़ी, ”अंकल, कुलवी ड्रेस में फोटो ले लो. बड़ा अच्छा लगेगा. ड्रेस के सिर्फ़ पचास रुपये दे देना.“

दूसरी महिला ने सफ़ेद खरगोश दिखाते कहा, ”अंकल, देखो कितना भोला और सुंदर है. इसके साथ फोटो हो जाना चाहिए. आपसे बीस रूपये ही लूँगी.“

मृदुल कहने लगा, ”तुम्हें क्या मैं बाहर से लग रहा हूँ. मैं तो यहीं से हूँ. मनाली के मालरोड पर कविराज के नाम से क्लीनिक है आँखों का. किसी भी आगंतुक के इस तरह से पीछे नहीं पड़ जाना चाहिए. कोई खुद कहे तो ठीक है.“

उसने देखा कि एक याक से अपने तीन बच्चे उतारती पंजाबी महिला बोल रही थी उसके मालिक से, ”एक ही चक्कर के भैय्या तीन सौ रुपये.“

याक का मालिक बोल रहा था, ”पहाड़ है बीबी जी! यहाँ पहुँचते-पहुँचते सब चौगुने दाम का हो जाता है. हमारा और हमारे याक का भी तो पेट है.“

बात बिना बढ़ाए उसने सौ.सौ के तीन नोट उसे थमा दिए.

कृष्णकाँत भी याकवाले से बोलने वाला था - यह ठीक नहीं पर उसे मृदुल ने चुप रहने का इशारा किया. हिडिम्बा माँ को मत्था टेककर पौड़ियाँ उतरते मृदुल ने आदतन बोलना शुरु किया - ”प्रोफ़ेसर साहब, मन बड़ा खिन्न होता है यह सोचकर कि लोग देवी को खुश करने के लिए बलि देते हैं. बलि के बहाने बामपंथी अपना हलुआ-मंडुआ भी सीधा करते हैं. देवी-देवता तो आस्था-विश्वास के भूखे हैं. देवी-देवता किसी भी प्राणी को प्राण देते हैं, प्राण हरते नहीं. बचपन से मैंने यह निश्चय किया था कि जीव-हत्या अथवा बलि का विरोध करूँगा, कम से कम जितना हो सकता है. पर अफ़सोस यह किसी न किसी रूप में बरकरार है.“

प्रौफ़ेसर कृष्णकाँत ने कहा, ”अब तो सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय दिया है. अनुपालना उसकी कहाँ तक होगी यह क्या पता ?“

मृदुल कविराज ने कृष्णकाँत के कहे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की. दोनों कार में बैठ गए थे. हाथ तो मृदुल के स्टेयरिंग पर थे और दिमाग से वह मंजुला से बतिया रहा था मन ही मन इस तरह से - मंजुला! पता है मैं कुल्लू राज्य की संस्थापिका दादी अम्माँ हिडिम्बा के मंदिर गया था. मत्था टेक कर आया हूँ. वहाँ मैंने माँ से सिर्फ़ तुम्हारी खैर माँगी है. जानती हो, मैं फ़ोन पर बात करता चुप क्यों कर गया था? पंचकर्म और षट्कर्म सिखाने की स्वीकृति क्यों न दी? इन वर्षों में मैं तुम्हारा वह ‘अंग्रेज’ नहीं रहा जिसकी एक झलक पा लेने को तुम उतावली रहती थी. तुम्हारा वही अंग्रेज अब दूसरे के सहारे पर निर्भर हो गया है. तुम्हें क्या पता स्कूटी एक्सीडेंट में यह मौत के मुँह से लौटा है. दाहिनी टाँग टूट गई थी पाँच साल पहले. रॉड पड़ने से चल-फिर तो रहा हूँ, पर लंगड़ाते हुए. यूँ लाठी के साथ रेंगना अच्छा नहीं लगता. रोहतांग जा रहा था कि ‘स्किड’ कर गई स्कूटी. देखोगी तो मुश्किल से पहचान पाओगी. ओहो! यह तो हम पहुँच भी गए प्रोफ़ैसर कृष्णकाँत जी पता भी नहीं चला.“

”मुझे भी लग रहा था कि तुम इस दुनिया में नहीं थे कार लाते हुए.“

”सौ प्रतिशत प्रोफ़ैसर कृष्णकाँत जी सच है.“ कार खड़ी करते हुए बोलना जारी रखा - ”क्या बताऊँ प्रोफ़ैसर! एक जख्म हरा हो गया कमबख्त इतने बरस बाद. मैंने समझा वह ब्याही गई होगी. बाल बच्चे हो गए होंगे. पर उसने कहा - वह अब भी ‘छड़ी’ है. हा! हा! हा!“

कृष्णकाँत को मालूम है मृदुल कविराज अपनी जवानी में कई लड़कियों को बेवकूफ़ बना चुका है. पर प्रेम के शुद्ध रूप पर कोई आँच नहीं आने दी. कॉलेज से लेकर डॉक्टरी और डॉक्टरी के बाद कई लड़कियाँ पीछे पड़ी पर हाथ किसी के न लगा. किसी मनपसंद लड़की की माँग न भर सका. उस समय की दो-एक किस्सा-कहानियाँ वह उसे सुना चुका है. यह भी होगा कोई दिल्लगी का पुराना किस्सा. इतने में एक लड़की आँखें दिखाने क्लीनिक में आ पहुँची. मृदुल ने कहा, ”कृष्णकाँत जी बैठिए. अभी भेजूँगा नहीं आपको. मैं देवी जी की आँखें देख लेता हूँ.“

लड़की से बोला, “हाँ, क्या हुआ है आपकी आँखों को ?“ कह कर लड़की की आँखों को टार्च लगा कर देखता है. ”कुछ खास खराब तो नहीं ये?“

लड़की बोली, ”डॉक्टर साहब! इन आँखों में निरंतर खुजली रहती है. पढ़ने पर लाल सुर्ख हो जाती है.“

”बस इतना ही. रोज़ त्राटक का अभ्यास करो पन्द्रह-पन्द्रह मिनट पूर्णिमा के चाँद पर. मेरी आँखों की तरफ़ देखो निरंतर इस तरह लगातार किसी भी आब्जेक्ट को बिना आँख झपकते देखना ही ‘त्राटक’ कहलाता है. आयुर्वेद के अनुसार सुबह ठंडे साफ़ पानी से तीस-चालीस बार छींटे मारना भी उपयोगी है. यही नहीं देवी जी इन आँखों की पुतलियों को दस बीस दफ़ा दाएँ से बाएँ और बाएँ से दाएँ घुमाएँ कोई पन्द्रह दिन. हरे-हरे वृक्षों की हरियाली पर भी दृष्टि जमाओ देवी जी तो फ़ायदा देगी. आयुर्वेद और योग के इस तरीके से आँखों की पुरानी से पुरानी बीमारियाँ खत्म हो जाती हैं. हाँ, हो सके तो नयनादेवी माँ को पैसे ‘बुंद’ कर, सोने की आँखें बनवा कर किसी दुखियारी कन्या को भेंट कर देना. जलनेति, सूत्रनेति, लोटा, धोती, नस्सयम और नासिक क्रियाएँ भी सिखाता पर कोई इस पद्धति पर विश्वास करे तब न.” कृष्णकाँत की ओर निहारते, “क्यों ठीक नहीं प्रोफ़ैसर साहब?“

कृष्णकाँत ने कहा, ”ठीक है सरकारी नौकरी में रहते हुए खूब नाम कमाया है तुमने.“

”नाम और दाम दोनों कमाए हैं. अब तो यह निःशुल्क सेवा करते हैं,“ कहते हुए उसने युवती के हाथ सामान्य आयुर्वैदिक हर्बल ड्रापस सौंप दिए. यह कहते, ”जब दिल करे फिर दिखा जाना.“

युवती के चले जाने पर मृदुल ने कृष्णकाँत से कहा, ”बड़े भाई, अन्दर आ जाओ! ‘छड़ों’ की भी कोई ज़िदगी है.“

”ज़िदगी तो है, देवी जी की आँखों में आँखें डलवा कर देखना, भला बताना कौन से रोग को दूर करने की यौगिक क्रिया थी?“ प्रोफ़ैसर ने मसखरी के मूड से कहा.

”कविराज हूँ बड़े भाई! जानते हो, यह किसी रोगी की आँखों में आँखें डालकर बीमारी को देखना डॉ मंजुला शेखर का तरीका था. ओहो, इतने बरस बाद क्यों कर याद आया.”

वह ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा. ”प्रोफ़ैसर साहब ऐसे नयनानंद को ही महाकवि कालिदास ने ‘नेत्र निर्वाण प्राप्ति कहा है.“

”क्या नाम बताया महिला डॉक्टर का, मंजुला शेखर?“ कृष्णकाँत ने पूछा.

”हाँ, यही नाम था उसका, बड़े भाई. जम्मू में एक महीना रहे थे हम वैकल्पिक भारतीय चिकित्सा पद्धतियों का सर्टीफिकेट कोर्स करते वक्त. समय है तुम्हारे पास तो सुनाता हूँ. एक अच्छी मन पसंद दोस्त बन गई थी वह. यह कोर्स अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान दिल्ली की ओर से इसी की उत्तरी शाखा जम्मू में लगा था. इसमें रहना-खाना सब फ्री था. कोई पच्चीस-तीस लड़के-लड़कियाँ थीं. आल इंडिया लेवल पर हुई थी सिलैक्शन. बेसिक योग्यता तो इस कोर्स की हायर सेकेंडरी (मैडिकल) या समकक्ष थी. पर कई लोग एम. बी. बी. एस., जी. ए. एम. एस., डिप्लोमा योग, डिप्लोमा आयुर्वेद आदि भी थे. आयु सीमा तीस वर्ष निर्धारित थी. इसकी सिलेक्शन कोई आसान नहीं थी. इसमें ही मेरी मुलाकात मंजुला शेखर, मोनिका, पुष्पा, प्रशोत्तम और रूममेट सुयश से हुई थी. अधिकतर लोग राजधानी दिल्ली, पंजाब, और हरियाणा से थे. हिमाचल से इकलौता आयुर्वेद और योगवेत्ता मैं ही था.

”पहली इंट्रोडक्टरी मीटिंग में यही एक लड़की,“ कृष्णकाँत ने पूरा किया - ”डॉ. मंजुला शेखर.“ मृदुल बोला, ”मेरी नज़र में चढ़ गई. मेरी क्या, सब ही के प्रोफ़ैसर!“

”तुमने भी ज़रूर डॉक्टर, उसे अपना कायल बना लिया होगा. अब भी स्मार्ट कैसे रहा जा सकता है कोई तुमसे सीखे.“ कृष्णकाँत का इतना कहना था कि दोनों फिर ज़ोर से ठहाका लगा उठे.

”जानते हो उसने फ़र्स्ट मीटिंग में अपनी योग्यता हायर सैकेंडरी बताई. इनमें कई डॉक्टर, फैशन ड़िजाइनर और फॉर्मासिस्ट भी थे.“ अपनी लंगड़ाती टांग की ओर इशारा करते हुए उसने कहा, ”प्रोफ़ैसर, कोई मैं सदा से ऐसा तो नहीं था. ठोकर ने बुरी तरह मारा! नकारा कर दिया. विवश हूँ, पर आज भी कमज़ोर नहीं.“

”वह तो ठीक है डॉक्टर, फिर आगे भी कहो.“

”यही कि जब मैंने अपना परिचय दिया तो लड़के-लड़कियाँ सब दंग रह गए. आयुर्वैदिक डाक्टरी के साथ मैं डिप्लोमा जर्मन, डिप्लोमा फ्रैंच, डिप्लोमा योग, फर्स्ट क्लास फर्स्ट सब में. पर मंजुला ने बाद में बताया कि वह वास्तव में एम. बी. बी. एस, बी एच. एस. एस, डबल डॉक्टर थी. इन्स्ट्रक्टर ने दूसरे दिन क्लास में डिमान्स्ट्रेशन देने को कहा तो मैंने जलनेति, सूत्रनेति, नौली, धौती और आयुर्वेद के वमन, विरेचन, नस्सय और वस्ति आदि क्रियाएँ दिखाई तो पूरी क्लास मेरी दीवानी हो गई. सबजैक्ट एक्सपर्ट भी मुझसे झेंपने लगे थे. आपको पता ही है मैं अंग्रेजी बोलना बड़ा पसंद करता था तब. मंजुला भी फर्राटे की अंग्रेजी बोलती थी. मुझे अंग्रेजी में ही बात करते देखकर वह ‘अंग्रेज’ बुलाने लगी थी.“ अचानक बोलते-बोलते मृदुल बहुत देर तक चुप हो गया.

”क्यों डॉक्टर अतीत आड़े आ रहा है.“ कृष्णकाँत ने रस-प्रसंग को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से छेड़ा.

”नहीं प्रोफ़ैसर ऐसा नहीं है. उसकी पौंग झील सी गहरी आँखों में खो गया था मैं. एक दिन क्लास में उसने इन्सट्रक्टर से सवाल किया कि अगर किसी को ‘स्किवंट’ हो आँखों में तो क्या वह योग से ठीक हो सकता है ?“ उसके इस सवाल पर सारी क्लास हँसने लग पड़ी थी. मैंने उसके पूछे प्रश्न में अपनी तौहीन समझी. तुम तो जानते हो मेरी बाईं आँख में थोड़ा भैंगापन है. मैंने समझा, उसने मुझ पर ही तंज न कसा हो. पुष्पा, श्रेष्ठा, प्रशोत्तम, रूममेट सुयश समेत औरों को भी बुरा लगा था.“

थोड़ा गला खंखारने पर फिर शुरू किया बोलना मृदुल ने ”चाय पीते वक्त जानते हो मुझसे क्या बोली ?“ -”मेरी आँखों मे आँखें डालकर देखो. कुछ दिखाई पड़ रहा है क्या ?“ ”मुझे तो कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा.“ मैंने कहा. वह बोली थी, ”नहीं वहाँ ‘स्किवंट’ है. प्लीज़ सी इन माई आईज़. देयर इज़ ‘स्किवंट’. इट इज़ वैरी स्लाइट.“ ”वट आई डाँट फाईंड ऐनी.“ मैं बोला था. ”नो इट इज़ देयर, वट वैरी स्लाइट.“ आँखों की ओर इशारा करते वह हँस दी. बड़ी गहरी-गहरी झील सी उन आँखों में शरारत का समुद्र छलछला रहा था भाई कृष्णकाँत. आँखें डालकर निर्वाण सुख की साधना कहाँ नहीं चलती? मैं बड़ा शुद्ध आत्मा प्रेमी हूँ. इसे कुछ और न समझा जाए. उन आँखों के अपूर्व सौंदर्य में डूबना मैं नहीं भूला. पैंतीस-चालीस वर्ष बाद अचानक आए उसके फ़ोन ने मुझे सच से हिलाकर रख दिया है. अब घर जाओ तुम भी. घर-गृहस्थी हो. मुझ जैसे ‘छड़े’ तो नहीं. घर में तुम्हें देर से पहुँचने पर खाना भी नहीं मिलेगा.“ यह कहकर डॉ. मृदुल लंगड़ाते हुए कृष्णकाँत को छोड़ने मालरोड तक चला आया.

रात्रि के नौं बज रहे थे. मनाली की मालरोड की एक खासियत है कि यहाँ लोग बड़े शहरों की तरह रात दो बजे तक सोते नहीं और न ही मालरोड सोती है. बढ़ते अंधेरे में भिन्न-भिन्न देशों से आए पर्यटक देश, नस्ल और जाति-भेद से ऊपर उठ कर नाचते-गाते रहते हैं. गीत-संगीत की सुर लहरियाँ फूटती रहती हैं सुदूर से भी. कुछ नशाखोर खड़मस्ती करके लोगों की नींद हराम भी करते हैं. कई पुलिस के हत्थे भी चढ़ते हैं पर, मस्ती का सिलसिला खत्म नहीं होता. डॉ. मृदुल का मन ज्यादा देर घूमने का नहीं किया. अपने क्लीनिक लौट आया. खाने का टिफ़िन लड़का छोड़ गया था. खाना खा कर बिस्तर पर पसरते वह फिर मंजुला शेखर से मन ही मन बतियाने लग पड़ा इस तरह से - ”मंजुला! तुम्हें पता है कि तुम्हारे बालों की लम्बी चोटी ‘गुत्त’ कितनी पसंद आई थी. तुम्हारे बेंच के पीछे बैठा हुआ मैं बालों की गंध-सुगंध लेने के लिए कितनी देर अपने नथुनों को गाड़ देता रहा था. पुष्पा, श्रेष्ठा, मोनिका और कामिनी तिरछी नज़रों से मुझे ताड़ती रहती थीं.“

थोड़ी आँखें बन्द कर ध्यान-मुद्रा में बैठने पर मृदुल कविराज को लगा वह जम्मू के उसी सर्टीफिकेट कोर्स में षट्कर्म-पंचकर्म डिमांस्ट्रेशन के दो-चार दिन बाद ‘गैट टू गैदर’ में बैठा है. मंच पर आकर सब कुछ-न-कुछ पेश कर रहे हैं. श्रेष्ठा के मधुर गीत गाने पर सांस्कृतिक बैठक तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठी है. अब बारी मृदुल की है. मृदुल ने ‘एक प्रश्न चिन्ह आध्यात्मिक’ कविता क्या पढ़ी कि क्लास की सब लड़कियाँ एक-एक कर किसी न किसी बहाने बात करने के लिए लपियाती-ललचाती लगने लगी हैं. कुछ लड़कियाँ कविता की पंक्तियां भी दोहराने लगी हैं -

तुम पूर्ण हो, पूर्ण ही रहो

तुम्हारे सानिध्य से

मैं भी अपने को पूर्ण मानता हूँ.

मंजुला जो उसे पहले तू तू कर बोलती थी अचानक तुम से आप बुलाने पर उतर आई है. लड़कियों से हट कर वह उसे केंटीन ले आई है. पानी के गिलास से घूँट-घूँट हलक में उतारने लगी है.

मृदुल से रहा नहीं गया और उसके हाथ से पानी का गिलास छीनते बोला, ”दो घूँट मैं भी तो पी लूँ.“

तंज कसा याद हो आया है उसका - ”नहीं नहीं ब्रह्मचारी जी. आपका ब्रह्मचार्य भंग नहीं होगा?“

दूसरे ही क्षण यह कहती भी नज़र आती है मंजुला, ”नहीं.नहीं मेरे जूठे पानी से टी. बी. हो गया तुम्हें तो?“ और मुस्कुराती है.

अजीब सी स्थिति में है डॉ. मृदुल न अब ध्यान में है न सोया ही और न जागा है. संवाद और दृश्य चल रहे हैं तब भी. कहना तो चाहता था, ”नहीं देवी जी मैं तो आपके साथ ब्रह्मचार्य ही भंग करना चाहता हूँ.“ पर ऐसा कह न सका था. मृदुल याद कर रहा है - हफ्ते के भीतर ही कोर्स के दौरान जम्मू में सब अपनी-अपनी जोड़ियाँ, गोटियाँ फिट करने लगे थे. श्रेष्ठा, पुष्पा और कामिनी किस तरह से उस पर डोरे नहीं डाल रही थी. पर उसका मन उनमें से किसी में भी तो नहीं था. पुष्पा उसे दूरबीन कह कर छेड़ती थी, वह इसलिए कि वह दूर से मंजुला को ही ताकता था. मोनिका ने प्रशोत्तम पसंद कर लिया था. वह हरियाणवी था. उसे तब ऐसा लगा था कि यही जोड़ी कामयाब जोड़ी रहेगी. कहने को तो वह कहता था - तांत्रिक साधना करता है वह. एक डरावनी सी लालिमा उसकी आँखों में देखने को मिलती थी. इसी से मोनिका उसे ‘ड्रैकला’ कह कर छेड़ती थी. रात इस अजीब सी अवस्था में कब उसकी आँख लग गई पता न चला.

अगले दिन रोज़ की तरह बारह दस पर क्लीनिक खोला. चार पुरुष और तीन महिलाएं नेत्र दिखाने आए. इनमें एक मनोचिकित्सक डॉ. खन्ना भी थे.

”बहुत दिनों के बाद दिखाई दिए डॉ. खन्ना. कहो कैसे हैं ?“ मृदुल ने पूछा.

”ठीक हूँ महोदय ! अपने देस अमृतसर चला गया था. इतने साल बाद गया तो शहर के लोगों ने मुश्किल से पहचाना. माता-पिता रहे नहीं. भाई-बहन शादी करके अपने-अपने हो गए. मंझले भाई के बेटे की शादी थी. बड़ी ताकीद की थी. जा आया और मिल भी आया जो जान-पहचान के बचे थे. बीबी तो थी नहीं जो दिल लगता. न वहाँ न यहाँ.“

डॉ. मृदुल हँसा, ”तो दो ताली डॉ खन्ना दोनों छड़े. दोनों भी भाड़े के मकान पर सारी उम्र. मकान बनाने को बना सकते थे. नहीं बनाया तो नहीं. किराए पर क्या बुरा है ? पेन्शन इतनी है ही आपकी जो खाए खर्चे भी खत्म न हो.“

ठीक दो बजे के करीब प्रोफ़ैसर कृष्णकाँत टपक पड़े. मज़ाक करते बोले, ”कहो मृदुल, आज डॉ. खन्ना के साथ मंजुला का ही टॉपिक तो नहीं चल रहा. ‘छड़े.छड़े दोनों सक्के भाऊ’.“

मृदुल हंस पड़ा, ”तो उस ‘छड़ी’ को बुला ही लेते हैं. मैं तो नहीं, यह भी तो ‘मोस्ट एलिजिबल बेचलर’ हैं. डॉ. खन्ना से जोड़ देते हैं मंजुला की शादी के तार.“

तीनों हंस पड़े एक साथ.

“डॉ खन्ना तुम उसे तिब्बती चिकित्सा पद्धति, मैं पंचकर्म और षटकर्म सिखा दूँगा उसे. मंजुला से हम दोनों जर्मन की चिकित्सा पद्धति और होम्योपैथी सीख सकते हैं.“

मृदुल से इतना सुनने पर कृष्णकाँत ने यह भी जोड़ दिया, ”डॉ. खन्ना की फोटोग्राफी और घुमक्कड़ी की हॉवी भी तो उसे जरूर पसंद आएगी. क्यों, क्या कहते हो डॉ. खन्ना?”

डॉ. खन्ना मंद-मंद हँसे और बोले, ”क्यों नहीं? पर कोई हाथ देखने का ज्योतिष तो डॉ मृदुल कविराज से सीखे. आपने ही तो बताया था कि सर्टीफिकेट कोर्स में मंजुला के हाथ को सदा के लिए माँग लिया था.“

”वह तो प्रोफ़ैसर यह हुआ कि एक दिन क्लास से छूटते मैं लॉन के कोने में बैठ कर सिगरेट पी रहा था. फूलदार साड़ी और ब्राऊन ब्लाऊज पहने धमक पड़ी. बोली - कहो अंग्रेज, स्मोक कर रहे हो? दो कश मैं भी लगा लूँ ? हाँ, हाँ क्यों नहीं मेरे मुख से निकला था. और प्रोफ़ैसर उसने जोर का कश खेंचते उसका धुंआ नाक से उड़ा दिया. ऐसा लगा जैसे पंचकर्म की धूम्र और नस्य क्रिया में दक्ष हो. दूसरे ही पल पूछती है - क्या तुम्हारी पामिस्ट्री में भी रुचि रही. मैंने कहा - हाँ, कीरो को काफी पढ़ा है. मेरे सामुद्रिक ज्ञान की बात सुनते ही उसने अपना हाथ मेरे हाथ में दे दिया. क्या कहूँ प्रोफ़ैसर कृष्णकाँत उसके कोमल हाथ के स्पर्श से मैं बहक गया और बहुत देर तक उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर मसलता रहा. बड़ा गुदगुदा हाथ था. सहसा मुँह से निकल गया -”मैं तुम्हारे इस हाथ को ताउम्र के लिए माँगता हूँ.“ वह गंभीर होकर बोली - ”यह तो पासीबल नहीं. हमारी आदतें नहीं मिलतीं. मैं स्मोक के साथ ड्रिंक भी करती हूँ. हमारा परिवार मिलिट्री बैकग्राऊंड से है. उसमें यह सब आम बात है.“

”सच कहूँ कृष्णकाँत जी, यह सुनते ही मेरे पाँव से धरती हिल गई. मुझे साँप सूंघ गया. इतने में हमें शाम की प्रेयर के लिए बुला लिया गया.“

कृष्णकाँत और डॉ. खन्ना ने एक साथ घड़ी पर निगाह डाली और कह दिया - ”ओहो! समय तो यों निकल गया. कविराज मृदुल जी, आगे की संदर्भ-गाथा फिर के लिए रख लेते हैं.“

और वे चले गए. मृदुल के भी खाने का समय हो गया था. लड़का टिफिन ले आया था. कह रहा था, ”डॉ. साहब, आज मुंगी की दाल, आलू टमाटर की सब्जी, पापड़ और दो चपातियां हैं.“

खाना खाने के बाद कुछ देर टी. वी. पर ताज़ा खबरें सुनीं. दस बजे के करीब लाईट आफ करके बिस्तर पर पसर गए. नींद नहीं आ रही थी. ”यह क्या ?“ मृदुल ने खुद से प्रश्न किया. तस्वीर साफ थी. उसे लग रहा था सर्टीफिकेट कोर्स के दौरान सब लड़के-लड़कियाँ एक ग्रुप में वैष्णों देवी के दर्शन के लिए निकले हैं. आदमी भी क्या है कि उसका अतीत हमेशा वर्तमान में दख्ल देता रहता है.

मोनिका और प्रशोत्तम की जोड़ी कैसे अलग रही हमारे ग्रुप से उसने सोचा. मंजुला, श्रेष्ठा, पुष्पा, कामिनी, रूममेट सुयश और मैंने अर्धकुआरी से माता के दरबार तक यात्रा का सुख इकट्ठे उठाया. गुफ़ा-दर्शन तक पहुँच गया था मृदुल ख्यालों में खोया. उसने तो चाहा था मंजुला उसके साथ रहे मत्था टेकते. पर यह क्या ? पुष्पा हाथों में नारियल और पूजा की सामग्री लेकर उसके साथ चलने लगी है. मंजुला, कामिनी और श्रेष्ठा भीड़ में अचानक उससे अलग छिटक गई हैं. पुष्पा खुश-खुश उसके साथ नारियल संभाले आगे-आगे है. उफ़! कितना घबरा गया था मैं तब, मृदुल सोया-सोया बुदबुदाया. मैं डर रहा था पुष्पा माता के आगे मुझे ही संकल्प में न माँग ले. मैं इसी असमंजस में था कि गार्ड ने पुष्पा के गुज़रते मुझे अगले ग्रुप में दर्शनों के लिए रोक लिया. मेरी जान में जान लौटी थी. माता ने मेरे मन की मुराद पूरी कर दी थी. कैसे न मानूँ माँ वैष्णों देवी की उस दिव्य शक्ति को.

वैसे मैंने भी सब लड़कियों को भ्रमित कर रखा था ज्यों उन्हें हर किसी को पसंद करता होऊँ. पर माँ वैष्णों देवी जानती थी कि दिल तो एक को ही दिया जा सकता है. वह दे चुका था मंजुला को. न सोए न जागे की अर्ध चेतना में दृश्य फिर बदलता है. वैष्णों देवी के दर्शनों से लौटते सब लड़के-लड़कियां हद से ज्यादा खुश इसलिए दिख रहे थे कि अगले दिन कोर्स खत्म हो रहा था. सब आगे-पीछे हाथों में हाथ डाले, गाते-नाचते कब नीचे वाण गंगा तक पहुँच गए पता भी न चला. मृदुल ने करवट बदली और मुँह में फिर बुदबुदाया ”अरे प्रशोत्तम! तूने तो इस कोर्स के दौरान मोनिका से मौजें लूटने में कोई कसर न छोड़ी थी. सिर्फ़ मोनिका को ही खिलाता-पिलाता रहा हो ऐसा नहीं था, त्यों इस ट्रिप में पैसे तो तुमने किसी को नहीं देने दिए. झाड़ियों की ओट में वाण गंगा के मुहाने पर मोनिका से लिपटे तुम क्या बातें करते रहे ये बाकी सब सोचते रहे. सबने यह भी कहा था - ”देखना कविराज ये दोनों यहाँ से जाते ही दिल्ली में दो से एक हो जाएँगे.“ कामिनी ने चहकते कहा था - ”हम सबको प्रशोत्तम बुलाए न बुलाए मोनिका तो ज़रूर बुलाएगी. जोड़ी तो रब्ब ने खूब की बनाई है.“ पर कामिनी का कहा सच कहाँ हुआ? मोनिका के बुलाने पर दिल्ली गया तो वह उसे पार्क में छोटी बहन को लेकर आई. सोचा था वह मुझे मंजुला के बारे में बताएगी. यह भी हो सकता है वह साथ ही हो. पर मोनिका तो अपना ही ‘झेड़ा’ ले बैठी. उसने बताया - प्रशोत्तम से उसकी अनबन हो गई है. उसके ढेर सारे पिछले प्रेम खत देते भी बोली, ”भैया, वो कहीं’ दूसरी जगह मैरिज़ कर रहा है. ये पत्र उसे लौटा भेजना.“ मंजुला का प्रसंग उसने छेड़ा ही नहीं. ”खुदगर्ज़.“ मृदुल को सोए-सोए खाँसी आई. थोड़ी देर के लिए उठ बैठा. सकपकाया बिस्तर में ही, ”क्या कहता था सुयश तू ?“

”रूममेट! यही मंजुला तुझे रोटी खिलाएगी. तेरे बच्चे पालेगी. तुम उसे नाराज़ क्यों कर रहे हो? यह जानते हुए भी कि वह तुम्हें ही चाहती है. और तुम इस तरह से उसकी उपेक्षा कर रहे हो. वह तुमसे कुछ बोलना चाहती है. यहाँ तुम्हें दूसरी लड़कियों के साथ गप्पें मारना उसे अच्छा नहीं लग रहा. उसके बदले हुए व्यवहार को तो देखो - वह अकेले बाणगंगा से निकली कूहल में किस तरह टाँगें फैलाए पानी से खेल रही है. प्लीज़ तुम जाओ न उसके पास. पार्टनर, यों खफ़ा थोड़ी होते हैं अपनों सें.“

मृदुल को सामने सुयश का पूरा स्वरूप प्रत्यक्ष खड़ा लग रहा था. भोपाल से इस लड़के का मधुर व्यवहार उसे उस सर्टीफिकेट कोर्स में सबसे बेहद पसंद आया था. मृदुल फिर अपने आप से बतियाने लगा - चला तो गया था मैं मंजुला के पास सुयश के कहने पर. कूहल के पानी में टाँगें फैलाए बैठी थी. टाँगें काफी ऊपर तक नंगी थीं. टाँगों पर बेथाह बाल थे. वह थोड़ा वितृष्ण हुआ और संभला, ढंपा हुआ यथार्थ कितना विद्रूप होता है. उसे एहसास हुआ उसने मंजुला के पैरों के साथ अपने पैर मसले हैं. उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर पानी को उछाला है. वह मंजुला से पूछ रहा है, ”क्यों डॉक्टर योग की वज्रोली क्रिया में यह संभव है कि योगी योगिनी के रज को चूस लेता है.“ बाल झटकते उसने इतना भर कहा था - ”हो भी सकता है.“ और किस चतुरता से उसका ध्यान गुलाब के लाल, पीले और काले फूलों की ओर फेर दिया था यह कहते हुए, ”कितने सुंदर फूल हैं. ये देखने और खुशबू लेने के लिए है मृदुल!“ मृदुल की नींद उड़ चुकी थी. एक और दृश्य हाज़िर हो जाता है उसके अतीत का.

वह जम्मू के पक्का डंगा बाजार का है. मार्केट घूमने गई है मंजुला अपनी सहेलियों के साथ खरीददारी के लिए. हाथों में बहुत सामान उठाए है. वह भी सुयश के साथ चक्कर लगा रहा है. तभी मंजुला मुस्कुराते हुए आई चुपचाप से उसके थैले में सामान डालते बोली है, ”उधर पहुँच कर ले लूँगी.“ ”स्वर्ग से उतरी किसी अप्सरा से कम तो नहीं लगी थी मंजुला तुम.“ मन ही मन बतियाने का सिलसिला जारी है, ”रघुनाथ मंदिर में तो तुम कितना जँच रही थी मंजुला. भारतीय और पाश्चात्य दोनों रंगों की ज़िंदगी में तुम्हारा रच-बस जाना ही मुझे पसंद था. हम दोनों के खुले विचार ही हमें इतना करीब ले आए थे. डेटिंग और रिलेशनशिप कोई बुरी नहीं, हम दोनों यह कहा करते थे.“

दृश्य फिर बदलता है. सर्टीफिकेट कोर्स के खत्म होने वाले दिन में वे सिनेमा हाल में बैठे हैं. प्रशोत्तम ने मोनिका को अपने साथ बैठाया है. वह मंजुला को लेकर बॉक्स में बैठा है. मंजुला कई बार कह चुकी है - ”मेरे अंग्रेज, एन्जोआय करना चाहिए. यही तो लाइफ़ है. तुम तो कहते हो, तुम्हें कोई एक्सपीरिएंस नहीं.“ उसे याद आया - उसने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया है. फिल्म स्टार्ट हो चुकी है. मंजुला का ध्यान एकटक स्क्रीन पर है. मृदुल को पता न चला कि कब फिर बहक गया और मंजुला से हाथ छुड़ाकर अपना हाथ उसकी जंघा व पट्टों पर गुदगुदा बैठा. वह घुड़की, ”होश में तो हो ! क्या करते हो ?“ उसने फिर पीछे पलट कर मोनिका से पूछा, -”तुम्हारे पास जगह है ? मैं आना चाहती हूँ.“ मृदुल तभी यह कहते उठ गया नज़र आया, ”तुम क्यों जाओगी ? यह मैं ही जा रहा हूँ.“ अपमान से तुनकता वह सिनेमा हाल से बाहर था.

इधर रात्रि का आखिरी पहर था. निंदिआए मृदुल ने पासा पलटा तो खुद को जम्मू के रेलवे स्टेशन पर पाया. ट्रेन लग चुकी है. सर्टीफिकेट कोर्स पूरा कर चुके लड़के लड़कियाँ पहले से आरक्षित कमरे में सवार हो चुके हैं अपने-अपने घरों को लौटने के लिए. मोनिका और प्रशोत्तम एक साथ निचली बर्थ पर सट कर बैठे हैं. मंजुला और कामिनी उनके सामने की बर्थ पर हैं. मृदुल ऊपर की बर्थ पर है. ‘पार्टनर’ तो कभी रूममेट कहकर पुकारने वाला सुयश उसके सामने है. कुछ और लड़के-लड़कियाँ आगे पीछे बैठे खत्म न होने वाली बातों में मशगूल हैं. मंजुला ने थोड़ी देर कोई किताब पढ़ी है. उसके मुँह पर से उखड़ने के भाव साफ प्रकट हो रहे हैं. बहुत बोलने वाला मृदुल एकदम गमगीन पड़ा है अपनी बर्थ पर. वह अपने साये से बोलता लगा - क्या सोच रहे हो

कविराज ? यही न कि यहाँ जम्मू में एक महीना नहीं यह तो तुम्हारी पूरी एक ज़िंदगी गुज़र गई. मंजुला ने अंग्रेज को पसंद तो किया पर प्रेम के इज़हार का ऐसा विरोध करेगी यह तो उसने सपने में भी नहीं सोचा था. क्या यह ठीक है कि स्त्रीजात के माया-जाल की कोई थाह नहीं. स्त्रिया चरित्रं पुरुषस्य ...... इतने में उसे लगा प्रशोत्तम ने कमरे में शोर मचाना शुरू कर दिया है .....”पठानकोट आ गया, उतरो-उतरो. यहीं तो मृदुल को उतरना है.“ वह ट्रेन से नीचे उतर आया है. प्रशोत्तम के साथ मोनिका, श्रेष्ठा, पुष्पा, मंजुला और सुयश उतर आए हैं. मृदुल, मंजुला की ओर नज़र नही उठा रहा. प्रशोत्तम ने जबरदस्ती से मृदुल की ठुड्डी को ऊपर उठाया है और कह रहा है, ” अरे मंजुला के अंग्रेज! एक झलक ऊपर तो दौड़ाओ.“ उसने देखा जिस मंजुला के चेहरे पर उदासी और मासूमियत देखी थी वह मंद-मंद विदा के वक्त मुस्करा रही है. मृदुल ने दुःख भरे लहज़े में उससे कहा, ”आई एम सॉरी.“ और वह फूट-फूट कर रो उठा. विचित्र दृश्य था. ट्रेन छूटने वाली है. मोनिका कह रही है -”डॉ. मंजुला के लिए ऑटोग्राफ, प्लीज़ मृदुल!“ वह क्या लिखता ? उसे लिखे हुए शब्द दिखाई पड़े ”नथिंग टू राइट ऐट दिस मोमेंट.“ जाती हुई ट्रेन को देख रहा था खड़ा-खड़ा मृदुल, ऐसे जैसे उसका शरीर पठानकोट स्टेशन पर उतर गया हो और आत्मा ट्रेन में दिल्ली चढ़ गई हो मंजुला के साथ. बहुत देर के बाद वह मुर्दा सा बस में मनाली के लिए सवार हुआ.

दिन के बारह बज चुके थे. डॉ. मृदुल कविराज का क्लीनिक बंद पड़ा था. प्रोफ़ैसर कृष्णकाँत ने उसके बैडरूम के दरवाज़े को खटखटाया. दरवाज़ा खोलते मृदुल ने कहा, ”बड़े भाई रात को बड़ा तूफ़ान आया था. सारा कमरा थर-थर काँप रहा था. खिड़कियों के शीशे तड़क उठे थे. मेरे पूरे जिस्म में किरचनें चुभती रहीं. पर अजीब बात है कि अब उठते ज़ख्म प्रत्यक्ष में एक भी नहीं. तुम्हीं इंटरनेट पर पता कर दो सर्च मार कर कहीं मिल जाए मंजुला शेखर. है भी कि नहीं? वह मुझसे इतने बरसों बाद फिर से पंचकर्म और षटकर्म सीखने के लिए सच मनाली आना चाहती है. मुझे तो उसका अता-पता ढूँढे नहीं मिल रहा. ऐक्सीडेंट के दौरान अपना सब कुछ बेतरतीब हो गया है. उसके पास मेरा एड्रेस था ही. फ़ोन पर कह रही थी - ”हम भी छड़े ही हैं.“

9 जून, 1947 को गुलेर जि़ला कांगड़ा हिमाचल प्रदेश में राजपुरोहित कीर्तिधर शर्मा गुलेरी के जन्म। हिंदी के अमर कथाकार चंद्रधर शर्मा गुलेरी के वंशज होने का गौरव। चचेरे दादा थे।

पिताजी की निजी पुस्तकों की अल्मारी से गुलेरी जी की अमर कहानियां व प्रेमचंद की बहुत सारी कहानियां मानसरोबर से लड़कपन में पढ़ लीं

उपन्यास चंद्रकांता संतति और भूतनाथ भी उल्टे पलटे पर उनमें मन नहीं रमा।

अग्रज पीयूष गुलेरी को लिखता देखकर मैं और अनुज गिरिधर योगेश्वर भी उसी राह पर चल पढ़े।पहली कहानी जो अब याद आता है पिता के चचेरे भाई शशिधर शर्मा के अचानक गुजर जाने पर लिखी आठबीं में पढ़ते। उन्हें हम शशि भापा बुलाते थे। उनसे हम बच्चे बेहद प्यार करते थे।

मैट्रिक व प्रभाकर करते हुए अन्य कथाकारों में जैनेंद्र, अश्क, जयशंकर प्रसाद, मोहन राकेश, रांगेय राघव और यशपाल आदि की कहानियों ने भी आकार्षित किया।

जालंधर से छपने वाले दैनिक पत्रों व होश्यारपुर से छपने वाली पत्रिकाएं विश्वज्योति में प्रारंभिक कहानियां छपने पर उत्साह बढ़ा। अध्यापकी में प्राईवेट पढ़ते हुए एम ए, पी-एच.डी की और कालेज़ में पढ़ाना शुरु कर दिया।

1980 में स्मृति" नाम से कहानियों का संपादन किया। फिर 1987 में" अपनी अपनी अनकही" कहानी संग्रह और 2005 में लौट आओ पापा" कहानी संग्रह छपे। कहानियां ओर लघुकथाएं जब देश की नामी पत्रिकाओं में छपने लगीं तो लिखने पढ़ने को और पंख लगे और नया आकाश भी मिला। पहचान मिलने से खुशी हुई। "भेड़", "अपनी अपनी अनकही", "लौट आओ पापा","उगे हुए पंख"और "अकथ कहानी प्रेम की"पत्रिकाओं में छप कर खास चर्चा का कारण बनीं। अब यह लिखी कहानी "हम भी छड़े ही हैं" कोई नया प्रयोग तो नहीं पर यह ऐसी कहानी ज़रूर है जिसे बार-बार पढ़ने का जी करेगा। कहानी में प्रेम और रोमांस कभी कहानी को बासी नहीं होने देते।यही ऐसे तत्व हैं जो कहानी को जीवंत और शाश्वत बनाते हैं, ऐसा मेरा मानना है।प्रेम बासना नहीं उपजाता।प्रेम तड़पाता है उम्र भर के लिए।रुलाता भी है प्रेम।प्राप्त न होने पर भी अपने प्रिय की खैर मांगता है।हर उम्र के पाठक और सामान्य को तरंगित करता है।

मेरी हाल में लिखी दो कहानियों "अकथ कहानी प्रेम की"और"हम भी छड़े ही हैं" पर कोई फिल्म बनाने की सोचे तो चकित नहीं होऊंगा। दोनों कहानियों का नायक मेरे साथ-साथ है। उस पर कहानी लिखना आसान नहीं था वह भी तब जब वह खुद भी कहानियां बुनता हो।सबसे बेहद खुश वह होगा, मेरी मां सत्यावती गुलेरी व धर्मपत्नी कुसुम गुलेरी जो पहली श्रोता रही हैं।मेरी कोशिश कहां तक कामयाब रही है यह तो सुधी पाठकजन जानें।पढ़ाने का सफ़र बहुत पहले समाप्त हो चुका है,पर लिखने-पढ़ने का सफ़र जारी है तब तक जब तक प्राण हैं। पुरस्कारों में साहित्य अकादेमी का"भाषा सम्मान"2007, उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान का "सौहार्द सम्मान"2015 व हिमाचल अकादमी पुरस्कार 1996 प्रमुख हैं।

आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन में न्यूयार्क में प्रतिभागिता स्मरणीय!

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