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  • अलका प्रमोद

प्यार के लिये

उत्सा उत्तेजित हो कर उठी और कमरे में उधर से उधर चक्कर काटते हुए बुद बुद बुदा उठी, “नही मैं नही मानूंगी किसी भी स्थिति में नही मानूंगी.“

फिर विवश हो कर कुर्सी पर ढह गयी, वह जानती थी उत्सर्ग भी उसी को बेटा है और इस बार तो उसने भी अंगद के समान पांव जमा लिया है. वह प्यार से तर्क से आंसुओं से, अपने तरकश का हर तीर प्रयोग कर चुकी है पर वह नही मान रहा है, तो नही मान रहा है.

उसने भी तो यूं अपने पांव ही जमा दिये थे और मम्मी पापा हार गये थे पर उसे टस से मस नही कर पाए थे, अन्ततः मान ही गये थे. उत्सर्ग भी तो उसी राह की राही है फिर उसे यह उहापोह क्यों? तो क्या मान लेना चाहिये उसकी बात?

स्वयं को दुर्बल होते देख उसने तुरंत ही स्वयं को डपटा, नहीं नहीं कोई तर्क नहीं. वह उसका बचपना था अब जीवन के अनुभवों ने उसे बहुत कुछ सिखा दिया है, इसे ही तो परिपक्वता कहते हैं.

वह छोटी सी थी जब कैन्ट क्षेत्र से स्कूल जाती थी और राह में पड़े मैदान में चुस्त जवानों को परेड करते देखती, तो उसे बहुत अच्छा लगता. उनकी फुर्ती, अनुशासन और गर्व से उन्नत सिर उसे सदा ही प्रभावित करते. वह दस ग्यारह वर्ष की ही तो थी जब भारत-पाक का युद्ध हुआ था. उसके शहर से युद्ध से लौटे विजयी सैनिकों की रेल जानी थी और उसके स्कूल की लड़कियों को उन जांबाजों का स्टेशन पर हार पहना कर स्वागत करना था और उन्हे खाने के पैकेट देने थे. उन दिनों समाचार पत्र नित्य ही उन शूरवीरों के साहस और वीरता के वर्णन से भरे होते थे. सभी नागरिक अपने देश की सेना की वीरता के समक्ष नतमस्तक थे. न जाने कितने वीरों ने देश के लिये अपनी जाने गवां दी थीं.

उत्सा भी नतमस्तक थी उन रणबाकुरों के लिये. जब वह अपने देश के उन सैनिको का स्वागत करने गयी तो उत्साह से जय भारत का नारा लगाते उसका भावुक मन पूर्णतः समर्पित हो गया. उस के अंगड़ाई लेते मन के स्वप्नों मे शूरवीर सैनिक ने कब प्रवेश किया उसे पता भी न चला. समय आगे बढ़ता गया, उसकी सहेलियां जब किसी फिल्मी हीरो को देख कर आहें भरतीं तो वह उपेक्षा से कहती, “अरे आहें भरना है तो देश के जवानों के लिये भरो जो असली जीवन के नायक हैं. ये तो केवल पर्दे पर कारनामें करते हैं. सैनिकों को देखो, बाढ़ आये, देश में दंगा हो, कोई दुर्घटना हो, पूरी तत्परता से अपनी जान की परवाह किये बिना देश के नागरिकों की रक्षा करते हैं“.

ये कहते कहते वह स्वयं भी ऊर्जस्वित हो जाती. वो बात दूसरी है कि इसके लिये उसे फिल्मी नायकों के सपनों में खोयी अपनी सहेलियों के मजाक का शिकार होना पड़ता. युवा होने के साथ साथ उसके सपने भी युवा हो रहे थे. उत्सा की सभी मित्र जानती थीं कि उसके सपनों का नायक कोई राजकुमार नही वरन देश के लिये जान देने वाला शूरवीर था.

उसके सुप्त स्वप्नों को तब हवा मिल गयी जब उसकी मित्र रिया के घर पर उसके मामा के बेटे अन्वय से मिली. उस दिन जब उत्सा उसके घर गयी तो रिया ने अन्वय से मिलवाते हुय कहा, “लो भैया यह है हमारी प्रिय मित्र उत्सा, जो तुम्हे मिले बिना ही तुम्हे अपना बना चुकी है.“

प्रथम बार किसी अजनबी युवक से ऐसे परिचय कराने पर उत्सा का चेहरा रक्तिम हो उठा, उसे रिया के बेहूदे मजाक पर क्रोध आया.

उसने गंभीर होते हुए कहा, “रिया, हर बात की एक सीमा होती है.“

उसे गंभीर देख कर रिया ने कान पकड़ कर कहा “अरे मेरी सखी तो रूठ गयी ,” फिर उसने अन्वय से कहा “भैया असल में उत्सा को सैनिक बहुत पसंद हैं और उसने अपना जीवनसाथी किसी आर्मी आफिसर को ही बनाने का निर्णय लिया है “ फिर वह उत्सा से बोली “ उत्सा ये हैं मेरे भैया अन्वय जो आर्मी में कैप्टन हैं”.

यह सुनते ही उत्सा के मन के सितार में एक मधुर सी झंकार उठी, अब उसने पहली बार भरपूर दृष्टि से अन्वय को देखा,अन्वय भी उसे ही देख रहा था और उसकी दृष्टि बता रही थी कि वह भी उत्सा के सौंदर्य के प्रभाव से बच नही पाया है.उसने शरारत से रिया से कहा, “मुझे नही पता था कि हम कठोर हृदयहीन लोगों को भी कोई पसंद कर सकता है?”

“ नही नही आप हृदयहीन कहां आप लोग तो इतने विशाल हृदय के होते हैं कि हम सम्पूर्ण देश वासियों की रक्षा करते हैं उनके लिये अपनी जान की बाजी लगा देते हैं “ उत्सा अनायास ही बोल पड़ी.फिर रिया और अन्वय को मुसकराता पा कर अपनी आतुरता पर झेंप गयी .

उसके हृदय में सुप्त प्रेम बीज भी अंकुरित हो चुका था. अन्वय जैसा सुदर्शन शालीन व्यक्तित्व उसकी कल्पना के रंगों में मानो समाहित हो गया था. लज्जा वश उसके मुंह से सामान्य औपचारिकता के शब्द भी न निकले . सदा घंटों रिया से चटरपटर करने वाली उत्सा कोई बहाना बना कर उसी क्षण वापस आ गयी पर वह चाह कर भी अपना मन वहां से नही ला पायी.

उसे घर आ कर पश्चाताप हो रहा था कि वह सामान्य शिष्टाचार भी नही निभा पायी, अन्वय क्या सोचते होंगे उसके बारे में कैसी असभ्य लड़की है. पर करती भी क्या बीता हुआ पल लौटाया तो नही जा सकता था. हां अन्वय उसके हदय में जो उस दिन विराजमान हुए तो आज उन्होने जाने का नाम नही लिया.

दूसरे ही दिन उसे रिया से नोट्स लेने की आवश्यकता पड़ गयी आवश्यकता को नितांत मानते हुए वह रिया के द्व़ार जा पहुंची.

उसकी मित्र रिया ने भी धृष्टता में कोई कसर न छोड़ी और उसके मन के भावों से अन्जान बनते हुए बोली “अरे तू बेकार ही परेशान हुई कल तो कालेज आते ही तब ले लेती”.

उत्सा एक बार फिर अन्वय के समक्ष स्वयं को लज्जित अनुभव कर के मन ही मन रिया को अपना शत्रु मान कर लौटने को हुई तो रिया ने उसका हाथ थाम कर उसे रोकते हुए कहा “ अरे कहां जा रही हो मैं तो तुम्हे तंग कर रही थी, तुम न आती तो यहां कयामत ही आ जाती और मुझे अपने भाई की जान बचाने के लिये तुम्हे बुलवाना पड़ता”.

कुछ न समझते हुए उत्सा चौंक कर बोली ‘ क्यों क्या हुआ तुम्हारे भाई को ?”

“ अरे दो दिनों से वो बिना हृदय के जी रहे हें अब तो बस जान जाने ही वाली थी” रिया ने शरारत से कहा.

बात समझ कर उत्सा लज्जा से हंस दी.उसकी दृष्टि अन्वय की ओर उठ गयी वह भी उसे ही निहार रहा था,उस एक दृष्टि ने जो कह दिया था,उसके बाद वाणी की उपयोगिता न रही थी. उन दोनो में जो बीज अंकुरित हुआ वह कुछ माह में ही बढ़ कर सघन वृक्ष बन गया.

उत्सा अपने स्वप्नें में खोई वर्ष दर वर्ष प्रेम की पींगे बढ़ाती रही .नींद से तो वह तब जागी जब घर में उसके विवाह के चर्चें होने लगे.इससे पहले कि बात हाथ से निकल जाए उसे बताना ही होगा कि उसने अपना जीवन साथी चुन लिया है.

उस रात उसने साहस करके बिना किसी भूमिका के ,मम्मी से कहा “ मम्मी मैने अपना जीवन साथी चुन लिया है “

मम्मी चौंक पड़ीं उन्होने एक साथ कई प्रश्न पूछ डाले “ कौन है क्या करता है किस बिरादरी का है तू उसे कैसे जानती है बात कहां तक बढ़ी है “?

उत्सा ने कहा “ मम्मी वो बहुत अच्छे है शरीफ हैं”

“ पर है कौन”?

“वे रिया के भाई है उनका नाम अन्वय है “

“रिया, पर रिया तो ठाकुर है “.

“तो क्या हुआ मम्मी उनकी जाति से क्या ,वो भले घर के हैं और सबसे बड़ी बात है कि वो सेना में कैप्टन हैं” उत्सा ने बताया मानो उसके बाद तो न का प्रश्न ही नही उठता.

मम्मी ने कहा “ नही नही मैं एक बार दूसरी जाति में तेरा विवाह तो कर भी दूं पर सेना वाले से तो कतई नही करूंगी”

“तू मेरी इकलौती बेटी है सेना वाले की तो जान हथेली पर होती है भगवान न करे कहीं युद्ध छिड़ गया ......” आगे की कल्पना से ही उनके रोंगटे खड़े हो गये .

मम्मी अपनी बेटी के भविष्य के लिये कोई खतरा लेने को तैयार न थीं .

उत्सा ने कहा “ मम्मी वो हमारे देश के लिये हमारी रक्षा के लिये हंसते हंसते जान दे देते है और हम इतने स्वार्थी हैं कि उनका साथ भी नही देंगे अगर हर इंसान ऐसे सोचेगा तो उनका मनोबल ही टूट जाएगा.”

मम्मी ने उसे डपटते हुए कहा “एक तू ही नही है उनका मनोबल बढ़ाने के लिये”.

“सब यूं ही सोचें तों?”

कुछ दिन घर में शीत युद्ध का वातावरण रहा, पर उत्सा की भीष्म प्रतिज्ञा के समक्ष कोई न टिक पाया. अन्ततः उत्सा का प्यार जीत गया.

उत्सा का तो जीवन ही संवर गया . उसे गर्व था कि वह एक देश के जांबाज सैनिक की पत्नी है. जब भी देश को आवष्यकता पड़ी उसने अन्वय का साथ दिया. जब भी सैनिकों को आवष्यकता पड़ी उसने अपना पूरा सहयोग दिया .

उनके बेटे उत्सर्ग का जन्म हुआ तो भी उत्सर्ग फ्रंट पर थे ,पर उत्सा को कोई शिकायत नही थी . जब वो आये तो उसने अन्वय से सर्व प्रथम कहा “ अन्वय मेरा बेटा अपने पापा के समान ही आर्मी आफिसर बनेगा.”

अन्वय ने सैल्यूट मारते हुए कहा” ओ के मैम “फिर उसे स्नेह से देखते हुए कहा “ मुझे तुम पर गर्व है, तुम सच्चे अर्थों में एक सैनिक की पत्नी हो “.

यह सुन कर उत्सा प्यार से अन्वय के कंधों पर सिर रख कर स्वप्नों में खो गयी.

कारगिल के युद्ध मे अन्वय का बुलावा आ गया था जाते जाते अन्वय ने उत्सा का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा.

“ उत्सा वादा करो कि यदि में लौट कर न आऊं तो तुम हारोगी नही और अपने बेटे को भी एक वीर सैनिक ही बनाओगी”.

उत्सा का हदय कुछ क्षण को कांप उठा उसने अन्वय के मुह पर हाथ रख कर कहा “तुम्हे कुछ नही होगा शुभशुभ बोलो”.

अन्वय ने उसे बाहों मेले कर कहा “उत्सा तुम भली भांति जानती हो कि युद्ध के लिये निकले सैनिक के साथ कुछ भी हो सकता है पर तुम हारोगी नही” उत्सा ने अन्वय का हाथ दबा कर अपने भावों को दबा कर मुस्करा कर उसे आश्वस्त किया.

जब कारगिल का युद्ध जीत कर अन्वय घर आये तो उत्सा का उत्साह देखते बनता था. पर कुछ ही दिनों बाद उसे सीमा पर पुनः जाना पड़ा पर यह तो उनके लिये उनकी ड्यूटी का हिस्सा था. एक दिन समाचार आया कि कुछ आतंकवादियों के द्वारा किये हमले में उनको पकड़ने के प्रयास में भारतीय सैनिक सफल तो हुए पर उस प्रयास में कुछ सैनिक शहीद हो गये, अन्वय उनमें से एक थे.

यह उत्सा के लिये लिये कितना बड़ा आघात था यह समझना कठिन न था पर उसने अपनी भावनाओं को कठोरता से सात तालों में बन्द कर दिया और अपने कर्तव्यों की बलिवेदी पर अर्पित कर दिया. वह एक वीर शहीद की विधवा थी और उसने उसके मान के उसने बनाए रखा और अश्रु की एक बूंद को भी आंखों की राह जाना निषिद्ध था.

उत्सर्ग ने आयु के सोपान चढ़ते हुए, उत्सा और अन्वय की आंखों में यही सपना देखा था और यही जाना था कि उसे बड़े हो कर सेना में जाना है.

उत्सर्ग ने उसे हिलाते हुए कहा “ मॉम आप और पापा ने तो बचपन से मुझे यही बताया था कि मुझे सैनिक बनना है मैंने तो कुछ सोचा ही नही इसके अतिरिक्त तो आज आप क्यों बदल गयी”.

उत्सा ने तो चुप्पी साध ली थी न तो वह कुछ बोलना चाहती थी न सुनना न सोचना. अंत में उत्सर्ग की सहनशक्ति समाप्त हो गयी उसने कहा “ माम मुझे नही पता था कि आप कितनी स्वार्थी है न तो आप मुझे प्यार करती हैं न पापा को न अपने देश को आप तो सिर्फ अपने से प्यार करती है “.

यह सुन कर उत्सा तड़प उठी उसने चीख कर कहा “ नही मैं स्वार्थी नही हूं स्वार्थी हैं वो नेता जिन्होने में अन्वय और उसके जैसे कितने शहीदों की शहादत का अपमान किया और अपने स्वार्थ के लिये उन आतंकवादियों को छोड़ने का सौदा कर लिये जिन्हे पकड़ने के लिये उन्होने अपनी जान दे दी “ और वह फूट फूट कर हिचकी ले कर रो पड़ी.

अब उत्सर्ग को अपनी माम का दर्द की अनुभूति हुई अब उसकी यह पहेली समझ में आयी कि सदा उसे सेना का अधिकारी बनाने का सपना देखने वाली उसकी माम का निर्णय क्यों बदल गया है.पर उत्सर्ग इन छोटे मोटे झोंकों से थरथराने वाली लौ नही था उसने उत्सा से कहा “मॅाम अगर देश के अंदर ही देशद्रोही हैं तब तो देश को रक्षक की और भी आवष्यकता है” फिर बोला “ मै आपसे सुबह बात करूंगा”.

पर उत्सा ने सोच लिया था तो सोच लिया था रात से प्रातः की यात्रा में वह अपनी राह से भटकने वाली नही थी. उसने दृढ़ निश्चय कर लिया कि वह उत्सर्ग को समझा लेगी और इसी निश्चय के साथ उसने आंखे मूंद लीं.

नित्य की भांति अन्वय आज आये तो कुछ बदले से थे, उनके चेहरे पर अप्रसन्नता झलक रही थी ,उत्सा समझ गयी कि अन्वय क्यों अप्रसन्न हैं, वह उन्हे बताना चाहती थी कि वह क्यों उनसे किये अपने वादे को पूरा करने से हिचक रही है, वह उन्हे समझाना चाहती थी कि उनके त्याग का क्या परिणाम हुआ . पर वो तो मानो कुछ समझना ही नही चाहते थे.

“उत्सा क्या यही था तुम्हारा प्यार, मेरे जाते ही तुम बदल गयी ? यदि सब तुम्हारी तरह इन छोटे मोटे कारणों से घबरा गये तो क्या होगा हमारे देष का? क्या ये धुंध इतनी घनी है कि तुम्हारा मेरे लिये प्यार, देश के लिये प्यार और अपने बेटे के लिये प्यार, सब पर छा गया ?”

“हां हां हां मेरा प्यार अब कोई धोखा नही सह सकता” उत्सा बुदबुदायी.यह सुन कर अन्वय ने कहा “ जिन्होने मेरे त्याग का अपमान किया वो तो मेरे कोई नही पर तुमने तो मेरी अपनी हो कर भी मेरे त्याग का अपमान कर दिया , हार मान गयी” और वह उठ कर उसका हाथ छुड़ा कर चल दिये. वह उन्हे पुकारती रह गयी पर वह अंधेरे में कहीं दूर बहुत दूर विलुप्त हो गये,मानों अब कभी नही आएंगे.उत्सा लिख पड़ी “ नही नही तुम मुझे छोड़ कर नही जा सकते”.

उत्सर्ग ने उत्सा को बड़बड़ाते सुना तो समझा कि वह उसके सेना में जाने को ले कर चिंतित है ,उसने उत्सा को झिंझोड़ कर जगाते हुए कहा “ मॅाम क्या हो गया मैं नही जाऊंगा पर आप रोइये नही “.

उत्सा हड़बड़ा कर उठ गयी सामने उत्सर्ग को देख कर उसे होश आया. उत्सर्ग ने धीरे से उसका हाथ थामते हुए कहा “मॅाम मेरे लिये आप ही सब कुछ है आप चिन्ता मत करिये आप का जो मन है मैं वही करूंगा “ .

उत्सा बिना कुछ बोले उठी और उसने एन डीए के फार्म पर हस्ताक्षर करके उत्सर्ग को थमा दिया .उत्सर्ग आश्चर्य से उसके इस परिवर्तन को देख रहा था .उसके चेहरे पर एक दृढ़ निश्चय झलक रहा था.

उत्सा ने कहा “ बेटा मैं कुछ क्षण के लिये सच में भ्रमित हो गयी थी, लोग तो अपने एक वादे के लिये सब कुछ त्याग देते है मेरे तो तीन तीन से वादे है अन्वय से देश से और अपने सपनों से “उसने सामने लगे अन्वय के चित्र को देखा उसे लगा मानो वह मुस्करा रहे हैं और उसे विश्वास हो गया कि आज उसका प्यार पुनः जीत गया है.

मैं ,अलका प्रमोद ने भले ही इलाहाबाद विष्वविद्यालय से वनस्पति विज्ञान में एमएससी किया और जीविकोपार्जन हेतु उ0प्र0 पावर कारपोरेशन विभाग लखनऊ को चुना पर छात्र जीवन में लिखी गई कालेज पत्रिका व आकाशवाणी में प्रकाशित प्रसारित रचनाए सिद्व करतीं हैं मेरे मन में सुप्त रचनाशीलता के बीज की। जब जीवन के मोड़ पर अचानक कठोर धूप से सामना हुआ तो ताप में झुलसते मन को पापा साहित्यकार श्री कृष्णेष्वर डींगर ने लेखन के लिये प्रेरित किया । काल के कठोर प्रहारों से विचलित भटकते मन को ठंडक मिली सृजन की छांव में। लगभग वर्ष1992-1993 में पुनः गति पा कर आज तक सतत गतिशील है और जब भी मन व्यथित हुआ है तो सृजनशीलता ने संरक्षण दिया है। प्रथम कहानी मुक्ता पत्रिका में प्रकाशित हुई तब से अभी तक पांच कहानी संग्रह 1.सच क्या था 2.धूप का टुकड़ा 3.समान्तर रेखाएं 4.स्वयं के घेरे 5. रेस का घोड़ा, 6.उपन्यास-.यूं ही राह चलते चलते तथा नौ बाल विज्ञान एवं साहित्य की पुस्तकें 7.नन्हे फरिश्ते 8.. चुलबुल-बुलबुल , 9. अन्तरिक्ष की सैर 10.. मशीनी जिन्न 11.. सौर ऊर्जा और उसके प्रयोग 12..विज्ञान कल से आज तक, 13.मशीनी मानव रोबोट ,14. चन्द्रशेखर वेंकट रमन, 15.डा0 ए पी जे अब्दुल कलाम , अस्तित्व में आ चुके हैं। जिनके लिये यदा कदा मिलने वाले लगभग 22- 23 पुरस्कारो/ सम्मानों,जिनमें उ0 प्र0 हिन्दी संस्थान के विद्यावती कोकिल जैसे महत्वपूर्ण सम्मान तथा होमी भाभा संस्थान ,दिल्ली प्रेस द्वारा प्रदत्त प्रतिष्ठित पुरस्कार भी सम्मिलित हैं, ने मुझे प्रेात्साहित किया तो मेरी कुछ रचनाओं के अनुवाद और शोध छात्रों द्वारा मेरे रचना संसार पर शोध ने मेंरे आत्मविश्वास में वृद्धि की। द संडे पत्रिका ने सदी की 111 महिला साहित्यकारों मे स्थान दे कर मुझे कलम को निरंतर चलने के लिये प्रेरित किया । मेरे जीवन में प्रायः मन पर हस्ताक्षरित आस-पास की घटनाओं ने मन को उद्वेलित कर कलम उठाने को विवश किया तथा कल्पना के ताने बाने में गुंथ कर कहानी/ उपन्यास के पात्र अनायास ही आ खड़े हुए । इस प्रकार कहानी और उपन्यास आकार ग्रहण करते रहे हैं। मन के भावों के संप्रेशण हेतु कविताओं ने जन्म लिया। प्रत्येक रचना के जन्म ने मुझे मात्त्व का सुख दिया और हर बार जब रचना प्रकाशित हुई तो लगा मेरी संतान ने सफलता के सोपान चढ़ मुझे गैारवान्वित किया है। हां मेरा यह मानना है कि भले ही सृजन अभिव्यक्ति का माध्यम हो पर वह मात्र तभी तक स्वांतः सुखाय होता है जब तक डायरी के पन्नों में बन्द रहता है। जब कोई भी रचना पाठकों को समर्पित होती है तो वह समाज की थाती बन जाती है अतः रचनाकार का समाज के प्रति गंभीर दायित्व हो जाता है अतः विधा कोई भी हो विचार यथार्थ हो या कल्पना मेरा यह प्रयास अवश्ष्य रहता है कि मेरी रचना समाज में मनोरंजन के साथ साथ समारात्मकता विस्तारित करे।

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