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  • नीलम कुलश्रेष्ठ

तू पन कहाँ जाएगी ?

``साला उल्ला का पठ्ठा !सहर भर में कुछ देखने को पन नहीं मिलता जो तू इदर ताकता है ?``मंगी ने खड़े होकर ऊपर उठी हुई धोती नीचे की व रेलवे लाइन के पास पड़े दो चार पत्थर उठाकर लाइन के समानांतर जा रही सड़क के उस पार खड़े साइकिल वाले पर दे मारे दनादन .

वो सायकिल वाला अपनी सायकिल रोककर उसे एक हाथ से पकड़े बेशर्मी से अब भी उधर ही मुंह किये ,आँखें फाड़े खड़ा था ,उसका सिर एक पत्थर से टकराते -टकराते बचा। फिर भी वह आराम से सायकिल पर चढ़ते हुए ,आँखें नचाते ,दांत दिखाते हुए कह ही गया ,``बिना टिकट की फिलम तो इदर ही देखने को मिलती है। कल फिर आऊंगा। ``

रमिला बेन धोती नीचे कर उठ चुकी थी ,चाहे उसका आधा काम ही हुआ था ,``साली ये जिनगी भी कोई जिनगी है ?सड़ाँस करने को भी चैन से पन नहीं मिलता। ``

बस्ती की औरते सभी शाम या सुबह के झुटपुटे में या रात बिरात प्लास्टिक के मटमैले मग में पानी लेकर इधर फ़ारिग होने आ बैठतीं हैं लेकिन कभी कभी पेट का दवाब अन्धेरा नहीं देखता। तब ही ऐसे सड़कछाप तमाशबीनों की आँखों का शिकार होना पड़ता है। जब से रमिला की छोटी बेटी टिक्कू दिन में दो तीन गुंडों की छेड़ छाड़ का शिकार हुई थी तबसे बस्ती की कोई औरत इधर अकेले नहीं आती। वो तो टिक्कू ने उस दिन शोर मचा दिया था वर्ना पता नहीं क्या घपला हो जाता।

रमिला बेन बस्ती में नई रहने को आई है इसलिए पूछती है ,``मंगी ताई !बची बेन कह रही थी कि तू पन बहुत अनाजवाली किसान की बेटी है। तू काहे सहर में मरने पन को चली आई ?``

``क्या कहे मांगी कहे मंगी ? हाथ की लैनों पर किसका जोर चलता है ?सहर की बस्ती अपनी सी नहीं लगती। अपनी झुग्गी से बाहर निकलो तो ध्यान रखना पड़ता है कहीं नाली के कीचड में पैर ना पड़ जाए। जिस पानी की आस में उसका परिवार गांव छोड़कर सहर भागा था ,वही लम्बी लाइन में घंटों खड़े रहने के बाद नल से टपकता है ---टप ---टप।

मंगी अपनी खोली के सामने रक्खे माटले [घड़े ] में से पानी लेकर हाथ पैर धोती है,थोड़े से पानी के मुंह पर छींटे मारती है और आँचल से मुंह पोंछती अंदर आती है। अंदर खाटले पर तख्तसिंह अधलेटा गुर्राता है ,``कहाँ याराना बना रही थी ?

``तू फिर यहां मरने को इदर आ गया ?``वह हाथ का मग हिलाकर पूछती है ,``तेरे को ये पन नहीं दीखता .``

``मेरे को सब ख़बर है सड़ाँस का बहाना लेकर इदर उदर रखडती है या डेलेवाले [कचरा खरीदने वाले ]से आँखें लड़ाती है। ``

मंगी कमर पर हाथ रखकर खड़ी हो गई और अकड़कर बोली ,``हाँ ,बोल रखड़ती हूँ तेरी तरह छोड़कर तो नहीं भागी फिरती ?``

``चांपली [तेज़ तर्रार ] ! जबान चलाती है। ``वह फुर्ती से उछलकर उसका हाथ पकड़ खोली के अंदर ले आया। एक हाथ से उसका जूड़ा पकड़ा व दूसरे हाथ से पिटाई करने लगा. मंगी पिटते हुए बोली ,``बस आंटा [चक्कर ] मारने चला आता है। तेरा मेरा रिस्ता पन क्या है ?``

``अभी बताता हूँ कि तेरा मेरा रिस्ता क्या है ?``उसने खोली का दरवाज़ा अंदर से बंद कर उसे खाटले पर खींच लिया।

कुछ देर बाद मांगी का गुस्सा हवा हो गया था। वह उसके कान में फुसफुसाया ,``खाना बना ,भूख लगी है। आधा घंटा में तैयार होना माँगता है।``

वह उसके बाजू में से खड़ी होकर खुल गए बालों का जूड़ा बांधने लगी,`रौब तो ऐसे मारेगा जैसे रोकड़ कमाकर इदर पन रख गया है। `` वह कुछ बड़बड़ाती टीन के डिब्बे में से आटा निकालकर एल्युमिनियम की परात में मलने लगी। तख्तसिंह हलके सुरूर में व थकान में हिचकोले खाटा खाटला पर सो गया।

उसके खाना खाने के बाद मंगी इसरार करने लगी ,``आज रात इदर ही रुक जा। ``

``ना रे !वह चंडालिका मेरा ख़ून पी जायेगी ``वह कहता नीले कुर्ते व चैक की लुंगी में हट्टा कट्टा तख्तसिंह लम्बे डग भरता बाहर निकल गया।

``तुमको बेवड़ा पीटकर फिर उल्लू बना गया ,``पड़ौस की खोली की इन्दु ताई सारे काम धाम छोड़कर पड़ौस की टोह में लगी रहती है।

अपनी अकड़ क्यों छोड़े ,`` साला अपना मर्द है ,जब जी करेगा तब आंटा [चक्कर ]मारने को आएगा किसी के बाप का क्या जाता है ?वह नहीं आये तो ढिंगली को तडवी व बालू नोचकर खा जाएँ.`` वह एक हाथ कमर पर रखकर व एक नचाकर पूछती है ,``ताई !क्या तुम्हारा मरद तुम्हें पन नहीं पीटता ?बस्ती में कौन पन औरत छाती ठोंककर कह सकती है कि उसका मरद उसे नहीं पीटता ?``

वह तैश में अपनी खोली में घुसकर ज़ोर ज़ोर से बर्तन मलते हुए सोचने लगती है – ढिंगली का बापू उस औरत के यहाँ पड़ा रहता है तो क्या ?उस दिन उसकी किस्मत अच्छी थी कि तखतसिंह ऐन मौके पर पहुँच गया था ,बेटी की इज़्ज़त बच गई वार्ना बेटी का काला मुंह लिए वह कहाँ छिपाती रहती ?सारी बस्ती को पता है मंगी से दो बजे तक कन्धे पर थैला लटकाये आस पास की सोसाटी [सोसायटी ] में काग़ज़ ,प्लास्टिक फूटा सामान और थैलियां ,लोहा लंगड़ बीनने जाती है। विस्नु ,महेस बूटपॉलिश का डिब्बा लिए टेसन निकल जाते हैं। ऐसी ही सूनी दोपहर में ढिंगली खोली में पैर फैलाये सो रही थी। उम्र क्या थी चौदहवाँ ही पूरा किया था और जान गयी थी औरत का सरीर मर्दों को भूखा भेड़िया बना देता है. बस्ती की शांत हवा को देखकर तड़वी व बालू खोली में आ घुसे थे। तड़वी ने सोती ढिंगली को गोद में उठा लिया व जैसे ही बालू ने उसके मुंह पर हाथ रक्खा वह जग गई और चीखी ,``बापू ---- ``

बालू अकड़ा ,``सारी बस्ती को पता है कि तेरी माँ को तेरे बापू ने छोड़ रक्खा है। ``

वो तो ढिंगली का भाग तेज था कि खोली के अंदर वाली जगह सोता हुआ तखतसिंह आंखें मलता बाहर आ गया व ये सब देखकर दाहाड़ा ,``साले-- कुत्तों --अभी बताता हूँ। ``

दोनों ही उसकी आवाज़ से भौंचक हो गए। बालू तो झटपट बाहर लपक लिया। तड़वी ने जल्दी से ढिंगली को गोद से उतारने की कोशिश की तब तक तो तख्तसिंह ने उसकी कमीज़ का कॉलर पकड़ लिया। वह उसे घसीटता बाहर ले आया .उसने उसकी इतनी धुनाई की कि आस पास की झोंपड़ियों में से बच्चे व बुढ्ढे निकल कर हक्का बक्का हो गए। तखतसिंह ने सबको सुनाकर गरजकर कहा ,``ढिंगली !तख्तसिंह की बेटी है। किसी ने भी इसकी तरफ आँख उठाकर देखा तो एक झटके में छुरी से उसकी आँख निकाल लूंगा। तखतसिंह छुरी पर धार रखना ही नहीं जानता ,किसी की गर्दन भी काट सकता है। ``

``माफ़ कर दो काका !गलती किस्से पन नहीं होती ?``तड़वी कीचड में सना पिटता हुआ कहे जा रहा था।

``तेरे बापू ने मेरे धंधे में मेरी मदद नहीं की होती तो आज मैं तेरी गर्दन उड़ा देता। ``कहते हुए उसने उसे धक्का दे दिया और मुंह फेरकर खोली में जब तक बैठा रहा मंगी नहीं आ गई। उसे देखकर बेटी माँ के गले लगकर बुरी तरफ रोने लगी। उससे पूरी बात जानकार मांगी भी रोने लगी ,``तेरे को पन कितनी बार कहा है बेटी जवान हो रही है ,कोई लड़का ठीक कर लेकिन तू खुद हीरो बना इदर उदर रखड़ता रहता है। ``

``अभी इसकी कोई सादी की उम्र है ? तू टीवी पर नहीं देखती कि लड़की की सादी की उम्र कम से कम अठारा बरस होनी चाहिए। `

```उन साले टीवी वालों के घर अपने जैसे पतरे वाले नहीं होते हैं। वो अपनी बेटियों को सीमेंट के मकानों में मोटे दरवाज़े के पीछे रखते हैं। चार दिन अपनी बेटियों को बस्ती में रख लें तो सादी करने की उम्र भूल जाएंगे। `` `

``तू देखने में गांडी [पागल ] लगती है लेकिन है बात पन सही कह रही है। कोई छोकरा ठीक करूंगा। ``

तख्तसिंह के जाने के बाद वह सोचने लगी कि वह बार बार ढिंगली की सादी की बात याद दिलाती रहती है लेकिन उसने कौन सा सुख सादी करके भोगा है ?उसका कोई गांववाला उसे देखे तो क्या पहचान पायेगा ? ये मैले कुचैले कपड़ों में ,रूखे सूखे बालों में कौन पहचानेगा कि ये अकोला जिले के कुर्चीनगर की मंगी जाधव है,भीमा जाधव की सबसे छोटी बेटी जिनके सब बेटे बेटी ज्वार ,लकेट व कपास की अपने खेतों में काम करने जाते थे। एक वही थी जो माँ के आँचल से बंधी घर का थोड़ा बहुत काम करती थी। वो बरस ना जाने कैसा आया ,धरती की जीभ सूखने लगी। उसमे दरारें पड़ ने लगीं। बापू ने खेत बेच दिया और दोनों बेटियों का ब्याह करके पकी उम्र में पगरिक्शा ख़रीद लिया था। मंगी कितना खुश खुश शहर आई थी कि उसके पति का चाकू छुरी बनाने का पुश्तैनी धंधा है। कुछ दिन बाद ही उसकी छाती धक्क से रह गई थी क्योंकि तखतसिंह का कोई अपना धंधा नहीं था। वह लोहे का गोल घेरा लेकर हर फरिया [गली ] में गुजरातियों की तरह आवाज़ लगाता फिरता था ,``धार ----चाकू नी धार। ``

उसकी सास ने चतुराई से बात सरकाई थी ,``तख्तसिंह पहली घरवाली को छोड़ के बैठा है क्योंकि वह बच्चा नहीं दे पाई। ``

मंगी की कोमल देह जैसे तूफ़ान से घिर गई थी ,``उसने पहले भी सादी बनाई थी? ``

``पन तू चिंता मत कर जैसे ही उसके बच्चा होगा ,वह उदर देखेगा पन नहीं। ``सास ने चतुरायी से दूसरी औरत का खतरा उसके मन में बिठा दिया था लेकिन साल बीतते बीतते उसकी गोद भर गयी थी। पांच साल में तो खोली तीन बच्चों की किलकारियों से भर गई थी। अब माँ बाप की खोली तखतसिंह को छोटी पड़ने लगी तो उसने कलाली फ़ाटक के पास एक दूसरी खोली ले ली। तब मंगी कहाँ समझ पाई थी कि इतना खर्च बढ़ने पर भी वह अलग क्यों रहने लगा है या बीच बीच में दो तीन दिन कहाँ गायब हो जाता है। वह झगड़ा करती तो बीड़ी फूंकता गुर्राता ,``देखती नहीं है कि कितना खर्च बढ़ गया है। ट्रक ड्राइवर के साथ दूसरे सहर नहीं जाऊंगा तो इन्हें क्या खिलाऊंगा ?``

``तो पैसे कमाकर किदर पन रख आता है ?``

``धंधा तो धीरे धीरे ही जमेगा। ``

बाद में इन्दु ताई ने उसे आगाह किया था ,``अपने मर्द को संभालकर रख। अपनी पहली वाली औरत के यहां पड़ा रहता है। ``

`` किदर को ?``उसने धड़कते दिल से पूछा था।

``उस औरत के बापू ने उसे एक कमरे रसोड़े का सीमेंट वाला मकान बांधकर दिया है। वह अक्खा दिन उदर पड़ा रहता है। पहले वह तख्तसिंह के सामने कितना रोई बिलखी थी. जी भर भर कर गालियां दीं थीं। जब कुछ नहीं कर आई तो उसने हथियार डाल दिए थे। जब वह घर पर आये ये उसकी `मेरबानी `.बच्चों को पालने के लिए उसने कचरा बीनने का थैला उठा लिया था।

मंगी खाटले पर सोने की कोशिश कर रही है पन जाने क्या क्या याद आये जा रहा है . छोटी उम्र में उसके अंधे कचरे के बोरे के बोझ से झुक जाते थे जब डेले पर जाकर वह अपना बोरा उलटकर कागज़ ,प्लास्टिक की कोथरियां [थैलियां ],टुटेला फुटेला प्लास्टिक ,लोहा लंगड़ छंटनी करके डेले वाले को देती तो अक्सर उसे रूपये देते समय उसका मुलायम हाथ अपने हाथ के पंजे में कैद कर लेता व बांयी आँख दबाकर कहता ,``ज्यास्ती पैसे बनाने का हो तो मेरी बस्ती में आ जइयो दूसरे बिजली के खम्बे के पीछे वाली खोली मेरी है। ``

वह धीमे धीमे अपना हाथ छुड़ाती संभल -संभलकर मुस्करा कर उसे गालियां देती क्योंकि वह कायम [ स्थायी रूप से ]का नाराज़ हो गया तो गया तो उसे अपना भारी बोरा उठाकर लम्बी सड़क पार करके सलाटवाड़ा के डेलेवाले के पास कचरा बेचने जाना पड़ेगा। इस सहर की बस्ती में आकर कितनी तरह के लोग देख चुकी है। जाने कौन कौन नेता `बोट `माँगने ,भासन पिलाने आते रहते हैं इसलिए नंदिता बेन का किसी ने भी विसबास नहीं किया था। उनकी कितनी ठी- ठी हुई थी। उन्होंने नर्मी से समझाया था ,``उस नीम के पेड के नीचे सुबह दस बजे आप सबको पढ़ाया करूंगी। आपको स्लेट व चोपड़ी [किताब ]सरकार देगी। ``

``सुबो दस बजे ?ही ---ही --ही। ``बस्ती की औरतें हंसने लगीं थीं।

``इसमें हंसने की क्या बात है ?दस बजे तक तो आपके मर्द काम पर निकल जाते होंगे ?``

संधु बेन ने कहा ,``बस्ती के कितना मरद लोग कमाने को पन जाता है ?और जाता भी है तो पैसा दारू में उड़ा देता है.अगर हम पढ़ने को बैठेगा तो कचरा बीनने कौन जाएगा ?अगर नहीं जाएगा तो हमारा चूल्हा कैसे जलेगा ?हमारा चूल्हा नहीं जलेगा तो बच्चा लोग भूखा मर जाएगा। ``

इन्दु ताई ने चुटकी ली थी ,``अपनी सरकार से कहना हमें स्लेट व चौपड़ी के बदल एक टैम का खाना दे तो हम यहां आ जायेंगे। ``

`` जब रोटी का इंतजाम कर दो तब पढ़ाई की बात करना ,`` अमृता बेन ये कहते हुए क्या उठी कि सारी औरतें एक एक करके उठती चली गईं।

नंदिता पीछे से आवाज़ देती रह गई थी ,`` सुनिए मेरी बात सुनिए। ``

बहुत दिनों तक बार बार आकर वह इनका विश्वास जीत पाई थी। उसने फैक्ट्रियों और ऑफ़िसों में संपर्क कर रद्दी कागज़ के कचरे का इंतज़ाम किया था। तब कहीं ये औरतें पढ़ने के लिए तैयार हुईं थीं। हफ़्ते में सिर्फ एक दो दिन ही मंगी का नम्बर लगता तब वह किसी साफ़ सुथरे ऑफिस या कम्पनी में जा पाती। उस दिन जगह जगह पड़े सड़े कचरे के ढेर में हाथ नहीं डालना पड़ता। बस कभी कभी बवाल होते बचता ---उस दिन साबुन की फ़ैक्ट्री वाला पटेवाला [चौकीदार ]पीछे पड़ गया था ,``तेरे को और कागज़ माँगता है ?``

`हाँ रे !``

`तो चल मेरे क्वार्टर में। मेरी घरवाली नहीं है। अपन उदर मज़ा करेंगे। एक बोरा कचरा पड़ा है। ``उसने अपने मटमैले दांत दिखा दिए थे।

``तू क्या बोला ?क्या मै तुझको रखड़ने वाली लगतीं हूँ ?``कहते हुए उसने चप्पल उतार ली थी ,तब वह दूर चला गया था।

`खड़ ---खड़ `--वह आवाज़ से उठ जाती है। दरवाज़े की कुंडी खोलकर चौंक जाती है क्योंकि तखतसिंह पलट कर कभी नहीं आता।

वह खुश है व उत्साह से उसे बताता है ,``ढिंगली के लिए एक छोकरा पक्का कर आया हूँ। आते सोमवार को सादी होगी। ``

``आते सोमवार तक तैयारी कैसे होगी ? ``

``मैं तैयारी करवाऊंगा। ``

दौड़ते ,घबराते ,हिम्मत बांधते दोनों ने बिटिया की सादी कर दी। उसके जाते ही अजीब सूनेपन से मंगी भर गई है। ढिंगली से रात का खाना खाते समय दुःख सुख की बात कर लेती थी। छोकरों से कौन करे दिल की बात। मुए `ही ही `करके बात पन उड़ा देतें हैं.कहीं से जूना `ट्रेजिस्टर `खरीद कर खटिया पर पड़े उसे बजा बीड़ी फूंकते रहेंगे या या तीन पत्ती खेलेंगे ,मरे कोई अच्छा धंधा पानी नहीं ढूँढते .बाद में बूटपालिस की कमाई से घर नहीं चलेगा तो अपनी औरत को मारेंगे .

सादी के दो महीने बाद ही ढिंगली रोती कलपती आदमी के घर से भाग आती है ,``वो मुझे बापू की तरह मारता है। मेरे को उधर नहीं जाना। ``मांगी उसे समझा बुझाकर उसे पति के घर छोड़ आती है ।

बेटी के हाथ क्या पीले हुए उसके हाथ लाल रहने लगते हैं। खुजली बढ़ती जा रही है हथेली खुजाओ तो लाल पीला मांस झांकने को पन लगता है। इन्दु ताई ही उसे जबरदस्ती मजूरों के अस्पताल ले गई। डाकटर ने हथेलियां देखकर कहा ,``ये गोलियां लिख रही हूँ। ये मलहम सुबह शाम चार चार घंटे हाथों पर लगाकर बैठना ,कचरा बीनने का काम छोड़ देना ,उसमे गन्दगी बहुत रहती है। ``

``कचरा नहीं बीनेंगे तो खाएंगे क्या ?``

``मेरी बात नहीं मानोगी तो ये खुजली सारे शरीर में फ़ैल जाएगी। क्या अपने मर्द की कमाई से कुछ महीने घर नहीं चला सकतीं ?``

``खोली वाले क्या मरद पन मरद होतें हैं ?पहले तो कमाने को पन नहीं सकता। कमाता है तो कमाई दारू में उड़ा देतें हैं। अपना मरद तो दूसरी औरत से भी बंधेला है। ``वह कहते कहते रो पड़ी।

डॉक्टर झुंझला पड़ी ,`` बाहर जाकर रोओ। देखती नहीं बाहर मरीज़ों की कितनी गर्दी [भीड़ ] है। ``

मंगी आंसु पोंछती बाहर चली आई किसी के पास टैम नहीं है जो उसका दुःख सुने ,वह खुलकर रो सके। वह भी किसी दिन मंदा बेन की तरह सड़ती चामड़ी का रोग लिए सरकारी बिस्तर पर मर खप जायेगी।

वह सड़क के पुल की सीढ़ियां उतरकर नीची आई। वहां अकेला कोना देखकर उसकी रुलाई फूट पड़ी। पुल के ऊपर की सड़क पर कार ,कूटर ,सायकल पर भागी जाने वाली भीड़ जाने कौन कौन से साफ़ सुफाई वाले काम को करने भागी जा रही है। वह है कि गंदे मलबे में से कागज़ ,प्लास्टिक ,लोहा लंगड़ बीनने का काम भी चैन से नहीं कर सकती। मलबे में हाथ डालो तो कभी कागज़ में लिपटा सड़ाँस या खून में रंगा कपड़ा हाथ में आ जाता है। ऐसे में जब उबकायी आने को होती है तो ब्लाउज़ की जेब में रक्खी छींकड़ी [तम्बाकू ]खाकर उबकाई को रोक पाती है .उसके छींकड़ी खाने के कारण तखतसिंह बहुत गर्म होता था ,` `ये खाना बंद कर ,तेरे दांत काले होते जा रहे हैं। तेरे मुंह से बास आती है वह पन अलग। ``

वह लापरवाही से बोली थी ,``मेरे पास कायम का रह जा ,मैं इसे छोड़ दूंगी। तू पन कौन रोज गंध सूंघता है। ``

कभी कचरा बीनते बीनते किसी के घर की दीवार के पास पहुँच जाओ तो कोई मानस अंदर से निकलकर चिल्लाता है``क्या है --तुमको क्या मांगता है ?``

``हम भीख माँगने को इदर नहीं आया। कचरा बीनने के वास्ते इदर आया है। ``

``तो घर में क्यों घुसता चला जा रहा है ?``

``घर मे कहाँ पन घुसा था ?`` `

`` मौक़ा लगे तो घर में घुस भी जाओ। दिन भर कचरा बीनने का बहाना करके घर का नक्शा दिमाग में बिठा लेती हो व रात में चोरी करवा देती हो। ``

रे बाबा --कुर्चिनगरके भरे पूरे कुटम्ब की मंगी चोर पन है ?पेट की खातर पता नहीं क्या क्या सुनेगी वह। वह किस किस बात के लिए रोये ?वह निढाल कदमों से घर की तरफ चल दी।

खोली के सामने पहुँचते ही उसका माथा ठनक गया. इन्दु ताई की गोदी में ढिंगली सर रक्खे कर रो रही है। इन्दु ताई उसका सिर सहला रही थी।

माँ को सामने देख ढिंगली उसके गले में लगकर ज़ोर से रो उठी ,``आई !मैं उस मरद के पास कब्बी भी नहीं जाएगी। ``

` `क्यों पन नहीं जाएगी?``वह उसे अलग कर खोली का ताला खोलकर अंदर आने का इशारा करती है ,खाली खोटी काहे को बाहर तमाशा करने का ?

अंदर आते ही ढिंगली अपना पीला ब्लाउज़ खोलकर दिखती है ,``देख ,देख मेरी छाती व मेरी पीठ पर ये लाल निसान। वो मुझको मारकर खा जायेगा। ``

`` ये सारे मरद एक जैसे होते हैं। क्या तू ने पन मेरे निसान नहीं देखे ?बस्ती की कौन औरत छाती ठोककर कह पन सकती है कि मेरा मरद मुझको नहीं मारता? बस्ती की किस औरत के सरीर पर उसके मर्द के डाले निसांन नहीं है ?बस्तीवाली औरतों को ये पन सहने को पड़ता है। ``

``लेकिन मेरे को तेरी तरह मार खाकर उदर नहीं पड़े रहने का। ``

``तो इदर रहकर तड़वी ,बालू से अपने को बर्बाद करने को चाहिए। ``

``मैं कुछ नहीं जानती। मैं मार खाने वास्ते उदर पन नहीं जाएगी। ``

``तू पागल है ?मैं तेरा पेट कैसे पन भरेगी ?उदर तेरे को पेट भर खाना मिलता है ,कपड़ा मिलता है औरत को और पन क्या चाहिए ?``

``मैं उदर कब्बी नहीं जाएगी। तेरे साथ कचरा बीनेगी। अपना रोटी ,अपना कपड़ा खुद से करेगी।``

मंगी फट पडी,``कचरे के ढेर में हाथ डालेगी तो मेरे जैसे हाथ सढ़ जायँगे। मंदा बेन की तरह तेरा शरीर सड़ गल जाएगा। तेरे को अच्छी कमाई वाला आदमी करके दिया। दारू पीकर तेरे को मारता है तो क्या ?``

``मैं कुछ पन नहीं जानती। उस आदमी पर कोरट करेगी। ``

``तू बित्ते भर की छोकरी कोरट करेगी ?``मांगी का मुंह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया। मन हुआ तखतसिंह को खबर करके इस बेशर्म लड़की को उसके आदमी के घर छुड़वा दे। मरद जात का क्या भरोसा ?कुछ टैम इन्तजार करेगा नहीं तो दूसरी पन औरत घर में डाल लेगा।

ढिंगली बिफर चुकी थी ,`नंदिता बेन मेरी बस्ती में भी आती है ,वह मुझे मुफत में कोरट करके देगी। ``

मंगी उसकी चोटी पकड़कर दो मुक्के उसकी पीठ में लगाती है ,`` तू क्या पन अलग मिट्टी की औरत है जो अपने मरद की मार से उसे छोड़ देगी ?``

फिर भी ढिंगली उसे डबडबाई आँखों से उसे देखती है ,``क्या तू अपनी खोली में अपनी बेटी को जगह नहीं दे सकती ?मैं खुद कमाके खायेगी ,अच्छी आदमी से शादी करेगी लेकिन उस जानवर के साथ नहीं रहेगी। ``

ढिंगली के चेहरे की दृढ़ता देखकर मंगी हैरान है ,चौदह बरस की बच्ची ब्याह होते ही पुरखन जैसी बात कर रही है .मंगी ने कंधे पर थैला टाँगे कितने रस्ते नापे हैं लेकिन कोरट के रस्ते की बात कभी सोची ही नहीं,न ही किसी दूसरे मरद के पास जाने की सोची। उसकी नानी ढिंगली किसी दूसरे रस्ते पर चलने को उतारू है। वह बरबस उसे आसीस देने लगती है ,``जा ढिंगली , जा.अपने मर्द पर कोरट कर। ऐसी दुनिया ढूढ़ जहां के मरद धुत होकर अपनी औरतों के सरीर पर लाल पीले निसान न डालते हों। ``

 

​नीलम कुल्श्रेष्ठ - परिचय

आगरा में एक छुई मुयी सी लड़की और उसका एक छोटा भाई था। पिता बैंक मेनेजर ,माँ प्रधान अध्यापिका। दो चाचा ,दो मामा व छ; मौसियों की लाड़ली। मौसियां भी वे , वे सब शानदार पदों पर काम कर रहीं थीं .नृत्य ,गीत ,कड़ाई आदि सब सीखती जा रही थी। दूसरे शब्दों में कहूँ तो एक स्वर्ग बसा था उसके आस पास। । बीएस .सी .में पहली कहानी `केक्टस! प्यासे नहीं रहो ` कॉलेज पत्रिका में प्रकाशित हुई तो तहलका मच गया.कलकत्ता की आनंद बाज़ार की अंग्रेज़ी पत्रिका `यूथ टाइम्स `ने उसका इंटरव्यू प्रकाशित किया। चौबीस वर्ष में जब एक बड़े परिवार में शादी हुई तो उसकी सारी ठसक निकल गई जैसा कि लड़कियों की शादी के बाद होता है।

इसकी सौगात में उसे सन १९७६ से रहने को मिला एक बेहद सांस्कृतिक नगर -गुजरात का वडोदरा और गुजरात की सांस्कृतिक संस्कृति को समझने के जूनून ने उसे स्वतंत्र पत्रकार व लेखिका को बना दिया . उसका एक निजी स्वार्थ था कि वह अपने दोनों बेटों अपनी देख रेख में पालना चाहती थी। उसने अनजाने ही एक काँटों भरी राह चुन ली थी क्योंकि उसके लिखे लेख ३-४ वर्ष या फिर स्त्री विमर्श के लेख ७-८ वर्ष तक अप्रकाशित रहे। इसका कारण था कि सम्पादक विश्वास नहीं कर पाते थे कि समाज को समर्पित ऐसे लोग होते हैं .`धर्मयुग `सहित कुछ पत्रिकाओं के बंद होने पर जैसे पैरों की ज़मीन खिसक गई थी। देल्ही प्रेस व यादव जी को मानसिक रूप से सँभालना इसलिए आसान नहीं रहा कि अनजाने ही वह अपने लेखन में आई कठिनाइयों के कारण स्त्री विमर्श की लेखिका बनती जा रही थी। उसे खुशी है यादव जी ने स्वीकार कि स्त्रियाँ हमारी मानसिकता बदल रहीं हैं।

उन दिनों महिला पत्रकार होने का मतलब भी ठीक से पता नहीं था,वह भी अहिंदी प्रदेश में प्रथम राष्ट्रीय स्तर की पत्रकार --लेकिन सुनिए ये समाज ही हमें बताता है। इसलिए मेरे कहानी संग्रह के नाम हैं `हैवनली हैल `,`शेर के पिंजरे में `या ताज़ातरीन उपन्यास `दह ---शत `.गुजरात के लोगों से मिले अथाह सहयोग,उसकी शोधपरक यात्रा से ही उसकी पुस्तक किताबघर से प्रकाशित हुई है`गुजरात ;सहकारिता ,समाज सेवा कर संसाधन `.शिल्पायन प्रकाशन ने प्रकाशित की है `वडोदरा नी नार`` । इन दिलचस्प पुस्तकों का महत्व इसलिए है कि सुन्दर मूल्यों को जीने वाले लोगों के बारे में किसी भी हिंदी लेखक ने पहली बार लिखा है।

मैंने गुजरात की लोक अदलात को भारत में लोकप्रिय बनाने में भूमिका अदा की ,विश्वविद्ध्यालय के नारी शोध केंद्र ,महिला सामख्या की नारी अदालतों जैसी योजनाओं से राष्ट्र को परिचित करवाया। मैं सं १९९० में अस्मिता ,महिला बहुभाषी साहित्यिक मंच की सहसंस्थापक थी ,अहमदाबाद में भी इसे स्थापित किया। अगस्त २०१६ में इसके २५ वर्ष सम्पूर्ण होने के बाद नियति ने मझे मुंबई भेज दिया है.

अब तक सोलह सत्रह किताबें प्रकाशित हो चुकीं हैं ,एक का गुजराती में अनुवाद हो चुका है ,निरंतर लिखने से अखिल भारतीय पुरस्कार भी मिल चुके है। गुजरात साहित्य अकादमी के पाँचों पुरस्कार ले चुकीं हूँ। एक आत्मसंतोष हमेशा साथ रहता है जो अक्सर किसी मिशन को जीने के बाद होता है। यादव जी कहते थे कि कुछ सिरफिरे ही इतिहास रचते हैं। आज की भाषा में कहूँ तो थ्री ईडियट्स ही ऐसा कर पाते हैं। तो जनाब !मै भी एक थ्री ईडियट्स में से एक हूँ जबकि तब में इसका मतलब भी नहीं जानती थी।

 

कहानी पर लेखक का वक्तव्य

मैं सन १९७६ के बाद शादी के बाद वदोदरा में रहने आई थी व गुजरात को समझने के शौक के कारण अनेक एन जी ओ `ज़ के सम्पर्क में आ रही थी। तब ये शब्द भारत के लिए अनपहचाना तो नहीं था लेकिन अधिक प्रचलित भी नहीं था। मुझे सुखद अनुभूति होती थी कि समाज में कुछ कर गुज़रने वाले लोग कोई एक क्षेत्र चुनकर उसकी समस्यायों पर बाकायदा शोध करते हैं और तब सोचा जाता है कि उसका उत्थान कैसे किया जाए ?और प्रदेशों मे समाजसेवा काअर्थ होता है कि समाज सेवा के नाम पर बेईमानी से धन कमाना चाहतें हैं लेकिन गुजरात में ऐसे लोगों को सम्मानित नज़रों से देखा जाता है क्योंकि अधिकाँश बहुत ईमानदारी से काम करते हैं। बड़ौदा [वडोदरा ]में रहने का मेरा सौभाग्य है कि मैं अमेरिका से शुरू हुए `यूनाइटेड वे `आंदोलन की वार्षिक मीटिंग्स का भी हिस्सा रहीं हूँ। कभी अमेरिका में अकाल पड़ा तो वहां के समर्थ लोगों ने सोचा कि समाज सेवीयों का समय धन इक्कठ्ठा करने में ज़ाया होता है तो उन्हें यदि धन एकत्रित करके दे दिया जाए तो उनका समय बचने से लोगों को और भी सहायता मिलेगी। इस तरह से वहां एक ऐसी अम्ब्रेला एन जी ओ का गठन हुआ जो शहर की संस्थाओं को आंशिक आर्थिक मदद करती थी। इस विचारधारा से प्रभावित होकर श्री इन्दु भाई पटेल ने बड़ौदा में `यूनाइटेड वे `की स्थापना की। इसकी वार्षिक मीटिंग में मैं अस्मिता ,महिला बहुभाषी साहित्यिक,मंच की संस्थापक के रूप में आमंत्रित की जाती थी क्योंकि मैने ही अस्मिता को इसका सदस्य बनाया था। कचरा बीनने वालियों के लिए काम करने वाली संस्था `स्वाश्रय `भी इसकी सदस्य थी।

ज़रा कल्पना कीजिये किसी शहर के समाजसेवी ,वैज्ञानिक ,डॉक्टर्स ,इंजीनियर्स ,आर्कीटेक्ट्स ,कलाकार ,अध्यापक व साहित्यकार अपने क्षेत्र के लिये एन जी ओ बनाकर इस अम्ब्रेला एन जी ओ की वार्षिक मीटिंग में शामिल होकर शहर की समस्यायों को हल करने या इसकी प्रगति के विषय में सोचते हैं। साठ देशों से भी अधिक में काम कर रहे आंदोलन यूनाइटेड वे की शाखा भारत में कुछ शहरों जैसे देल्ही ,मुम्बई ,हैदराबाद व बेंगलोर में अब काम कर रहीं हैं। ये सब आपको बताना इसलिए ज़रूरी हो गया क्योंकि ई --कल्पना लॉस एंजेल्स की पत्रिका है और यूनाइटेड वे आंदोलन का जन्म अमेरिका में हुआ है। इसमें जोआप कहानी पढ़ने जा रहें हैं। वह भी `स्वाश्रय `नाम की संस्था जो कचरे बीनने वालियों के लिए काम करती थी की शोध पुस्तिका व निरंतर बस्ती में रहने वालियों के संपर्क पर आधारित है। मज़े की बात ये है कि इस प्रामणिक कहानी को प्रकाशित होने में समय लग गया।

सन १९९५ की बात है मैं बड़ौदा में कचरा बीनने वालियों के लिऐ काम करने वाली संस्था` स्वाश्रय `के संपर्क में आई थी। इसकी कुछ सदस्याएं पास की बस्ती में रहतीं थीं । रेलवे महिला समिति की तत्कालीन अध्यक्ष रमा विज ने मेरे सुझाव पर एक योजना भी चलाई थी जिसमें कॉलौनी में रहेने वाली सदस्यायें प्रतिदिन अपने घर का कचरा जैसे प्लास्टिक ,लोहा लंगड़ या रद्दी कागज़ एक बोरे में इकक्ठ्ठा करके रखतीं थीं व सप्ताह में एक बार बस्ती की कचरा बीनने वालियाँ उसे ले जातीं थीं। उन्हें जगह जगह घूमना नहीं पड़ता था।

जब मैंने उनकी खुले में शौचालय करने की समस्या जानी तो मेरे होश उड़ गये थे ,जिसका ज़िक्र मैंने इस कहानी केआरंभ में किया है। .मैंने उनकी शोध पुस्तिका `बिखरायेली रेखाएं `[गुजराती ] की सहायता से व बस्ती की बहिनों से बात करके एक कहानी लिखी `तू पन कहाँ जाएगी ?`` `कथादेश `के सम्पादक श्री हरिनारायण जी ने इसे सन १९९७ में प्रकाशित किया। तब मैंने कहां सोचा था कि -ये समस्या राष्ट्रीय मुद्दा बन जाएगी जगह जगह शौचालय बनवाये जाएँगे व लड़कियां विद्रोह कर तलाक माँगेगीं कि हम खुले में शौचालय नहीं करेंगे व एक फ़िल्म ` टॉयलेट - एक प्रेम कहानी `भी बनेगी।

`सहियर `[बड़ोदा अग्रणी स्त्री संस्था ] ने कुछ संस्थाओं की मीटिंग का आयोजन किया था जिसमे ये कचरा बीनने वाली बेने भी बुलाईं गईं थीं। इनमें सेअधिकांश मराठी दलित महिलायें थीं। तब इन लोगों ने खुलकर अपनी समस्याओं का ज़िक्र किया था। जब मेरी उम्र थोड़ी कम थी एक बात तब मैं चाहकर भी कहानी में लिख नहीं पाई थी जो इन स्त्रियों ने मुझसे शेयर की थी। आज आपसे शेयर कर रहीं हूँ. ये स्त्रियां तीन चार बच्चों की मायें थीं जिन्होंने मुझे बताया था कि शादी के इतने वर्षों बाद भी वे नहीं जानतीं कि यौन सुख क्या होता है क्योंकि वेअक्सर नशे में धुत पतियों द्वारा एक वस्तु की तरह इस्तमाल कर छोड़ दी जातीं हैं। स्त्री चेतना हर तबके में इनमें स्त्री संस्थाओं द्वारा जगाई जा रही है इसलिए अक्सर मेरे घर कचरा लेने आती सिंधु इन संस्थाओं द्वारा सिखाया वाक्य बोला करती थी ,``आदमी और औरत एक ही पेट से पैदा होता है। हमारा भी दुनिया पर उसके बरोबर हाक [हक़ ]है। ``

इस वाक्य के कारण वह कचरा बीनने वाली मेरी दूसरी कहानी `रिले रेस `का पात्र बनी ,जोकि इसी हक को पाने की जद्दोजेहद है रिले रेस के बैटन को एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को सौंपते हुए। मुक्ता ज़ौकी जी को जब मैंने ये कहानी भेजी थी तब तक मुझे ये पता नहीं था कि ये पत्रिका लॉस एंजेल्स बेस्ड है। बाद मैं जब ये बात मुझे पता लगी तो मुझे लगा कि मैंने ग़लत जगह कहानी भेज दी लेकिन जब इस कहानी की स्वीकृति प्राप्त हुई तो मैं आश्चर्य चकित रह गई थी। धन्यवाद मुक्ता जी को कि वे परदेस में बैठकर भारत के दबे कुचले वर्ग से भी साहित्यिक सरोकार रख रहीं हैं.एक बात और -----मैंने गुजरात में पत्रकारिता की व निरंतर स्त्री संगठनों के संपर्क में रही इसलिए इन संस्थाओं की बात लिख पाई ,शायद किसी गुजराती लेखिका ने इन पर प्रामणिक तौर से कुछ नहीं लिखा।

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नीलम कुलश्रेष्ठ ,मुम्बई।

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