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खुरदरी हथेलियाँ

यदु जोशी

जब मेरा विवाह हुआ, तब से देखा है ताई जी को. वह मेरे पति की ताई हैं. लंबी, इकहरी और गोरी-चिट्टी. चेहरा झुर्रियों से भरा है किंतु चेहरे की मुस्कान देखते ही बनती है. अगले बरस ताईजी ब्यानबे की हो जाएंगी. इस उम्र में लोग हाथ पैरों से लाचार हो जाते हैं और वह अपना काम खुद कर लेती हैं. कहती हैं कि वह न कभी बीमार हुई न कभी कोई दवा ली. कभी सिरदर्द हुआ तो पटका बांध लिया. सुबह सिरदर्द छू मंतर! तीन किलोमीटर दूर अस्पताल कौन जाए. अब तक गई नहीं.

आँखें भी ताई जी की दुरस्त हैं, पुराने कपड़ों में तुलपाई कर लेती हैं. बिना सहारे चलती-फिरती हैं... न डाइबिटीज की परवाह है न उच्च रक्तचाप की. है भी या नहीं... कौन जाने?

गैस के चूल्हे का मुंह नहीं देखा, न इसकी जरूरत समझी. ग्राम प्रधान ताई जी को समझाते हार गया. वह कहती 'अकेली जान हूँ कब यह पिंजरा छोड़ दूं. जब तक सांसें हैं लकड़ियों में ही पक जाएंगी दो रोटियां.'

पहाड़ी गाँव है...पुस्तनी दुमंजला मकान है पाँच कमरों का! एक कमरा तब खुलता है जब हम दोनों आते हैं. एक में खुद सोती हैं. एक को ताई जी किचन के तौर पर इस्तेमाल करती हैं. दो कमरे कभी खुलते ही नहीं.

कहने को मकान में ताऊजी और सुयश के पापा का भी हक़ है. अब न ताऊ जी हैं न इनके पापा.

सुयश कह चुका है, 'शहर छोड़कर कौन रह पायेगा यहाँ? न अच्छे इलाज की सुविधा न बच्चों के स्कूल! भला कोई जमीन जायजाद छाती पर ले गया! जबतक ताईजी हैं तबतक अच्छा है.

चौक से सटी हुई गौशाला है. उसमें गाय है श्यामा. काले रँग और औसत कद-काठी की. सींग छोटे हैं और पूंछ झबरीली. थोड़ा दूध मिल जाता है. एक वक्त का कालू बछड़े के लिए छोड़ देती हैं. थोड़ी-बहुत खेती है. संतरे और अखरोट के पेड़ हैं. बगीचा है. जैसे-तैसे हरी सब्जियां उगा लेती हैं. पास ही पानी की बावड़ी है, अकेली जान को कितना पीना औऱ कितना नहाना! बाकी खेत के काम आ जाता है.

ताई जी का नाम बहुत सुंदर है...गौरा. मैं बुजुर्ग महिलाओं से उनका नाम कई बार सुनती हूँ. कोई गौरा भाभी, कोई गौरा दीदी कहता है उन्हें. मेरे ससुर जी की भाभी है वह.

आज दोपहर सुयश अपने मामा से मिलने चले गए. इधर रात होते-होते भारी बरसात होने लगी. रह-रह कर बिजली कड़क उठती...मैं हर बार डर जाती. पहली बार ऐसी गर्जना और मूसलाधार बारिश से मेरा सामना हुआ. चीड़ की टहनियाँ हवा से झूलकर बड़ी डरावनी आवाज कर रही थी. मैंने खिडकी के पल्ले आपस में भिड़ाए और ताई जी के दरवाजे की साँकल खड़खडाई.

ताई जी मुझे बदहवास कमरे में आते देख हंसने लगी," अरी पगली, इससे डरावनी रातें तो मैंने अपनी जिंदगी में काट दी हैं. यह तो कुछ भी नहीं."

"ताई जी कभी बताओ न अपने बारे में," मैं ताईजी के बिस्तर में बैठती हुई बोली.

"क्या करेगी सुनकर, उल्टा रात भर नींद नहीं आएगी."

लेकिन मैं अड़ गई ... आज बताना ही पड़ेगा आपको... आप लेटे-लेटे ही सुना दो, मैं आपके पाँव दबाती हूँ."

"ना...ना, ऐसा पाप क्यों करूँ... फिर मेरी कहानी सुन कर तुझे क्या मिलने वाला है?"

"जो भी हो, आज सुने बिना सोऊँगी नहीं मैं," मैंने जिद्द की.

ताई जी कुछ देर सोचती रही...फिर जिंदगी के पृष्ठ पलटने शुरू कर दिए. जब कभी बिजली कौंधती, ताई जी की निर्विकार आँखें चांदी सी चमक उठती मानों कहा रही हों- जब तक प्राण हैं, हार नहीं मानूँगी.

ताई जी ने एक लंबी आह छोड़ी और कहना शुरू कर दिया. आत्मकथा मूसलाधार बारिश की तरह बहने लगी,"मेरी कहानी एक व्यथा है बेटी. संघर्ष से मैंने कभी मुँह नहीं मोड़ा, न दुर्भाग्य के आगे गिडगिड़ाई. तेरे ताऊजी मुझसे सोलह साल बड़े थे. उनका मेरे साथ दूसरा विवाह था. मेरे मां-बाप गरीब थे. बड़ी मुश्किल से हमारा पेट भरता था. कभी घर में कुछ नहीं होता तब माँ जंगल से कभी बांस की कोंपलें कभी जंगली मशरूम ले आती! कभी किसी से कुछ नहीं मांगती. बड़ी धैर्यवान और ऊर्जावान थी वह! शायद वही मुझे विरासत में मिला.

तब मैं कोई चौदह साल की रही हूँगी. नासमझ....मैं समझ रही थी कि यह गुड़िया गुड्डे के खेल जैसा है. जब माँ-बाप, बहनों से बिछड़ी तब पता चला कि यह जीवन का कटु सत्य है... अल्हड़पन, वह हँसी-ठिठोली सब छिन गई. ससुराल जहाँ घर ही नहीं सारी जिंदगी बदल जाती है. मैं बेजुबान गाय सी अनजान परिवार को सौंप दी गई. सबके साथ यही होता है. भाग्य की बात है, किसी को फूल मिलते हैं किसी को कांटे. मैं कांटों के बीच चिरती-कटती रही.

छोटी उम्र में उम्रदराज से विवाह... कितना बेमेल था यह! माँ-बाप को क्या दोष दूं...गरीबी के मारे थे बेचारे. कितनी पीड़ा हुई होगी उन्हें, जब कलेजे के टुकड़े को घर की चौखट से विदा किया होगा! पराया होने का मर्म माँ-बाप के अलावा कौन जान सका है भला?

खैर, जैसे-तैसे कई बरस गुजर गए. हमारी जब कोई संतान नहीं हुई तब प्रताड़ित होने लगी. इच्छाएँ नहीं थी तो मरती कहाँ से! मैं एक जिंदा लाश बन गई थी!

खेती बाडी का काम हो, लकड़ी-घास जंगल से लाना हो या घर का चूल्हा-चौका... सब एक अकेली जान के हिस्से!

एक दिन जंगल गई थी लकड़ियां बीनने. घनघोर जंगल था... सुर्ज देवता पेड़ों साखों के बीच से झिर्री बना कर झांक रहे थे. हर वक्त जंगली जानवरों का भय रहता. इतने सालों में पैर इतने शख़्त हो गए थे कि कांटों की चुभन महसूस नहीं होती. मैंने एक पेड़ की सूखी टहनी को खींचना चाहा तभी पैर फिसल गया. दूसरे ही पल मैं खाई में थी. जब होश आया तो देखा, एक पैर पेड़ की उभरी हुई जड़ों के बीच फंसा है. बहुत कोशिश की लेकिन पैर निकाल न सकी. मेरा बाकी का शरीर दूसरी तरफ झूल गया था. इसी हालत में तीन दिन भूखी प्यासी पड़ी रह गई. हाथियों का झुंड मेरी आँखों के सामने गुजर गया. रात भर सियारों की डरावनी आवाजें कानों से टकराती रही. कभी झड़े पत्तों के बीच सरसराहट हो जाती, साँप के भय से प्राण कंठ में आ जाते. आखिरकार गाँव वालों ने मुझे ढूंढ निकाला. मैं दुख झेलने के लिए बच गई थी.

रोज़ सुबह उठकर सबसे पहले चक्की पीसना, गौशाला साफ करना, जानवरों के आगे घास डालना, पानी रखना. दोपहर का खाना पकाकर जंगल से लकड़ियां और घास लाना. दिन-रात भर कोल्हू के बैल सी जुती रहती फिर भी ताने सुनती. धीरे-धीरे इसकी आदी हो गई थी मैं. कभी-कभी मन्दिर की सीढ़ियों में बैठ जाती, जी कुछ हल्का हो जाता. मैं वहीं से हाथ जोड़ देती, कहती कि हे परमेश्वर! अगर तू सच्चा है तो मुझे उठा ले. उसने कभी मेरी नहीं सुनी. पत्थर का देवता भला मेरी क्या मदद करता?

मन को जब कष्ट होता है न, तब वह दुःख देता है. पुराने लोग कहते थे दुख से द्वेष उत्पन्न होता है. मैंने किसी से कभी बैर, ईर्ष्या नहीं रखी. सुन रही है ना तू?" अचानक ताई जी ने मुझे चेताया.

"सुन रही हूं ताई जी," मैंने भरे स्वर में कहा.

"हां तो मैं क्या कह रही थी? ताई जी बोली," हाँ याद आया...गहरी चोट नहीं भुलाई जाती. पास-पड़ोसी से बैर नहीं किया. उल्टे दो टुकड़े खेत कुछ शातिर लोगों की आंख में गड़े रहे.

समय कभी किसी के लिए नहीं रुका, मेरे लिए ही क्या रुकता? मैंने दिल में पत्थर रख दिया! मैं तभी विचलित हुई जब मायके से बुरी खबर मिली...

अनुनय विनय कर, आंसू बहाकर इजाजत मिली मुझे. उस वक्त मुझे ऐसा लगा मानो मेरे अधिकार की वस्तु को पाने के लिए दूसरे की इजाजत लेनी है.

वह पिताजी का अंत समय था... पिताजी बिस्तर में थे. सूख कर कांटा हो गए थे. गाल पिचक गए थे, आंखे धंस गईं थी. न जाने कौन सा रोग था उन्हें. मुझे देखकर उनके होंठ कंपकपाए, आंसुओं की धार बह निकली थी. मैं विचलित हो गई.

किसी तरह इतना ही बोल पाए कि गौरा...मुझे माफ़ कर देना...मैंने तेरे साथ अन्याय किया है.

मेरा गला भर्रा गया था. बहुत कुछ कहना चाहती थी मैं परन्तु उन्होंने वक्त नहीं दिया. मेरे आने की इंतजारी में प्राण अटके हुए थे उनके. माँ तो अच्छी भली थी लेकिन वियोग नहीं सहन कर पाई वह...बहुत प्यार था दोनों में! पिताजी के जाने के ठीक एक हफ्ते बाद वह भी चली गई.

बिना एक दूजे के मैंने उन्हें खाना खाते नहीं देखा. साथ-साथ उठना-बैठना, साथ-साथ घूमना. वह दिन था और आज का दिन... मैं फिर कभी मायके नहीं गई. किसका मुंह देखने जाती. दो बहनें थी उनका भी जैसे तैसे घर बस गया. उन्होंने भी कभी मेरी सुध नहीं ली, न मैंने ही. पैरों में तो मर्यादा की बेड़ियाँ पड़ी थी न."

"अब जाना चाहोगी ताई जी बहनों से मिलने?" मैंने उन्हें रोक कर कहा.

"इच्छा तो होती है कभी कभी!" ताई जी ने एक आह भरते हुए कहा.

"ईश्वर ने चाहा तो मिलवाने जरूर जाएंगे...फिर आगे क्या हुआ ताई जी?" मुझे करुण गाथा सुनने उत्सुकता बढ़ती गई.

"सात साल बीत गए विवाह हुए, फुसफुसाहट होने गई. यह तो निपूती मरेगी... बाँझ को कहाँ से उठा लाए...मर जाए तो पिंड छूटे. पर परमेश्वर का ऐसा श्राप कि आज तक मरी नहीं. हाँ, तेरे ताऊजी गुजर गए... उन्होंने भी मुझे क्या सुख दिया. जब तक जिंदा रहे, जी भर कर सताया... कहीं आने-जाने में बंदिशें लगा दी. हुक्म की तामील समय पर न हो तो बुरी-बुरी गाली खाती. खून के आंसू पीकर जीती रही. मैं अकेली रह गई...समय बलवान होता है, इंसान की क्या बिसात? कर्म ही जीवन का सारथी बन गया. कठोर तप किया तभी तुम दोनों मुझे मिले."

ताई जी ने होठों पर एक विराम छा गया. एक उबासी ली फिर बोली, "अब सो जा, नींद आ रही होगी तुझे. बारिश भी कम हो गई है."

"हाँ ताई जी, आप तो दिन भर की थकी हैं..." मैंने दुपट्टे से अपनी भीगी आँखे पोछते हुए कहा.

फिर एक लंबी उदासी रात के वातावरण में घुल गई.

ताई जी के पास हम हर साल आते हैं. विशेष कर जब गाँव में कुल देवता की पूजा होती है. जिसे स्थानीय भाषा में मंडाण कहते हैं.

जब गाँव जाना होता है तब ताई जी के लिए बार्डर वाली सफेद सूती साड़ी, मैचिंग ब्लाउज और कपड़े की जूती जरूर खरीदती हूँ. खाने-पीने का शौक तो ताई जी को कभी नहीं रहा तो भी कुछ न कुछ लाती जरूर हूँ.

हालांकि ताईजी हमेशा उसे रोकती हैं,"रीतू, क्यों लाती है नए नए कपड़े. खर्चा मत करो आगे के लिए जोड़ो. मेरा क्या है, तुम्हारी उतरन ही पहन लूंगी."

ताई जी स्वाभिमानी है कुछ हमारा भी कर्तव्य है. मेरे पति से उनका गहरा स्नेह है. इनका नाम सुयश है लेकिन बाबू कह कर पुकारती हैं. बार बार कहती रहती... बाबू को यह खिलाना है...बाबू को वह खिलाना है. शहर में पहाड़ी चीजें कहां मिलती हैं! आजकल सहजन, मीठे करेले बहुत हो रही हैं. गाँव में सभी खाते ही रहते हैं, तुम्हें शहर में कहां मिलता है यह सब? श्यामा के दूध की खीर बहुत स्वादिष्ट होती है, बाबू को बहुत पसंद है खीर.

ऐसा नहीं कि वह इन्हें ही लाड़ करती हैं, उम्रदराज ताई जी मेरा भी ख्याल रखती हैं.

'इतनी दुबली क्यों है...दूध घी खाया कर. घी बना कर रखा है. घर का शहद भी है ले जाना, भूलना मत.'

मैं उनके साथ कभी कभी खेत में गुड़ाई करने या घास काटने चली जाती हूँ. वह रोकती हैं...बेटी धूप लग जाएगी, मुझे तो आदत हो गई है.

जितने दिन हम रहते हैं ताई जी की फुर्ती देखने लायक होती है. लगता जैसे उनको चार हाथ मिल गए हों. मैं तो थोड़ी देर में थक जाती...ताई जी हंसती और अपनी सख्त खुरदरी हथेलियाँ दिखा कर कहने लगती,"देख, कितने रूखे हैं लेकिन मुक़द्दर नहीं बदल पाए ये हाथ."

न जाने उनकी जर्जर काया को कहाँ से ऐसी शक्ति मिलती है! खेतों में जाकर ताजी सब्जियाँ तोड़ कर लाना. जंगल जाकर घास-लकड़ी बीन लाना. गौशाला का काम.

जिन दिनों हम गाँव में होते हैं, या सुयश अकेले आते हैं तब बछड़े कालू का हिस्सा कम कर दिया जाता, उसकी जगह ताई जी हरी घास कालू के सामने डाल देती! श्यामा को दुहते वक्त वह उस मूक जानवर से बातें करने लगती,

" मेरे बच्चे आए हैं श्यामा... बर्तन भर देना दूघ से."

और प्रतियुत्तर में वह रम्भा देती.

इस बार पूरे महीने ठहरने का इरादा है. गर्मियों की छुट्टियाँ हैं. पलायन कर चुके परिवार समय बिताने गाँव आने लगे हैं.

हर वर्ष की तरह कुल देवता की पूजा होनी है. गाँव अब पहले जैसा नहीं रहा. बहुत से मकान जर्जर हो गए हैं. कुछ खंडहर में तब्दील हो चुके हैं. कुछ मजबूर आज भी गाँव में हैं. कोई पशुपालन से जीविका चला रहा है कोई आसपास छोटा-मोटा रोजगार कर रहा है.

बहरहाल, गाँव में रौनक शुरू हो गई है.

दिल्ली से मंगत काका का परिवार आया है. पंडित खोला के राजाराम की बहू और उसके जवान बेटे आ गए हैं. चंडीगढ़ से कांतिलाल के नाती-पोते आज दोपहर ही पहुंचे हैं.

सप्ताह भर में मंडाण शुरू होने वाला है. पूजापाठी ब्राह्मण पहले ही आमंत्रित हैं. देवताओं का आह्वान करने वाले जागरी भी बुलाए हैं.

गाँव में मंदिर कमेटी भी है. चन्दा भी हर वर्ष की तरह लिया जा चुका है.

ताई जी को नाममात्र की बृद्धावस्था की पेंशन मिलती है.

दाल-चावल का खर्चा निकल जाता है...सुयश भी प्रायः पास के ग्रामीण बैंक में ताई के खाते में जरूरत के अनुसार रुपये भेज देते हैं. सुविधा अनुसार ताईजी बैंक जाकर किसी की मदद से रुपये निकाल लेती हैं.

ताईजी कई बार मना कर चुकी हैं लेकिन सुयश अपना फर्ज़ नहीं भूलता.

ताईजी को जरूरत भर का सामान गाँव के लोगों ले आते हैं. बाकी गरीब बच्चों की फीस, किसी जरूरतमंद को कपड़े या किसी गरीब की बेटी के विवाह में खर्च कर देती है. वक्त बेवक्त के सहारा थे गाँव के लोग.

सप्ताह गुजरने में अब दो दिन का समय है! गाँव के बीच की पहाड़ी में नरसिंह देवता का मंदिर है. मन्दिर में रंग-रोगन हो चुका है. चारों तरफ रंगबिरंगी झंडियाँ लगाई जा रही हैं. एक तरफ पंडाल बनाने वाले लगे हैं.

मन्दिर की घण्टियों की टनटनाहट में इजाफा हो गया है. सुबह से ही बच्चों की टोली मन्दिर के चारों ओर मंडराने लगी है. गज़ब का उत्साह है बच्चों में...

मन्दिर में चढ़ावा प्रसाद आने लगा है...मन्दिर छोटा सा है...कोई नियमित पुजारी नहीं है. जिसकी श्रद्धा हुई वह दिया बत्ती कर देता है.

मैं आज सबसे पहले मंदिर आई हूँ. मैंने दिया जलाया, कुलदेवता को मालपुए का भोग लगाया, तभी बच्चों की टोली आ गई.

मेरे हाथों में प्रसाद देखकर सब ने मुझे घेर लिया.

सबकी ललचाई निगाहें मेरे हाथ की तस्तरी में थी. तभी एक बच्चे ने हाथ बढ़ाकर पूछ लिया," चाची, शाम को भी प्रसाद चढाओगी न?"

मैं उस मासूम से सवाल पर मुस्करा दी. प्रसाद देते हुए बोली,"हाँ."

बच्चे में ईश्वर का अंश हैं तभी वे प्रसाद पाकर तृप्त हो जाते हैं. मुझे तब ताईजी का स्मरण हो आया. उनमें भी ईश्वर का अंश रहा होगा. ईश्वर ने फिर उनकी खुशी क्यों छीन ली! बच्चे-बच्चे में क्यों भेद किया उसने! अनुत्तरित प्रश्न लेकर मैं लौट गई.

आज प्रतीक्षा की घड़ी खत्म हो गई. ब्राह्मण पहुँच गए. पूजा की सामग्री आ गई. सब व्यस्त हो गए अपने अपने हिस्से के काम पर.

ठीक दिन में पूजा पाठ मंत्रोचार और दैनिक हवन होने लगा. गाँववासियों और प्रवासियों की कुशलमंगल की कामनाओं हेतु प्रार्थना होने लगी.

घण्टे-घड़ियाल बजने लगे. शाम ढलते ही आरती और फिर देवताओं का मंडाण सजता.

लोगों पर देवी-देवता प्रविष्ट होते. नृत्य करते और आदेश करते...आशीर्वाद देते...किसी के कष्टों के निवारण हेतु उपाय बताते.

मैं भी सुयश और ताई जी के साथ यह सब कौतूहल से देखती. मेरे लिए नया अनुभव था जो कभी नहीं देखा. एक-एक कर इतने सारे लोगों पर देवता! कितना सच कितना झूठ! आस्था है या सच्चाई ?

कभी लगता यह एक मानसिक बीमारी है, कभी लगता यह पारलौकिक शक्ति के वशीभूत हो रहा है। लोग कैसे जलती आग में नाच लेते हैं, कैसे मोटी लोहे की चेन से अपने शरीर को कष्ट देते हैं!

जो भी हो, एक अद्भुत माहौल में कुछ तो था!

हर रोज रात में मंडाण सजता. समस्त देवों का आह्वान होता.

आज फिर से मंगल काका पर देवता सवार है. मंगल काका जोरों से चिल्ला रहा है. लोग हाथ जोड़े सहमे हुए मंदिर के प्रांगण बैठे हैं. कुछ समय बाद मंगल काका ने झूमते हुए ताईजी की ओर आंखें ततेरी,“तेरी पूजा मुझे नहीं मिली… मैं रुष्ट हूँ तुझसे.“

ताई जी एकबारगी चौंक उठी फिर हाथ जोड़े बोली, ”कौन सी खुशी दी तूने मुझे परमेश्वर? दुख-दर्द में तुझे ही याद किया है मैंने. किसी के पास नहीं गई अपने आंसुओं को दिखाने.”

“हाँ...हाँ, फिर भी तू दोषी है...कभी ठीक से मुझे पूजा नहीं!” मंगल काका जोर से चीखा. अब तो ताई जी भी चुप न बैठी,

“इस लायक कहाँ हूं मैं. तेरे नाम का रोज धूप-दीप करती हूँ... इस पर भी तू खुश नहीं है.”

ताई जी वर्जनाओं और कोप से नहीं डरीं, अन्याय के खिलाफ वह बेधड़क सवाल जवाब करने लगी,”

“मैं तो सामर्थ्यहीन हूँ, तू जानता है फिर मैं ही क्यों दोषी हुई. बाकी का समाज क्यों नहीं? क्या वह दोषी नहीं जिस पर तू आया है. इसी ने मेरी जमीन का टुकड़ा हड़पा था… तब तू कहाँ था! कभी इससे रुष्ट हुआ तू?”

मैं देखती रह गई. ताई जी कितनी सख़्त हो गई हैं, खुरदरी हथेलियों की तरह!

मंगल काका का सिर झुकने लगा मगर ताईजी चुप नहीं हुई,”क्यूं इंसाफ नहीं करेगा परमेश्वर!”

लेकिन मंगल काका का परमेश्वर शांत हो चुका था. शायद उसके वाहक को सच्चाई आईना दिखा रही थी.

मंगल काका शर्म से पानी-पानी था. सबके सामने उसकी बखिया उधेड़कर रख दी थी ताई जी ने. वह झेंपकर इधर-उधर देखने लगा. सभी को मानों सांप सूंघ गया. खुसुर-फुसुर होने लगी. उधर मंगल काका पता नहीं कब अंधरे का फायदा उठाकर नौ-दो-ग्यारह हो गया.

धीरे-धीरे माहौल शांत होने लगा. रात अपने शबाब पर आ चुकी थी. ढोल-नगाड़ों की आवाज भी थम गई. तभी ताईजी उठी और कान में हाथ धरते हुए कुलदेव की मूर्ति की ओर टकटकी लगाए बोली,” हे परमेश्वर गलत कहा हो तो इस पापी को क्षिमा करना.”

मैं सोचने लगी देवता मंगल काका पर थे या ताई जी पर कोई देवी, जिसने सारी बिरादरी को झकझोर कर रख दिया!

साफगोई और हौसले ने ताई जी को देवी के रूप में सबके मनमन्दिर में स्थापित कर दिया.

तभी सुरेंद्र सिंह लंगड़ाते हुए ताई जी के करीब आए और विनम्रता से दोनों हाथ जोड़कर बोले,” भाभी जी, आप हमारे गांव की शोभा हैं, आपका स्नेह हम सब पर बना रहे. आज आपने हमारी आंखें खोल दी.”

और ताई जी ने अपनी खुरदरी हथेली सुरेंद्र सिंह के सिर पर रख दी.

 

यदु जोशी (गढ़देशी)

मूल स्थान: पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखंड)

संप्रति: सेवानिवृत्त मुख्य अभियन्ता (पी एस यू)

रचनाएं देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित.

मेरी सहेली, गृहशोभा, सरस सलिल, सरिता में दो दर्जन से अधिक कहानियां, लघुकथा और व्यंग्य प्रकाशित.

कादम्बिनी में कविता और कादम्बिनी के चित्र और रचना स्तम्भ में तृतीय पुरुष्कार. वेब पत्रिकाओं अनुभूति, सहित्यकुंज इत्यादि में कविताओं का समावेश.

आकाशवाणी से एक कहानी का प्रसारण.

वर्तमान में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर उपन्यास और क्षेत्रीय भाषा में लेखन कार्य.

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