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ई-कल्पना

कुर्ती से झाँकती नीली लकीरें …


उसे लगता था कि उसके आँसू दुनिया में सबसे ज्यादा खारे हैं लेकिन वे जैसे ही समुंदर में टपके तो तैरने लगे ... उनका घनत्व फिर भी कम ही रहा।

वो तो समुंदर पर तैर गए जो डूब गए होते तो... शायद मोती बन जाते।

अब उसकी आँखों में पानी नहीं था। सिर्फ एक लकीर थी सफेद-सी, उसके लाल गालों पर। गाल लाल थे तो जाहिर है कि पानी भाप बन गया होगा, अपना खारापन वहीं छोड़कर।

वह गालों पर उकेरी सफेद लकीर नीचे आते-आते नीली हो गई थी। लेकिन होठों के पास नीले के साथ लाली थोड़ी ज्यादा ही थी।

वह मेरे पास आई। मुस्कुराकर बोली, "खारा चुभता है। है न! वह समंदर का किनारा देख रहे हो, वहाँ दूर? वहाँ एक नाव है। न चलती है न डूबती है। जब आसमान से आग बरसती है न तब वह नाव जलती तो है लेकिन खाक नहीं होती, वैसी ही खड़ी रहती है, जाने क्यों!"

इतना कह वह अपनी खोखली आँखों से मुड़ी। उसकी आँखों में आँसू तो नहीं थे लेकिन लाल डोरे मुझसे छिपे न रहे। उसने मुस्कुराकर मेरी ओर देखा और चल पडी, समंदर की लहरों के ठीक विपरीत दिशा में कि जैसे किसी खास मकसद से समुंदर की लहरों ने उसे खुद से दूर कर दिया हो।

वह जो मुड़ी तो फिर चलती ही चली गयी। मैं उसे जाते देखता रहा। कुछ कहा नहीं कि कहने को कुछ बचा ही कहाँ था। उसके होठों के पास की वह लाल नीली लकीर सब बयां कर गयी थी।

ऐसा अक्सर होता है कि हम जो छुपाना चाहते हैं उसे यह कमबख्त देह बता ही देती है । एक राज भी नही छुपा पाती। है न?

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उसे मैं बचपन से जानता था। फ्रॉक पहने, एक पैर से लंगडी खेलते, गिप्पे खेलते, हथेली की पीठ से नाक पोंछते। कभी इमली तो कभी अमरूद खाते। और उसके वे खुले बाल बेतरतीब हवा में लहराते। और फिर एक दिन उसके खुले बाल चोटियों में कैद हो गए। वह लंगडी, गिप्पे भी जाने कहाँ खो गए जैसे मौसम बदलने के बाद गिलहरियाँ अपने ही छुपाए बीज कहीं रखकर भूल जाया करती हैं।

एक दिन वह अपनी बाबा की साइकल लिए सड़क पर निकल पड़ी। मैंने जानबूझकर उसकी साइकल के टायर में लकड़ी फंसा दी। साइकल के साथ वह भी गिर पड़ी। उसके बालों में बंधी लाल रिबन खुल गयीं। घुटने छिल गए लेकिन मेरा ध्यान उसकी चोट पर न था।

मैंने उससे तब कहा था, "तुम बदल गई हो।"

वह बोली थी, "नहीं, मैं बड़ी हो गई हूँ।"

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मेरा नाम चाहे जो था लेकिन वह मुझे 'दिलबरो' ही कहती। बहुत अजीज था उसे वह नाम। अजीब कशिश थी उस नाम में। एक सुकून भी था लेकिन सुकून भी यदि ज्यादा हो जाए तो सडने लगता है। गन्ध मारने लगता है, वैसे ही जैसे जमा हुआ पानी।

कुछ समय बाद मुझ पर चढ़ा 'दिलबरो' का पानी उतरता चला गया जैसे किसी पीतल के बने गहने पर चढ़ा सोने का पानी उतरता है। मेरे प्यार के बर्तन से भी कलई उतर गई थी और अब अंदर सिर्फ लोहा रह गया था जिस पर समय के साथ जंग चढ़ती गयी।

आज सालों बाद मिली थी वह लेकिन मिलते ही उसने मुझे 'दिलबरो' ही कह कर पुकारा। दिलबरो! कितना प्यारा नाम। लेकिन वह नाम मेरा होते हुए भी मेरा न था। वह जैसे-जैसे बड़ी होती गयी, यह नाम वह अपनी लिस्ट में जुड़े हर साथी के लिए प्रयुक्त करती गयी और मेरा दिल छलनी होता गया।

प्रेम गली अति संकरी। इसमें किसी की दखल मुझे मंजूर न थी। धीरे-धीरे मैं उससे दूर होता गया लेकिन उसकी बिल्लौरी आँखों को भूल न सका।

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यूँ ही किसी दिन गज़ल की महफ़िल जमी थी। ये ग़ज़लें भी बाकमाल होती हैं। दिल के दर्द की दवा साथ ले घूमती हैं।

कोई मदहोश करती आवाज़ में गा रहा था-

"दिल के जज़्बात आँखों से बयां होते हैं.....

और लोग कहते हैं.... कि आँखों की जुबां नही होती...."

लेकिन इस ग़ज़ल ने मेरे लिए दवा की जगह ज़हर का काम किया। मेरा दम घुटने लगा। मेरी बैचेनी बढ़ने लगी। क्या सच उन बिल्लौरी आँखों में कुछ था जिसे समझने के लिए शब्द जरूरी थे? क्या बिना शब्दों के जज्बातों का कोई मोल नही?

कहीं पढ़ा था कि आँखों से बड़ा कोई धोखेबाज़ नही। दिल में उठते एहसास आँखों में तैरती नाव ही तो हैं जिन्हें अगर प्रेमी की पतवार मिल जाये तो वह तर जाती है। जो न मिले, तो ये आँख के अंदर जो काला गोला है न, ये वह भंवर है जिसमें बिन पतवार की नावें डूब जाया करती हैं।

मेरी नाव भी डूब चुकी थी लेकिन क्या मैंने कभी उसमें सवार होना चाहा था?

ये अजीब सवाल मैंने अपने-आप से क्यों किया मैं नहीं जानता जबकि इसका जवाब मैं बखूबी जानता था। जो न जानता तो आज यूँ भरी महफ़िल छोड़ बाहर न आ खड़ा होता।

हाथ मे पकड़ी सिगरेट जलते-जलते उंगली तक आ पहुँची थी। जब उसकी आंच जलाने लगी तब ध्यान आया कि आँखों का वह पानी तो कब का सूख चुका था।

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यूँ तो दिन, महीने, साल गुजरते समय नही लगता और कभी-कभी जिंदगी एक ही जगह ठहर-सी जाती है। कमबख्त आगे बढ़ती ही नही।

कब मैं बचपन और फिर जवानी पार कर गया पता ही न चला। मेरी उम्र तो बढ़ी लेकिन जिंदगी नही। जैसे समंदर की लहरें लगातार साहिल पर आती हैं और फिर समंदर में ही खो जाती हैं वैसे ही मेरा वजूद मुझमें ही खोता चला गया।

जब कभी यादों का बोझ दिल पर बढ़ जाता तो मैं समंदर किनारे की रेत पर आ बैठता। उस गीली रेत पर मुझे मेरे दिल के टूटे टुकड़े चमकते दिखते। लेकिन फिर भी मैं वहाँ बैठा रहता तब तक जब तक वो झिलमिलाते टुकड़े चांद नही बन जाते।

आज भी मैं समंदर किनारे बैठा था कि इतने सालों बाद अचानक उसे समंदर किनारे देखा। उसे देखकर तो मुझे खुश होना चाहिए था लेकिन मैं सिहर उठा।

सूखी लकड़ी को जलते हुए देखा है कभी?

जब वह जलती है तो कैसे धूं-धूंकर खत्म हो जाती है। लेकिन जब गीली लकड़ी जलती है तो चटकती है पर जलती नहीं और कहीं आग पकड़ भी ले तो खत्म नहीं होती। हाँ, धुंआ बहुत देती है। आँखों को चुभता धुंआ। कई बार यह धुंआ आँखों से उतर कर दिल तक पहुँच जाता है और अन्तस धुंधला जाता है।

आज वह भी सूखे गोश्त वाली गीली लकड़ी की तरह दिख रही थी। लेकिन उसमें धुंआ नही था कि होता तो मेरे दिल तक जरूर पहुँचता।

लेकिन मैं गलत था। मेरा दिल चीख-चीखकर मुझसे सवाल कर रहा था, "जब वह तेरे पास आई थी तब उसे जाने क्यों दिया? क्यों नहीं रोक लिया उसे?"

मैं अपने दिल को कुछ कहता कि तभी वह पलटी। धीरे-धीरे चलकर मेरे पास आई। मैंने उसकी आँखों को देखा लेकिन इस बार उसकी आँखों में आँसू नहीं थे। उसके चेहरे पर भी एक अलग ही भाव था। वह मेरे और करीब आई। बहुत करीब। इतनी करीब कि उसकी सांसे मेरी गर्दन पर महसूस होने लगीं।

मेरे दिल की धड़कन तेज होने लगी। मैंने उसे इतने करीब से कभी महसूस नही किया था।

वह अजीब अंदाज में बोली, "जानते हो, जीने के लिए मोती नहीं आँसू जरूरी होते हैं। गम में भी और खुशी में भी... लेकिन दोनों का घनत्व अलग-अलग होता है। है न दिलबरो... लेकिन तुम नहीं समझोगे..."

इतना कह उसने अपने चेहरे पर आए बाल हटाये। आज फिर उसके बाल बेतरतीब खुले हुए थे। चोटियों की कैद से आजाद हो हवा में उड़ रहे थे।

मेरी नज़र उसके रेशमी बालों से फिसलती हुई उसकी गर्दन पर आ टिकी। उसकी कुर्ती का गला बस इतना ही बड़ा था कि बचपन में मेरा दिया नीला लॉकेट उसके गले में दिख रहा था।

मैं उसे पागलों की तरह देखे जा रहा था। वह अपनी जादुई बिल्लौरी आँखों से मुस्कुराते हुए पलटी तो उसकी पीठ मेरे सामने खुल गई।

उस नंगी खुली पीठ पर कुर्ती से झांकती नीली लकीरें साफ दिख रही थीं। मैं फिर से सिहर उठा लेकिन उसके मुँह पर शिकन तक न आई जैसे यह रोज़ का शगल रहा हो।

वह फिर खिलखिलाकर हँसी। हँसते हुए ठहाका मारने लगी। लेकिन क्या बेईमान आँसुओं से ईमानदारी की उम्मीद की जा सकती है?

आँसू फिर उसकी आँखें भिगोने लगे । उन पनीली आँखों से उसने एक पल मेरी आँखों में देखा और बोली, "उस समय क्यों नहीं मुझे अपना बना लिया दिलबरो?"

उसकी बात पर मैं ठगा-सा रह गया। उसके आँसू फिर समंदर के पानी पर गिर पड़े लेकिन इस बार वे तैरे नहीं, बल्कि डूब गए। शायद डूबकर मोती बन गए।

क्योंकि इस बार उन आँसुओं के खारेपन में उसके दिल के जज़्बातों ने घुलकर उनका घनत्व जो बढ़ा दिया था।

 

संक्षिप्त परिचय – अनघा जोगलेकर


शिक्षा: इलेक्ट्रॉनिक्स एंड टेलीकॉम इंजीनियर


पद: अध्यक्ष हरियाणा, विश्व भाषा अकादमी (वि.भा.अ.), भारत


विधा: लघुकथा, उपन्यास, कहानी, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत


उपन्यास:


1. बजीराव बल्लाळ: एक अद्वितीय योद्धा

2. राम का जीवन या जीवन मे राम

3. अश्वत्थामा: यातना का अमरत्व

4. Bajirao Peshwa: The Insurmountable Warrior

5. यशोधरा

6. वे अद्भुत, अविस्मरणीय16 दिन - यात्रा वृत्तांत

7. देवकी

8. नवयुग की लघुकथाएँ


BA, BBA के पाठ्यक्रम में लघुकथाएँ


बोल हरियाणा रेडियो पर लघुकथाओं का प्रसारण।


सम्मान व पुरस्कार:

मप्र हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा "वागीश्वरी पुरस्कार 2020",

दिव्य अम्बिका प्रसाद पुरस्कार,

हिंदी भाषा प्रचार समिति मध्यप्रदेश द्वारा अमीर अली मीर पुरस्कार,

हिंदी लेखिका संघ द्वारा अमृतलाल जोशी पुरस्कार,

सरस्वती साहित्य भास्कर सम्मान,

क्षितिज लघुकथा सम्मान इंदौर,

हरिद्वार लिटरेचर फेस्टिवल में सम्मानित, उपन्यास यशोदरा पर टॉक शो व दूरदर्शन कवरेज

anaghajoglekar@yahoo.co.in

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Membre inconnu
13 déc. 2020

अन्तर्वेदना को टटोलती हुई बेहतरीन कहानी।

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