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  • भारती पंडित

शुद्धि



फोन की घंटी बराबर बजी जा रही थी|

वह दफ्तर की किसी फाइल में उलझा हुआ था| पद मिलता है तो अपने साथ कई दिक्कतें लेकर आता है, कुछ देता है तो उससे ज्यादा ले भी लेता है| इस पद ने उसे मान-सम्मान, रुतबा तो दिया था मगर छीन लिया था उसका सुकून, उसका वक्त जिस पर उसका अधिकार था ... अब अकसर देर रात तक दफ्तर में रुकना और सुबह जल्दी आ धमकना उसकी दिनचर्या में शामिल हो गया था|

फोन अब भी बजे जा रहा था| उसने फाइल खिसकाई और फोन उठाया|

हैल्लो ... कौन बोल रहा है?

अरे सुखदा, हम है रामचरण ... पहचाना के नहीं?

रामचरण काका? और मुझे फोन कर रहे हैं? उसका मन क्षोभ, आश्चर्य, असमंजस सभी के मिले जुले भावों से भर गया था|

अरे, तुम्हारे पास के टोले से बचवा, अब पहचाने?

हाँ काका, आपको कैसे नहीं पहचानेंगे? आपके साये में तो बचपन बीता है हमारा| कहिए कैसे याद किया?

अरे भाई, अब तुम बड़े आदमी बन गए हो, बड़े आदमियों को तो याद किया ही जाएगा ... वहाँ से हे-हे करते भाव से कहा गया|

आप तो आदेश कीजिए काका ...

अरे बचवा सबसे छोटे वाले की कछु परीक्षा-मरीक्षा है, फिर एक-दो लोगों से मिलवाना भी है| अब तुम तो जानते हो, बीमारी ने कमर तोड़ डाली है हमारी, बड़े शहरों में एक-दो दिन भी बितावे के लाने खूब रुपया लगे है| अब तुम हो ही शहर में तो सोचे बात ही कर ले| फिर तुम्हारा नाम रहेगा साथ तो रौब पड़ेगा ...

कब आ रहे हैं काका? उसने पूछा |

अगले सोमवार आएँगे बचवा ... चलो, अब रखते हैं| ईश्वर सुखी रखें ...

ईश्वर सुखी रखें, ईश्वर सुखी रखें ... उसके दिमाग में यह वाक्य बड़ी देर तक झनझनाता रहा|

उसका परिवार कभी सुखी न रह सके यह जतन करने में जिन लोगों ने एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया, वही अब उसे आशीर्वाद दे रहे हैं, ईश्वर सुखी रखें ... वाह रे समय ... उसके ओंठ विद्रूप सी मुस्कान लिए फैल गए थे|

यादों की जुगाली हरेक को सुख के गोते खिलाए, ठंडक का अहसास दिलाए यह ज़रूरी नहीं होता, और उसके लिए तो अतीत का, यादों का अर्थ ही था ढेर सारी कड़वाहटें, जिल्लतें और अपमान के घूँट ...

यह सब उसके हिस्से क्यों आया था, इसमें उसका दोष था क्या, वह आज तक न समझ सका|

उसका दोष क्या यह था कि उसने पैदा होने के लिए एक ऐसा गाँव चुना था जिसमें आज़ादी के पैंतालीस साल होने के बावजूद जात-पाँत का नासूर उसी शिद्दत से फल-फूल रहा था? क्या यह दोष था कि उसने एक ऐसी माँ के गर्भ में आकार लिया जो दलित थी? या दोष यह था कि उसकी माँ दलित की स्त्री होकर सुंदर थी और बाप असहाय? या यह कि दलित और गरीब होने के साथ-साथ उसके माता-पिता स्वाभिमानी थे?

करेला और नीम चढ़ा, ऐसी ही गति थी उसकी ... गरीब और उस पर नीची जाति में जन्म| उस समय भले ही प्रत्यक्ष में छुआछूत खत्म हुआ सा दिखता था, गांधी जी के हरिजन विचार ने भी बहुसंख्य लोगों को प्रभावित किया था मगर फिर भी सीधी के पास के गाँव के उस टोले में बदलाव की लहर न आ सकी थी|

उसका नाम सुखदा है यह तो उसे स्कूल जाते समय बापू के बताने पर पता चला था| घर में तो बचवा, छोटू से काम चल जाता था और बाहर शायद ही कोई उसे उसके नाम से बुलाता था, ओए छोरे, कमअक्ल, गधे, हरामी जैसे उपनामों से ही पाँच साल तक उसका काम चलता रहा था|

सुखदा कौन है? स्कूल की मैडम ने पुकारा तो वह उठ खड़ा हुआ| कक्षाएँ सम्मिलित लगी थीं सो उसका नाम सुनते ही टोले के बड़े लड़के ठठाकर हँस पड़े ... ओये, साले का नाम भी लुगैयन वाला है ...

वह बिसूरता हुआ घर आया, माँ से पूछा ऐसा नाम क्यों रखा?

उस दिन अपने कलुषित जन्म का पहला अध्याय खुला था उसके सामने ... बाप ने नाम तो सोचा था, सुखराम! पर एक दलित के नाम में राम शामिल कैसे होगा? उस राम पर तो ऊँची जात का कॉपीराइट था ... इन्हीं रामचरण काका ने पंचायत बुलाकर खूब खरी-खोटी सुनाई थी उसके बाप को ... डरकर उसके नाम के पीछे का राम हटा दिया गया और वह बन गया सुखदा ...

तब से यह नाम मैट्रिक तक उसके साथ लगा रहा| मैट्रिक के फॉर्म भरते समय नाम बदलने का विकल्प था और सुखदा से सुखराम बनने का भी मगर राम हो या श्याम उसका साथ तो किसी ने न दिया था अब तक, सो उसने माँ का नाम मीना साथ लगाना उचित समझा और वह सुखदा से एस. मीना हो गया|

आज उसके टोले के अलावा कोई नहीं जानता सुखदा को ... सब जानते हैं सहायक निदेशक एस.मीना को

यादों की जुगालियों का कसैला स्वाद जैसे जबान से जाने का नाम ही न ले रहा था|

हर त्योहार उसके टोले के मंदिर में उत्सव हुआ करते, दिन रात कथा, पूजा-पाठ, नाच-गाना चलता मगर उसके जैसे परिवारों को मंदिर की देहरी चढ़ने की इजाज़त न थी| वह अपने कुछ दोस्तों के साथ मंदिर के बाहर खड़ा रहता, उस उम्र में तो प्रसाद में मिलने वाली हलवा पूरी का भी भारी लालच हुआ करता था| घंटों के इंतजार के बाद रामचरण काका और उनके जैसे ही कुछ लोग दया दिखाते हुए हलवा-पूरी के कुछ निवाले उनके हाथों में फेंक दिया करते थे| हलवा-पूरी के साथ घुले उस तिरस्कार का स्वाद भी आज तक उसकी जुबान पर कायम है|

उसे यह बात अब तक समझ में नहीं आई कि जिस मंदिर की देहरी पर उनका चढ़ना मना था, उसके प्रसाद के गेहूँ तो उसकी माँ और ऐसी ही दूसरी औरतों ने फटके-पीसे थे, हलुए की कढ़ाई भी माँ ने ही साफ की थी ... फिर यह चलेगा और वह नहीं, किसने बनाए होंगे ऐसे बेतुके नियम?

वह कड़वाहट के तालाब में गोते खाने लगा था|

चैत की धूप, बापू की बीमारी ... ऐसे में रामचरण काका के घर से माँ को बुलावा ... साल भर के गेहूँ साफ करने, फटक कर कोठियों में भरने के लिए टोले की गरीब औरतों से बढ़कर बेगार करने को कौन मिलता भला ... उसे याद आ गया माँ का पसीने और भूसे से लथपथ चेहरा ... किलो-दो किलो अनाज, रोज़ दो कप चाय, एक साड़ी और दस रुपए का मटमैला सा नोट ... यही मिलता था पूरे हफ्ते दिन भर काम करने का सिला| पर उस समय उतना ही आसरा काफी होता था, कम से कम चूल्हा जलाने की जुगत हो जाती थी कुछ दिन की|

सुखदा घर का इकलौता बच्चा था| उससे बड़ा वाला मोतीझरा से चल बसा था और छोटी बहन को काली खांसी खा गई थी| बापू माँ के पीछे हाथ धोकर पड़ा था कि इसे काम पर लगा दे, घर को हथेली लग जाएगी| यह तो माँ ही थी जो अड़कर बैठी थी कि सुखदा मजूरी नहीं करेगा, स्कूल जाएगा ... हमने जो दिन देखे हैं, मेरा बेटा न देखेगा वो सब|

आज जब सुखदा हर जगह स्त्री विमर्श की बात सुनता है तो महसूस करता है कि मातृसत्ता का अनुभव तो उसके घर ही में प्रत्यक्ष मौजूद था| घर का तिनका भी माँ की मर्जी के बिना हिलता नहीं था|

सुखदा ने स्कूल जाना शुरू किया और वह उस माहौल में रमने लगा| साल दर साल परीक्षा पास करता गया, सबसे नीचे से शुरुवात करके पाँचवी तक आते-आते पहले पाँच में नाम दर्ज हो चुका था उसका| मैडम उसके साथ बड़ी सहृदय थी, यूं भी तिरस्कार के परिवेश में कोई प्यार से दो बोल ही बोल दे तो बड़ा ढाढ़स बंधता है| मैडम ने उसकी पढ़ने में रुचि और अच्छे प्रदर्शन को देखते हुए उसे नवोदय विद्यालय की परीक्षा में दाखिल करवा दिया ...

जीवन एक झटके में बदलता है, अगला कौन सा पल सारा जीवन बदल डालेगा, कोई नहीं जानता, ऐसे ही वह भी नहीं जानता था कि त्रासदी के दिन खत्म होने को है| आरक्षित कोटे का लाभ मिला और उसका दाखिला नवोदय विद्यालय में हो गया| उसे यूँ लगा मानो स्वर्ग के द्वार उसके लिए खुल गए हो| अव्यस्था से तार-तार हुआ जीवन एकदम व्यवस्था की पटरी पर आ चला था| उसे यह बात अच्छी तरह से समझ में आ गई थी कि यदि टोले की नारकीय जिन्दगी में वापस नहीं जाना है तो उसे मन लगाकर पढ़ना होगा| पढ़ाई ही एकमात्र वह पतवार है जो उसके जीवन की नैया को पार लगाएगी और उसने उस पतवार को कसकर थाम लिया था|

उसके जीवन की त्रासदी पूरी तरह से दूर हो गई हो, ऐसा भी नहीं था क्योंकि स्कूल की छुट्टी के दो महीने उसे उसी टोले में बिताने होते थे, उतनी ही घृणा, उतने ही तिरस्कार के साथ| बापू बीमार रहने लगा था, माँ ने बापू की मजूरी पकड़ ली थी ... अपनी सुंदरता से अभिशप्त अप्सरा की तरह ही बन गया था उसका जीवन, उस समय तो वह ज्यादा समझ नहीं पाता था माँ-बापू के बीच की बातें मगर अब सब साफ दिखाई देता है ... टोले में ठेकेदार का माँ पर हाथ डालना, पंचायत का माँ को सरेआम जलील करना ...

माँ-बापू तो अब रहे नहीं मगर यह सब कुछ उसके ज़हन में यूँ ताज़ा था मानो कल ही की बात हो|

इंटर, स्नातक और स्नातकोत्तर ...पढ़ाई की लगन रंग दिखाती गई| जीवन भर दबे-कुचले रहने के अहसास ने सत्ता की चाहत को जन्म दिया और शुरू हुई होड़ प्रतियोगी परीक्षाओं की| कुछ उसकी काबिलियत और थोड़ा सरकारी सहयोग, दोनों ने मिलकर रंग दिखाया और आख़िरकार उसे अधिकारी पद पर नियुक्ति मिल गई|

नियुक्ति मिलने के बाद जान-बूझकर वह सरकारी गाड़ी में बैठकर गाँव में गया| बड़ी गाड़ी देखते ही बच्चे शोर मचाते हुए गाड़ी के पीछे-पीछे भागने लगे| गाँव में किसी ने उसे पहचाना और सारे गाँव में हल्ला मच गया, अरे सुखदा आया है, बड़ी सी सरकारी गाड़ी में ... अफसर हो गया है भाई ...

सब अपने-अपने घरों से बाहर निकल आए थे| सुखदा सबसे पहले अपने टोले में गया| अपने जात-भाइयों से मिला ... अपनी टूटी झोंपड़ी की ओर निहारा, वह अब तक उसी अवस्था में बनी हुई थी| एक क्षण को लगा मानो माँ बाँहे फैलाए उसे आशीष देने को खड़ी हो| दो क्षण दरवाजे पर भरे मन से खड़ा रहा वह|

टोले में सबसे मिलकर वह स्कूल गया| वहाँ मैडम अब तक बनी हुई थीं, वृद्ध हो चली थीं| उन्होंने बड़े स्नेह से सुखदा पर आशीषों की झड़ी लगा दी| सुखदा उनके चरणों में बैठ गया|

यदि मैडम न होती तो आज वह इसी नरक में पड़ा होता ...

स्कूल से बाहर निकलते ही उसे मंदिर के पुजारी और बाकी सभी लोग मिल गए| कैसे हो सुखदा ... बड़ा अच्छा लग रहा है आज हमारे गाँव का बच्चा इतना आगे बढ़ गया है ... जीते रहो, खूब तरक्की करो ...

गाँव का बच्चा ... उसके कानों में बरसो पहले के संबोधन गूँजने लगे थे, साला सूअर, हरामी का पिल्ला, काम धेले भर का करे हैं और खावे को लागे ढेर सा ...

इस समय उसे माँ-बापू की कमी बुरी तरह से महसूस हुई| काश कि वे देख पाते दुनिया किस तरह बदल जाती है तरक्की मिलते ही ...

रामचरण काका के लाख कहने पर भी वह उनमें से किसी के भी साथ न गया| अपने टोले में ही रोटी खाकर वापस हो गया था| उसके बाद टोले से संबन्ध खत्म सा ही हो गया था| टोले के कुछ युवक शहर आते तो उससे मिल जाते, कुछ खबर मिलती रहती, बस इतना ही|

सोमवार आ गया| सुखदा ने गाड़ी भिजवा दी थी रामचरण काका और उनके बेटे के लिए| नौकरानी को सब समझाकर वह दफ्तर को निकल गया था| घर में ड्राइवर को बोल दिया था, मेहमानों को जहाँ जाना हो, ले जाए|

दिन भर में सोचा एक बार फोन करके पूछ लिया जाए पर मन ही न हुआ| लगा इतना कर दिया वही काफी है ...

रात को खाने पर मुलाकात हुई| रामचरण काका बड़े स्नेह से मिले| उनका बेटा भी बड़ा समझदार हो गया था|

कैसी रही परीक्षा? उसने पूछा |

पेपर तो अच्छा ही था, अब देखते हैं ... वैसे भी हमारे लिए मौके हैं ही कहाँ अब ... वह एकदम बोल पड़ा|

तीर सा जा लगा था उसका यह वाक्य कलेजे में ...

रामचरण काका ने बेटे की ओर घूरकर देखा था|

सुखदा ने जैसे सुनकर अनसुना कर दिया था| बोला, कल भी मैं दिन भर व्यस्त हूँ| गाड़ी रहेगी यहीं| जहाँ जाना हो, ड्राइवर को बता दीजिए| और हाँ, चंपा यही रहती है दिन भर| जो खाना हो, उससे बनवा लीजिए|

तुम चिंता न करो बचवा, इतना कर रहे हो वो क्या कम है हमारे लिए, तुम्हारे नाम से ही काम आसान हो जावै है ... रामचरण काका ने गदगद भाव से कहा| बस, एक वापसी का टिकट भी कटवा देते ... उन्होंने झिझकते हुए कहा|

हाँ काका, मैं ड्राइवर को बोल दूँगा| वह कटवा लाएगा कल ...

रात देर तक करवटें बदलता रहा| मन क्यों इतना असहज था, उसे समझ में नहीं आ रहा था| ज़रा आंख लगी तो सपने में टोले में वापस चला गया, वहीं तिरस्कार, मखौल, गालियाँ ... वह हडबडाकर जागा ... देखा घड़ी छह बजा रही थी| एक लंबी सांस लेकर वह बिस्तर से उठा ... शुक्र है भगवान का, यह सपना ही था|

तीन दिन पलक झपकते ही बीत गए| चौथे दिन रामचरण काका की वापसी थी और संयोग से उस दिन अवकाश था| दोपहर के खाने के बाद रामचरण काका और उनके बेटे ने चलने की अनुमति माँगी|

वह हैरानी से बोला, इतनी जल्दी निकलने की क्या आवश्यकता है काका, ट्रेन तो शाम पाँच बजे की है?

नहीं बचवा, दूसरी गाड़ी है दोपहर की, उसी में मिला है टिकट ...

उसने मेहमानों को विदा किया था|

ड्राइवर उन्हें ट्रेन में बिठाकर वापस आ गया था|

उसने ड्राइवर से पूछा, कौन सी ट्रेन का टिकट कटवाया था? सीधी के लिए अभी कौन सी गाड़ी थी?

नहीं साहब, वे सीधी नहीं गए हैं| बोल रहे थे, घर से निकल आए हैं तो गंगा मैया के दर्शन भी कर लेते हैं| फिर जाने कब आना होगा| बनारस की गाड़ी में बिठाकर आया हूँ...

उसके दिलो-दिमाग में धमाके होने लगे थे|

उसके दिमाग में रामचरण काका की माँ की छवि घूम गई जो टोले के औरतों से अनाज साफ करवाने के बाद अनाज की टंकियों पर गंगाजल छींटते हुआ कहा करती थीं-

“किरपा बनी रहे गंगा माँ ... गंगा मैया सुद्ध कर देती है, सारे कंटक धो देती है...”

वह कटे पेड़ की तरह सोफे पर ढह गया था|

 

लेखक परिचय - भारती पंडित



नाम - भारती पंडित जन्म – 2 मार्च कर्मक्षेत्र - भोपाल

व्यवसाय - अध्यापन साहित्यिक प्रकाशन - महक ज़िंदगी की (कहानी संग्रह), सी बीच और अकेली लड़की (कविता संग्रह) अकादमिक प्रकाशन – कक्षा 1 से 8 तक की हिन्दी पाठ्यपुस्तकों का प्रकाशन (नॉर्दन हिल्स पब्लिकेशन नोएडा) अनुवाद - मंजुल प्रकाशन और जयको प्रकाशन हेतु 10 पुस्तकें अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवादित उपलब्धियाँ – 100 से अधिक आलेख, कहानियों और कविताओं का प्रतिष्ठित पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में प्रकाशन, जेंडर विषयक लेखन सामग्री का प्रकाशन, सभा संचालन और सभा वक्तव्य का अनुभव, कई काव्य गोष्ठियों का संचालन और प्रतिभाग, दूरदर्शन भोपाल पर कविता पाठ में हिस्सेदारी संपर्क – bhartipandit@gmail.com


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