(1)
कड़ाके की ठंड थी। सूरज बादलों की ओट में छिपा हुआ था। काले-मटमैले बादल आकाश में घुमड़ रहे थे। पशु-पक्षी, पेड़-पौधे सब ठंड में कांप रहे थे। चौराहे पर चहल-पहल थी। लोग गर्म कपड़े पहने सड़क पर आ-जा रहे थे। वहीं फुटपाथ के एक किनारे एक लंगड़ा भिखारी बैठा हुआ था। जिसके बदन पर कई जगह से फटी, पैबन्द लगी हुई धोती थी। उसके चेहरे पर गर्द और आड़ी-तिरछी रेखायें थीं। उसका नाम ज़फर था। वो अपने बदन को बार-बार सिकोड़ता और ठंड भागने की कोशिश करता लेकिन वो हर बार नाकाम हो जाता था।। बदन रह-रहकर कांप उठता था। मानो एक कंपकंपाहट भर गई हो सारे बदन में।
वो लोगों की तरफ कब से आशापूर्ण निगाहों से देख रहा था। उसके चेहरे पर याचना और करुणा का भाव था। कोई उसे पास आता दिखाई देता तो अपना गंदा हाथ आगे बढ़ा देता। कितनी देर से वो लोगों को आते-जाते हुए देख रहा था लेकिन किसी ने भी एक पैसा उसकी तरफ नहीं फेंका था। उसके पास कई भिखारी बैठे हुए थे।
एकाएक वो जमीन पर गिरा और तड़पने लगा। वो जोर-जोर से कराह रहा था। उसने अपने पेट की अंतड़ियों को अपनी ऊंगलियों से दबोचा हुआ था। आंखों में आंसू थे। चेहरा विकृत हो गया था। वो भूखा था। कई दिनों से उसके पेट में अन्न का एक दाना तक नहीं गया था। सड़क पर आते-जाते लोग ठिठककर देखते और मुंह बनाकर चले जाते।
भीड़ में किसी ने कहा, ‘‘लगता है भीख मांगने का नया तरीका निकाला है बुढ़े ने!’’
‘‘लोगों की सहानुभूति बटोरना चाहता है, स्याला !’’ दूसरे ने कहा तो सब ठहाका मारकर आगे बढ़ गए।
लोगों की बातें सुनकर जफ़र की आंखें भर आई। दर्द के कारण वो कुछ कह नहीं पाया। दर्द में कराहता जमीन में पड़ा रहा। लोग तटस्थ भाव से उसे देखते और चले जाते। रास्ते में चलते हुए एक राहगीर ने पूछा, ‘‘क्या हुआ ?’’
जफ़र पूर्ववतः कराह रहा था। किसी तरह बोला, ‘‘दिखाई नहीं देता। कराह रहा हूं।’’
‘‘लेकिन क्यों?’’
‘‘पेट में ऐंठन हो रही है।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘भूख के मारे!’’ जफ़र कराहते हुए बोला।
‘‘भूख के मारे?’’ राहगीर किर्तव्यविमूढ़ हो गया।
‘‘हां। दो दिन से पेट में अन्न का एक दाना नहीं गया है। अंतड़ियां पेट से चिपकी जा रही हैं। आह।’’ कहकर वो रो पड़ा।
राहगीर ने अपने जे़ब से एक रुपया निकाल, उसके गंदे कपड़े पर रखकर चला गया। एक रुपया देखकर जफ़र की आंखें चमक उठी। वो अपना सारा दुःख-दर्द भूल गया। रुपये को ऐसे देखने लगा जैसे भूखा रोटी को देखता है!
वो पनहीली आंखों से राहगीर को जाते हुए देख रहा था। अरे, मैं तो पेटदर्द के कारण कराह रहा था लेकिन वो तो रुपया देकर चला गया। मांगने पर तो चवन्नी नहीं मिलती और वो रुपया दे गया। या खुदा, तू भी अज़ीब खेल दिखाता है! अगर ऐसे ही लेटकर रोते-कलपते भीख मांगू तो शायद ज्यादा पैसे मिले? फिर सलमा भूख से नहीं तड़पेगी? भूखे पेट नहीं सोएगी? कुछ पैसे हो जाएंगे तो उसके लिए गर्म कपड़े खरीद दूंगा ताकि ठंड में उसे रात भर ठिठुरना न पड़े। सोचते-सोचते जफ़र की आंखों में चमक आ गई। वो बुदबुदा उठा, ‘मेरा क्या है, पड़ा रहूंगा ऐसे ही।’
तभी उसकी आत्मा ने झिंझोरा, ‘ये क्या सोच रहा है, जफ़र? यह गलत है।’
‘‘क्या गलत है?’’ जफ़र बड़बड़ाया।
‘यही जो तू करने की सोच रहा है।’ आत्मा ने कहा।
जफ़र एक क्षण चुप रहा। फिर खुद को समझाते हुए बड़बड़ाया, ‘गलत ही सही। मैं अपने लिए थोड़े कर रहा हूं। थोड़े धोखे से अगर किसी मासूम का पेट भरता है तो मैं करने के लिए तैयार हूं। भूखा ख़ुदा से नहीं डरता! फिर भिखारियों का क्या? वो किसी भी तरह भीख मांग सकता है।’’
जफ़र के चेहरे पर दृढ़ता थी।
उसने रुपया उठाकर अपनी फेंट में रखा और फिर वही प्रक्रिया दोहराने लगा।। पास बैठे भिखारियों को अपना धंधा चौपट होता नजर आया। एक ने घुड़कते हुए कहा, ‘‘ये क्या करता है, सीधी तरह बैठकर भीख मांग? आंय-बांय काहे को बकता है?’’
जफ़र गुस्से में बोला, ‘‘तेरा क्या जाता है। तू भी लोट।’’
किसी ने कुछ नही कहा। जफ़र पूर्ववतः लोटता-कराहता रहा। उसकी आंखों के सामने मासूम सलमा का चेहरा नाच रहा था।
(2)
वातावरण में कालिमा फैल चुकी थी। सूरज डूब चुका था। जफ़र वैसे ही जमीन में लेटा हुआ था। वो अपने और सलमा के लिए, पैसे जुटा रहा था। चालीस रुपये हो गए थे। जफ़र आज बहुत खुश था। हर दिन की अपेक्षा आज उसे तीन गुनी कमाई हुई थी। वो जल्दी-जल्दी पैसा बटोरकर उठ खड़ा हुआ और सलमा के बारे में सोचता हुआ एक तरफ चल पड़ा। आज उसकी चाल में गज़ब की तेजी थी। मानो वो दौड़ता हुआ लग रहा था। सलमा के लिए ये लूंगा, वो लूंगा। ऐसा सोचते हुए, वो एक टांग पर झूलता, एक हलवाई की दुकान पर पहुंचा।
दुकान के सामने पहुंचकर वो शीशे के डिब्बे में रखे किस्म-किस्म की मिठाइयों को देखने लगा। रंग-बिरंगी मिठाईयों को देखकर उसका मन ललचा गया। वो आंखों ही आंखों में उनका रसास्वदन करने लगा। वो निर्णय नहीं कर पा रहा था कि कौन-सी मिठाई ले। तभी उसे ध्यान आया कि सलमा को गुलाब जामुन बहुत पसंद है। वो गुलाम जामुन की ओर देखने लगा।
एक फटेहाल गंदे भिखारी को अपने दुकान के सामने खड़े होकर मिठाइयों की ओर ललचाई दृष्टि से ताकते देखकर दुकानदार ने कडुवे स्वर में कहा, ‘‘देख क्या देख रहा है? क्या चाहिए?’’
जफ़र हड़बड़ाया। फिर बोला, ‘‘मिठाई।’’
‘‘अच्छा! मिठाई!’’ दुकानदार के स्वर में उपहास था, ‘‘कौन-सी?’’
‘‘वो वाली,’’ जफ़र ने ऊंगुली उठाकर दिखाया।
‘‘क्या? गुलाब जामुन?’’ दुकानदार को आश्चर्य हुआ। उसे विश्वास नहीं हुआ कि एक भिखारी उससे गुलाब जामुन के लिए कहेगा? वो मुंह बनाकर बोला, ‘‘पैसा है या ऐसे ही भीख मांगने चला आया?’’
‘‘भिखारी हूं। दे देगा तो क्या हो जाएगा तेरा!’’ जफ़र दीन स्वर में बोला।
‘‘चल भाग यहां से!’’ दुकानदार ने हुड़का।
जफ़र तिलमिला उठा। दृढ़ता से बोला, ‘‘नहीं देता, न दे। इसके पैसे दूंगा।’’
‘‘पैसे देगा?’’ दुकानदार को और आश्चर्य हुआ।
‘‘हां। पूरे पैसे।’’
‘‘कितने का लेगा?’’
‘‘दस रुपये का।’’ जफ़र ऐंठकर बोला और अपनी गांठ से पैसे निकालने लगा। उसके चेहरे पर आत्मविश्वास था।
‘‘दस रुपये का!’’ दुकानदार विस्मय से बोला। उसकी आंखें कटोरा हो गई थीं। ‘‘कहीं चोरी-वोरी या किसी की जे़ब तो नहीं काट आया?’’
दुकानदार की बात सुनकर जफ़र गुस्से से भर उठा। आंखें तरेरकर कहा, ‘‘जबान संभालकर बोलो, लाला। दौलत क्या तुम्हारी जागीर है? तुम्हारे ही पास आ सकती है, हम लोगों के पास नहीं? चोर तू होगा, तेरा बाप होगा। समझा?’’
एक भिखारी को ऐसे बोलते देखकर दुकानदार हड़बड़ाया। कुछ लोग उनकी तरफ देखने लगे थे। ग्राहकों के सामने अपमानित होते देखकर, दुकानदार गुस्से में कांपा। फिर गर्जा, ‘‘चुपकर! भिखारी की औलाद!’’
जफ़र क्रोध में बोलता रहा, ‘‘मिठाई क्या तुम्ही खा सकते हो, हम नहीं? तुम्हारा ही जी है, हमारा नहीं?’’
‘‘अच्छा-अच्छा। चुपकर।’’ दुकानदार ने आग्नेय नेत्रों से घूरा। उसका वश चलता तो वो उसे जलाकर भष्म कर देता। लेकिन घूरने मात्र से कोई भष्म होता है?
‘‘फिर देता काहे नहीं? मुंह काहे देखता है?’’
‘‘ये ले और दफ़ा हो।’’
जफ़र मिठाई का दोना ले, पैसे चुका आगे बढ़ गया। वो बड़बड़ाता जा रहा था। पीछे दुकानवाले ने जमीन पर गंदा थूकते हुए गाली दी, ‘‘साला! भिखारी की औलाद! पता नहीं कहां से आ जाते हैं, स्याले!’’
जफ़र भिखारी था। लेकिन कुछ वर्षों पहले ऐसा नहीं था। वो एक फर्म में ईमानदारी से काम करता था। एक दिन मशीन पर काम करते हुए उसका पैर फंस गया और उसकी एक टांग चली गई। एक टांग चले जाने से वो बेकार हो गया था। रही-सही कसर उसके एकलौते बेटे ने पूरी कर दी थी। वो उसे एक बच्ची का बाबा बनाकर चला गया था। बहुत तलाशने के बाद भी उसका कहीं पता नहीं चला था। लंगड़े हो जाने के कारण अब वो काम का नहीं रह गया था। किसी तरह टूटी-फूटी खोली में वो अपनी बाकी की जिन्दगी गुजार रहा था। टेंट का पैसा कब तक चलता। एक दिन सब खत्म हो गया। भीख मांगने की नौबत आ गई। मासूम सलमा के लिए वो भीख मांगने पर मजबूर हो गया था।
(3)
गली सुनसान थी। रात काफी बीत गई थी। गली में इक्का-दुक्का लोग आ-जा रहे थे। सब अपने-अपने घरों में दुबके हुए थे। आसमान में चांदनी छिटकी हुई थी। गली में कुछ आवारा कुत्ते किसी को आया देखकर भूंकने लगते थे और उसके पीछे-पीछे लग जाते थे जब तक कि वो अपनी खोली में घुस नहीं जाता था।
एक पैर पर झूमते हुए जफ़र एक टूटी-फूटी खोली के सामने आकर रुका। एक मरियल कुत्ता जीभ निकाले उसकी ओर देख रहा था। शायद पहचानने की कोशिश कर रहा था। झोपड़ी सर्दी, गर्मी, बरसात सहते-सहते टूट-फूट चुकी थी। जिसके कारण बरसात के दिनों में उसे कितनी मुसीबतों का सामना करना पड़ता था।
उसने दरवाजा धकेला तो दरवाजा चरमराकर खुला। दरवाजा भी किसी दिन स्वर्गवासी होने की तैयारी में था। सलमा एक टूटी खाट पर सोई हुई थी। अपने चेहरे को घुटने में दिए हुए। उसका शरीर रह-रहकर कांप रहा था। शरीर क्या था हड्डी का ढांचा मात्र था। बदन के कपड़े कई जगह से फटे हुए थे। मानों चिथड़े लिपटे हुए हों।
आवाज सुनकर सलमा चौंकी। फिर पहचानकर बोली, ‘‘बाबा!’’
जफ़र पास आकर बोला, ‘‘हां बिटिया, सो रही थी?’’
सलमा उठकर बैठ गयी। बोली, ‘‘हां बाबा, भूख लगी है।’’
जफ़र की आंखें गीली हो गईं। सलमा की पीठ पर हाथ फेरते हुए बोला, ‘‘भूख लगी है? ले देख, आज मैं तेरे लिए क्या लेकर आया हूं।’’
‘‘क्या लाए हो, बाबा ?’’ सलमा ने उत्सुकता से पूछा। उसकी आंखों में चमक थी।
जफ़र ने सारा सामान खाट पर फैला दिया। ढेर सारा सामान देखकर सलमा खुशी से चीख उठी। वो चहककर बोली, ‘‘गुलाब जामुन !’’ और झट से एक गुलाब जामुन उठाकर ‘गप्प’ से मुंह में डाल लिया। जफर भरभराकर हंस पड़ा। एक वेदनापूर्ण हंसी!
सलमा उठाकर जल्दी-जल्दी खाने लगी। जफ़र सलमा को खाते हुए देख रहा था। उसकी आंखों में आंसू थे। सलमा आज बहुत दिनों के बाद अच्छा खा रही थी। नहीं तो रोज वही नून-रोटी-प्याज या कभी फांका !
सलमा खाते हुए बोली, ‘‘तुम नहीं खाओगे, बाबा?
जफ़र सलमा के सिर पर हाथ फेरते हुए बोला, ‘‘पहले तू खा ले। फिर मैं खा लूंगा।’’
‘‘नहीं बाबा, तुम भी साथ में खाओ।’’ सलमा ने जिद की।
जफ़र चुपचाप खाने लगा। खाने के बाद सलमा ने कहा, ‘‘बाबा, गुलाब जामुन बहुत अच्छा था। खाना भी बहुत अच्छा था। क्या तुम रोज ही ऐसे लाओगे?’’ कहकर सलमा जफ़र की गोद में सिर रखकर लेट गई।
जफ़र क्या कहता? बोला, ‘‘हां बिटिया, रोज लाऊंगा।’’ उसके गाल पर आंसू थे। वो सलमा के बालों में ऊंगलियां फिरा रहा था।
‘‘बाबा!’’
‘‘हां, मेरी बच्ची?’’
‘‘वो परी और राक्षस वाली कहानी सुनाओ न?’’ सलमा ने बंद आंखों से कहा, ‘‘नहीं तो मुझे नींद कैसे आएगी?’’
जफ़र सुनाने लगा एक अंतहीन कहानी, जो कभी खत्म नहीं होती। वो सुनाने लगा एक परी की कहानी। जो सपनों के महल में रहती थी। जो बहुत सुन्दर है। उसकी सलमा की तरह। एक दिन जंगल में घूमते हुए उसे एक राक्षस उठा ले जाता है और एक राजकुमार आता है जो राक्षस को मारकर उसे बचा लेता है। रोज-रोज की वही कहानी। सलमा बोर होकर सो जाती है। बाबा से क्या कहे, वो जानती है बाबा को और कहानी नहीं आती।
सलमा सो गई। जफ़र उसके सुन्दर मुर्झाये चेहरे को देखता रहा। वो काफी देर तक सलमा के मासूम चेहरे को देखता रहा। फिर उठा और एक फटे चादर से उसे ढंक दिया। और उसके बगल में जाकर लेट गया। अपने-आप को सिकोड़कर। उसका शरीर धीरे-धीरे कांप रहा था।
कमरे में दिए की पीली रोशनी फैली हुई थी। जो कंपकंपा रही थी। शायद तेल खत्म होने वाला था। खोली में कुछ बर्तन बिखरे हुए थे। खोली के एक कोने मिट्टी का टूटा-फूटा चूल्हा था जो कई दिनों से वीरान पड़ा था। कुछ फटे, सूखे चिथड़े कपड़े लटक रहे थे।
यही जफ़र की कुल जमा-पूंजी थी।
(4)
जफ़र अपने पूर्व निर्धरित स्थान पर बैठ गया। आज उसने सलमा से वादा किया था कि वो उसके लिए गर्म कपड़े लेकर आएगा और साथ में खाने के लिए कोई अच्छी-सी चीज।
वो सड़क की ओर लोगों को आते-जाते देख रहा था। धीरे-धीरे भीड़ बढ़ रही थी। कुछ देर बाद वो जमीन में लेट गया और चिर-परिचित अंदाज में कराहने लगा। अब ये उसका रोज का नियम बन गया था। वो आता और जमीन में लेटकर लोटने-कराहने लगता। कभी एकाध दिन छोड़ देता। कभी बैठने का स्थान बदल देता तो कभी लोटने-कराहने का अंदाज़। ऐसे ही वो रोटी-कपड़े का इंतजाम कर रहा था। दूसरे भिखारी उसे देखकर कुढ़ते। शाम तक उसका यही क्रम चलता।
संध्या हो गई थी। जफ़र अपने गिरे पैसे बटोर रहा था। तभी एक भिखारी ने शोर मचाते हुए कहा, ‘‘अबे! भाग। पुलिस!’’
सबने हड़बड़ाकर देखा। फिर उठकर भागे। एक पुलिसवाले को देखकर जफ़र जल्दी-जल्दी अपने पैसे बटोरने लगा। पैसा बटोरकर वो लंगड़ते हुए भागा लेकिन भाग न सका। पुलिसवाला पास आ गया। वो उसे थामते हुए घुड़का, ‘‘अबे, भागता कहां है!’’
जफ़र का शरीर कांप उठा। वो घिघियाकर बोला, ‘‘छोड़ दीजिए, हुजूर। अब नहीं बैठूंगा।’’
‘‘रोज का धंधा बना लिया है, सालों। जानता नहीं यहां भीख मांगना मना है।’’ पुलिसवाले ने उसे घसीटते हुए कहा।
जफ़र मचल उठा। पुलिसवाला गर्ज़ा, ‘‘सड़क तेरे बाप की है, जो रोज बैठकर भीख मांगता है? चलता है या लगाऊं दो-चार ... स्याला!’’
जफ़र रो पड़ा। ‘‘लेकिन हुजूर, आज तक तो ऐसा ...’’
पुलिसवाले ने घुड़का, ‘‘जो आज तक नहीं हुआ क्या वो आगे नहीं हो सकता?’’
जफ़र ने बहुत कुछ कहना चाहा लेकिन कह न पाया। आंखों के सामने सलमा का चेहरा नाच उठा, ‘‘ल-लेकिन हुजूर, माई-बाप ...’’
‘‘बन्द कर दो साले को। रात भर अन्दर रहेगा तो ठीक हो जाएगा।’’ एक कठोर आवाज़ जफ़र के कानों में पड़ी। वो पांव पकड़कर घिघिया उठा, ‘‘मेहरबानी कीजिए, हुजूर। गरीब आदमी हूं। मर जाऊंगा। रहम कीजिए।’’
बेबसी के मारे जफ़र की आंखों से आंसू निकलने लगे। अब क्या होगा? सलमा का क्या होगा? वो तो रो-रोकर मर जाएगी? कोई है उसकी पुकार सुनने वाला? हाय रे मजबूरी? हाय रे लाचारी? उसकी आंखों के सामने अंधेरा छा गया। गला अवरुद्व हो गया। वो चीखना चाहता था लेकिन चीख नहीं पा रहा था। वो बस सिसककर रह गया।
जफ़र को कटघरे में लाकर बन्द कर दिया गया। वो दुहाई देता रहा। ‘‘दया कीजिए, हुजूर। मर जाऊंगा। मेरी एक नन्हीं-सी बिटिया है। वो घर में अकेली है। वो ठंड और भूख से मर जाएगी, हुजूर। दया कीजिए।’’
लेकिन उसकी आवाज किसी के कानों तक नहीं पहुंची। कौन सुनता? कुछ भी होता रहे, हो। कोई मरता है, मरे। जफ़र को कतार स्वर में रोते देखकर हवालदार को दया आई। बोला, ‘‘लगता है, बुढ्ढ़ा सच कह रहा है, साहब। उसे छोड़ दीजिए।’’
‘‘ढोंग करता है, स्याला! रात भर अन्दर रहेगा। सुधर जाएगा।’’ उसका वश चलता तो मार-मारकर चमड़ी उघड़ देता।
जफ़र रात भर रोता-कलपता रहा लेकिन उसकी फरियाद किसी ने नहीं सुनी।
(5)
जफ़र को पुलिस द्वारा ले जाते देखकर, भागते हुए भिखारी आपस में खुसुर-फुसुर करने लगे। कितनों के चेहरे पर दुःख तो कितनों के चेहरे पर खुशी थी।
‘‘चलो, बला छुटी!’’ उनमें से एक ने खुश होते हुए कहा तो सब उसकी ओर देखने लगे। एक बुजुर्ग ने कहा, ‘‘ऐसा नहीं कहते लच्छू। वो जैसा था, हमारा साथी था। उसे पुलिस ले गई, ये अच्छा नहीं हुआ।’’ उसके स्वर में सहानुभूति थी।
‘‘उसने तो हम लोगों का धंधा ही चौपट कर दिया था। सब उसे ही पैसा देते थे। और हम सब उसका मुंह देखते थे। ऊंह, साथी था। अच्छा हुआ उसे पुलिस पकड़कर ले गई।’’ लच्छू बुरा मुंह बनाते हुए बोला।
‘‘तो इसमें उसकी क्या गलती थी? वो अपने ढंग से भीख मांगता था। तुम भी तो अपने ढंग से भीख मांगते हो।’’ बुढ्ढे ने गुस्से से कह तो लच्छू चुप हो गया। फिर किसी ने कुछ नहीं कहा।
कुछ देर तक बहस होती रही। फिर सब अपने-अपने घर चले गये।
(6)
‘‘दयाराम।’’
‘‘जी हुजूर।’’
‘‘उसे रिहा कर दो। होश ठिकाने आ गए होंगे उसके!’’
‘‘हुजूर, वो तो कब का रिहा हो चुका है।’’ दयाराम के चेहरे पर दुःख और करुणा के भाव थे।
‘‘बिना पूछे उसे रिहा कर दिया?’’ वो गुस्से से बोला।
‘‘मैंने आज़ाद नहीं किया, हुजूर। वो स्वयं ही आज़ाद हो गया। वो मर गया, साहब।’’ दयाराम अफ़सोस भरे स्वर में बोला।
‘‘क्या? कैसे?’’ वो हड़बड़ाकर कुर्सी से उठा। उसकी आंखों में आश्चर्य था। चेहरे पर पसीने की बूंदे छलक आई थीं।
‘‘भूख के मारे!’’
‘‘क्या?’’ वो विस्मय से बोला, ‘‘भूख के मारे!’’
‘‘हां। भूख के मारे। वो रात भर रोता रहा। दुहाई देता रहा। रात भर बस यही कहता रहा कि मेरी बच्ची मर जाएगी। मेरी सलमा मर जाएगी। वो भूखी होगी। ठंड में कांपती होगी। वो रात भर यही कहता और रोता रहा।’’ दयाराम ने बताया। उसकी आंखों में आंसू थे। ‘‘जब मुझसे नहीं रह गया तो मैं उसके लिए खाना लेकर गया लेकिन ...’’
‘‘लेकिन क्या?’’
‘‘वो मर चुका था।’’
वो कांप रहा था। वो जफ़र की लाश को देखने लगा। जिसका शरीर अकड़ा हुआ था। जिसने ऊंगुलियों से अपने पेट को दबोचा हुआ था। जिसके चेहरे पर वेदना के लक्षण थे। गालों पर आंसुओं की लकीरें थीं।
उसकी आंखें धूमिल हो गईं। वो एकटक ठंडी, भूखी लाश को देख रहा था।
धीरज कुमार श्रीवास्तव
परिचय:
जन्मः 23 अक्टूबर 1976, प्रतापगढ़
भाषाः हिन्दी, अंग्रेजी
विद्याएँः कविता, कहानी, गज़ल, नज़्म, एकाँकी/नाटक, उपन्यास
शिक्षाः एम.ए.(दर्षन शास्त्र)
कृतियाँ:
साझा संग्रह:
1. कुछ फूल और भी हैं, मई 2001, हिन्दुस्तानी एकादमी, इलाहाबाद
2. काव्य स्पर्श, जुलाई 2019, निखिल प्रकाषन, आगरा
कहानी:
भिखारी (पुरस्कृत) अगस्त 2019, ई-कल्पना पत्रिका
रिक्षेवाले (सम्मनित) फरवरी 2020, ई-कल्पना पत्रिका
कविता संग्रह:
कुछ देखते हुए...कुछ बुनते हुए, दिसम्बर, 2019, बोधि प्रकाषन, जयपुर
ग़ज़ल संग्रह:
कुछ ख़्वाब कुछ तन्हाईयाँ, अक्टूबर, 2019, काव्या पब्लिकेषनस, नई दिल्ली
कविताएँ एवं कहानियाँ: हिन्दीसमय.काम, साहित्यकुंज.इन, ई-कल्पना, अमर उजाला में प्रकाषित
रेडियो प्ले:
1.गालिब की एक शाम (2018), इलाहाबाद आकाषवाणी से प्रसारित
2.बारिष में कविता (2019), इलाहाबाद आकाषवाणी से प्रसारित
संपर्क:
212/133/12ए, पीताम्बर नगर, तेलियरगंज, इलाहाबाद-211004
फोनः
09616222135
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