अभावों से जूझती मां चिड़िचड़ी हो आई थी। पापा की सूखी कमाई में हम पांच बच्चों को पालना सचमुच कठिन काम था। यदि दूध, किराना और कपड़े वाले से उधारी पर सामान न मिलता तो संभवत: घर चलाना दूभर हो जाता। हम भाई-बहनों की उम्र में एक-एक, दो-दो साल का ही अंतर था। मैं सबसे बड़ा था। दस वर्ष की उम्र में ही मुझे यह समझ आ गया था कि मां की निरंतर चलने वाली बड़बड़ का कारण कोई मानसिक बीमारी नहीं, तंगहाली है।
मां छोटी-छोटी बातों पर भी उग्र हो उठती थी। वह ऊंचे स्वर में पापा से कुछ कहती रहती और वे अकसर बिना कोई जवाब दिए चुपचाप सुनते रहते। ऐसे समय उनके सामने अखबार खुला होता या फिर वे कमरे के एक सिरे से दूसरे सिरे का चक्कर लगा रहे होते।
धीरे-धीरे मुझे यह पता चल गया था कि मां को एक ऐसे व्यक्ति के पल्ले बंध जाना पड़ा था, जिसे दुनियादारी की कोई समझ नहीं थी। भला यह भी कोई बात हुई कि अदालत जैसी जगह में पेशकार होते हुए भी वे सिर्फ सूखी तनख्वाह ही पत्नी के हाथ में लाकर रखते और घर चलाने की सारी जिम्मेदारी से स्वयं को मुक्त कर लेते। ऐसा नहीं था कि मां के मन में कोई मैल था। वह जब भी मूड में होती तो बड़े गर्व से बताती कि पति पूरी तनख्वाह उसे लाकर दे देते हैं और यदि कोई एरियर वगैरह मिलता है तो वह भी मां को ही सौंप देते हैं। पापा को किसी भी तरह का कोई व्यसन नहीं था। घर से दफ्तर और दफ्तर से घर, बस यही उनकी दिनचर्या का अंग था। पर, आखिर मां भी क्या करती, घर तो उसे ही चलाना पड़ता था। फिर, जब पापा से भी कम वेतन पाने वाले लोग साहबी ठाठ-वाट से रहते नजर आते तो उसके सब्र का बांध टूट जाता।
वैसे तो लगभग रोज ही मां का टेप चालू रहता था, पर उस दिन तो वह पापा पर जम कर बरस रही थी और वे थे कि हमेशा की तरह अखबार में मुंह गड़ाए बैठे थे।
मैंने अपनी तरफ से पूरी स्थिति समझने की कोशिश की तो पता चला कि शहर का सबसे बड़ा सेठ खुद चल कर घर आया था और कोई छोटा-मोटा काम कर देने के लिए पापा को हजारों रुपये दे रहा था। काम भी ऐसा जिसमें जोखिम न के बराबर था। बस ऑफिस की किसी फाइल के कुछ कागजात उसे दिखाने थे। पर, पापा ने उसकी बात को ठुकरा ही नहीं दिया, उसे तुरंत घर से चले जाने के लिए भी कहा था। आखिर, सेठ मायूस और अपमानित होकर चला गया था। मां की राय में पापा ने घर आई लक्ष्मी को लात मार दी थी और अपने बीबी बच्चों का कोई ख्याल नहीं रखा था।
जब मैंने अपनी अक्ल दौड़ाई तो इस नतीजे पर पहुंचा कि मां ही सही थी। अरे, जब हजारों रुपये आसानी से मिल रहे थे तो उन्होंने लिये क्यों नहीं? पापा चाहते ही नहीं थे कि हम भी पड़ोसियों की तरह आराम से रहें। क्या हम अपनी छोटी-छोटी इच्छाओं को पूरा करने की हसरत लिए ही जीने के लिए पैदा हुए थे? इस सब के लिए मुझे पापा ही जिम्मेदार लगे। अगर वे सेठ का जरा सा काम कर देते तो क्या बिगड़ जाता। हां, हजारों रुपये हमारे होते। पता नहीं, मां को सताने में उन्हें क्यों आनंद आता है? मुझे हमेशा की तरह मां पर दया आई और पापा पर गुस्सा।
समय को इस बात से क्या लेना-देना कि कोई कैसे जी रहा है। तेजी से दिन गुजरते गए और मेरे साथ-साथ मेरे भाई-बहन भी बड़े होते गए और साथ ही बढ़ती गईं हमारी जरूरतें। जब छोटी-छोटी जरूरतों को पूरा करने के लिए हमें तरसना पड़ता तो इसके लिए पापा ही दोषी नजर आते।
जैसे-तैसे मैंने बी.ए. किया और एक सरकारी कंपनी में क्लर्क लग गया। नौकरी लगते ही मैंने यह तय किया कि मुझे पापा जैसा नहीं बनना, पर चाह कर भी ऐसी सीट नहीं मिल पा रही थी जहां अच्छी ऊपरी कमाई का जुगाड़ हो सके। पर, जब भी कोई मौका मिलता, उसे बटोर लेने में मुझे कोई संकोच नहीं होता था।
उधर पापा के रिटायरमेंट में बहुत कम समय बचा था। दोनों बहनों की शादी की चिंता में मां सूखने लगी थी। दहेज के चक्कर में जब भी कोई अच्छा रिश्ता हाथ से फिसलता तो मां पापा पर बरस पड़ती और कहती – “मेरा कहा माना होता तो आज ये दिन न देखने पड़ते। ज़िंदगी भर क्या कमाया तुमने? अपना पेट तो जानवर भी जैसे-तैसे भर लेते हैं।“
मां इस स्थिति को ज्यादा दिन नहीं झेल पाई और एक दिन अचानक उसने हमेशा के लिए आंखें मूंद लीं। इस हादसे ने हम सभी को हिला कर रख दिया था। उनकी मौत के लिए मुझे सीधे तौर पर पापा ही जिम्मेदार लगे थे। क्या दिया था उनकी ईमानदारी और बेकार के सिद्धांतों ने हमें? हम सभी को अभाव, बहनों की शादी में बाधा और मां को असमय मौत। बस यही न? मेरा निश्चय और भी दृढ़ हो गया कि मैं कभी पापा जैसा नहीं बनूंगा।
संयोग से मेरा तबादला दूसरे शहर में हो गया और मुझे वैसी सीट भी मिल गई जिसका मुझे बेताबी से इंतजार था।
नए शहर में गए हुए मुझे थोड़ा ही समय हुआ था कि एक दिन चपरासी ने आकर बताया कि बाहर सड़क पर खड़ी कार में बैठे कोई बड़े साहब मुझे पूछ रहे हैं। पता नहीं कौन होंगे, यह सोचते हुए मैं जब वहां पहुंचा तो यह देख कर आश्चर्यचकित रह गया कि मेरे शहर के जिला एवं सत्र न्यायाधीश, जो मेरे पापा के बॉस थे, कार में बैठे हुए थे।
मैं कुछ समझ पाता कि उन्होंने बताया एक सप्ताह पूर्व ही वे इस शहर में स्थानांतरित होकर आए हैं। पापा ने उन्हें मुझसे संपर्क करने के लिए कहा था क्योंकि उन्हें हमारे ऑफिस में जमा अपने दस हजार रुपये निकलवाने थे। उन्होंने जब इस काम में मेरी मदद मांगी तो मैंने कहा कि मैं इस बारे में पता लगाकर एक-दो दिन में उनसे मिलता हूं। मुझे धन्यवाद देकर वे चले गए।
मैं दूसरे दिन ही जज साहब को जानकारी देने पहुंच गया। उस समय अदालत लगी हुई थी और वकील बहस कर रहे थे। मैं यह सोच कर दर्शकों के लिए लगाई गई कुर्सियों की ओर बढ़ा कि अदालत की चल रही कार्रवाई समाप्त होते ही उनसे मिल लूंगा।
तभी जज साहब की नजर मुझ पर पड़ी और उन्होंने तुरंत मुझे अपने पास चले आने का इशारा किया। जब मैं वहां पहुंचा तो वकीलों ने बहस रोक दी और मेरे जाने का इंतजार करने लगे। मैंने जज साहब को बताया कि जमा रुपये लेने के लिए उन्हें सादे कागज पर आवेदन देना होगा।
चूंकि अदालत की कार्रवाई रुकी हुई थी, इसलिए जज साहब ने एक कोरा कागज उठाया और उस पर दस्तखत करके मुझे देते हुए कहा – “जो कुछ लिखना है, तुम लिख लेना। मेरे लिए यह कष्ट कर सकते हो ना?”
मैंने कहा – “क्यों शर्मिंदा करते हैं सर, यह छोटा सा काम है, कभी कोई बड़ा काम हो तो जरूर बताइये।“ मैं वह कागज लेकर जाने के लिए मुड़ा ही था कि बहस करने वाले वकीलों में से वरिष्ठ से दिखने वाले एक वकील ने मुझे वहीं रुकने का इशारा किया। मैं ही नहीं, जज साहब सहित अन्य लोग भी उनकी ओर प्रश्नभरी निगाहों से देखने लगे।
वकील ने नाटकीय अंदाज में कहा – “माफ कीजिए योर ऑनर, आपने इस बच्चे को अभी-अभी कोरे कागज पर दस्तखत करके दिए हैं। आपके दस्तखत की कीमत क्या है, यह आपको भी पता है। इस पर कुछ भी लिखा जा सकता है, किसी की फांसी का आदेश भी। क्या आपने यह ठीक किया है?”
वकील के कहने के अंदाज से लग रहा था कि वह यह मुद्दा मजाक के तौर पर ही उठा रहा था, पर बात तो ठीक कह रहा था। मैं ठगा सा खड़ा रह गया और अदालत में मौजूद सभी लोगों की निगाहें जज साहब पर टिक गईं।
यंत्रवत मेरे हाथ वह कागज लौटाने के लिए उठे। पर, जज साहब ने हाथ के संकेत से मुझे रोक दिया और उस वकील से कहा – “बजरंगी लाल जी आप बिलकुल सही कह रहे हैं। लेकिन, मैं जानता हूं कि अगर आपको यह पता होता कि जिसे मैंने बेहिचक कोरे कागज पर हस्ताक्षर करके दे दिए हैं, वह किसका बेटा है तो आप ऐसा मजाक में भी नहीं कहते। इसके पिताजी ने मेरे साथ वर्षों काम किया है। आज तक मैंने उनके जैसा ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ और भरोसेमंद आदमी नहीं देखा। मुझे अच्छी तरह पता है कि उन्हें कोई लालच कभी अपने ईमान से डिगा नहीं पाया। ईमानदारी की ऐसी जीती-जागती मिसाल का खून है यह। जिसे बचपन से ईमानदारी के संस्कार मिले हों, उस पर भरोसा न करने का कोई कारण नहीं है मेरे पास।“
फिर उन्होंने मेरी ओर मुड़ कर कहा – “बेटा, तुम्हारे पिताजी चारों ओर बिखरे कीचड़ में कमल के समान हैं। उनके आदर्शों को कभी नहीं छोड़ना।“
जज साहब की बातों ने मुझे झकझोर कर रख दिया था। अनजाने में मेरी आंखों से आंसू निकल कर मेरे गालों तक लुढ़क आए। मैंने अपने-आपकों संभाला और उन्हें नमस्कार करके दरवाजे की ओर चल दिया। दरवाजे तक जाते-जाते जिस किसी के भी पास से गुजरा वह या तो उठ कर खड़ा हो गया या फिर उसने मेरी पीठ पर अपना स्नेहभरा हाथ रख दिया।
मैंने सोचा, काश आज मां होती तो देखती कि जिंदगी भर उसके पति ने क्या कमाया। शायद इतना कि उसकी झोली छोटी पड़ जाती। जितना ही पापा मेरी नजरों में ऊपर उठ गए थे, उतना ही मैं खुद की नजरों से नीचे गिर गया था।
अपने ऑफिस तक आते-आते मैंने यह संकल्प ले लिया था कि मैं पापा की जीवन भर की पूंजी को यों ही नहीं लुटने दूंगा। मैं पापा जैसा ही बनने की कोशिश करूंगा।
लेखक डॉ रमाकांत शर्मा – परिचय
- शिक्षा – एम.ए. अर्थशास्त्र, एम.कॉम, एलएल.बी, सीएआइआइबी, पीएच.डी(कॉमर्स)
- पिछले लगभग 40 वर्ष से लेखन कार्य से जुड़े
- लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां, व्यंग्य, कविताएं, अनुवाद आदि प्रकाशित
- प्रकाशित कहानी संग्रह –
1.नया लिहाफ
2.अचानक कुछ नहीं होता
3.भीतर दबा सच
4. सूरत का कॉफी हाउस और अन्य अनमोल कहानियां (अनूदित कहानी संग्रह)
5. कबूतर और कौए (व्यंग्य संग्रह)
- विश्व की कई श्रेष्ठ कहानियों का हिंदी में अनुवाद
- रेडियो (मुंबई) पर नियमित रूप से कहानियों का प्रसारण
- यू.के. कथा कासा कहानी प्रतियोगिता प्रथम पुरस्कार
- महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी प्रथम पुरस्कार
- कमलेश्वर स्मृति कहानी पुरस्कार
- अखिल भारतीय स्तर पर अन्य कई कहानियां पुरस्कृत
- बैंकिंग विषयों पर हिंदी में संदर्भ साहित्य सृजित करने के लिए महामहिम राष्ट्रपति जी के हाथों पुरस्कृत
- बैंकिंग और उससे संबंधित विषयों पर हिंदी में प्रकाशित पुस्तकें -वित्तीय समावेशन
-व्यावसायिक संप्रेषण (सीएआइआइबी के पाठ्यक्रम में शामिल) -बैंकिंग-विविध आयाम
-प्रबंधन–विविध आयाम -इस्लामी बैंकिंग और वित्त व्यवस्था -कार्ड बैंकिंग
- बैंकिंग, प्रबंधन आदि विषयों पर प्रोफेशनल पत्र-पत्रिकाओं में लेखों का नियमित प्रकाशन
- बैंकिंग/अर्थशास्त्र/अभिप्रेरण और राजभाषा आदि विषयों पर बैंकों तथा सरकारी एवं गैर-सरकारी शिक्षण/प्रशिक्षण संस्थानों में व्याख्यान
- जेजेटी विश्वविद्यालय, राजस्थान में पीएच.डी (वाणिज्य) के गाइड/सुपरवाइज़र के रूप में पंजीकृत
- भारतीय रिज़र्व बैंक से जनरल मैनेजर के रूप में सेवानिवृत्ति के बाद स्वतंत्र लेखन
- संपर्क – 402 – श्रीराम निवास, टट्टा निवासी हाउसिंग सोसायटी, पेस्तम सागर रोड नं. 3, चेंबूर, मुंबई -400089 मोबाइल 9833443274 ईमेल – rks.mun@gmail.com/
.
मर्मस्पर्शी कहानी। सरल भाषा एवं सहज कथन। लेखक का अभिनंदन।
काश आजकल भी ऐसी संवेदनशीलता देखने को मिलती।