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भैरवी

डॉ रमाकांत शर्मा




जब वह साथ होती है तो लगता है, मैं हवा में उड़ रहा हूं। मेरा यह अहसास जब शब्दों में ढलने लगता है तो वह हंस देती है, कहती है, “ज्यादा हवा में मत उड़ो. जमीन पर उतर आओ”।

“आ जाओ ना, साथ-साथ उड़ते हैं”, मैं कहता हूं।

“बिलकुल नहीं, पता नहीं तुम उड़ाकर कहां ले जाओ।“

“बस, दूर कहीं सुरम्य घाटियों में ले चलूंगा जहां तुम्हारे और मेरे सिवाय और कोई न हो”।

“अब तो तुम सचमुच हवा में उड़ने लगे। तुम्हारे साथ मैं किसी निर्जन जगह में क्यों जाने लगी?”

“तुम्हें नहीं लगता, ऐसी जगह हो जहां हमारे अलावा कोई न हो और तुम सारी दुनिया भूलकर मेरी बांहों में आ समाओ .....”।

“धत, पागल हुए हो? ऐसा सोचना भी मत”।

“क्यों गलत क्या है इसमें, ऐसे माहौल में दो प्यार करने वाले, एक-दूसरे में समा जाने को आतुर नहीं हो उठेंगे क्या?”

“बेकार की बातें रहने दो, मेरे लिए इसकी कल्पना भी असंभव है”।

“ऐसा क्या कह दिया मैंने?”

“बस भी करो“, वह उठ खड़ी हुई है।

“रुको ना, और थोड़ी देर यहीं बैठते हैं। किनारे से टकराती समुद्र की लहरें और वह डुबकी लगाने के लिए आतुर सूरज शाम को कितना खुशनुमां और रोमांटिक बना रहे है”।

“फिर वही बात? कितनी बार कहूं, मुझे ऐसी बातें अच्छी नहीं लगतीं”।

“मतलब, तुम मुझसे प्यार नहीं करतीं?”

“करती हूं बाबा, पर जब तुम मेरे प्यार को समझने में गलती करने लगते हो तो मैं.....”।

“ओ.के. चलो जाने देते हैं। बचाकर रखो खुद को”।

“अब चलते भी हो या मैं जाऊं?”

“अच्छा बाबा, मेरा हाथ पकड़कर उठाओ तो सही”।

मैं उसके हाथ के स्पर्श को तन-मन में सहेजते हुए उठ खड़ा होता हूं। अब वह मेरे साथ चल रही है, मैंने धीरे से उसके कंधे पर हाथ रख दिया है, उसने आंखें तरेर कर मुझे देखा है और फिर कंधे से मेरा हाथ झटक दिया है। मैं खिसियाया सा आसपास नजर डालता हूं। कमर में हाथ डाले और मस्ती में भरे जोड़ों को देखता हूं तो मेरे दिमाग की नसें तन जाती हैं।

कभी-कभी सोचता हूं, ऐसी लड़की के साथ अपना समय क्यों बरबाद कर रहा हूं। पर जब भी भीतर बैठे पशु को हटाकर देखता हूं तो यह महसूस करने लगता हूं कि वह कोई ऐसी-वैसी लड़की नहीं है। वह मुझे चाहती है और मैं उसे। कभी ख्यालों में उसे अपनी ज़िंदगी से बाहर करके देखता हूं तो मन घबरा जाता है, उसके बिना ज़िंदगी का अर्थ ही क्या रह जाएगा? शायद मैं, मैं ही ना रहूं। दीपक की लौ की तरह चमकीली, गीले बादलों में उगे इंद्रधनुष सी और अपने दामन में गंगा की पवित्रता समेटे बहने वाली उस शालीन लड़की की अन्य लड़कियों से तुलना करना बेमानी लगने लगता है।

पर, दिल है कि मानता नहीं। आज भी वह मेरे साथ है। आज हम समुद्र की रेत पर चक्कर लगा रहे हैं। लहरें आती हैं और हमारे पैरों को छूकर चली जाती हैं। मैंने उससे कहा है, “चलो, समुद्र में साथ-साथ नहाते हैं। वह बिदक गई है, “ऐसी बातें करोगे तो मैं अभी चली जाऊंगी”।

“ऐसी? कैसी बातें?”

“ज्यादा भोले बनने की जरूरत नहीं है। मैं सब समझती हूं तुम्हारे इरादे”।

“कौनसा गलत इरादा किया है ......? देखो, कितने जोड़े इन सुनहरी शीतल लहरों का आनंद ले रहे हैं”।

“तो कोई वैसी लड़की चुन लो”।

“नाराज हो गई हो, मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा। ज़िंदगी में रोमांस नहीं होना चाहिए क्या? फिर, जब हम एक-दूसरे से प्यार करते हैं तो फिर थोड़े से रोमांस में बुराई क्या है?”

“ठीक है, तुम्हारा हाथ पकड़कर इस गीली रेत पर चल सकती हूं। नाराज तो नहीं हो ना?”

‘नाराजगी की कोई बात नहीं है। तुम्हें प्यार करता हूं, तुम्हारा साथ चाहता हूं, तुम्हें महसूस करना चाहता हूं........”।

“साथ तो हूं तुम्हारे। सबसे छुपकर तुमसे मिलने चली आती हूं, पर मैं अपनी आत्मा को धोखा नहीं दे सकती, बस”।

“मुझसे भी ज्यादा इंतजार होता नहीं। चलो, शादी कर लेते हैं”।

वह चुप रही तो मैंने फिर दोहराया, “शादी करना चाहता हूं तुमसे। इसमें तो कुछ बुरा नहीं। अपनी आत्मा को धोखा देने के लिए नहीं कह रहा हूं तुमसे”।

“कैसे बताऊं तुम्हें.....मेरे पापा ने बचपन में ही अपने दोस्त के बेटे से मेरी शादी तय कर दी है। आजकल घर में यही बात होती रहती है कि अब मैं शादी लायक हो गई हूं, शादी हो जानी चाहिए मेरी”।

“ओह, यह तो तुमने मुझे कभी बताया नहीं, मैं वैसे ही इतने सारे सपने सजाए बैठा हूं”।

“मैंने अपनी मां को बताया था कि मैं किसी और से प्यार करती हूं और उससे शादी करना चाहती हूं। बस, घर में कोहराम मच गया। सच कहूं, मैं चाहकर भी तुम्हारे साथ ज़िंदगी नहीं बिता पाऊंगी”।

उसकी आंखों में मोती झलक आए। उसकी बात सुनकर मैं स्तब्ध हूं। ऐसा लग रहा है जैसे किसी ने पहाड़ की चोटी से मुझे धक्का दे दिया है। मैं बड़ी मुश्किल से बोल पाया हूं, “मैं बात करूं तुम्हारे घरवालों से?”

“कोई फायदा नहीं। पापा ने जुबान दे रखी है और फिर वह लड़का हर तरह से लायक है। मैं चाहकर भी उसमें कोई कमी नहीं निकाल सकी। इज्ज़तदार घरबार है और लड़का डाक्टर है”।

“एक बात पूछूं तुमसे?”

“हां पूछो”।

“क्या इसीलिए तुम मुझसे अलग-अलग रहती आई हो। किसी और के लिए संभाल कर रखा है खुद को?”

“नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। तुम्हारा साथ मुझे अच्छा लगता है। पर, अपने शरीर को खिलवाड़ बनाने का मन नहीं करता मेरा”।

मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा है। उसे लेकर मेरे मन में जो उम्मीदें बंध गई थीं, वे औंधे मुंह गिर चुकी हैं। वह कह रही है, “मैं तुम्हें कभी नहीं भूलूंगी। इसी शहर में रहूंगी और  मिलती रहूंगी”।

मैं कुछ सोच-समझ पाता उससे पहले ही उसकी शादी हो गई। ऐसा लगा जैसे एक दिन में पूरी दुनिया ही बदल गई हो।

मैं इस सबसे उबरने की कोशिश कर ही रहा था कि उस दिन वह समुद्र के उसी किनारे पर अपने पति के साथ घूमती हुई मिल गई। मेरी तो जैसे सांसें ही थम गईं। मैं बचकर निकलने ही वाला था कि उसने आवाज देकर मुझे रोक लिया और अपने पति से परिचय कराते हुए कहा, “अविनाश, ये हैं मयंक। हम एक ही कॉलेज में पढ़े हैं”।

अविनाश ने मुझसे हाथ मिलाते हुए कहा, “मयंक जी, बहुत खुशी हुई आपसे मिलकर। हम घूमते-घूमते थक गए हैं, आइये वहां सामने बेंच पर बैठकर बात करते हैं”।

“नहीं, नहीं मियां बीवी के बीच में कबाब की हड्डी क्यों बनूं मैं“, मैंने अपने अंदर हो रही उथल-पुथल को संभालते हुए कहा।

“ऐसी कोई बात नहीं है, हमारी शादी को दो महीने गुजर चुके हैं”, अविनाश ने हंसकर कहा और मेरा हाथ पकड़कर बेंच की तरफ बढ़ गया।

हम तीनों बेंच पर बैठ गए। मैं खुद को बहुत अजनबी पा रहा हूं। लेकिन, अविनाश की जिंदादिली ने कुछ ही क्षणों में मेरे संकोच को खत्म कर दिया है। हमारी बातों में वह भी हिस्सा लेने लगी है तो मुझे अच्छा लग रहा है।

अविनाश बहुत जहीन और सुलझा हुआ लगा। हम कब पुराने दोस्तों की तरह बातें करने लगे, पता ही नहीं चला। चलते समय उसने कहा, “हमारे घर आइये, हमें बहुत अच्छा लगेगा, क्यों प्रिया?”

प्रिया ने हां में अपनी गर्दन हिला दी तो वह हंसकर बोला, “अब तो आपको आना ही पड़ेगा, कब आ रहे हैं हमारे घर? परसों छुट्टी है, आ जाइये, लंच पर। कोई बहाना नहीं चलेगा”।

उनके घर जाते समय मैं बहुत संकोच से भरा हूं और बहुत घबराहट हो रही है। कहीं मुझसे या फिर प्रिया से कोई ऐसी भूल न हो जाए कि अविनाश को हमारे रिश्ते की भनक लग जाए और सबकुछ चूर-चूर हो जाए। मैं उनके घर पहुंच गया हूं। जो कुछ सोच रहा था, वैसा कुछ नहीं हुआ है। उनके साथ समय बहुत अच्छा गुजर रहा है। मुझे खुद पर आश्चर्य है कि हम दोनों अच्छे दोस्त की तरह व्यवहार कर रहे हैं, बस।

अविनाश से बहुत अच्छी दोस्ती हो गई है। वह डाक्टर है, व्यस्त रहता है, पर जब भी फुर्सत होती है, मुझे लंच पर या डिनर पर बुला लेता है। उनके साथ समय बिताना मुझे अच्छा लगता है। सबसे बड़ी खुशी इस बात की है कि प्रिया और मेरे बीच का वह कोमल भावनाओं वाला रिश्ता अब सचमुच दोस्ती में बदल गया है। सच कहूं तो अविनाश के खुले व्यवहार ने और विश्वास ने हमें सहज बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है।

आज रविवार है। सुबह ही सुबह अविनाश का फोन आया है, “क्या कर रहे हो भाई?”

“कुछ नहीं, अभी थोड़ी देर पहले उठा हूं”।

“गुड, ऐसा करो तुरंत निकल आओ, आज चाय-नाश्ता साथ करते हैं”।

“कोई खास बात?”

“हां, है तो खास ही। आ जाओ, फिर बात करते हैं”।

अविनाश बहुत खुश नजर आ रहा है। उसने चाय का कप पकड़ाते हुए कहा है – “पूछोगे नहीं, खास बात क्या है?”

“वही तो जानना चाहता हूं, सच कहूं तो बहुत उत्सुक हूं...”।

“चलो बता ही देता हूं, हम पेरेंट्स बनने वाले हैं”।

“अरे वाह, यह तो सचमुच बहुत खास बात है। बधाई दोनों को”। मैंने देखा, प्रिया ने नजरें झुका ली हैं और शर्म से उसके गाल लाल हो उठे हैं।

प्रिया की देखभाल के लिए अविनाश की मां आ गई है, इसलिए उनके घर मेरा आना-जाना  कम हो चला है। फिर भी, महीने में एकाध चक्कर लग ही जाता है।

अविनाश ने ही मुझे फोन पर यह खुशखबरी दी कि उनके बेटा हुआ है। खुशी की बात थी, उनकी खुशी में मैं भी खुद को खुश पा रहा था। लेकिन, यह खुशी ज्यादा दिन कायम नहीं रह सकी। दो-तीन महीने में ही स्पष्ट हो गया कि बच्चा नार्मल नहीं है। प्रिया का बुरा हाल है। वह बहुत दु:खी है और हमेशा परेशान रहती है। परेशान तो अविनाश भी है। उसके हंसी-ठहाके न जाने कहां गायब हो गए हैं। वह खुद डाक्टर है। उसने हर वो उपाय करके देख लिया है जो विशेषज्ञ डाक्टरों ने बताया, पर जरा भी लाभ नहीं हुआ।

डाक्टरों के सारे प्रयासों की असफलता देखकर जहां अविनाश हतोत्साहित हो चला है, वहीं प्रिया हर उस टोने-टोटके को आजमाने में लगी है जो उसे कहीं से भी मालूम पड़ जाता है। ऐसा कोई सा भी उपाय वह नहीं छोड़ना चाहती, जिसके बारे में उसे पता चला हो। वह हर देवी-देवता के दर पर जाकर अपने बच्चे के अच्छा होने की भीख मांग चुकी है। यहां तक कि वह मजारों पर चादर भी चढ़ा आई है। पर, कोई लाभ नहीं मिला है।

मैं जब कभी उनके घर जाता हूं तो वहां का माहौल देखकर बड़ा अजीब सा लगता है। बच्चा दिनोंदिन बड़ा होता जा रहा है और उसकी एबनार्मिलिटी खुलकर सामने आ रही है। मैं वहां पहले की तरह ज्यादा देर बैठ नहीं पाता। अविनाश और प्रिया की हालत देखकर मेरा मन  खिन्न हो जाता है। मैंने कई बार बहुत मन से उस ऊपर वाले से प्रार्थना की है कि वह उनके बच्चे को अच्छा कर दे। पर, काश ऐसा हो पाता।

आज बहुत दिन बाद मैं उनके घर आया हूं। अविनाश बहुत परेशान और उद्विग्न नजर आ रहा है। मेरे बार-बार पूछने पर उसने बताया है, “मयंक भाई, मैं डाक्टर हूं और अच्छी तरह जानता हूं कि इस तरह की जन्मजात कमियां दूर नहीं होतीं। प्रिया को भी समझा-समझाकर हार गया हूं, ईश्वर ने जो हमें दिया है, उसे स्वीकार कर लेने के अलावा हमारे पास और कोई चारा नहीं है।, पर, वह इस बात को समझती ही नहीं। उसने हर तरह के नुस्खे आजमा लिये हैं। पर, अब........”।

“पर अब, क्या?”

“किसी ने उसे एक तांत्रिक से मिलवाया है। तांत्रिक का कहना है कि वह विशेष तांत्रिक क्रिया करके सबकुछ ठीक कर देगा। प्रिया समझ नहीं रही है, वह किस गोरखधंधे में फंस जाना चाहती है”।

“यह भी करके देख लेने दो उसे......”.।

“क्या देख लेने दूं उसे, वह इस तांत्रिक क्रिया में भैरवी बनने को तैयार है”।

“क्या कह रहे हो तुम......भैरवी? उसे मालूम है, भैरवी क्या होती है, तांत्रिक क्रिया में भैरवी की क्या भूमिका होती है?”

“मालूम नहीं, उसे कितना पता है। वह अपने बच्चे के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है। मैं तो उसे समझा-समझाकर हार गया हूं। तुम उसके पुराने मित्र हो, उसे समझाओ यार”।

मुझे प्रिया से पूरी सहानुभूति है, पता नहीं किस तांत्रिक के चक्कर में पड़ गई है। वास्तविक तांत्रिक ऐसे ही पड़े हुए नहीं मिल जाते। बहुत लंबी और कठोर साधना के बाद कोई सच्चा तांत्रिक बनता है। ये गली-मोहल्लों में पाए जाने वाले तथाकथित तांत्रिक मजबूर लोगों का कैसा आर्थिक और शारीरिक शोषण करते हैं, इसकी खबरें आए दिन अखबारों में पढ़ने को मिलती रहती हैं। प्रिया मेरा पहला प्यार है। मैंने तय किया है कि मैं उसे समझाने का प्रयास करूंगा।

मैं उनके घर आया हुआ हूं। हम तीनों ड्राइंग रूम में बैठे हैं। अविनाश मुझे इशारा करके  जानबूझकर वहां से उठकर चला गया है। मैंने सिर झुकाए बैठी प्रिया से कहा है, “मैं यह क्या सुन रहा रहा हूं, तुम किसी तांत्रिक से पूजा करवाने जा रही हो?”

“इसमें बुरा क्या है? अगर कोई तांत्रिक अपनी शक्तियों से मेरे बच्चे को अच्छा कर सकता है तो मैं इसके लिए तैयार हूं”।

“भैरवी बनने के लिए भी?”

“मैं अपने बच्चे के लिए कुछ भी कर सकती हूं”।

“तुम्हें पता है, भैरवी क्या होती है?”

“हां, उसे तांत्रिक के साथ कुछ क्रियाएं करनी होती हैं”।

“तुम्हें पता है, वह तांत्रिक सच्चा साधक है?”

“हां, मैं उससे कई बार मिली हूं, उसका दावा है कि कुछ विशेष तांत्रिक क्रियाओं से वह मेरे बच्चे को बिलकुल ठीक कर देगा। बस, मुझे उन क्रियाओं में भैरवी बन कर उसका साथ देना होगा”।

“सुनना चाहोगी भैरवी कैसे साथ देती है उसका?”

“मैंने कहा ना बस मेरा बच्चा ठीक हो जाए, मैं उसके लिए कुछ भी करने को तैयार हूं”।

“पता नहीं, उसने तुम्हें क्या बताया है और क्या छुपाया है.....”।

“मतलब क्या है तुम्हारा? क्या तुम नहीं चाहते कि मेरा बच्चा सामान्य ज़िंदगी जिए?”

‘क्यों नहीं चाहूंगा, इससे बड़ी खुशी मेरे लिए और क्या होगी? पर, मेरा फर्ज बनता है कि अगर कोई तुम्हें अंधे कुंए की ओर धकेल रहा हो तो तुम्हें रोकूं”।

“क्या कहना चाहते हो साफ-साफ कहो”।

“सुनो, यह साधना स्त्री-पुरुष की आपसी सहमति से की जाती है। जहां तक मैंने पढ़ा है, इसमें साधक-साधिका एक-दूसरे को भैरव-भैरवी के रूप में संकल्पित करके विशिष्ट विधि से पूजा करते हैं। किसी एकांत में भैरवी का अंकन सिंदूर, आटा, रक्त-चंदन से करके उसकी पूजा करने के बाद प्रतिदिन महाकाल रात्रि में एक-दूसरे को गोद में बैठाकर मानसिक एकाग्रता के साथ मंत्रों का जाप किया जाता है। ऐसी साधना में रति-क्रीड़ा भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। क्या तुम इसके लिए तैयार हो? फिर क्या तुम्हें सच्चा साधक मिल गया है? क्या तुम विश्वासपूर्वक कह सकती हो कि तुम किसी के फरेब में नहीं आ रहीं? एक सच्चा तांत्रिक बनना जितना कठिन है, उससे भी ज्यादा कठिन है सच्चा साधक मिलना। फिर क्या गारंटी है कि इस सबके बावजूद तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो जाए?”

वह विस्फारित नेत्रों से मुझे देखने लगी। फिर बोली, “तुम्हें पता है कोई सच्चा साधक, मुझे ले चलो उसके पास। बस मेरा बच्चा ठीक हो जाए”।

मैं हैरानी से भर उठा हूं। मतलब साफ है कि अगर किसी सच्चे साधक से उसे मिला दिया जाए तो वह यह सबकुछ जानने के बाद भी भैरवी बनने के लिए तैयार है। मैं बड़ी मुश्किल से बोल पाया हूं, “तुम वही हो ना जो मुझे, अपने प्रेमी को भी अपने शरीर से दूर रखती रहीं? तुम वही हो ना जो कहती थीं, अपने शरीर को खिलवाड़ बनाने का मन नहीं करता मेरा”।

वह दोनों हाथों में मुंह छुपाकर फूट-फूट कर रोने लगी है, “हां, मैं वही हूं। बस चाहती हूं, कैसे भी मेरा बच्चा ठीक हो जाए। मैं उसे ऐसे नहीं देख सकती”।

उसके रोने की आवाज सुनकर अविनाश भागता हुआ आ पहुंचा है। उसने प्रश्नभरी नजरों से मुझे देखा है। मैंने उसे चुप रहने का इशारा किया है। मेरे उस इशारे में आश्वस्ति कम, चिंता ज्यादा भरी है। प्रिया उठकर अंदर चली गई है। वहां और बैठे रहना मेरे लिए असह्य हो गया है, मैं भी अविनाश से इज़ाजत लेकर चला आया हूं।।

आज अविनाश का फोन आते ही कपड़े पहनता हुआ मैं तुरंत बाहर आ गया हूं। मुझे बहुत घबराहट हो रही है। पता नहीं, रात में उस बच्चे के अचानक चले जाने के बाद प्रिया किस हाल में होगी। सचमुच प्रिया का रो-रो कर बुरा हाल है। डाक्टर अविनाश ने खुद को संभाला हुआ है। बच्चों के लिए मां के वात्सल्य की गहराई के बारे में सुना तो बहुत था, पर जो कुछ सामने था, उसे देखकर विस्मित हूं। मेरे जेहन में अचानक मेरी मां का चेहरा तैरने लगा है। वह मेरे छुटपन में ही भगवान के पास चली गई। मैं सोच रहा हूं, काश मेरी मां मेरे पास होती और मैं उसके वात्सल्य की गहराइयों के तल में गोते लगा रहा होता।


 

लेखक परिचय डॉ रमाकांत शर्मा


मेरे बारे में


मेरा जन्म 10 मई 1950 को भरतपुर, राजस्थान में हुआ था. लेकिन, पिताजी की सर्विस के कारण बचपन अलवर में गुजरा. घर में पढ़ने पढ़ाने का महौल था. मेरी दादी को पढ़ने का इतना शौक था कि वे दिन में दो-दो किताबें/पत्रिकाएं खत्म कर देती थीं. इस शौक के कारण उन्हें इतनी कहानियां याद थीं कि वे हर बार हमें नई कहानियां सुनातीं. उन्हीं से मुझे पढ़ने का चस्का लगा. बहुत छोटी उम्र में ही मैंने प्रेमचंद, शरत चंद्र आदि का साहित्य पढ़ डाला था. पिताजी भी सरकारी नौकरी की व्यस्तता में से समय निकाल कर कहानी, कविता, गज़ल, आदि लिखते रहते थे.


​ग्यारह वर्ष की उम्र में मैंने पहली कहानी घर का अखबार लिखी जो उस समय की बच्चों की सबसे लोकप्रिय पत्रिका पराग में छपी. इसने मुझे मेरे अंदर के लेखक से परिचय कराया. बहुत समय तक मैं बच्चों के लिए लिखता और छपता रहा. लेकिन, कुछ घटनाओं और बातों ने अंदर तक इस प्रकार छुआ कि मैं बड़ों के लिए लिखी जाने वाली कहानियों जैसा कुछ लिखने लगा. पत्र-पत्रिकाओं में वे छपीं और कुछ पुरस्कार भी मिले तो लिखने का उत्साह बना रहा. महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी का भी पुरस्कार मिला. कहानियां लिखने का यह सिलसिला जारी है. अब तक दो कहानी संग्रह – नया लिहाफा और अचानक कुछ नहीं होता प्रकाशित हो चुके हैं. तीसरा संग्रह भीतर दबा सच प्रकाशनाधीन है. कहानियां लिखने के अलावा व्यंग्य लेख और कविताएं भी लिखता रहता हूं.


हर कोई अपने-अपने तरीके से अपने मन की बात करता है, अपने अनुभवों, अपने सुख-दु:ख को बांटता है. कहानी इसके लिए सशक्त माध्यम है. रोजमर्रा की कोई भी बात जो दिल को छू जाती है, कहानी बन जाती है. मेरा यह मानना है कि जब तक कोई कहानी आपके दिल को नहीं छूती और मानवीय संवेदनाएं नहीं जगा पाती, उसका आकार लेना निरर्थक हो जाता है. जब कोई मेरी कहानी पढ़कर मुझे सिर्फ यह बताने के लिए फोन करता है या अपना कीमती समय निकाल कर ढ़ूंढ़ता हुआ मिलने चला आता है कि कहानी ने उसे भीतर तक छुआ है तो मुझे आत्मिक संतुष्टि मिलती है. यही बात मुझे और लिखने के लिए प्रेरणा देती है और आगे भी देती रहेगी.


नौकरी के नौ वर्ष जयपुर में और 31 वर्ष मुंबई में निकले. भारतीय रिज़र्व बैंक, केंद्रीय कार्यालय, मुंबई से महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति के बाद अब मैं पूरी तरह से लेखन के प्रति समर्पित हूं.


ई-मेल – rks.mun@gmail.com


मोबाइल 9833443274




लेखक डॉ. रमाकांत शर्मा का साहित्यिक परिचय




- शिक्षा – एम.ए. अर्थशास्त्र, एम.कॉम, एलएल.बी, सीएआइआइबी, पीएच.डी(कॉमर्स)


- पिछले लगभग 45 वर्ष से लेखन


- लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित


कहानी संग्रह – नया लिहाफ, अचानक कुछ नहीं होता, भीतर दबा सच, डा. रमाकांत शर्मा की चयनित कहानियां, तुम सही हो लक्ष्मी, सूरत का कॉफी हाउस(अनूदित कहानियां)


व्यंग्य संग्रह – कबूतर और कौए


उपन्यास - मिशन सिफर, छूटा हुआ कुछ


अन्य -  रेडियो (मुंबई) पर नियमित रूप से कहानियों का प्रसारण, यू.के. कथा कासा कहानी प्रतियोगिता प्रथम पुरस्कार, महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी से सम्मानित, कमलेश्वर स्मृति कहानी पुरस्कार (दो बार), अखिल भारतीय स्तर पर अन्य कई कहानियां पुरस्कृत, कई कहानियों का मराठी, गुजराती, तेलुगु और उड़िया में अनुवाद


 संप्रति - भारतीय रिज़र्व बैंक, मुंबई से महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति के बाद स्वतंत्र लेखन


 संपर्क - मोबाइल-919833443274


 ईमेल – rks.mun@gmail.com


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डा. के. वी. नरसिंह राव
Feb 06
Rated 5 out of 5 stars.

डा. रमाकांत शर्मा जी की सद्यप्रकाशित `भैरवी' एक विशिष्ट कहानी है।

कोमल और मधुर भावनाओं से युक्त रोमानी माहौल में भी अपने अजीज दोस्त के पास अपने शरीर को खिलवाड़ बनने से बचानेवाली प्रिया शादी के बाद अपनी संतान को बचाने के लिए मातृप्रेम में पागलपन की हद तक गई है और तांत्रिक साधना में भैरवी बनकर शारीरिक समर्पण तक के लिए राजी हो गई  है। पर यह अस्वाभाविक कदम कुदरत को मंजूर नहीं रहा है जिससे तमाम कोशिशों के बावजूद उसे अंततः अपने बेटे को खोना पड़ा है। अंधे प्रेम से नहीं, बल्कि इस पढ़ी-लिखी लड़की को सोच-समझकर होश से काम लेना चाहिए था। बहरहाल, ऐसी असामान्य स्थिति को दर्शानेवाली यह कहानी पाठक को सोचने के लिए विवश करती…

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