गंगा ने मालती की चोटी पकड़ी और उसका सिर खंभे से दे मारा। मालती भी कोई महलों में पली - बड़ी डरपोक लड़की नहीं थी। उसने भी खंभे से झूलता बिजली का तार खींच कर, गंगा के मुँह पर दे मारा। गंगा ने ऐसी मोटी गाली दी की चारों तरफ के घरों के पल्ले झट से खुल गए और पूरे के पूरे परिवार खिड़की से गर्दन निकाल कर झाँकने लगे। चौराहे के पान वाले ने तेज़ी से, सुबह - सुबह के पान लगाना चालू किया। तो, मालती पर गंगा की मोटी गाली का कोई असर नहीं दिख रहा था। वह वैसे ही ज़ोर – जोर से हँसती रही। इससे मोटी गाली तो मालती की माँ ही उसे हर सुबह दे दिया करती थी।
गंगा का गुस्सा और चढ़ा। उसने कचरा बीनने वाला कट्टा मालती के सिर पर दे मारा। इस बार मालती हँसी नहीं, बल्कि कराहने लगी। कान के ऊपर कनपट्टी से खून की नन्ही - नन्ही बूँदें झलकने लगीं। कट्टे में ज़रूर कोई लोहे की चीज़ थी। दो - तीन घरो में से हाय राम, हाय राम की आवाजें आईं फिर मालती की आँखों के आगे से जब अंधेरा छटा तो वो कूद कर गंगा पर चढ़ बैठी । दोनों कचरे के ढेर पर धड़ाम से जा गिरीं। मालती ने गंगा के मुंह में कचरा घुसेड़ दिया। तो गंगा ने नाखुनों से मालती की भोहें नोच डालीं। दोनों ऐसी गुत्थम – गुत्थी हो रखी थीं कि चौराहे पर भीड़ बढ़ने लगी। दोनों कभी चौराहे के मंदिर की, नाली में लोटतीं तो कभी सड़क के बिल्कुल बीचों - बीच आ जातीं । बालों के खिंच कर टूटने का दर्द भीड़ के चेहरों पर महसूस किया जा सकता था। ऐसा भीषण युद्ध देख कर भीड़ चिल्लाने लगी – अरे ! कोई रोको। ये क्या तमाशा है ? कोई चिल्लाता – अरे, बच्ची मर जाएगी। किसी ने कहा - पुलिस को बुला लो। भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। चारों तरफ से गाड़ियों के हॉर्न बजने लगे। जनता गाड़ियों के बोनट पर चढ़ कर देखने लगी।
इतनी देर में गंगा और मालती के कपड़े तार - तार हो गए। दोनों के शरीर के अंग कपड़ों के बाहर झाँकने लगे। पुजारी जी की आँखें फटी की फटी रह गईं । बोले - क्या ज़माना आ गया है। एक औरत की गोद में बैठा बच्चा रोने लगा तो उसकी माँ ने उसे झापड़ रसीद किया और गोद से नीचे उतार दिया। बोली चुप - चाप घर जा, मैं थोड़ी देर यही रुक कर आऊँगी।
बूढ़ी अम्मा फिर चिल्लाई अरे ! कोई छुड़ाओ इनको। पान वाले के पान झपा - झप बिकने लगे। एक पान मैंने भी लिया। बड़ा दुख हो रहा था दो गरीब लड़कियों को इस कदर लड़ते देख। भीड़ में चिल्लम - चिल्ली होती रही – अरे, कोई रोको ! कोई छुड़ाओ, देखो खून बह रहा है, अरे सिर फट जाएगा, मर - वर न जाये। नौकरी पेशा आदमियों के पैर कसमसाते रहे। दफ़्तर के लिए देरी हो रही है पर दो भिखारन लड़कियों को ऐसे लड़ता देख कैसे छोड़ जाएँ ? ये मर्दानगी के खिलाफ है।
खैर... ये तमाशा लगभग बीस मिनट तक चला। गंगा सड़क पर अधमरी पड़ी थी और मालती उसकी छाती पर बैठी हुई थी। आख़िरकार मालती ने गंगा का मुँह तोड़ने के लिए एक बड़ा मोटा पत्थर अपने दोनों हाथों से ऊँचा उठाया। मालती के हाथ एक पल के लिए हवा में ही रुके। फिर पत्थर के साथ - साथ तमाम भीड़ की साँसें भी रुकीं। एक क्षण के लिए सब कुछ रुक गया। सबकी नज़रें मालती पर टिकी हुई थीं।
पिक्चर का क्लाईमैक्स अब नज़दीक था। मालती ने भी गर्दन घुमा कर सभी दर्शकों को देखा। अचानक मालती के चेहरे के हाव - भाव बदल गए। फिर कुछ सोच के उसने खींच कर पत्थर मारा। गंगा पर नही, वहाँ खड़ी भीड़ पर। वो गंगा की छाती से नीचे उतरी। गंगा को सहारा दिया। फिर दोनों घिसटती हुई मंदिर की गली से ओझल हो गईं।
चौराहे पर कुछ देर शांति रही। मैंने पान वाले को पान लगाने का इशारा किया। पान वाले ने उदासी से पान पकड़ाते हुए कहा - मज़ा नहीं आया। मैंने भी ‘हाँ’ में सिर हिलाया फिर एक असंतुष्ट भाव के साथ, भीड़, धीरे - धीरे छँटती गई ।
लेखक - अनुरंजन शर्मा
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